मातृ-पितृ ऋण से मुक्ति हुये बिना ना तो आध्यात्मिक सफलता मिल पाती है ना ही गृहस्थ सुख, समृद्धि, ऐश्वर्य, आज्ञाकारी संतान व ना ही शतायु जीवन की प्राप्ति हो पाती है। साधक यज्ञ से देवता, स्वाध्याय और तपस्या से ऋषि तथा परोपकार से मनुष्य ऋण से मुक्त तो हो जाता है। लेकिन ऐसी कोई क्रिया नहीं कर पाता जिससे वह पितृ ऋण से मुक्त हो सके। कुछ लोग पंडितों, पुरोहितों से पूजन करवाकर या कुछ ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। लेकिन पितरों की मुक्ति और उनके कोप से आपका बचाव नहीं हो पाता। जिसके परिणाम स्वरूप जीवन उन्हीं मलिन शक्तियों, प्रेतादि आत्माओं और दूषित वातावरण में पिस कर रह जाता है। इन्हीं कारणों से जीवन की प्रगति में बाधा, गृह कलह-क्लेश, पुत्र-पुत्रियों में संस्कार का अभाव, हमेशा रोग ग्रस्त रहना, पिता-पुत्र, भाई-भाई में घोर तनाव के कारण लड़ाई-झगड़े होना आदि बाधायें उत्पन्न होती हैं।
पितृ दोषों में मुक्ति पाकर हमारे पितृगण अपने वंशजों, संतानों तथा प्रियजनों को आयु, धन, विद्या, सौभाग्य, संतान सुख, कार्य, व्यापार वृद्धि स्वरूप में मंगलमय आशीर्वादों को प्रदान करते हैं। पितरों की प्रसन्नता से मनुष्य को पुत्र, यश, कीर्ति, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, अन्न, द्रव्य आदि सुख प्राप्त होते ही है।
इस हेतु साधक सद्गुरूदेव जी के निर्देशन में साधना सम्पन्न करें व सर्व पितृ दोष निवारण शतायु जीवन वृद्धि दीक्षा प्राप्त कर पितृ प्रकोपों से पूर्णरूपेण सुरक्षित बन सकता है। जिससे पूर्वजों का आशीर्वाद तो प्राप्त होता ही है, साथ ही मातृ-पितृ ऋण से मुक्त होकर साधक भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति और सुख-समृद्धि, धन-धान्य, पारिवारिक सामंजस्य बनने से प्रगति की ओर अग्रसर होता है और इसी से साधक के जीवन में शतायु जीवन की निरन्तर वृद्धि होती है।
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