हमारा सम्पूर्ण जीवन शक्तियों द्वारा ही चलायमान है, लेकिन इन शक्तियों पर नियंत्रण नहीं है, जिसके कारण जिस प्रकार का जीवन साधारण व्यक्ति जीना चाहता है, वैसा जीवन जीना उसके लिये सम्भव नहीं हो पाता है, बहुत अधिक धन होने पर भी व्यक्ति सुखी नहीं कहा जा सकता है, उसे कई दृष्टियों से समस्याओं का सामना करना पड़ता है, चाहे वह मानसिक पीड़ा हो, भय सम्बन्धी पीड़ा हो, अथवा कोई और। क्या वह सम्भव नहीं है, कि जिस प्रकार हम वाहन चलाते है, उसी प्रकार हमारे जीवन का नियंत्रण हमारे वश में हो, हम जिस प्रकार चाहें उसे मोड़ दे सकें, इसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है, कि हम यह पहचान लें कि कौन हमें सहयोग प्रदान कर सकता है, कैसी शक्ति हमें प्राप्त हो सकती है, यदि कोई शत्रु बाधा पहुँचाने का प्रयास कर रहा है, तो उस पर रोक कैसे लगाई जाये। जहां तक सहयोग एवं दिशा प्रदायक का सम्बन्ध है, सभी शास्त्रें में सबसे बड़े सहयोगी मार्गदर्शक गुरू को ही कहा गया है, गुरू द्वारा शिष्य को सदैव उसकी उन्नति का ही मार्ग प्राप्त होता है, गुरू के शरण में आकर तथा शुद्ध मार्ग से की गई कोई भी गुरू भक्ति निष्फल नहीं हो सकती।
गुरू के पश्चात् सबसे बड़ा सहयोगी परिवार है, और परिवार में भी जो पूर्वज हैं, उनका स्थान उच्च है, जीवित रहते हुये आपस में कई बार मतभेद, मनमुटाव एवं विरोधाभास हो सकता है, लेकिन मृत्यु के पश्चात् यह सब सांसारिक स्थितियां समाप्त हो जाती हैं, जिस प्रकार एक पिता सदैव यही चाहता है, कि उसका पुत्र उससे अधिक योग्य बने, उसी प्रकार हमारे पूर्वज यही चाहते हैं, कि उनकी संतान अपने जीवन में सम्पूर्ण रूप से सुखी हों।
गीता में लिखा गया है कि व्यक्ति शरीर का अन्त कर देने से ही समाप्त नहीं होता है, वह तो नये वस्त्र धारण करने की प्रक्रिया सम्पन्न कर देता है, स्थूल शरीर का त्याग कर सूक्ष्म शरीर धारण कर लेता है, विभिन्न शास्त्रें का कथन है, कि जीवन मृत्यु के उपरांत भी अपने कुटुम्बियों के आस-पास मंडराता रहता है, क्योंकि उसे उनसे मोह रहता है, वह जीवन तो अपने सूक्ष्म शरीर से सबको देख सकता है, लेकिन उसे कोई देख नहीं सकता, यदि उसे उचित भावना एवं पूजा, आवाहन प्राप्त नहीं होता है, तो अत्यन्त निराश हो जाता है, यदि पितरों को श्रद्धा पूर्वक पूजा, ध्यान एवं आवाहन किया जाय, तो वे उसके प्रत्येक कार्य में ऐसे सहयोगी बनते हैं, कि चिन्तायें एवं समस्यायें उनके जीवन से दूर ही हो जाती हैं, इसीलिये जो विधि पूर्वक पूजा, यज्ञ करते हैं, वे पूजन कार्य से पहले अपने पितरेश्वरों का ध्यान करते हैं, उनका आह्नान करते हैं।
यजुर्वेद में कहा गया है, कि पितरों का आह्नान करते समय उन्हें पूर्ण निमंत्रण दें, अपने जीवन के सभी कार्यों में भागी बनायें, तथा अपनी आयु, यश, उन्नति में वृद्धि हेतु कामना करें।
पितरेश्वरों की शक्ति सूक्ष्म शरीर होने के कारण अत्यन्त विशाल बन जाती है, वे शक्ति एवं सिद्धि के निश्चित स्वरूप बन जाते हैं, उत्तम होने के कारण स्वास्थ्य, वायु, गर्भ आदि कार्यों के नियंत्रक बन जाते हैं, वे अपनी शक्ति से आने वाली घटनाओं को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, यदि उनकी पूर्ण कृपा रहती है, तो वे अपनी संतानों को ऐसा मार्ग दिखा सकते हैं, जिसमें कम से कम बाधाये हो, ऐसा कार्य करने को प्रवृत्त कर सकते हैं, जिससे सम्पूर्ण उन्नति हो, व्यक्तित्व में तेज उत्पन्न कर सकते हैं, जीवन में रस, माधुर्य एवं सौन्दर्य घोल सकते हैं, उनके लिये कोई भी कार्य असम्भव नहीं रहता है, आवश्यकता केवल इस बात कि है, की वे पूर्ण रूप से प्रसन्न हो, और उनकी पूजा, साधना नियमित रूप से की जाय।
धर्म, साधना एवं शास्त्रें में रूचि रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कोई भी श्रेष्ठ शुभ कार्य प्रारम्भ करने से पहले अपने पूर्वज पितरेश्वरों का ध्यान अवश्य करता है, लेकिन यह स्थिति ही पूर्ण नहीं है, उन्हें पूर्ण रूप से अपने अनुकूल बन कर प्रत्येक कार्य में सहयोग प्राप्त करने हेतु विशेष साधना की आवश्यकता रहती है, शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध दिवसों को शुभ कार्यों के अनुकूल नहीं माना जाता है, इस समय वायु की गति एक विशेष प्रकार की रहती है, आकाश में तारा मण्डलों का एक विशेष समूह बनता है और यह सिद्ध हो चुका है, कि इस समय पूर्वज पितरेश्वर सूक्ष्म शरीर से इस पृथ्वी लोक पर अपनी पूर्ण गति से विचरण करते हैं, यदि इस समय कोई साधक पूर्ण विधि विधान सहित पितरेश्वर साधना करे, तो उसे अन्य समय की अपेक्षा अधिक सरलता से पूर्ण सफलता प्राप्त हो सकती है।
इस विशेष साधना में सबसे बड़ा माध्यम भावना है, अपनी समस्त इच्छाओं, कर्तव्यों को भावना के रूप में प्रकट कर देने से पितरेश्वर अत्यधिक प्रसन्न होते हैं, उनके प्रति पूर्ण रूप से सम्मान देते हुये, सहयोग की कामना ही इस साधना का विशेष लक्ष्य है, जहां व्यक्ति नहीं पहुँच सकता है, वहां भावना पहुँच सकती है और जहां भावना होती है, और उसके पीछे शुद्ध हृदय से किया कर्म होता है, वही सफलता एवं सिद्धि है, शुद्ध भावना के कारण ही अधिक से अधिक सहयोगी बन पाते हैं।
यह सत्य है, कि पितरेश्वरों के कारण ही वर्तमान शरीर अस्तित्व में आया है, पालन-पोषण और विकास हुआ है, जीवन को बनाने में उनका सहयोग प्राप्त हुआ है, उनके प्रति भक्ति नहीं प्रकट करने का यही अभिप्राय होगा कि व्यक्ति अपने अस्तित्व को ही नकार रहा है, उनके प्रति उपकार भावना निरन्तर प्रगट करना, उनकी साधना हर दृष्टि से आवश्यक है और यही तर्पण कहा जाता है।
भारतीय आदि ऋर्षियों की यह निश्चित धारणा और मान्यता थी कि आने वाले समय में मनुष्य नित्य प्रति अपने पूर्वजों का स्मरण, तर्पण, समर्पण नहीं करेगा काल के क्रम में वह उन्हें भुलता ही रहेगा इस कारण उन्होंने श्राद्ध पक्ष निश्चित किया आश्विन नवरात्रि से पहले आने वाले 14 दिन के पक्ष को पितृ पक्ष अथवा श्राद्ध पक्ष इस बार 10 सितम्बर से 25 सितम्बर से सम्पन्न किया जाता है इन दिनों में अपने पितरेश्वरों को तर्पण समर्पण सम्पन्न किया जाता है और यदि कोई पितरेश्वर किसी योनि में भटक रहा है अथवा उसकी आत्मा को पूर्ण गति प्राप्त नहीं हुई है तो वह सदगति को प्राप्त हो जाये और ब्रह्माण्ड में देव रूप में स्थित हो जाये, कुल देवता के रूप में स्थित हो जाये और उसे पूर्ण मोक्ष प्राप्त हो जाये जिससे जीवन मरण के बन्धन से मुक्त होकर अपनी भावी पीढ़ी जो इस संसार में अभी गतिशील है जीवित है वह कल्याणकारी मार्ग पर चलते हुए अपना जीवन सम्पन्न करें।
पितरेश्वर मुक्ति तर्पण साधना दो भाग में सम्पन्न की जाती है प्रातः काल पितरेश्वरों से सम्बन्धित एकान्तिक साधना सम्पन्न की जाती है और अभीजित मूल अर्थात 12 बजे के बाद शुद्ध भोजन इत्यादि बनाकर समर्पण सम्पन्न किया जाता है। यहां यह ध्यान रहे कि साधना का प्रथम खण्ड आपको स्वयं सम्पन्न करना है और साधना के द्वितीय खण्ड में संकल्प आपको स्वयं लेना है इस कार्य हेतु किसी ब्राह्माणइत्यादि को आमंत्रित कर भोजन विधान सम्पन्न करना है यह भोजन विधान भी अत्यन्त शास्त्रेक्त रूप से सम्पन्न किया जाता है।
यह साधना श्राद्ध दिवसों में कि जाने वाली साधना है, इसमें प्रथम दिवस का विशेष महत्व है, प्रथम दिवस से पितरेश्वरों का आह्नान कर उन्हें स्थापित किया जाता है और प्रतिदिन निश्चित संख्या में मंत्र जप एवं पूजन कर सिद्ध किया जाता है, जिससे कि वे साधक के वशीभूत होकर उसे अपने संरक्षण में ले लेते हैं।
इस साधना में कुछ विशेष प्रकार की सामग्री की आवश्यकता रहती है, जिनके बिना यह साधना पूर्ण नहीं हो सकती है, इस सामग्री में पांच सोमेश्वर रूद्राक्ष, 4 लघु नारियल, चावल, तिल, केसर, श्वेत वस्त्र, दूध, घी, शहद, चांदी का सर्प(आप सुनार से बनवालें) तुलसी पत्र आवश्यक है।
श्राद्ध के प्रथम दिन स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करें, यह साधना सूर्योदय के साथ ही प्रारम्भ कर देनी चाहिये, इस हेतु आवश्यक है, कि प्रातः अत्यन्त जल्दी उठकर सभी सामग्री की व्यवस्था एवं स्नान वगैरह कर अपने पूजा स्थान को शुद्ध कर साधना क्रम के अनुसार सामग्री रख दें।
अपने सामने लकड़ी के बाजोट पर श्वेत वस्त्र बिछाकर पांच सोमेश्वर रूद्राक्ष स्थापित करें, काले रंग से प्रत्येक सोमेश्वर रूद्राक्ष के चारों ओर एक घेरा बना दें, उसके पश्चात इन पांचों रूद्राक्षों के आगे क्रम वार चावलों की ढेरी पर पांच लघु नारियल स्थापित करें, एक ओर घी का दीपक अवश्य जला दें, अपने आसन के नीचे छोटा चांदी का सर्प स्थापित कर दें, जिससे कि किसी भी प्रकार के भूत पिशाच आदि आपको हानि नहीं पहुँचा सकें, अपने सामने जहां आपने पांच त्रिदिशा वाले सोमेश्वर रूद्राक्ष स्थापित किये हैं, उन्हें सिन्दूर अवश्य चढ़ाये तथा ये रूद्राक्ष काले तिलों की ढेरी पर स्थापित करने चाहिये।
अब पूजा स्थान से बाहर आकर तांबे के पात्र में जल ले कर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर 11 बार जल की अंजली दें, तथा पितरेश्वरों के आह्नान हेतु प्रार्थना करें, इसके साथ ही प्रत्येक अंजली के साथ निम्न मंत्रें का उच्चारण करें- ऊँ लं नमः ऊँ वं नमः ऊँ रं नमः ऊँ यं नमः इसके पश्चात् बिना किसी ओर देखे, सीधे पूजा स्थान में अपना आसन ग्रहण करें तथा निम्न ध्यान मंत्र का पांच बार जप करें, प्रथम बार जप करते हुये, पहले सोमेश्वर रूद्राक्ष को घी मिलाकर तिल अर्पित करें तथा क्रिया पांच बार दोहराये-
इस प्रकार शुद्ध मन से किये गये इस ध्यान से पितरेश्वर अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं, अपनी भावनाओं को पूर्ण रूप से प्रगट करते हुये उनसे हर दृष्टि से सहयोग प्राप्ति की इच्छा प्रगट करें, इसमें किसी प्रकार का कोई संकोच नहीं होना चाहिये, क्योंकि ये पितरेश्वर आपके अपने हैं, इसके पश्चात सामने रखे हुए लघु नारियलों का चारों ओर इस प्रकार अर्द्ध चन्द्राकर घेरा बना दें, और प्रत्येक लघु नारियल पर केसर, पुष्प, घी, चावल, तुलसी पत्र अर्पित करें, यह लघु नारियल प्रयोग इस साधना में अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि यह अर्द्ध चन्द्रकार स्थिति लक्ष्मण रेखा है, जो कि पितरेश्वरों को स्थायी रूप से आपके यहां स्थापित कर देती है।
इसके पश्चात विद्युत माला से पितरेश्वर बीज मंत्र का जप करें, इस साधना में जो माला प्रयोग में लायी जाये वह किसी दूसरी साधना में प्रयोग नहीं ली जा सकती है, इस बात का ध्यान रखना विशेष आवश्यक है।
यह प्रभावकारी बीज मंत्र परम विस्फोट शक्ति लिये हुये है और इसकी पांच मालाये उसी स्थान पर बैठे-बैठे जप करें। इस प्रकार प्रत्येक दिन पूजा विधान में बीज मंत्र की पांच माला का जप करना ही है।
यद्यपि प्रत्येक साधक जिसने भी यज्ञोपवित धारण किया है और दीक्षा ली है वह इस द्वितीय भाग को स्वयं सम्पन्न कर सकता है स्नान कर शुद्ध सात्विक भोजन बनाये उसके लिये आप स्वयं संकल्प लेकर यह क्रिया करें आगे जहां ब्राह्मण शब्द है उसका तात्पर्य व्यक्ति स्वयं है यदि आप चाहे तो किसी अन्य ब्राह्मण को भी बुला सकते है जो कि स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण कर भोजन बनाये।
उसके पश्चात् आप स्वयं अपने दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न संकल्प करें-
इसके बाद भगवान विष्णु की थाली बनावे और उसमें जो कुछ भी भोजन पकाया हो, वह रखे तथा उस पर तुलसी दल चढ़ावे, तत्पश्चात धेनु मुद्रा प्रदर्शित करते हुए निम्न मंत्र से भगवान विष्णु का भोग लगावे।
श्राद्ध में यह नियम है कि पांच स्थानों पर थोड़ा-थोड़ा भोजन रखें, जिसे पांच ग्रास कहा जाता है और निम्न मंत्र बोलते हुए प्रत्येक ग्रास पर जल चढ़ावें।
इसके बाद थोड़ा सा भोजन ब्राह्मणों के बाई ओर रख कर सर्प ग्रास निम्न मंत्र से दे।
इसके बाद अग्नि को पकी हुई सामग्री और घृत का भोग निम्न मंत्र से दें।
इसके बाद हाथ में जल लेकर संकल्प भर निम्न मंत्र को पढ़ता हुआ छोड़े, यहां पर अमुक शब्द के स्थान पर अपने उस पूर्वज का नाम ले, जिसके प्रति श्राद्ध व्यक्त किया गया है।
(जल छोड़े)
इसके बाद ब्रह्मार्पण कार्य सम्पन्न करे अर्थात हाथ में जल लेकर मंत्र पढता हुआ ब्रह्मार्पण कहे।
जल छोडे और नमस्कार करके कहे ब्राह्माणों भोजन ग्रहण करने की कृपा करें।
शास्त्रों की मर्यादा के अनुसार यह कार्य सम्पन्न होने के बाद ब्राह्माणों को चाहिये कि वे निम्न क्रिया सम्पन्न करें, अर्थात ब्राह्मण भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व निम्न मंत्र से चोटी की गांठ खोल दे(श्राद्ध भोजन करते समय चोटी खोल देनी चाहिये)।
फिर बाये हाथ से आंखों में जल स्पर्श करें। इसके पश्चात् भोजन करते समय मौन रहकर भोजन करे तथा इस भाव से भोजन करे कि आप द्वारा और ब्राह्मणों द्वारा किया गया भोजन समर्पण है, प्रसाद स्वरूप है।
इस प्रकार दो खण्ड में साधना और श्राद्ध कर्म सम्पन्न किया जाता है और प्रत्येक साधक के लिये दोनों ही खण्ड को पूर्ण करना आवश्यक है। इस प्रकार साधना करने से पितरेश्वर दोष मुक्ति प्राप्त होती है।
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