हम जीवात्मा द्वारा गर्भ पिंड में प्रवेश करने से लेकर बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था से मृत्युअवस्था पर पहुँचने तक भाग्य नौ मार्गों से आकर उपस्थित होता है और उसे अपने अदृश्य, अगोचर कर्म-बंधनों में कैसे और कितने प्रकार से बांध लेता है, इसका वह जीवात्मा एहसास भी नहीं कर पाती है और यह भाग्य ही हमें पूर्व निर्धारित कर्मों को करने के लिए प्रेरित करता रहता है। विडंबना यह है कि मनुष्य अपने जन्म-जन्मांतरों के संचित कर्मों को ही भाग्य के रूप में भोगता है और परेशान होने पर दोष भगवान के सिर मढ़ता है। हम कह सकते हैं कि मनुष्य एक नहीं बल्कि नौ प्रकार के भाग्य लेकर जन्म लेता है और यही भाग्य उसके जीवन की उन्नति-अवनति तय करते हैं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मनुष्य के नौ भाग्य होते हैं, जिनका कारक नौ ग्रह होते हैं- पहलास्वयं के कर्मशनिदूसरावंश के कर्मद्धपितृ पक्षऋराहुतीसरामातृ के कर्मचंद्रचौथापितृ कमर्रविपांचवपत्नी कर्मशुक्रछठासन्तित कर्मगुरूसातवांबाह्य देवबुधआठवांगृह देवमंगलनौवांवंज के कर्मद्धमातृ पक्षऋकेतु
पहला भाग्य- जीवात्मा ने पिछले जन्म में कितने शुभ-अशुभ कर्म किये और उनका हमें कितना शुभ-अशुभफल इस जन्म में भोगना है या भोग रहे हैं, इसका निर्धारण हमारी जन्म पत्रिका में शनि की शुभ-अशुभ स्थिति करती है। यानी जीवात्मा अर्थात् मनुष्य के प्रथम भाग्य का नियंत्रण शनि के हाथ में है। शनि की कृपा प्राप्त करने के लिये सत्कर्म ही करें, क्योंकि हमारे सत्कर्म ही हमें भाग्यशाली बनायेंगे।
दूसरा भाग्य- वर्तमान जन्म में यह जीवात्मा मनुष्य जिस वंश में जन्म पाती है, उस वंश में हमारे परदादा, दादा, पिता आदि पूर्वजों द्वारा किये गये कर्मों का फल भी भोगना पड़ता हैं। द्वितीय भाग्य का नियंत्रण राहु के हाथ में है। राहु की कृपा पाने को दादा-दादी, पूर्वजों को सम्मान दें।
तीसरा भाग्य- माँ के पूर्व जन्मों के कर्म-दोषों से संतान को कष्ट का योग होने पर उसका भाग्योदय नहीं हो पाता है। माँ के पूर्व कर्मानुसार सुख भोग का योग है, तो संतान का भाग्योदय होता है। तृतीय भाग्य का नियत्रंण चंद्रमा के हाथ में है। चंद्रमा की कृपा पाने के लिये माँ को सम्मान दें और उनकी सेवा करें।
चौथा भाग्य- जो माप दंड तृतीय भाग्य में माँ के सम्बन्ध में हैं, वे ही माप दंड पिता के बारे में हैं। इस भाग्य का नियंत्रण सूर्य के हाथ में हैं। सूर्य की कृपा प्राप्ति के लिये पिता को सम्मान दें और उनकी सेवा करें।
पांचवा भाग्य- पूर्व जन्म में यदि किसी स्त्री या पत्नी को कष्ट दिया है, तो इस जन्म में पत्नी से कष्ट होगा। यदि पूर्व जन्म में उचित सम्मान दिया है, तो विवाह होते ही भाग्य उदय हो जायेगा। इस भाग्य का नियंत्रण शुक्र के हाथ में है। इसलिये शुक्र की कृपा और उसके प्रति समर्पित रहें।
छठा भाग्य- मनुष्य संसार में रहते हुये यहीं की स्थिति और जरूरत के अनुसार सब कुछ करता है। वह खूब धन कमाता है। उसके बल, बुद्धि और पराक्रम से समाज प्रभावित होता है। कई बार घर में संतान विशेष के गर्भ में आने से ही परिवार के अच्छे दिन शुरू हो जाते हैं और कई बार घर का पतन शुरू हो जाता है। छठे भाग्य का नियंत्रण गुरू के हाथ में है। गुरू की कृपा पाने के लिये संतान को संस्कारी बनायें।
सातवां भाग्य- संगति के प्रभाव से विवेकी, सज्जन व्यक्ति का भी पतन हो जाता है, जबकि निठल्ला व्यक्ति भी अच्छे लोगों की संगति में आकर उन्नति प्राप्त कर लेता है। ऐसे भाग्य को हम संगति भाग्य कहते हैं। इस भाग्य का नियंत्रण बुध के हाथ में है। बुध की कृपा प्राप्ति के लिये अच्छी संगति में रहें और दोस्तों को कभी धोखा न दें।
आठवां भाग्य- जिस घर में परिवार रहता है उस भूति अथवा घर के अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही भाग्य का प्रभाव रहवासी पर पड़ता है। इस भाग्य का नियंत्रण मंगल के हाथ में है। मंगल की कृपा पाने को घर को शुद्ध रखें। उसे विध्वंसक और षड़यंत्रकारी गतिविधियों से दूर रखें। अपनी मातृ भूमि और कर्म भूमि के लिये कृतज्ञ रहें।
नौवां भाग्य- जो मापदंड द्वितीय भाग्य में दादा-परदादा के सम्बन्ध में है वे ही मापदंड नाना, परनाना आदि के बारे में हैं। इस भाग्य का नियंत्रण केतु के भाग्य में है। केतु की कृपा प्राप्त करने के लिए अपने ननिहाल पक्ष के पूर्वजों नाना-परनाना को सम्मान दें। सतकर्म ही हमारी सफलता और मोक्ष का मूल है और आध्यात्मिक ज्योतिष का यही सूत्र है-
सत्कर्मेण हन्यते व्याधि। सत्कर्मेण हन्यते ग्रहा।।
सत्कर्मेण हन्यते शत्रु यतो सत्कर्म स्तुतो जयः।।
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