महाकाल्य रूपं सहितं सदैवं क्रोधोन्मतां पूर्ण सदैव रूपं,
सर्वो सतां पूर्ण मदेव तुल्यं एकोपि सूर्य भगवान सदैवं
यह श्लोक भगवान कृष्ण के मुख से निकला एक श्लोक है और भगवान वे सभी व्यक्ति हैं जो साधनाओं में सिद्धि प्राप्त करते हैं। मैं कृष्ण को भगवान मानता हूँ, आप भी मानें। मगर भगवान का तात्पर्य यह है जिसमें पूर्ण ज्ञान और चेतना है वह भगवान है। क्योंकि ब्रह्म मेरे अंदर है तो यह ईश्वर है और अगर है ही नहीं तो राक्षस है। अगर दोनों ही नहीं है तो हम मनुष्य है, सामान्य जीव है जो विचरण करते हैं और मर जाते हैं।
इस श्लोक के माध्यम से मैं भगवान कृष्ण का उपदेश दे रहा हूँ और भगवान कृष्ण की व्याख्या कर रहा हूँ कि उनका व्यक्तित्व क्या था, क्यों वे भगवान कहलाये। जितना दुःख उन्होंने देखा उतना तो आपने देखा ही नहीं। उनको जीवन में सुख जैसी चीज मिली ही नहीं। वे जल में पैदा हुये, पिता वासुदेव एवम् देवकी के गर्भ से पैदा हुए और जिनके यहां पैदा हुए उनके साथ वे चार घण्टे भी नहीं रह सके। नंद-यशोदा के यहाँ रहे, अपने माता-पिता के पास रह ही नहीं सके। जब वे केवल चार घंटे के थे तो उनको उठाकर वासुदेव ने यशोदा के घर पहुंचा दिया। माँ का सुख क्या होता है, पिता का क्या सुख होता है उन्होंने देखा ही नहीं। बिना मां-बाप का पुत्र कैसा होता है वह भगवान कृष्ण के रूप में आप देख लें और जेल में पैदा हुये। इससे बड़ा दुःख तो कोई और हो सकता नहीं कि मां-बाप बेडि़यों में जकड़े हुए हो, चारों तरफ शत्रु हों। वहाँ वे पैदा हुये और यशोदा के घर में जब वे छः महीने के बालक थे तो पूतना ने आकर उन्हें मारने के लिये प्रयोग किया कि किसी तरह इसे समाप्त कर दें और दूध में जहर मिलाकर समाप्त करने का प्रयत्न किया केवल छः महीने के बालक को। वह जिंदा रह गये तो बकासुर आया, बकासुर आया कई राक्षस आये, कालिया नाग आया और प्रत्येक ने एक ही काम किया कि इस व्यक्ति को मिटा देना है, समाप्त कर देना है। और उसके बाद मथुरा गये तो जरासंध ने प्रयत्न किया कि इसको समाप्त कर देना है, जिंदा रखना ही नहीं है इसको क्योंकि यह व्यक्ति कुछ ऐसा है जो बहुत ताकतवान है, क्षमतावान है, एक व्यक्ति अठ्ठारह अक्षौणी सेना के बराबर है।
इस श्लोक में यही बताया कि सूर्य एक ही बहुत है। भगवान कृष्ण के जीवन में इतने दुःख थे मगर वे उनसे परास्त नहीं हुए। उन्होंने एक बस, निश्यय कर लिया कि मुझे अपने जीवन में कुछ ऐसा करके जाना है कि आने वाली पीढि़यां मुझे याद रख सकें। ऐसा किया उन्होंने। कृष्ण हमारी तुम्हारी तरह ही था मगर उसने कहा कि मैं कुछ ऐसा ग्रंथ लिखूंगा कि आने वाली पीढि़यां याद रखेगी। चाहे एक ग्रंथ ही लिखूंगा और गीता जैसा ग्रंथ अपने आप में अद्वितीय है। यों तो घेरण्ड संहिता भी है, अष्टावक्र गीताये तो सैकड़ों लोगों ने लिखी हैं। गीता का मतलब है जिसको बहुत अच्छी तरह से गा सकें।
। गीयते सः गीता ।
जिसको बहुत अच्छी तरह गा सकें, पढ़ सकें, वह गीता है। गीता पूर्ण रूप से गेयं है, उसको गाने पर जो पूर्ण रूप से आनन्द आता है वह अपने आप मे अंदर उतर जाता है। हमने गीता को पढ़ा है गाया नहीं है और गीता का अर्थ है गायन। गीता कृष्ण ने लिखी, अष्टावक्र ने लिखी, घेरण्ड ने लिखी। कम से कम पचास ऋषियों ने गीताये लिखीं, कोई एक ऋषि ने ही गीता नहीं लिखी और सब में एक सुंदर व्याख्या की गई है। गीता में कर्मयोग की व्याख्या है, कि कर्म करते रहना चाहिये और जो कुछ बनें अद्वितीय बनें। एक ही उद्देश्य है कृष्ण का कि कौरव पांडव लड़े तो लड़े, मुझे अपने जीवन में सफलता पानी है। यहां मथुरा में काम नहीं चल रहा है तो द्वारका जाकर बस जाऊंगा। मगर करूंगा वह जो अपने आप में अद्वितीय होगा।
श्री कृष्ण सांदीपन आश्रम में गये, क्यों गये सांदीपन आश्रम में? क्या बीच में कोई ऋषि मुनि नहीं थे। गुरू वहां मिलेंगे जहां ज्ञान होगा। जहां गुरू पूर्ण तंत्र की व्याख्या करके समझाये, वह ज्ञान होगा। ऐसा ही ज्ञान मैं आपको दे रहा हूँ जो आपने पहली बार सुना होगा। आप अपनी पिछली पांच पीढि़यों से जाकर पूछ लीजिये या कोई ग्रंथ लाकर दिखा दीजिये कि गुरूजी जो प्रयोग आपने कराया वह इसमें लिखा हुआ है। मैं तैयार हूँ और सांदीपन आश्रम में जाकर कृष्ण ने गुरू को प्रणाम किया और कहा- मैं यदु कुल का एक बालक हूँ और आपके पास केवल ज्ञान के लिये आया हूँ और ऐसा ज्ञान चाहता हूँ जो अपने आप में अत्यंत विलक्षण हो। ऐसा ज्ञान चाहता हूँ जिसकी कोई कीमत नहीं लगा सकें, जिसकी तुलना नहीं हो, जो अमूल्य हो।
सांदीपन ऋषि उस समय के उच्चकोटि के ज्ञाता थे तंत्र के भी, मंत्र के भी, योग के भी, दर्शन के भी, मीमांसा के भी। ऋषि तो उस समय और भी बहुत थे। आप देखें तो, रघु के गुरू भी वशिष्ठ थे और राम के गुरू भी वशिष्ठ थे। एक गुरू इतनी पीढि़यां देख सका जबकि और राजा मरते गये क्योंकि उनके पास तपस्या का अंश था ताकत थी, क्षमता थी।
कृष्ण ने सांदीपन से कहा- मैं कुछ बनना चाहता हूँ, जीवन में होना चाहता हूँ, ऐसा ज्ञान मुझे चाहिये। ऐसा घिसा पिटा जीवन जीने में कोई तथ्य नहीं है। ऐसा जीवन मैं चाहता ही नहीं हूँ। गुरू सांदीपन ने कहा- अवश्य ज्ञान दूंगा, तुमने मांगा है और इतनी दूर से आये हो और तुम सीखना ही चाहते हो तो मैं सिखाऊंगा। मगर अभी तो तुम जंगल में जाओ और लकडि़यां काटकर लाओ। राजा का बेटा, राजा के घर पैदा हुआ और जंगल में लकडि़यां काटने जा रहा है। आप कल्पना कीजिये।
मगर कृष्ण ने कहा- मुझे कुछ बनना है मैं बनूंगा तो अद्वितीय बनूंगा। लकडि़यां तो एक दिन क्या दस साल कटायेंगे तो भी काटूंगा, गाय चराने भेजेंगे तो गाय चराने जाऊंगा। यह इतिहास तो आपके सामने है। मैं बता रहा हूँ कि कृष्ण का चरित्र इतना सरल नहीं है। आपने तो बस गा लिया-
मैया मैं नहीं माखन खायो
भोर भयो गइन के पीछे,
मधुबन मोही पठायो।
मैया मैं नहीं माखन खायो।
और आप खुश हो गये की भगवान कृष्ण बहुत प्रेम करते थे, मस्ती करते थे, आनन्द ही आनन्द है। आप उस व्यक्ति के चरित्र को देखिये कि कैसे एक-एक पग को खून और पसीने से सींच कर, कैसे उस जगह पहुँचा है जहाँ हम उनको स्मरण करते हैं और उससे लकडि़याँ कटवाकर गुरू देखना चाहता है कि उसमें ताकत और क्षमता क्या है, गुरू में कितनी श्रद्धा और विश्वास है। मैं अगर आपको शिष्यों को तीन दिन की साधना देता हूँ कि चारों ओर दीपक ही दीपक जलाकर साधना में बैठना है तो मैं देखना चाहता हूँ कि क्या आप इतनी आंच में बैठ सकते हैं। वह पंचाग्नि तप कहलायेगा। आंच होगी तो तेजस्विता आयेगी, उन दीपकों से आंच पैदा होगी, उस आंच के अंदर आप पक सकते हैं या नहीं मुझे यह देखना है। जलना नहीं है, मगर आपका शरीर पूरे कुंदन के समान तप्त होना है, सोने के समान चमकने वाला बनना चाहिये। इसलिये गुरू ऐसा विधान दे सकता है। कृष्ण ने लकडि़यां काटी, गाये चराई, आश्रम में रोज झाडू निकाला और स्वयं अपने हाथ से खाना बनाकर के सांदीपन और उनकी पत्नी को खिलाया क्योंकि उन्होंने निश्चय किया था कि मुझे कुछ प्राप्त करना है और उन्होंने कई प्रकार की तंत्र विद्या सीखी, कई मंत्र विद्याये सीखी, योग सीखा और जो सांदीपन के पास था वह सबकुछ सीखा। आप तो मेरे पास आते है भागलपुर से, बिहार से रेल में मगर कृष्ण इतनी दूर से पैदल चलकर गुरू के पास पहुँचा क्योंकि उस समय ट्रेन और बसे नहीं थीं। मगर एक अदम्य लालसा थी कि वह ज्ञान प्राप्त करूं जो हमारे ऋषियों की धरोहर है, जो अद्वितीय है। और उसने सांदीपन से कहा कि वह ज्ञान दीजिये की मैं आकाश गमन करना चाहूं तो आकाश गमन कर सकूं, जल गमन करना चाहूं तो जल गमन कर सकूं और ताकत, क्षमता ऐसी आ सके कि आने वाली हजार पीढि़यां मुझे स्मरण रख सकें, मैं हूँ तो जीवन है, बस मैं इतना ही चाहता हूँ आप से। आप मुझे कितना ही कष्ट दे वह मैं भोगने के लिये तैयार हूँ । एक ही उद्देश्य, एक ही लक्ष्य है मेरा, उस लक्ष्य को ही प्राप्त करना चाहता हूँ।
जब कृष्ण ज्ञान प्राप्त करके मथुरा आये वापस तो देखा कि शत्रु ही शत्रु हैं। जरासंध और सारे शत्रु सब का एक ही चिंतन कि किसी प्रकार इस व्यक्ति का वध हो जाये। उन्होंने अपने आपको हर समय सचेत रखा और उसके बाद मजबूरी में कृष्ण को मथुरा को छोड़ना पड़ा। यदि वह प्रेमी होता और प्रेम में ही पागल होता तो वृंदावन चला जाता। मथुरा और वृंदावन में छः किलोमीटर की दूरी है। मगर जीवन का यह उद्देश्य नहीं था जीवन का लक्ष्य एक था कि मैं हूं तो मैं हूं बाकी कोई नहीं आ सकता। कोई भी व्यक्ति मेरे जीवन में काम नहीं आ सकता। या तो मुझ में खुद पौरूष होगा तो काम आयेगा और दूसरा कोई मेरे जीवन में सहायक नहीं बन सकता।
कृष्ण मथुरा से निकलकर द्वारका चले गये और द्वारका जाकर उन आदिवासीयों के बीच राज्य स्थापित किया। आप उनके कष्टों को देखिये और महाभारत युद्ध हुआ तो एक तरफ केवल पांच पांडव, एक तरफ अठ्ठारह अक्षौणी सेना कौरव, दुर्यौधन, दुश्शासन, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा और सभी का एक ही चिंतन कि किस प्रकार इन पांडवों को समाप्त करें। मगर कृष्ण वहां भी युक्ति से खड़े हुये उनके बीच में और उन्होंने कहा- मैं इन पांडवों के साथ हूँ सत्य के साथ हूँ, मगर मैं स्वयं कोई शस्त्र नहीं उठाऊंगा।
कृष्ण के पास वह ज्ञान था जो सांदीपन ने दिया, सांदीपन ने उन्हें महाकाल साधना दी कि मैं तुम्हें ऐसा बनाना चाहता हूँ कि कोई तुम्हारा कुछ अहित कर ही नहीं सकता, संभव ही नहीं है, मृत्यु तो बहुत दूर की बात हैं। महाकाल से महाकाली बनी है जिसको हम याद करते हैं और काल का मतलब है कि पूर्व जीवन, वर्तमान जीवन और आगे का जीवन देख लें। और कृष्ण ने देख लिया कि इस प्रकार पांडवों को विजय मिल जायेगी। मुझे इन्हें सफलता देनी है।
अगर आप भी ऐसी क्षमता प्राप्त कर लें और अपना पिछला जीवन देख लें तो आपको बड़ा आश्चर्य होगा कि आप वहां फंस गये हैं, आपका जीवन कैसे दुःखी और दरिद्र हो गया है। आपका जीवन तो बहुत शानदार था, कैसे उलझनों में फंस गया। इस गुरू के साथ सन्यासी जीवन में था, यहां कहां फंस गया हूँ और आप रह नहीं पायेंगे यहां एक क्षण भी अपने घर में रह नहीं पायेंगे। और वह द्विय शक्ति भी गुरू आपको दे सकता है, मैं आपको दे सकता हूँ और वह साधना भी करा सकता हूँ जिसके माध्यम से वह संभव हो सके, आप पीछे का सब देख सकें। वह बड़ी ही तेजस्वी साधना थी जो कृष्ण को सांदीपन ने सम्पन्न कराई और अठ्ठारह दिन तक युद्ध हुआ भारत पाकिस्तान का युद्ध तो केवल चार दिन हुआ और हजारों लोग मर गये। वह अठ्ठारह दिन तक युद्ध हुआ और उस युद्ध में इतने कोलाहल में जहां तलवार, तीर, भाले चल रहे हो उसके बीच कृष्ण ने अर्जुन को रथ पर खड़े करके उसे ज्ञान का, गीता का उपदेश दिया। कृष्ण ने अर्जुन से कहा- तू कर्मवीर बन, कायर मत बन, बुजदिल मत बन। तू कुछ नहीं कर सकेगा बुजदिल बन कर, जिंदगी बर्बाद हो जायेगी तेरी, तू कर्मठ बन, मैं तेरे साथ रथ पर खड़ा हूँ तेरा सारथी बन कर, मैं तेरा मित्र हूँ मैं तुम्हें विजय दिला दूंगा। मुझे मालूम है, उस महाकाल को धकेला कैसे जा सकता है? इतना दूर धकेलुंगा कि महाकाल पांच मील दूर गिर जाये वह क्षमता मुझमें है। वह साधना मैं कर चुका हूँ।
उधर दुर्यौधन और दुःशासन ने सोचा कि कृष्ण अकेला करेगा भी क्या? कृष्ण ने यह प्रतिज्ञा भी कर ली कि मैं शस्त्र नहीं उठाऊंगा। कृष्ण ने कहा- मेरा जीवन क्षमतावान बनना चाहिये, मैं पौरूषवान बनूं, हर हालत में बनूं। युद्ध हो रहा है तो हो, युद्ध की चिंता नहीं है। जीवन उनका संघर्षपूर्ण था। मगर वह उस संघर्ष में विचलित नहीं हुआ। कोई उसके लिये यह आवश्यक नहीं कि एकांत कमरा होना चाहिये, गुलाब के फूल खिले होने चाहिये सामने कलम होनी चाहिये, दवात होनी चाहिये। उस कोलाहल में भी उसके अंदर से जो कुछ भी निकला पूर्ण ज्ञानमय निकला और वह गीता अपने आप में ‘‘महाकाल ज्ञान गीता’’ कहलाई। आप उसे भगवद् गीता कहते हैं, मैं कहता हूँ कि वह महाकाल गीता है। जैसा मैंने पहले कहां एक नहीं पचास प्रकार की गीता है। आपने केवल एक गीता का नाम सुना है। अष्टावक्र ने जो गीता लिखी वह इस गीता से तो करोड़ गुना अच्छी, यम ने जो गीता लिखी है वह भी इससे करोड़ गुना अच्छी गीता है। यह गीता भी अपने आप में ऊंची गीता है क्योंकि इसमें कर्मयोग की व्याख्या के साथ-साथ महाकाल का विवेचन है। इसलिये महाकाल गीता इसका नाम है।
महाकाली जिसे दुर्गा कहते हैं इसी महाकाल से निकली शक्ति है और काली की साधना करने से काल ज्ञान प्राप्त हो सकता है। रामकृष्ण परमहंस ने काली की साधना की तो वह अद्वितीय योगी बन गया। जिस-जिस ने भी यह साधना की वह अद्वितीय बन गया और उससे भी उच्चकोटि की साधना महाकाल साधना है। महाकाल का मतलब है कि मृत्यु हमारे पैरों के नीचे रौंधी जाये। मृत्यु या काल हमारे नीचे हो, काल को हम देख सकें कि कहाँ सफलता मिल सकती है, मैं जीवन में किस क्षेत्र में बढूं। आप जीवन में यह क्षमता प्राप्त करें और जीवन में बढ़े, अपने परिवार के साथ बढ़ें। मैं कोई आपको परिवार छोड़ने की सलाह नहीं दे रहा हूँ अपने व्यापार के साथ बढ़ें, अपनी नौकरी के साथ बढ़ें, मगर आप बढ़ें जरूर, बनें तो अद्वितीय बनें, ऐसे बने की मरने के हजार वर्ष बाद भी आपका नाम रहे, आपका नाम मिटे नहीं और मिट गया तो जीवन भी क्या हुआ आपका? फिर मैं पैदा ही क्यों हुआ और मैं गुरू बनकर आपके बीच आया ही क्यों, फिर फायदा भी क्या हुआ मेरा। इतना चीखने, चिल्लाने या बोलने से लाभ भी क्या हुआ? मैं इसलिये प्रवचन नहीं कर रहा हूँ कि आपको कोई भाषण दूं।
मैं तो आपको कह रहा हूँ कि आपको वह चीज प्राप्त हो जिससे आप कृष्ण के समान अद्वितीय युग पुरूष बन सकें। वह कृष्ण तो इतने दुःख झेलने के बाद, इतने कष्ट झेलने के बाद भी बचपन से या जन्म से लगाकर के उस महाभारत के युद्ध तक भी अडिग खड़े रहे, उसने उन पांच लोगों को जितवा दिया, अठ्ठारह अक्षौणी सेना के भी विरूद्ध अठ्ठारह लाख लोगों के सामने पांच लोगों को जितवा दिया। इसलिये जितवा दिया क्योंकि उनके पास वह साधना थी महाकाल की। जिसको आप सुदर्शन चक्र कहते हैं वह महाकाल चक्र है। आपने उसका नाम सुदर्शन चक्र रख दिया। सुदर्शन का अर्थ है बहुत सुंदर दिखने वाला, वह घूमते हुए बहुत सुंदर दिखाई देता है इसलिये उसे सुदर्शन कह दिया। मूल रूप से वह महाकाल चक्र है जो अपने आप किसी भी शत्रु को समाप्त कर सकें, कोई शत्रु रहे ही नहीं काल रहे ही नहीं, काल अपने आप में समाप्त हो जाये।
ऐसी क्षमता प्राप्त होगी तभी आप साधानाये सम्पन्न कर पायेंगे, ऐसी क्षमता होगी तभी आप रोगों को समाप्त कर पायेंगे। रोग जीवन में रह जाये फिर मतलब ही क्या हुआ। कष्ट रह गये, बाधाये रह गई, अड़चने रह गईं और आप कमजोर ही रह गये, मन ही कमजोर हो गया या बुझ गया तो जीवन का अर्थ ही क्या। इन सब पर विजय प्राप्त करने की साधना है महाकाल साधना।
जितना दुःख कृष्ण ने अपने जीवन में देखा उतना दुःख तो आपको है ही नहीं। उसके जैसा तो एक भी चरित्र आपके सामने नहीं है और उन्होंने पांड़वों को विजय दिलाकर के द्वारका पर राज्य किया। एक भी राजा नहीं बचा, कृष्ण के सामने खड़ा हो सके ऐसा बचा ही नहीं और ऐसा ग्रंथ लिखा और अपना जीवन चरित्र ऐसा बनाया कि हम आज भी कृष्ण को याद कर रहे हैं। ऐसा जीवन बनाया जिसकी आज भी तुलना नहीं हो सकती। 64 कलाओं से युक्त! और कोई 64 कलाओं से युक्त व्यक्तित्व नहीं बन सका और वह व्यक्ति भी वैसा ही था जैसे आप हैं, मैं हूँ। इतना दुःख तो आपने भी नहीं देखा जन्म से लगाकर अभी तक जितना उसने देखा। फिर भी वह विचलित नहीं हुआ और हमेशा विजयी हुआ। यह उसका जीवन चरित्र बता रहा हूँ इतिहास बता रहा हूँ।
वह एक सामान्य व्यक्ति जो अपनी माँ के गोद में खेला नहीं, दूसरों के घर में जिसका पालन पोषण हुआ वह आगे जाकर ऐसा युग पुरूष बन गया, इतिहास पुरूष बन गया। क्या आप इतिहास पुरूष नहीं बन सकते? क्या बस कायर पुरूष बनेंगे, बुजदिल बनेंगे, क्या काल आप पर हावी हो जायेगा, मृत्यु आप पर हावी हो जायेगी, बुढ़ापा आ जायेगा, वृद्धावस्था आ जायेगी, समाप्त हो जायेंगे, लकडि़यों पर जाकर सो जायेंगे? कौन याद करेगा आपको? और अगर याद ही नहीं किया तो फिर पैदा ही क्यों हुये आप और मेरे शिष्य बने ही क्यों, मुझे लज्जित किया ही क्यों? फायदा भी क्या हुआ जीवन का? मैं रोज देखता हूँ कि कोई मरा और शमशान में जाकर उसे जलाते हैं, ‘‘ राम नाम सत्य है’’ बोल देते हैं। राम तो सत्य है ही, मैंने कब कहा राम आज तक झूठ बोले हैं, मगर यह जो मरा उसने जीवन में क्या किया?
आप हाथ धोकर के, स्नान करके दुकान पर बैठ गये। अरे तुम दो मिनट पहले देख रहे हो इस शरीर का कोई प्रयोजन नहीं है, उपयोग नहीं है और आप वापस आकर उसी व्यापार में फंस जाते हैं। मेरी बात कड़वी हो सकती है, बुरा लगे, अच्छा लगे आपकी मर्जी है, मुझे इस बात की चिंता है ही नहीं। मेरा तो प्रयत्न है कि आप वह ज्ञान प्राप्त कर सकें, महाकाल साधना को समझ सकें।
कृष्ण के चक्र को महाकाल चक्र कहा गया, वह सुदर्शन चक्र नहीं था, वह तो दर्शन युक्त या इसलिये हमने सुदर्शन चक्र कहा। हम किसी व्यक्ति को कहें कि बहुत सुदर्शन पुरूष है तो इसका अर्थ है बहुत सुंदर है, देखते ही तृप्ति हो जाती है। मगर वह चक्र अपने आप में महाकाल चक्र था, जहां गया वहां वध कर दिया, एक भी शत्रु को छोड़ा ही नहीं चाहे द्रोण हो, चाहे दुर्योधान हो, चाहे दुःशासन हो, सभी को समाप्त कर दिया, रहने ही नहीं दिया एक भी शत्रु को।
कृष्ण ने कहा- मैं रहूंगा तो जीवन रहेगा, मैं नहीं हूँ तो जीवन का मतलब नहीं है, जीवन का कोई अर्थ नहीं है और ऐसा मुझे जीवन चाहिये कि आने वाली पीढि़यां मुझे याद रख सकें और सांदीपन ने कृष्ण से कहा- यह सिद्धि मैं तुम्हें दूंगा। कृष्ण ने कहा- और कोइ सिद्धि मुझे चाहिये भी नहीं और उसके लिये आप लकडि़यां काटने के लिये भेजें तो लकडियां काट लूंगा, घास काटने के लिये भेजें तो घास काट लूंगा, जो आप कहें वह मैं करूंगा लेकिन मुझे वह महाकाल ज्ञान दीजिये जो अपने आप में युगों-युगों से है और लुप्त हैं।
वह ज्ञान सांदीपन के समय तक लुप्त हो गया था। केवल सांदीपन गुरू थे अकेले जो इस महाकाल ज्ञान को जानते थे नहीं तो कृष्ण मथुरा से इतनी दूर उनके पास नहीं जाते। कृष्ण को पता था की वह ज्ञान वहीं से प्राप्त हो सकता है, किसी और जगह से प्राप्त नहीं हो सकता है और अगर यह ज्ञान प्राप्त नहीं किया तो मेरे जीवन की उच्चता क्या रहेगी, आने वाली पीढि़यां मुझे कैसे याद रख सकेंगी।
मैं भी आपसे पूछ रहा हूँ कि आने वाली पीढि़यां आपको कैसे याद रख सकेंगी, कौन सी युक्ति बनेगी, कौन सी स्थिति बनेगी? कोई बेटों के वजह से याद रहता ही नहीं। कृष्ण के बेटों के वजह से कृष्ण का नाम जिंदा नहीं है। दशरथ की वजह से राम जिंदा नहीं है। बुद्ध के पिता के वजह से बुद्ध जिंदा नहीं है। महावीर के पिता के वजह से महावीर जिंदा नहीं है। इसी प्रकार राम, बुद्ध, महावीर अपने बेटों के वजह से जिंदा नहीं है। बेटों और पोतों की वजह से आप जिंदा नहीं रह सकते। वह तो एक गृहस्थ धर्म है, कर्त्तव्य है वह चलेगा। पति या पत्नी है, वह है, मगर आपका व्यक्तित्व आपकी पर्सनैलिटी, आपका ज्ञान, काल पर प्रहार करने की क्षमता आप में कहां है? आने वाली पांच हजार पीढियां आपको कैसे याद रखेंगी? और मैं चाहता हूं कि मेरा प्रत्येक शिष्य पांच हजार वर्षो तक याद रहे, प्रत्येक व्यक्ति उसे याद करे, ऐसा चाहता हूँ मैं।
कई बार मुझसे पूछा गया कि कृष्ण मथुरा से ठेठ सांदीपन आश्रम उज्जैन क्यों गये? क्या जरूरत थी वहां जाने की? कई शिष्यों ने यह प्रश्न किया। मैंने कहा- ठीक है गये होंगे, वहां पहुँचना होगा उनको। मगर वास्तविकता यह थी कि कृष्ण को वह ज्ञान सांदीपन ही दे सकते थे इसलिये इतनी दूर चल कर जाना पड़ा कृष्ण को। कृष्ण का कोई और उद्देश्य था ही नहीं। एक ही लक्ष्य था कि कर्म करना है मुझे और उस ज्ञान को प्राप्त करना है जिसके माध्यम से चाहे मैं पांच साल जिंदा रहूँ मगर पचास हजार साल तक लोग मुझे भूल न सकें। लिखूं तो अनिर्वचनीय लिखूं। जिसका कोई मुकाबला नहीं हो, युद्ध करूं तो ऐसा करूं की कोई मेरे सामने टिक नहीं सके।
कोई शत्रु कृष्ण के सामने टिक नहीं सका, मौत उसके सामने आ नहीं सकी, मृत्यु उसके ऊपर हावी नहीं हो सकी और इसलिये नहीं हो सकी क्योंकि उसने पूर्णता से महाकाल साधना सिद्धि की। इसी महाकाल से महाकाली स्वरूप पैदा हुआ और यदि आप महाकाली को देखें तो उसके पैर के नीचे, पुरूष दबा हुआ है। उसने काल को दबा रखा है। काल उसके ऊपर हावी नहीं हो सकता। पैरों से प्रहार करके उसे दबा रखा है। आप महाकाली के स्वरूप को देख लीजिये। महाकाल से महाकाली का स्वरूप बना। उसका एक अंश है जगदम्बा। उसमें क्षमता है। मगर महाकाल तो पूर्ण काल को अपनी आँखों में बसाने की क्रिया है, ताकत है, क्षमता है, पौरूष है, अपने आप में तेजस्विता है और वह क्षमता है कि जब तक जीवित रहना चाहें रहें और शत्रु रहें ही नहीं।
आप आते हैं और कहते हैं कि मुकदमा चल रहा है। मुकदमा चल रहा है क्योंकि आप वह साधना प्राप्त ही नहीं कर पाये। किसी ने आपको वह ज्ञान गुरू नहीं दिया और आज तक मैंने भी नहीं दिया। मैं भी इस बात को स्वीकार करता हूँ मगर इसलिये नहीं दिया क्योंकि आपमें परिपक्वता आई ही नहीं आप में ताकत, क्षमता नहीं थी कि उस साधना को कर सकें। मैं कहूं कि आप इतने दिन मेरे पास रहो आप नहीं रह पा रहे हैं, मैं आपकी परीक्षा लूं, आप परीक्षा नहीं दे पा रहे हैं। मैं कह रहा हूँ कि यह जीवन का श्रेष्ठतम प्रयोग है मगर आप नहीं कर पायेंगे। यह न्यूनता आपकी है मेरी न्यूनता नहीं है इसमें। मैं ज्ञान देने को तैयार हूँ मगर मैं इतना ज्ञान दूंगा तेजस्विता दूंगा आप आत्मसात नहीं कर पायेंगे क्योंकि यह विधि अपने आप में बहुत पेचिदा और कठिन है।
कृष्ण ने सांदीपन से कोई चीज और नहीं सीखी। सांदीपन आश्रम में रहे, पूरे ग्यारह वर्ष तक रहे, एक दो दिन नहीं रहे, पूरे ग्यारह वर्ष रहे, साढ़े दस वर्ष वे बस गाय चराते रहे, लकडि़यां काट कर लाते रहे। केवल छः महीने सांदीपन ने वह विद्या सिखाई और संसार में उस समय केवल सांदीपन थे जो महाकाल ज्ञान दे सकते थे और उसके बाद उन्होंने कृष्ण से कहा- अब तुम्हें कोई विजित नहीं कर सकता, हरा नहीं सकता, तुम्हें- जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, कर्म के क्षेत्र में भी, ज्ञान के क्षेत्र में भी, पौरूष के क्षेत्र में भी और सुंदरता के क्षेत्र में भी।
कृष्ण के जैसा कोई सुंदर बना ही नहीं, आज भी उन्हें देखते है तो उनका रूप अपने आप में अद्भूत दिखाई देता है। आज भी वो सुदर्शन चक्र लेकर खड़े होते हैं तो आँखों में वह भाव पैदा हो जाता है, आज भी वीर योद्धा की तरह खड़े होते हैं तो देखते ही बनते हैं, आज भी वह प्रेम करते हैं तो लग जाता है कि इन से बड़ा प्रेम करने वाला कोई है ही नहीं। आज भी क्रोध में उन्मत हो जाते हैं तो द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य अपने आप में थरथराने लग जाते हैं और ज्ञान देते है तो श्रीमद्भगवत गीता जैसा देते हैं।
आज भी वे जीवित हैं, जाग्रत हैं, आज भी घंटे घडियाल उनके मंदिरों में बजते हैं, आज भी हम उन्हें भगवान मानते हैं क्योंकि उन्होंने अपना पौरूष जीवित रखा। उन्होंने कहा- मुझे यही ज्ञान प्राप्त करना है। इसी ज्ञान की इच्छा उन्होंने रखी और प्रतीक्षा की और साढ़े दस साल तक कोई ज्ञान नहीं लिया कोई तंत्र नहीं किया, कोई मंत्र नहीं लिया, कोई योग नहीं लिया, कोई दर्शन मीमांसा नहीं ली। उन्होंने कहा- मुझे कुछ सीखना भी नहीं है अगर एक ही चीज मैं सीख लूंगा तो बहुत कुछ प्राप्त हो जायेगा। मेरा जीवन संवर जायेगा, पूरा जीवन नहीं आने वाले दस हजार साल संवर जायेंगे।
वह काल ज्ञान मंत्र क्या था, काल ज्ञान सिद्धि क्या थी? कहीं आपने पढ़ा? कृष्ण ने साढ़े दस साल तक एक ही चीज की रट क्यों रखी? क्या आपको पता है? और जब उसके गुरू के लडके की मृत्यु हो गई तो उसके प्राण वापस लाकर उसे जीवित कैसे कर दिया? जो गुरू नहीं कर सका उसे शिष्य ने कर के दिखा दिया क्योंकि गुरू ने पूर्ण काल ज्ञान दीक्षा दी, सफलता दी और यह आशीर्वाद दिया कि तुम अविजित ही रहोगे, हार नहीं सकते किसी भी क्षेत्र में।
इस साधना के माध्यम से ऐसी स्थिति प्राप्त होती ही है। पूर्ण विजय प्राप्त होती ही है, हर क्षेत्र में और तुम्हारे सामने कई क्षेत्र हैं- गृहस्थ एक क्षेत्र है, वह आपको रखना पड़ेगा, शत्रु आप नहीं चाहें तो भी पैदा होते रहेंगे, नौकरी आपको करनी ही पड़ेगी, व्यापार आपको करना ही पड़ेगा, समस्याये आपकी जिंदगी में आती ही रहेंगी, कठिनाइयां और दुर्भिक्ष आपके जीवन में आते ही रहेंगे। मगर इनमें आप खुद ही पिस कर समाप्त होते जा रहे हैं और आप समाप्त हो ही जायेंगे तो पीछे रहेगा ही क्या? फिर क्या चीज रहेगी?
पत्नी ज्यादा से ज्यादा छः महीने आंसू बहायेंगी कि मेरे पति थे मर गए बेचारे। साल भर बाद वह वापस गीत गाने लग जायेंगी। बेटे बस श्राद्ध के पक्ष में कहेंगे, मेरे पिताजी थे, बहुत भले थे, स्वर्गवासी हो गये, ब्राह्मणों को भोजन करा दो। होना यह है। सत्य यह है। आप इसको चाहे कितना ही भम्र में समझें यह माया है। सत्य यह है कि आप जीवित रहें, जाग्रत रहें, चैतन्य रहें, पांच हजार, दस हजार साल तक लोग आपको याद रखें। आपकी जिह्वा पर सरस्वती स्थापित हो जाये, ग्रंथ लिखें तो अद्वितीय ग्रंथ लिख दें, जो चेतना हो वह अद्वितीय चेतना बन जायें, आप में वह लेखन प्रतिभा है, गायन प्रतिभा है। गायन करें तो लोग मंत्र मुग्ध हो जाये। कृष्ण बांसुरी बजाते तो सभी पशु पक्षी आकर खड़े हो जाते थे। गाये दूर-दूर होती तो पास आकर खड़ी हो जाती थी, मयूर आकर नाचने लग जाते थे। कृष्ण इतनी सुंदर रास लीला करने वाला कि ऐसी रास लीला करने वाला पैदा ही नहीं हुआ। आप बताइये कि किस क्षेत्र में कृष्ण हारे। गृहस्थ में हारे? युद्ध में हारे? ज्ञान में हारे? गीता जैसा ग्रंथ लिखा, उसमें हारे? प्रेम में हारे? शत्रुओं का संहार करने में हारे? कहां वे हारे? हारे ही नहीं और इसलिये नहीं हारे कि उन्होंने काल पर पूर्ण विजय प्राप्त की और काल पर पूर्ण विजय प्राप्त करने के लिये उन्होंने सांदीपन को चुना क्योंकि पूरे भारतवर्ष में नहीं पूरे संसार में केवल एक ऋषि था, जिस काल ज्ञान पूर्ण से ज्ञात था। कितना तेजस्वी मंत्र ज्ञान होगा कि उस सामान्य व्यक्ति को, एक जर्रे को, एक धूल के कण को आकाश में उठा दिया। एक मामूली व्यक्ति जिसने दुःख ही दुःख देखा था, सुख की कल्पना ही नहीं की थी उम्मीद भी नहीं की थी, उसे मालूम ही नहीं था कि महाभारत युद्ध में मेरा नाम होगा और उस युद्ध में पांडव भी उनको प्रणाम कर रहे थे, कौरव भी प्रणाम कर रहे थे। द्रोणाचार्य भी प्रणाम कर रहे थे, भीष्म भी प्रणाम कर रहे थे। पांडव भी कहते कृष्ण मेरे हैं, कौरव भी कहते कृष्ण मेरे हैं।
कृष्ण कह रहे थे कि मेरा कुछ नहीं केवल पर्सनैलिटी मेरी है, व्यक्तित्व मेरा है, मुझे कुछ काम करना है, ऐसा काम करना है जो और कोई कर नहीं सकें। शेर के समान दहाड़ना है तो शेर के समान दहाडना है। कृष्ण ने अपने पौरूष को बनाये रखा, प्रबलता को बनाये रखा, वह उसके जीवन का गुण था। कृष्ण से हमें यह शिक्षा नहीं लेनी है कि वे भगवान है। वे भगवान बने कैसे, यह जानना है। उन्होंने एक ही उपदेश अर्जुन को दिया।
‘‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते माफलेशु कदाचन’’
जो कुछ होगा देखा जायेगा, अर्जुन बस कर्म कर तु, जो तुझे समझा रहा हूँ वह तू कर। मैं वही दोहरा रहा हूँ कि तुम फल की चिंता मत करो, कर्म करते रहो, जिम्मेदारी मेरी है मैं स्वयं रखवाला हूँ, जो करना है मैं अपने आप करता रहूंगा और क्या आप इतनी तीक्ष्ण साधना, छः महीने की साधना कर सकते हैं? और जीवन की श्रेष्ठतम दीक्षा और साधना यही है और अगर गुरू ने यही नहीं दी तो जीवन का अर्थ ही क्या? फिर आप नृत्यमय बनेंगे कैसे?
कृष्ण जैसा नृत्य करने वाला कोई नहीं था, कृष्ण जैसा रास लीला करने वाला कोई नहीं था। कृष्ण जैसा प्रेम करने वाला कोई नहीं था, कृष्ण जैसे योद्धा पैदा नहीं हुआ। कृष्ण जैसी गीता लिखने वाला पैदा नहीं हुआ और आपका नाम भी अगर कन्हैयालाल है और भूखे मर रहे हैं आप। कृष्ण या कन्हैया आपका नाम तो है पर कृष्ण का ज्ञान, चेतना क्या प्राप्त की? क्या उस जगह आप पहुंचे? आपकी पचास पीढि़यां नहीं पहुंच पाई आने वाली पचास पीढि़यां पता नहीं पहुंचे या नहीं पहुंचे! मगर आगे पचास पीढि़यां आपको याद रख सके उस जगह मैं आपको, अपने शिष्यों को पहुंचाना चाहता हूँ। ऐसा अद्वितीय युग पुरूष बनाना चाहता हूं। यह मेरी जीवन की इच्छा और लक्ष्य है। वास्तविक ज्ञान देना मेरा लक्ष्य है।
नवरात्रि के प्रत्येक दिवस का अपना महत्व है, प्रथल शैलपुत्री, द्वितीय ब्रह्मचारिणी। ब्रह्मचारिणी का अर्थ है पूर्ण ब्रह्म को जानने की क्षमता, काल को पहचानने की क्षमता। ब्रह्म का मतलब है ज्ञान, चेतना। कोई ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने को ब्रह्मचर्य नहीं कहते, यह आपके मन के कान्सेप्ट गलत है कि शादी कर दी, ब्रह्मचर्य खण्डित हो गया। ब्रह्मचर्य खण्डित कहां से हो गया? जो ब्रहम को जानता है वह ब्रह्मचारी है। शादी करने से ब्रह्मचर्य खण्डित हो गया आपका? मैं ब्रह्मचारी हूँ ही नहीं? फिर ब्राह्मण कहां से बनूंगा? जब ब्रह्म को ही नहीं जानूंगा तो ब्राह्मण कहां से बनूंगा? और सन्यासी बनने से गुफा में बैठने से और दाढ़ी बढ़ाने से मैं कोई योगी बन जाऊंगा? सन्यासी बन जाऊंगा? क्या बाल बढ़ाकर रीछ बनने से मैं महापुरूष बन जाऊंगा? जटा बढ़ाने से कुछ होता तो शेर की बहुत है, गीदड़ों की बहुत है। आप से बहुत ज्यादा लंबे-लंबे बाल हैं।
उससे कुछ नहीं होगा। पौरूष हो, काल को आप रौंद सकें, युग पुरूष आप बन सकें और अद्वितीय युग पुरूष बन सकें, आने वाली पीढि़यां आपको याद रख सकें, आप इतिहास पुरूष बन सकें- यह सब बनेंगे तो जीवन का अर्थ होगा। आप में से प्रत्येक ऐसा बन सकता है चाहे पुरूष हो या स्त्री हो।
नवरात्रि का प्रत्येक दिवस अपने आप में काल रात्रि है, योग रात्रि है, सिद्धरात्रि है, ब्रह्मरात्रि है और मैं इस रात्रि के लिये आपको दुर्गा साधना करने के लिये कह सकता था नवार्ण साधना या बगलामुखी या धूमावती साधना भी करने के लिए कह सकता था मगर उस बगलामुखी या धूमावती से कुछ होगा नहीं। आप बगलामुखी साधना करें और मर जाये तो होगा क्या? फिर आने वाली पीढि़यां याद कैसे रखेंगी? और याद ही नहीं रखा तो, जीवन का मतलब ही क्या हुआ? पहले काल ज्ञान आवश्यक है और आपको कुछ प्राप्त ही नहीं हुआ तो गुरू का मतलब ही क्या हुआ? फिर गुरू बनने का लाभ भी क्या हुआ? फिर सांदीपन बना ही क्यों? फिर सांदीपन बनने का लक्ष्य ही क्या हुआ?
वह सांदीपन बना और उसने कृष्ण को भगवान कृष्ण बना दिया। मैं गुरू हूँ तो तुमको इतना ऊँचा उठा ही दूंगा, यह विश्वास दिलाता हूँ ऐसी साधनाओं के माध्यम से। गारंटी के साथ में। मैंने आपको इतनी साधानाये दी फिर क्यों युगपुरूष आप नहीं बने, मुझे यही समझना है? आप में 64 कलाये क्यों नहीं आई? आप युग पुरूष क्यों नहीं बन पाये, कृष्ण क्यों बन गया? उसके बाद तो कई पीढि़यां बीत गई, बाकी क्यों नहीं बन पाये?
इसलिये नहीं बन पाये क्योंकि सांदीपन जैसा गुरू बाद में नहीं मिला। सांदीपन होते तो और दो चार शिष्य ऐसे तैयार कर देता। कोई वैसा गुरू नहीं बन पाया, तो वह ज्ञान समाप्त हो गया। कुछ ज्ञान जो ताडपत्रें पर था उसे दीमकों ने खा लिया, कुछ भोजपत्रें पर जो था उसे भी दीमकों ने खा लिया, कुछ मुगलों ने खत्म कर दिया और जो कुछ बाकी बचा था उसे अंग्रजों ने समुद्र में डुबो दिया और आप जैसे के तैसे हाथ जोड़ कर खड़े रह गये- जय भगवान कृष्ण की जय।
उस जय-जयकार से क्या हो गया? होगा तब जब आप युग पुरूष बने, अद्वितीय बनें, ऐसे बनें कि प्रत्येक क्षेत्र में सफलता मिलें। और जब भी मैं आपको पूछुं तो आप कह सकें कि मैं इस क्षेत्र में अद्वितीय हूँ गुरूदेव। धन के क्षेत्र में तो सफल हूँ। युद्ध के क्षेत्र में तो युद्ध और मुकदमों में सफल हूँ। सम्मोहन के क्षेत्र में तो सम्मोहन शक्ति मेरे जैसी किसी में है ही नहीं। पौरूष-आप मुझे देख लीजिये मैं अपने आप में बहुत ताकतवान हूँ। दुश्मन भी मुझे ही प्यार करते हैं और मित्र भी मुझे ही प्यार करते हैं।
ऐसा आपका व्यक्तित्व बने ऐसा व्यक्तित्व बने कि आज इतने हजार वर्ष बाद कृष्ण को याद रख सकें। मैं भी चाहता हूँ कि आप ऐसे अद्वितीय युग पुरूष बनें की आज से दस हजार वर्ष बाद आपको लोग याद रख सकें क्योंकि एक बार फिर सांदीपन आपके सामने बैठा है। फिर वह आपको ज्ञान देने के लिये बैठा है। आपको ज्ञात होना चाहिये कि जब भी साधना शिविर होता है तो सात आठ रात मैं सोता नहीं हूँ क्योंकि जितना तपस्या का अंश शिष्यों को, आपको देता हूँ उतना इक्कठा करना पड़ता है और आपका भी यह कर्त्तव्य है कि आप पूर्णता से उस ज्ञान को ग्रहण करें जो, मैं आपको दूं और मैं हर हालत में आपको वैसा अद्वितीय बना कर छोडूंगा, यह विश्वास रखिये, छोडूंगा नहीं आपको।
जीवन का अर्थ ही तब है जब जो भी जीवन में चाहें, जिस प्रकार से भी चाहें वह अपने आप में सिद्धि प्राप्त हो और जीवन का लक्ष्य, जीवन की चिंतन अद्वितीय बनने में हैं। मैं जानता हूँ कि भौतिक सुख है, मैं जानता हूँ घर परिवार है, मैं यह भी जानता हूँ कि जो आपको जीवन में भौतिक आवश्यकताये है उनकी पूर्ति होनी चाहिये। मगर यह जीवन का एक दृष्टिकोण है। एक दूसरा और दृष्टिकोण है जिससे आप बिल्कुल अछूते हैं। एक ऐसा दृष्टिकोण है जो एहसास कराता है कि पूरी रात बीत जाती है और आप सूर्य के दर्शन नहीं कर पाते। जीवन का आधा भाग समाप्त हो जाता है और आप सूर्य नहीं देख पाते। मेरे जीवन में भी ऐसी स्थितियां बनी की निर्णय लेना पड़ा कि क्या मुझे सन्यास लेना चाहिये, या गृहस्थ में रहना चाहिये और पूरे घर
वाले इसी मत में थे कि आप गृहस्थ में रहें और नौकरी करें, व्यापार करें और इस तरह से सामान्य जीवन व्यापन करें। परंतु मेरे जीवन का लक्ष्य यह पूर्ण रूप से नहीं था। मेरे जीवन का लक्ष्य यह भी था कि मैं उन अनदेखे पहलुओं को छूऊं जिनके माध्यम से गुरूदेव कहते हैं कि इसमें सफलता मिलने के बाद व्यक्ति अद्वितीय युगपुरूष बन जाता है और सही अर्थो में कृष्ण ही अकेला व्यक्तित्व है जो 64 कला प्रधान है, वह अकेला ही व्यक्तित्व जिसने आपसे और हमसे ज्यादा संघर्ष किया है। वह ऐसा व्यक्तित्व है जिसने अपने जीवन में समस्त सुखों को लात मार दी और सुख जैसी चीज जीवन में देखी ही नहीं। उसके बावजूद भी उसके मन में एक ही इच्छा रही कि मुझे अपने व्यक्तित्व को ऊँचा उठाना है एक ही धुन, एक ही लगन, एक ही लक्ष्य और अगर उनकी गीता को पढ़े तो उस गीता में दूसरा कोई उपदेश नहीं है। केवल उपदेश यह है कि तुम काम करते रहो, क्योंकि मैं तुम्हारा गुरू हूँ इसलिये कहा गया-
कृष्णं वंदे जगदगुरूं
उन्हें भगवान नहीं कहा गया भगवान तो बहुत बाद में कहा गया उच्च कोटि के योगी, ऋषि, भीष्म, द्रोण जो उस समय थे उन्होंने कहा कृष्ण एक जगदगुरू के रूप में हैं। क्योंकि ज्ञान केवल गुरू दे सकता है। वह ही समझा सकता है कि कौन सा रास्ता सही है और किस रास्ते पर चल कर सफलता प्राप्त की जा सकती है और अगर गुरू कह दे तो फिर मान लेना चाहिये या फिर बिल्कुल नहीं मानना चाहिये।
आप उन स्थितियों को प्राप्त करें जो जीवन के अनछूए प्रसंग है। आप सोचिये कि कृष्ण अगर सामान्य ढंग से सोच कर घर बैठ जाता तो उसे कोई तकलीफ नहीं थी। वह राजा का पुत्र था, राजगद्दी पर बैठ जाता शत्रु होते तो उनसे लड़ता, मार पीट करता, कुछ लगती, कुछ लगाता और जैसे-वैसे मथुरा पर राज्य करता रहता। मगर क्या फिर हम उनको स्मरण रख पाते? क्या वासुदेव को हम स्मरण रख पाये? क्या वासुदेव के पिता का हम स्मरण रख पाये? हम उनको स्मरण इसलिये नहीं रख पाये क्योंकि उन्होंने ऐसा संघर्ष नहीं किया इस जीवन के उद्देश्य को समझा ही नहीं। अद्वितीय बनना जीवन का उद्देश्य और चिंतन है और इस चिंतन को प्राप्त करना हमारे लिये जरूरी है।
अब यह अलग बात है कि इसके कई अंग उपांग हैं। यह इतना सरल रास्ता नहीं है एक-एक कदम बढ़कर उस अंतिम बिंदु पर पहुँचा जा सकता है जहां आने वाली पीढि़यां स्मरण रख सकें और अगर आने वाली पीढि़यां स्मरण नहीं रख पायेंगी तो न्यूनता आपकी ही रहेगी, आपके परिवार वालों की नहीं रह पायेंगी। परिवार वाले कहेंगे हमने कब आपको मना किया था। वो तो एक किनारे जाकर खड़े हो जायेंगे और उस समय जब शरीर शिथिल हो जायेगा, मन शिथिल हो जायेगा, जब वृद्धावस्था आपको प्राप्त हो जायेगी तब आप चाहेंगे भी कि मैं जीवन में कुछ करूं तब आप शायद नहीं कर पायेंगे। आप में से आधो से ज्यादा अमरनाथ नहीं जा सकते। आप में से आधो से अधिक चाहेंगे भी तो गौमुख नहीं जा सकते क्योंकि शरीर साथ नहीं देगा। क्यों नहीं जा सकते? इसलिये क्योंकि आप में वह शारीरिक ऊर्जा नहीं रह पाई। वह तपस्या का अंश नहीं रह पाया। वह पूर्ण सफलता की ओर अग्रसर होने की क्रिया नहीं रह पाई और आपको जो गुरू मिले वे केवल सामान्य मंत्र देते रहें।
यह निश्चित रूप से है कि सौंवी सीढ़ी पर चढ़ने के लिये पहले पहली सीढ़ी पर चढ़ना पड़ता है, फिर दूसरी, तीसरी, पचासवी, साठवी और नब्बवी और फिर सौंवी सीढ़ी। एकदम छलांग लगाकर उस जगह नहीं पहुँचा जा सकता और तीस वर्षो तक मैं यही काम करता रहा। इतने वर्षों से आप जुड़े रहे और बराबर आपको गतिशील करता रहा। क्योंकि पहली क्लास वाले को मैं एम-ए- के पीरियड़ नहीं दे सकता था। पहली, दूसरी, तीसरी और जैसे ही मुझे परिपक्वता नजर आयेगी कि ये अब उस जगह पहुँच गये है जहां से आप एक छलांग लगा सकते है तो मैं स्वयं आपको वह चेतना प्रदान कर दूंगा। मेरा बराबर यही चिंतन रहा कि शिष्यों को उस जगह ले जाकर खड़ा कर देना है मुझे और हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण जीवंत जाग्रत हो, यह हमारे जीवन का लक्ष्य, यह हमारे जीवन का उद्देश्य है। और आपने अगर साधनायें की और उनमें कोई कारणों से सफलता नहीं मिल पाई तो ऐसा क्यों हुआ?
क्लास रूम में साठ लड़के बैठे और मैंने उनको पढ़ाया-एक ही क्लास एक ही जैसे लड़के, एक ही अध्यापक, एक ही वातावरण एक ही कोर्स, उतना ही पढ़ाया और उसके बाद भी 33 प्रतिशत रिजल्ट रहा और बाकी 67 प्रतिशत फेल हो गये। क्यों हो गये? जबकि वातावरण भी एक जैसा था, गुरू भी एक जैसा था, पाठ्य पुस्तक भी एक ही थी। इसलिये की उनमें एक चेतना होनी चाहिये थी जो उसको आत्मसात कर पाये। न्यूनता गुरू की नहीं आपकी रही। गुरू ने तो उतनी ही चेतना प्रदान की परंतु आप आत्मसात नहीं कर पाये। सांदीपन के पास भी सैकड़ों शिष्य थे मगर केवल कृष्ण ही अद्वितीय बन पाये।
इसलिये मैंने गर्भस्थ चेतना दीक्षा देना शुरू किया कि गर्भस्थ बालक को ही चेतना दे दें शुरू से ही। वह अपने आप में शुरू से ही ऊर्ध्वरेता बन जाये। जब बालक बने तभी से ही उसे अद्वितीय की ओर अग्रसर कर दे। जब यज्ञोपवीत का अवसर आये तो उन्हें यज्ञोपवीत दे दें, उनको उस रास्ते पर शुरू से ही प्रारंभ कर दें।
आप चेतना ग्रहण करेंगे तभी आप उस जगह पहुँच पायेंगे। पानी को हम गर्म करें तो विज्ञान का नियम है कि 100 सैलसियस होने पर ही पानी खौलने लगेगा, अगर 99 पर आकर आप सोचें कि पानी खौला ही नहीं लकडि़यां जला दीं और आप भगोना उठा कर नींचे रख दें तो जहां 99 डिग्री पर आप पहुंच गये थे वहां से वापस नीचे उतर आये। केवल 1 डिग्री और रूकना था आपको और पानी खौल जाता।
आप धीरे-धीरे ही उस जगह पहुंच पायेंगे जहां से छलांग लगा सकें अद्वितीयता की ओर। कृष्ण ने अपने जीवन में मुड़कर नहीं देखा की देवकी कौन सी है या वासुदेव कौन सा है। नंद कौन सा है या मथुरा कौन सा है, नहीं देखा उसने। तकलीफ क्या थी उन्हें देखने में? क्या अहंकारी हो गये थे? क्या उनके मन में कोई अटैचमेंट नहीं रह गया था? प्रश्न यह नहीं था। प्रश्न यह था कि मुझे अपनी परसनैलिटी को, अपने ज्ञान को, अपनी चेतना को, कुण्डलिनी जागरण से सातों चक्र जाग्रत करते हुए और महाकाल सिद्धि द्वारा इतनी ऊंचाई तक पहुंचा देना है जहां पर केवल मैं युगपुरूष बन सकूं, केवल मैं। और मैं कहता हूं कि आपमें से प्रत्येक पुरूष बन सकता है और गारंटी के साथ बन सकता है। यदि आप में जीवट शक्ति है, चेतना शक्ति है, यदि आप शिष्य हैं, यदि आप मेरे प्रति समर्पित हैं यदि मैंने आपको गले से लगाया है, यदि आप मेरे चरणों में झुके हैं, यदि मैंने जो कहा वह आपने किया है तो सारी जिम्मेदारी आप मेरे ऊपर रख दीजिये। फिर आपकी जिम्मेदारी तो बहुत कम हो गई।
आप में समर्पण ऐसा होना चाहिये कि हे गुरूदेव आपने जैसा कहां वैसा मैंने कर दिया, अब आप इस मिट्टी के लौंदे को दीपक बना दें, सुराही बना दें, घड़ा बना दें, जो कुछ बना दें, कुछ ऐसा बनाये कि आने वाली पीढि़यां को मैं सुख पहुंचा सकूं ऐसा घड़ा बनाये कि मैं आने वाली पीढियाें को ठंडा पानी पिला सकूं। मेरे जीवन का यह उद्देश्य है कि मैं अद्वितीय बन सकू।
और मैं भी आपको गारंटी देता हूं कि यदि आपका समर्पण है ऐसा, तो मैं आपको उस उच्चता तक पहुंचा कर छोडूंगा और आप भी अपने जीवन में उन उच्च साधनाओं और दीक्षाओं को सद्गुरू से प्राप्त करते हुए अद्वितीय बन सकें ऐसा ही मैं हृदय से आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूँ।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
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