भगवान विष्णु को पुरूष भी कहा गया है, क्योंकि सृष्टि के प्रथम पुरूष भगवान विष्णु ही थे और उनके साथ ही उन्होंने अपने ही शरीर से शक्ति उत्पन्न की जिसे लक्ष्मी, पद्मा, कमला— इत्यादि कहा गया है। भगवान विष्णु में हजारों गुण हैं, लेकिन शास्त्र कहते है कि जिस व्यक्ति में हजारों गुणों के उपरांत भी छः गुण प्रमुख हैं, ब्रह्म तत्व के अनुसार यह छः गुण हैं 1- ज्ञान, 2- बल, 3- ऐश्वर्य, 4- वीर्य, 5- शक्ति, 6- ओज, मुख्य हैं। विष्णु पुराण के अनुसार छः गुणों में प्रमुख हैं1-ऐश्वर्य, 2- धर्म, 3- कीर्ति, 4- कान्ति, 5- ज्ञान, 6- वैराग्य है और इन छः गुणों को भग कहा गया है। यह छः गुण जिनमें पूर्ण होते हैं, वे ही वास्तव में भगवान हैं, अन्य व्यक्तियों के लिये भगवान शब्द का उपयोग आदर सूचक भाव के लिये ही किया जाता है। भगवना शब्द का परमात्मा के लिये ही मुख्य प्रयोग हैं।
भगवान विष्णु में सृष्टि की रचना एक संकल्प के रूप में की और चतुर्भुज कहलाये। इसके पीछे भी बडी ही विशेष बात है, सृष्टि में चार का अंक ही एक ऐसा अंक है इससे सृष्टि का निर्माण हुआ और क्रम बना। चतुर्भुजधारी भगवान विष्णु के अंदर ज्यों ही सृष्टि रचना का संकल्प हुआ, त्यों ही उनके नाभि कमल से चतुर्मुख श्री ब्रह्माजी का जन्म हुआ, उनके हाथों में चार वेद- साम, ऋग्, यजुः एवं अथर्व थे और उनके चारों मुख चारों ओर- उत्तर, दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम की ओर थे।
इसके बाद श्री ब्रह्मा ने भगवान विष्णु के आज्ञानुसार प्राणियों के चार अकारों अर्थात् चार वर्गो अण्डज, जरायुज, स्वेदज एवं उभ्दिज में विभाजित किया और उन प्राणियों की जीवन की व्यवस्था भी चार अवस्थाओं में- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय में की। तत्पश्चात् श्री विष्णु ने मानवीय सृष्टि की रचना अपने चारो मानस पुत्रे सनकादि-सनक, सनन्दन, सनत्कुमार एवं सनातन से प्रारंभ की लेकिन वे चारों भगवान के चारों धाम श्री बदरीकाश्रम, श्रीरामेश्वर, श्रीद्वार का एवं श्रीजगन्नाथपुरी की और भगवान विष्णु की भक्ति करने के लिए चल दिये।
जब सनकादिकों से सृष्टि रचना का कार्य पूर्ण नहीं हुआ, तब ब्रह्मा ने चार वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र उत्पन्न किये और चारों आश्रमों- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास का गठन हुआ।
इस प्रकार सृष्टि का क्रम चलता रहा और चलते-चलते भगवान विष्णु के भक्त चार श्रेणियों में विभक्त हुए- अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के भक्तजन हुये।
इन चार प्रकार के भक्तों को प्रसन्न करने के लिये भगवान विष्णु को चतुर्भुजरूप धारण कर चारों हाथों में चार वस्तुये- शंख, चक्र, गदा एवं पदम धारण कर भक्तों को चार पदार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने पड़े।
भगवान विष्णु के ऊपरी दाहिने हाथ में चक्र है, जिससे वे आर्त भक्तों की रक्षा करते हैं और नीचे दाहिने हाथ में गदा है, जिससे जिज्ञासु भक्तों को अपने स्वरूप का ज्ञान प्रदान करते हैं। भगवान के ऊपर बायें हाथ में शंख है, जिससे वे ज्ञानी भक्तों को मोक्षगति देते हैं, एवं नीचे बायें हाथ में पद्म अर्थात् कमल का फूल है, जिससे अर्थार्थी भक्तों को धन पदार्थ इत्यादि प्रदान करते हैं। वस्तुतः भगवान विष्णु को भक्तों की प्रसन्नता के लिये ही चर्तुभुजरूप होना पड़ा।
भगवान विष्णु के विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र में एक सहस्त्र नाम हैं, यह सभी नाम उनके गुणों के अनुसार हैं। मूल सूचक होने के कारण ही यह सभी नाम गौण कहे गये है। भगवान अनन्त है उनके चरित्र भी अनन्त है। अतः उनके नाम भी अनन्त है और इसी कारण समय-समय पर अवतार लेते हैं। यदि कोई व्यक्ति भगवान के गुणों का वर्णन करने लगे तो भी वह थक जायेगा क्योंकि भगवान के गुण वैसे के वैसे अनन्त रहेंगे। महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में देवताओं द्वारा भगवान का वर्णन करते हुए लिखा है कि-
महिमानं यदुत्कीर्त्य तव संहियते वचः।
श्रमेण तदशक्त्या वा न गुणानाभियत्तया।
अर्थात् आपके महत्व की प्रशंसा करके जो हम चुप हो रहे हैं, वह इसलिये नहीं कि हमने आपके सब गुण बखान डालें बल्कि इसलिये कि अब हम थक गये और आगे बोलने की शक्ति हममें नहीं रह गयी है।
जिस प्रकार समय-समय पर प्रकृति में परिवर्तन होता है, वैसे ही मनुष्य की बुद्धि में परिवर्तन होता है उसी प्रकार भगवान अनन्त विष्णु अपना कोई प्रयोजन न रहने पर धर्म संरक्षण एवं साधु अर्थात् श्रेष्ठ व्यक्तियों की रक्षा और सृष्टि पर कृपा करने के लिये शरीर धारण करते हैं। इसीलिये श्रीमद् भागवत् में अठासी हजार ऋषियों को उपदेश देते हुए महर्षि सूतजी, कहते हैं कि-
अवतारा ह्यसंख्येया हरेः सत्वनिधेद्विजाः।
यथाविदासनः कुल्याः सरसः स्युः सहस्त्रशः।।
अर्थात् जिस प्रकार किसी एक अक्षय जलाशय से असंख्य छोटे-छोटे जल-प्रवाह निकलकर चारों ओर धावित होते हैं, उसी प्रकार सत्वनिधि परमेश्वर से विविध अवतारों की उत्पति होती है।
इस प्रकार भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों का शास्त्रें में वर्णन है और प्रत्येक अवतार में अपने काल में किसी विशेष प्रयोजन तथा विशेष कार्य के लिये ही अवतार लिया, हर अवतार के पीछे बहुत बड़ी रहस्य गाथा और वर्णन हैं यहां संक्षेप में इन चौबीस अवतारों के नाम इस प्रकार हैं- सनत्कुमार, वाराह, नारद, नर-नारायणी, कपिलदेव, दतात्रेय, यज्ञपुरूष, ऋषभदेव, आदिराज पृथु, मत्स्य, कूर्म, धन्वतरि, श्रीमोहिनी, भगवान नृसिंह, भगवान वामन, भगवान परशुराम, भगवान व्यास, भगवान हंस, भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान हयग्रीव, भगवान हरि, भगवान बुद्ध और भगवान कल्कि उन सब अवतारों में सबसे अधिक विशेष बात यह हैं कि विष्णु की मूल शक्ति लक्ष्मी प्रत्येक अवतार में उनके साथ ही रही है, जैसे नरायण अवतार में भगवती रूप में, कृष्ण अवतार में राधा रूप में, राम अवतार में सीता रूप में, श्रीमोहिनी अवतार में मोहिनी रूप में, उल्लेख आता है, जहां भगवान विष्णु के किसी भी रूप का वर्णन आयेगा वहां भगवती लक्ष्मी का उल्लेख अवश्य ही आयेगा। अर्थात् जहां अनन्त श्री विष्णु है, वह श्रीलक्ष्मी है, और जहां श्रीलक्ष्मी है वहां अच्युत अर्थात् भगवान विष्णु है, इसीलिये लक्ष्मी को अच्युत वल्लभा आदित्यवर्णा, ज्वलन्ति, तृप्ता, देवजृष्ट, नैत्यपूष्टा, पप्रिनी, पुष्टि, भगवती, विष्णुमनोनुकूला, श्री-हरिवल्लभा इत्यादि नामों से कहा गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विष्णु की साधना करने से लक्ष्मी प्रसन्न होती है और लक्ष्मी की साधना करने से आदिदेव भगवान विष्णु जो कि जगत के पालक है, प्रसन्न होते हैं।
श्रीविष्णु और लक्ष्मी के सम्बन्ध में पुराणों इत्यादि में कई कथायें आती है। जिस प्रकार से जब अमृत घट निकला, देव और दानव उसे प्राप्त करने के लिए आतुर हो उठे तो भगवान विष्णु ने ही मोहिनी रूप धारण कर सब को अपने वश में कर लिया और देवताओं को ही अर्थात् श्रेष्ठ व्यक्तियों को ही अमृत पान कराया।
मनुष्य जन्म लेता है तो वह भगवान विष्णु का ही एक अंश होता है, क्योंकि उसका प्रधान कार्य सृष्टि में वृद्धि करना और उसको पालना है। यदि वह श्रेष्ठ पालनकर्ता है तो वह अपने जीवन में विष्णु के चरित्र को पूरी तरह से उतार कर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। जो स्वयं अपना पालन और दूसरों का पालन नहीं कर सकता है, उसका जीवन अनुकूल नहीं है, यहां पालन करने का तात्पर्य केवल अन्न और धन से नहीं है, अपितु ज्ञान द्वारा, कर्म द्वारा अपने जीवन में और दूसरों के जीवन में आनन्द का संचार करना है। जैसा की ऊपर लिखा है कि विष्णु और लक्ष्मी का संयोग सदैव रहता ही है, दोनो को विभक्त करके नहीं देखा जो सकता है, विष्णु की शक्ति विविध रूपों में लक्ष्मी ही है। वेदों में जिस प्रथम पुरूष का उल्लेख आया है, वह विष्णु ही है और उनकी शक्ति प्रकृति ही है, इसी प्रकार शिव और शक्ति का भी संयोग है, हिन्दु धर्म पांच संप्रदायों में विभक्त हो गया है, यह संप्रदाय वैष्णव संप्रदाय, शैव संप्रदाय, शाक्त संप्रदाय, सौर संप्रदाय और गाणपत्य संप्रदाय है। लेकिन इन सब में आराधना का क्रम और सिद्धांत एक ही है कि किस प्रकार जीवन का अर्थ समझा जाय और कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत कर मूलाधार से सहस्त्रर तक जाग्रत किया जाये। यहां कुण्डलिनी जाग्रत का तात्पर्य वह योगिक क्रिया है। जिस में मनुष्य अविद्या अर्थात् अज्ञान का नाश कर विद्या मार्ग अर्थात ज्ञान की ओर चलता है। जब वह ज्ञान मार्ग पर चलता है तो उसे भौतिक जीवन के और आध्यात्मिक जीवन के सारे रहस्य अपने आप प्रगट होने लगते हैं।
पुरूष अर्थात् नर भगवान विष्णु को और शिव को अपना आदर्श मानते हैं। हर मनुष्य का यही लक्ष्य रहता है कि मैं विष्णु के समान ऐश्वर्य वान, शौर्ययुक्त, कीर्तियुक्त, लक्ष्मीयुक्त बनू। इसके साथ ही अपने जीवन में शिव के समान पूर्ण आनन्दयुक्त रहूं। ब्रह्मा ने रचना तो कर दी है लेकिन पालन और संहार अर्थात् जीवन में सद्गुणों का विकास और दुर्गुणों का विनाश, जीवन में उन्नति का मार्ग और रचना तथा बाधाओं का संहार यह दोनों ही शक्तियां उसके पास रहनी चाहिये। इसीलिये पूरे भारत वर्ष में अनन्त चर्तुदशी और महाशिवरात्रि का विशेष विधान है। जो पुरूष इन दो महाकल्पों में भी कोई प्रेरणा नहीं लेता, संकल्प नहीं लेता, वह अपने जीवन में कुछ काल के लिए उन्नति और भोग विलास तो अवश्य प्राप्त कर लेता है। हो सकता है कि यह उसके पूर्व जन्मों के शुभ कार्यों का फल हो, लेकिन पूर्ण आंतरिक आनन्द की अनुभूति प्राप्त नहीं कर सकता है। पूर्ण आनन्द की अनुभूति तो वही व्यक्ति कर सकता है जिसमें विष्णु तत्व हो अर्थात् विष्णु के समान जीवन पालन करने की क्षमता हो और शिव के समान जीवन को आनन्द से जीने की आकांक्षा हो। विष्णु तत्व और शिव तत्व दोनों मिलकर ही जीवन को पूर्ण बनाते हैं।
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