ये शब्द है पूज्यपाद गुरूदेव के जिन्हें उनकी अमर कृति ‘गुरू-सूत्र’ से यहां उद्धत किया गया है। जो किसी भी शिष्य के लिये श्रीमद्भागवत गीता से कम पवित्र पुस्तक नहीं है।
पूज्यपाद गुरूदेव की धर्म के सम्बन्ध में दो टूक शब्दों में की गई टिप्पणी हमें यह सोचने के लिये विवश कर देती है कि यदि धर्म किसी विवशता में जाकर सम्पूर्ण होता है तो क्या यह बात शिष्य धर्म के प्रति भी व्यक्त नहीं होगी?
क्या अपने विशुद्ध स्वरूप में शिष्य धर्म केवल कुछ एक नियमावलियों के पालन कर लेने के पश्चात् इति पर पहुँच जाता है अथवा किसी विशुद्धता में अवस्थित होता हुआ सम्पूर्ण होता होगा?
पूज्यपाद गुरूदेव ने अपने शिष्यो को सदैव नवीन दृष्टिकोण से सोचने की चेतना दी है और उन्होंने ही चेतना दी थी की गुरू का तात्पर्य किसी व्यक्ति से न होकर उस जीवन्तता से होता है जो प्राणश्चेतना के रूप में शिष्य को निरन्तर गतिशील बनाये रखती है।
समाज के संस्कारों में रचे-पचे आये शिष्य को गुरू सान्निध्य में रहने पर मर्यादा सिखाने के लिये यह आवश्यक था किसी नियमावली की रचना की जाये जिससे सभी शिष्यों के लिये आचार-संहिता बन सके किन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि शिष्य सदैव उन्हीं नियमों के घेरे में बंधा घूमता रहे?
इस प्रकृति में सब कुछ परिवर्तनशील है और प्रकृति में हो रहे परिवर्तन के साथ वे ही परिवर्तित हो सकते हैं जो प्रकृति से निरन्तर सामंजस्य बनाये रखने की कला को जानते हैं।
पूज्यपाद गुरूदेव ने एक प्रवचन में कहा है कि जिस दिन शिष्य मेरे सामने पहली बार आकर खड़ा होता है मैं उसी दिन उसके बारे में समझ जाता हूँ कि वह कहां तक मेरे साथ चलेगा लेकिन मैं मुंह से कुछ नहीं बोलता।
कोई शिष्य कैसे सदैव गुरू चरणों में नत बना रह सकता है, इसके लिये पूज्यपाद गुरूदेव द्वारा ही बताया गया एक सूत्र है कि यदि शिष्य को सदैव यह स्मरण रहे कि जिस प्रथम दिन वह गुरूदेव से मिला था उस दिन उसकी क्या मनःस्थिति थी तो उसे कभी प्रमाद नहीं हो सकता है।
वास्तव में शिष्य धर्म एवं गुरू धर्म दो पृथक स्थितियाँ नहीं है। जिस प्रकार से सिकर नदी का अस्तित्व अंततोगत्वा समुद्र में मिल कर सम्पूर्ण होता है उसी प्रकार से किसी भी शिष्य की पूर्णता तब होती है जब वह अपने गुरू में विसर्जित हो जाता है अर्थात् उनके समक्ष संकल्प-विकल्प से रहित हो जाता है।
नदी जब तक समुद्र में विसर्जित नहीं होती है तब तक उसका धर्म होता है निरन्तर छटपटाते हुए किनारों को तोड़कर बहते रहना और जब वह विसर्जित हो जाती है तो उसका धर्म बन जाता है समुद्र के प्रवाह में घुल-मिल कर उमड़ते रहना।
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