ध्यान और शरीर दोनों अलग-अलग हैं, इस शरीर के माध्यम से ध्यान नहीं हो सकता, शरीर तो केवल बाह्य तरंगों को स्वीकार करता है और अपनी तरंगो को दूसरों की ओर प्रेषित करता है, जिसके माध्यम से उसके मन के भाव या अन्दर के विचार स्पष्ट होते हैं, कि वह क्रोध कर रहा है, प्रेम कर रहा है या घृणा कर रहा है, सुख का भाव है या दुःख का भाव है। बाहरी तरंगों के आदान-प्रदान की ये छोटी-मोटी अवस्थाये देह अवस्था में प्राप्त होती है।
शरीर तो अपने आप में बहुत छोटा सा भाग है- जिसकी उम्र साठ साल है, पचास साल है, सौ साल है। शरीर के माध्यम से ध्यान प्राप्त नहीं किया जा सकता, इस शरीर से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है— फिर भी प्राण को अवस्थित होने के लिये कोई आधार चाहिये, उस आधार को शरीर कहा गया है। किसी देवता को बैठने के लिये सिंहासन होना चाहिये, उस सिंहासन को शरीर कहा गया है, वह सिंहासन अपने-आप में देवता नहीं है—- सिंहासन केवल इसलिये है जिससे कि उसके ऊपर देवता स्थापित हो सकें, बैठ सकें।
शरीर भी एक सिंहासन है- जिस पर प्राण अवस्थित है, शरीर तो एक धरातल है- जिस पर अद्वितीय विभूमि अवस्थित है, शरीर वह माध्यम है- जिस पर ईश्वर अंश, देवता ब्रह्म या जो कुछ भी है वह एक रूप में, एक आकार में खड़ा है। इसलिये खड़ा है क्योंकि, दूसरे आकार को समझने के लिये एक आकार ग्रहण करना जरूरी है- एक आकार ही दूसरे आकार को समझा सकता है। एक पशु ही दूसरे पशु को समझा सकता है। एक बन्दर दूसरे बन्दर को समझा सकता है— एक बन्दर एक गाय को नहीं समझा सकता। ठीक इसी प्रकार से एक मनुष्य ही दूसरे मनुष्य को समझा सकता है।
ब्रह्म को भी इसीलिये शरीर धारण करना पड़ता है जिससे उसके समान जो दूसरे मनुष्य हैं, उनको आसानी से समझाया जा सके। इसलिये राम को भी एक शरीर धारण करना पड़ा है, अतः उच्चकोटि के सद्गुरू को भी एक शरीर धारण करना पड़ता है— और वैसी ही अवस्था में रहना पड़ता है, जिस अवस्था में आस-पास के लोग रहते हैं, जिससे कि वे समझ सकें और उसे अपना ही एक हिस्सा मान सकें— और उसकी बात सुन सकें— और समझ सकें। हजारों-लाखों व्यक्तियों में से कोई एक बिरला ऐसा निकल जाता है, जो उनकी उंगली पकड़ कर आगे बढ़ने की क्रिया प्रारम्भ कर लेता है। हजारों-लाखों व्यक्तियों में से किसी एक में ही चेतना प्राप्त होती है, जो उनकी उंगली पकड़ कर आगे बढ़ने की क्रिया प्रारम्भ कर लेता है। हजारों-लाखों व्यक्तियों में से किसी एक में ही ऐसी चेतना होती है, जो उनकी वाणी को समझ सकता है। हजारों-लाखों व्यक्तियों में से किसी एक में ही ऐसे भाव जाग्रत होते हैं, जब वह सद्गुरू की, उस अद्वितीय व्यक्तित्व की उंगली पकड़ सकता है, उनके पास रह सकता है–उनके साथ चलने की क्रिया प्रारम्भ करता है, वह पहचान लेता है, उसकी आँख पहचान लेती है- ‘यह व्यक्तित्व साधारण नहीं है।’
इसने का साधारण मनुष्य शरीर तो धारण किया है, इसके क्रिया-कलाप भी वैसे ही हैं, जैसे एक आम गृहस्थ के होते हैं, इसका रहन-सहन भी वैसा ही है, जैसे एक आम गृहस्थ का होता है, इसे भी हानि-लाभ, सुख-दुःख व्याप्त होता है, यह भी उदास होता है, रोता है, चिन्ता करता है, मगर फिर भी वह इन सबसे परे है।
वह इस विश्व की विभूति है, उसको पहचानने के लिये शरीर की आँखों से काम नहीं चलेगा, उसको पहचानने के लिये मन की आँखें खोलनी पड़ेगी, उसको पहचानने के लिये ध्यान की अवस्था में जाना होगा और जो व्यक्ति ध्यान की अवस्था में जाता है, उसको तब विराट रूप का अपने-आप में दर्शन हो जाता है। अर्जुन, कृष्ण को एक सामान्य आदमी ही समझ रहा था, वैसा ही रोता हुआ, वैसा ही उदास होता हुआ, वैसा ही मित्र, वैसा ही प्रेम करता हुआ। मगर कृष्ण ने जब अर्जुन को ध्यान की सातवीं अवस्था में पहुँचा कर, अपने-आपको उसके सामने खड़ा किया तो, अर्जुन एक बार ही में समझ गया- ‘ये सामान्य मनुष्य नहीं है, ये अपने-आप में एक अद्वितीय विभूति हैं। सद्गुरू चाहें तो किसी योग्य व्यक्ति को छलांग लगवा कर सातवीं अवस्था में पहुँचा सकते हैं, जैसे कृष्ण ने व्यामूढ़ अर्जुन को, मोहग्रस्त अर्जुन को एक छलांग के माध्यम से ध्यान की सातवीं अवस्था तक पहुँचा दिया— और पहुँचाते ही उसकी जो हजार-हजार आँखे जाग्रत हुई, उसके माध्यम से वह कृष्ण— सामान्य दिखाई देने वाले कृष्ण के विराट रूप को देख सका। ठीक उसी प्रकार सद्गुरू, वह अद्वितीय विभूति, यदि चाहें तो किसी भी शिष्य, किसी भी व्यक्ति को ध्यान की उस अवस्था में पहुँचा सकते हैं, जहाँ उस व्यक्ति के सामने वास्तविकता स्पष्ट हो जाती है, उसकी अद्वितीयता स्पष्ट हो जाती है, उसकी महानता स्पष्ट हो जाती है।
प्रश्नः क्या स्त्री और पुरूष की ध्यान की विधियाँ अलग-अलग हैं?
देहगत अवस्था में ही स्त्री और पुरूष का भेद है, जब मनुष्य देह से आगे की स्थिति में पहुँचने लगता है, तब पुरूष और स्त्री में कोई भेद नहीं रह पाता। यह तो शरीर का भेद है, यह तो तलछट का भेद है, यह आत्मा का भेद नहीं है, यह प्राणों का भेद भी नहीं है- जब भेद ही नहीं है, तो फिर ध्यान की विधियाँ भी अलग नहीं हो सकती। जो स्त्री है, वही दूसरे शब्दों में पुरूष है, जो पुरूष है, वही दूसरे शब्दों में स्त्री है। तुम स्त्री और पुरूष को अलग-अलग रूपों में— शरीर की आकृति और बनावट के कारण अलग-अलग देख रहे हो। आध्यात्मिक और चेतनात्मक दृष्टि से तो दोनों में कोई अन्तर है ही नहीं। दोनों एक ही स्थिति में एक ही प्रकार की भाव-भूमियों पर खड़े हैं। उच्चकोटि की स्त्रियां भी हुई हैं- कात्यायनी, मैत्रेयी, चैतन्या, वैचार्या, गौतमी— ये सब अपने आप में अद्वितीय विभूतियां थीं, उतनी ही ब्रह्म को प्राप्त होती हुई, उतनी ही मनुष्यता को प्राप्त होती हुई, उतनी ही ध्यान अवस्था को प्राप्त होती हुई, जैसे कि एक ऋषि हुआ है। इसलिये पुरूष और स्त्री को अलग-अलग देखना आध्यात्मिक दृष्टि से सम्भव ही नहीं है। केवल बाह्य रूप से, केवल शारीरिक अवस्था से हम उसमें भेद करते हैं- यह तो ऊपरी भाग है, यह तो ऊपरी भेद है, आन्तरिक रूप से तो कहीं कोई भेद है ही नहीं।
इसलिये जिस तरीके से पुरूष ध्यान कर सकता है, ठीक उसी प्रकार से एक स्त्री भी ध्यान की उस अवस्था तक पहुँच सकती है। जिस प्रकार से एक ही छलांग में एक सद्गुरू, एक कृष्ण, अर्जुन को सातवें स्थल पर पहुँचा सकते हैं तो—किसी स्त्री को भी पहुँचा सकते हैं, इसलिये इन दोनों के लिये ध्यान की विधि अलग-अलग संभव ही नहीं है।
प्रश्नः कहते हैं कि ध्यान की गहराई में उतरना चाहिये, यह गहराई में उतरना क्या है— इस गहराई में कैसे उतर सकते हैं?
मैं इसका उत्तर ऊपर दे चुका हूँ, गहराई में उतरने का तात्पर्य यह नहीं है कि कुएं में छलांग लगानी है। गहराई में उतरने की भावना यह भी नहीं है कि हम झटके से एक स्थान से दूसरे स्थान पर या एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी पर पहुँच जाये। यहां मेरे कहने का तात्पर्य है- हम एक स्थिति से दूसरी स्थिति की ओर बढ़ते हैं, जो पहली स्थिति है ‘देहगत स्थिति’ उससे दूसरी स्थिति में पहुँच, फिर तीसरी स्थिति में पहुँचे फिर चौथी स्थिति में पहुँचे —और ऊपर मैंने बताया- उन सातों स्थितियों में से क्रमशः उतरते हुये, जिस जगह हम खड़े होते हैं- वह ध्यान की अवस्था है, वह पूर्णानन्द की अवस्था है। इसी तरीके से, अभ्यास के माध्यम से उन सातों अवस्थाओं को प्राप्त करते हुये, हम उन स्थितियों को प्राप्त कर सकते हैं, जिसे शास्त्रें में, वेदों में ब्रह्मानन्द कहा गया है। जिसको पूर्णानन्द कहा गया है।
जिसको सही अर्थों में आनन्द की संज्ञा से विभूषित किया गया है। इस गहराई में उतरने का अपना ही एक आनन्द है, अपना ही एक आलौकिक सौन्दर्य है। ज्यो-ज्यों हम बाहर की ओर बढ़ते रहते हैं, त्यों-त्यों झुर्रियां समय के प्रभाव से आती रहती हैं, त्यों-त्यों विषाद के कण मुँह पर आते रहते हैं, त्यों-त्यों चहरे पर कुरूपता आती रहती है— मगर ज्यों-ज्यों हम अन्दर उतरते रहते है, त्यों-त्यों चेहरे की तेजस्विता बढ़ती रहती है, चेहरे का प्रभाव बढ़ता रहता है, चेहरे का और शरीर का सौन्दर्य बढ़ता रहता है। अन्दर से जो रश्मियां इस शरीर को भेद कर प्रवाहित होती हैं, वे आस-पास के वातावरण को स्वच्छ और पवित्र बना देती है।
यदि एक आश्रम में चाहे चालीस या पचास शिष्य हों और चाहे अच्छे से अच्छे व्यक्ति हो, मगर उनके पास यदि एक सद्गुरू नहीं होता तो, पचासों शिष्य अपने आप में मृत अवस्था में अनुभव करते हैं। उनको ऐसा लगता है कि जैसे-हम मरे हुये हैं—चलते तो हैं मगर काम करने में उतना जोश नहीं रहता— बात करने में वह क्षमता नहीं आ पाती, क्योंकि—उनके बीच में वह तनाव निकल जाता है, जिस तत्व को गुरू कहा गया है, जिस तत्व को सद्गुरू कहा गया है।
ऐसी स्थिति में हम बाह्य दृष्टि से भी पहचान सकते हैं कि यह व्यक्ति आलौकिक है या सामान्य है। सामान्य गुरू या सामान्य साधु आश्रम से चला जाये, तो शिष्य प्रसन्न होते हैं- यह चला गया, अब हम अपनी मनमौजी कर सकेंगे, मनमर्जी से कूद सकेंगे, नाच सकेंगे, मजे से खा-पी सकेंगे– – और दौड़ सकेंगे, जो कुछ करना होगा अच्छा या बुरा कर सकेंगे। दूसरा सद्गुरू होता है, जिनके जाने से विषाद उत्पन्न होता है, दुःख उत्पन्न होता है। आँख में आँसू झलकने लगते हैं, ऐसा लगता है, जैसे शरीर तो है, पर प्राण निकल गया- यह दोनों (सामान्य गुरू और सद्गुरू) में अन्तर होता है।
पूरे महाभारत काल में केवल एकमात्र कृष्ण ही दिखाई दे रहे थे, एक अकेला व्यक्तित्व, जो आडम्बर युक्त नहीं था, प्राण तत्व युक्त था। ठीक आश्रम में भी एक अद्वितीय विभूति— एक सामान्य दिखाई देने वाला व्यक्तित्व (सद्गुरू) भी अलग हट जाता है, दूर चला जाता है— चाहे पाँच किलोमीटर, चाहे पाँच सौ किलोमीटर— चला जाता है, तो ऐसा लगता है कि सब कुछ ठहर गया है, सब कुछ समाप्त हो गया है, शिष्य मृतप्राय से हो जाते हैं, उनमें धड़कन नहीं रहती, चेतना नहीं रहती। बाहरी आँखों से ही हम ऐसी स्थितियों का अनुभव कर सके हैं कि- यह व्यक्ति साधारण है या अलौकिक है और ऐसे व्यक्ति के माध्यम से हम अपने चित्त की अनेक वृत्तियों को पार करते हुये अन्तरमन की गहराई में उतर सकते हैं।
प्रश्नः कृपया आपने जो ध्यान की अवस्थाये समझाई हैं, क्या यह हमे कम समय में सम्भव है?
मैंने अभी आपको समझाया, समय इसके लिये अपने-आप में कोई महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है, यह तो एक छलांग है आप में कितनी हिम्मत है, आप कितनी गहराई तक छलांग लगा सकते हैं। यदि आप डरपोक है तो धीरे-धीरे कदम बढ़ायेंगे, यदि आप कायर हैं, तो धीरे-धीरे अपना हाथ गुरू के हाथ में सौपेंगे यदि आप दृढ़ चित्त हैं, तो एकदम से अपना सर्वस्व गुरू को सौंप देंगे। आप अपने आपको कितना खोलते हैं, यह आप पर निर्भर है, आप अपने आप को कितना सौंपते हैं, यह इस बात पर निर्भर है कि जितना आप खुलेंगे, उतना ही आप आगे बढेंगे, जितना अपने को सौंपेंगे उतना ही आप गहराई में उतर सकेंगे।
यह कोई एक पाठशाला नहीं है कि, पहली क्लास के बाद दूसरी, फिर तीसरी और चौथी क्लास पार करने पर ही सोलहवीं क्लास पार कर सकते हैं। यह तो एक क्रिया है, यदि सद्गुरू की कृपा हो गई, यदि उन्होंने एहसास कर लिया कि यह व्यक्ति मुझे समझने की क्रिया का अहसास करने लगा है— यदि उनको यह विश्वास हो गया कि, यह मेरे जीवन में प्रवेश करने लगा है—यदि सद्गुरू को यह विश्वास हो गया, कि यह मुझ में लीन होने की क्रिया प्राप्त करने लगा है— जब सद्गुरू यह अनुभव करने लगते हैं कि, मेरे पांव में कांटा चुभा है और इसको दर्द अनुभव हुआ है— यह शरीर से अलग हटकर प्राणों से जुड़ने की क्रिया प्रारम्भ कर रहा है। जब प्राणों से जुड़ने की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है, तो धीरे-धीरे आत्मसात होने की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है, जैसे-दूध में दूध मिलने से एकरस हो जाता है, जैसे- नदी बहकर पूर्णरूप से समुद्र में समाकर एक हो जाती है और समाने के बाद हम चाहे तो भी नदी के पानी को समुद्र से अलग नहीं कर सकते हैं, यह नहीं बता सकते कि यह लोटे भर पानी नदी का है या समुद्र का है, क्योंकि दोनों एकाकार हो जाते हैं।
शिष्य की भी यही अवस्था है, जब वह नदी की तरह अपने आप में निश्चिन्त होकर यह विचार कर लेता है कि मुझे मिल जाना है, रूकना ही नहीं है, चाहे जो कुछ भी हो- खारी हो जाऊंगी, तो खारी हो जाऊंगी—मेरा नाम मिट जायेगा तो मिट जाएगा और ज्यों ही वह समुद्र में मिली, उसका गंगा नाम मिटा, वह समुद्र देवता हो गई। उसका मीठा पानी समाप्त हो गया और वह खारे पानी में बदल गई— उसकी उसे कोई परवाह नहीं, क्योंकि समाप्त होकर वह अपने आप में महासमुद्र कहलाई, फिर छोटी सी नदी नहीं कहलाई, वह परमब्रह्म में लीन हो गई।
शिष्य की भी यह अवस्था है, जब वह अपने आपको हटाकर पूर्णरूप से सद्गुरू के प्राणों में लीन होने की क्रिया प्रारम्भ कर लेता है—और लीन हो जाता है तो, सद्गुरू एक ही छलांग में उसको उस अवस्था तक पहुँचा देते हैं, जो ध्यान की अवस्था है, जो पूर्णता की अवस्था है, जो चैतन्यता की अवस्था है।
वह जितना गुरू पर विश्वास करता जाता है, उतना ही गुरू उसको आगे बढ़ाता रहता है। वह जितना उसमें एकाकार होता रहता है, उतना ही गुरू उसको आगे ठेलता रहता है- यह शिष्य पर निर्भर है कि, वह अपने आपको पूर्णरूप से समर्पित करता है या अधूरा समर्पित करता है। आधा-अधूरा समर्पण है, तो गुरू तटस्थ भाव से, द्रष्टा भाव से देखता रहता है- उनके विकारों को, उसके चित्त को, क्योंकि वह समझ जाता है कि, इसने अपने प्राणों को मेरे प्राणो में समाहित करने की दस प्रतिशत क्रिया की है- तो वह दस प्रतिशत ही उससे गहराई में उतारता है— इसके आगे वह उतार भी नहीं सकता—उसके लिए संभव नहीं।
मगर जिस क्षण गुरू यह निश्चय कर लेता है कि अब मुझे इसको उठाकर परम अवस्था तक पहुँचा देना है, तो फिर भले ही शिष्य में कितने ही विकार हों, फिर भले ही वह शरीर की अवस्था पर जिन्दा हो, किसी भी स्थल पर हो- गुरू उसको उठाता है और सीधे ही उसे उस ध्यान के महासमुद्र में उतार देता है— जो क्षीर सागर है— जहां पूर्णब्रह्म विराजमान हैं, जहां शेषनाग की शय्या पर ब्रह्म लेटे हुए हैं, जहां पूर्णता उनके चरण दबा रही होती है- उस अवस्था पर सद्गुरू चाहें तो सामान्य, अधम अजामिल जैसे पापी को भी एक छलांग में वहां उतार सकते हैं।
ये दोनों स्थितियां हैं, शिष्य के तरफ से भी और गुरू के तरफ से भी। शिष्य कितना अपने आपको सौंपता है, गुरू कितना उसको उठाकर फेंकता है- दोनों बातें एक-दूसरे पर निर्भर है, यह दोनों का आपसी और आन्तरिक समझौता है, ज्यों-ज्यों शिष्य आगे बढ़ता है, गुरू भी उसको सहारा देकर आगे बढ़ाता रहता है— इसलिये वहां- उस ध्यान की गहराई में एक सैकण्ड में भी पहुँच सकते हैं— और पांच हजार वर्षों में भी पहुँच सकते हैं। यह शिष्य के क्रियाकलापों पर, उसके चिन्तन पर— और सही शब्दों का प्रयोग करूं, तो समर्पण पर निर्भर करता है। समर्पण के माध्यम से ही गुरू निश्चित कर सकता है कि, मुझे इसको ध्यान की उस अवस्था में पहुँचना है, जिसे ब्रह्मतत्व कहा गया है, जिसको पूर्णता कहा गया है, जिसको पूर्णमदः पूर्णमिदं कहा गया है, जिसको परमहंस अवस्था कहा गया है, जिसको ईश्वर कहा गया है।
जब एक मनुष्य ईश्वर बन जाता है, तब जीवन की सर्वोच्च स्थिति बन जाती है। जब एक नर-नारायण बन जाता है, तब जीवन की एक सर्वोच्च स्थिति बन जाती है। जब एक अदना सा व्यक्तित्व पूर्णता प्राप्त कर लेता है, तब पूरा संसार उसकी ओर ताकने लग जाता है, तब हजारों-लाखों लोगों का कल्याण करने में वह समर्थ हो पाता है, फिर भले ही वह गृहस्थ में दिखाई दे- वह शादी भी कर सकता है, वह हानि-लाभ, सुख-दुःख, में हंसता-मुस्कराता रहता है, मगर इसके साथ ही साथ वह अपने आप में पूर्णता से सजग भी रहता है।
आवश्यकता तो उस जगह पर पहुँचने की है—और उस जगह पर पहुँचने की क्रिया अत्यन्त कठिन है। उस जगह पहुँचने के लिये केवल एक ही शब्द का प्रयोग किया जा सकता है, वह है- समर्पण। समर्पण के पहले गुरू उसकी सैकड़ों बार परीक्षा लेते रहते हैं, हजारों बार उसकी परीक्षा लेते हैं, जैसे- सोने का मुकुट बनाने से पहले सोने को सैकड़ो बार तपाया जाता है, उसे आग में झौंका जाता है— उसको कूटा जाता है, बार-बार उसको तोड़ा जाता है, खींच कर तार बनाया जाता है, मगर फिर भी वह सोना उफ् नहीं करता, क्योंकि उसने समर्पण कर दिया है स्वर्णकार के हाथों में— और स्वर्णकार उसको ऐसा मुकुट बना देता है, जो मनुष्य नहीं देवताओं के सिर पर शोभायमान होता है। इसीलिये कबीर ने कहा है- गुरू कुम्हार शिष्य कुम्भ है गढि़ गढि़ काढ़े खोट। भीतर भीतर सहज के बाहर बाहर चोट।
जिस प्रकार कुम्हार घड़े को बनाते समय उस पर बाहर से चोट करता रहता है और अन्दर से उसे सहारा देकर संभालता रहता है, ठीक उसी प्रकार गुरू भी देखते रहते हैं- मैं ऐसा कहता हूँ, तो क्या करता है? यदि मैं इसको तोड़ता हूँ, तो यह कहां जाकर खड़ा होता है? यदि मैं इसकी परीक्षा लेता हूँ, तो यह कितना कच्चा बनता है? शिष्य निरन्तर सजगता के साथ जुड़े रहने की प्रक्रिया करता है। इस कशमकश में जो शिष्य जीत जाता है, वही सफल हो जाता है, उसे ही गुरू दोनों हाथों में उठाकर सीधे ध्यान की अवस्था में पहुँचा देते हैं। शिष्य जितना टूटेगा, जितना समर्पण की कसौटी पर खरा उतरेगा, उतना ही गुरू उसको एक-एक सीढ़ी पार कराता हुआ आगे तक पहुँचा देंगे।
प्रश्नः आपने सजगता शब्द का प्रयोग किया है और साक्षीभाव शब्द का भी प्रयोग किया है, यह सजगता और साक्षीभाव क्या है?
सजगता का तात्पर्य है- हर समय अपने आपको सहज रखना, हर समय मन में विचार रखना कि मुझे उस जगह पहुँचना है, जहां पर मेरी पच्चीस पीढि़यां नहीं पहुँच पाई, मैं पैदा होकर मरना नहीं चाहता, मैं कुछ अलग हटकर रहना चाहता हूँ, मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूँ जो अपने आप में अद्वितीय हो, जो मेरी पच्चीस पीढि़यों में नहीं हुआ है। जिस समय यह भाव आता है और इस भाव को निरन्तर मानस में बनाये रखता है, वह सजग रहता है। उसको यह मालूम होता है- मेरा लक्ष्य क्या है? उसको यह मालूम होता है- मुझे क्या करना है? सजगता के लिये उसको अपने माँ-बाप, भाई-बहन, संबंधी-रिश्तेदारों से मोह छोड़ना पड़ता है, क्योंकि वह या तो गुरू से मोह रख सकेगा या फिर अपने परिवार से मोह रखेगा- क्योंकि ये दोनों तीर के अलग-अलग ध्रुव हैं। तीर तो एक ही है, मगर तीर का अगला हिस्सा नुकिला है, धारदार है— और पीछे का हिस्सा फलक है। यदि शिष्य फलक में रहेगा तो पीछे ही रहेगा, जिस प्रकार से पीढि़यां समाप्त हुई, उसी प्रकार वह भी समाप्त हो जायेगा, वैसे ही श्मशान की यात्र कर लेगा। जो अगले नुकिले भाग पर है, उसको चुभेगा भी, दर्द भी होगा और सजग भी रहेगा— और सजगता जीवन की श्रेष्ठता है, तो बड़ी मुश्किल से प्राप्त होती है। जो सजग रहेगा उसे निरन्तर यह ध्यान रहेगा- मुझे समर्पण करना है। वह चाहे कुछ भी आदेश दे- मुझे इस पर विचार नहीं करना है, कि गुरू ने मुझे क्या आदेश दिया है? क्यों आदेश दिया है? यह उनका काम है। यदि मैं समझ जाऊंगा तो मैं खुद ही गुरू न बन जाऊंगा?
मैं तो एक शिष्य हूँ मैं तो मिट्टी का एक लौंदा हूँ वह मुझे क्या बनाना चाहते हैं, यह तो वे ही जाने—मैंने अपने आपको उनके हाथों में सौंप दिया—घड़ा बनायेंगे—सुराही बनायेंगे—दीपक बनायेंगे—बनायेंगे तो जरूर। यदि दीपक बनायेंगे तब भी मैं अंधकार को दूर कर सकूंगा। सुराही बना देंगे- तब ही मैं सैकड़ों लोगों की प्यास बुझा सकूंगा। मिट्टी को चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं है, सजग रहने की आवश्यकता है कि मुझे निरन्तर कुम्हार के हाथों में रहना है। साक्षीभाव का तात्पर्य है- सब कुछ सामने होते हुये भी निरन्तर द्रष्टा भाव में रहें, जैसे-सिनेमा हॉल में बैठा आदमी पिक्चर को देखता रहता है, उसके चहरे पर, मन पर कोई विकार या कोई सुख-दुःख व्याप्त नहीं होता, क्योंकि उसे यह मालूम है, मैं टिकट लेकर यहां बैठा हूँ और मुझे तीन घंटे बाद यहाँ से बाहर निकल जाना है- यह साक्षीभाव है। इसी प्रकार जीवन में भी माँ के प्रति, भाई के प्रति, बाप के प्रति, पत्नी के प्रति, संबंधियों के प्रति केवल साक्षीभाव रखना है। जो उसमें लिप्त नहीं है, जो देखता रहता है, माँ कहती है- उसका भी कहना मानता है, पत्नी कहती है- उसका भी कहना मानता है, सबका कहना मानता है, मगर अपने आप में सजग रहता है- यह मेरा लक्ष्य नहीं है, ये कह रहे हैं, मैं सुन रहा हूँ ये कह रहे हैं, मैं कर रहा हूँ बस खत्म। मेरा मूल लक्ष्य इनके बीच में स्वयं को समाप्त करना नहीं है। इस शरीर के तल पर जीवित रहकर समाप्त होना नहीं है।
इस शरीर के तल से नीचे उतर कर उस जगह पहुँचना है— जहाँ पहुँचने पर ब्रह्मत्व प्राप्त होता है— जहाँ पहुँचने पर ईश्वरत्व प्राप्त होता है— जहाँ पहुँचने पर नारायणत्व प्राप्त होता हैं— और उस जगह पहुँचने पर ही पूरा संसार उसे देखेगा और आने वाली पीढि़यां उसकी सराहना करेंगी, उसकी ही नहीं अपितु उसके माता-पिता की भी, उसके कुटुम्ब की भी, उसके परिवारजनों की भी। जब कृष्ण को स्मरण करते हैं तो राधा को भी स्मरण करते ही है, कृष्ण को स्मरण करते हैं तो यशोदा और नन्द को भी स्मरण करते हैं, क्योंकि वे उनसे जुड़े हुये हैं।
वह व्यक्ति जो सजग है, सद्गुरू के चरणों में लीन होकर ध्यान अवस्था और समाधि तक पहुँचता है, तो उसके साथ-साथ उसके माँ-बाप भी अपने-आप सम्मान योग्य बन जाते हैं, धन्यभागी बनते हैं, अहोभागी बनते हैं, गर्व करते हैं— और उस पीढ़ी का वह एक वरदायक व्यक्तित्व बनता है, क्योंकि अपनी पीढ़ी में वह उस जगह पहुँचा है, जो अपने आप में ध्यान की पूर्ण अवस्था है, जिसको पूर्णमदः कहा गया है, फिर भी वह साक्षीभाव से इस संसार में बना रहता है, निरन्तर उनके बारे में सोचते हुये भी वह शरीर से गुरू के चरणों में बना रहता है, क्योंकि सिंहासन तो वही है, जिस पर देवता को स्थापित करना है, जब सिंहासन ही प्राप्त नहीं होगा, तो देवता का कहाँ स्थापन होगा? जब सिंहासन ही हजार मील दूर होगा, तो फिर देवता को कहां स्थिापित किया जायेगा?
इसलिये विचार माँ-बाप, भाई-बहन तक रखते हुये भी वह साक्षीभाव से देखता रहता है- माँ अपना सुख-दुःख भोगते रहती है, बाप अपना सुख-दुःख भोगता रहता है- जिसका जैसा कर्म है वह उसी प्रकार फल भोग रहा है, वह खड़ा-खड़ा देखता रहता है— मगर अपने सिंहासन रूपी शरीर को, गुरू के हाथों में ही रखता है, क्योंकि गुरू उस सिंहासन पर, वह मूर्ति स्थापित करने जा रहे हैं, जिस मूर्ति को ईश्वर कहा गया है, जिस मूर्ति को देवता कहा गया है, जिस मूर्ति को ब्रह्म कहा गया है।
प्रश्नः ब्रह्मचर्य क्या है? क्या गृहस्थ व्यक्ति भी ध्यान कर सकता है? साधु क्या है, क्या ध्यान के लिये साधुता या ब्रह्मचर्य आवश्यक है?
ब्रह्मचर्य का तात्पर्य गलत लगा लिया गया है और सैकडों वर्षों से इस शब्द की जितनी दुर्गति हुई है, उतनी किसी शब्द की नहीं हुई है। हमने अविवाहित रहने को ब्रह्मचर्य मान लिया है- जो कुंआरा है, वह ब्रह्मचारी है। जबकि, ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है- जो ब्रह्म के अनुसार चले, जो ब्रह्म जैसा आचरण करे, वह ब्रह्मचारी है। जब व्यक्ति ब्रह्म तक पहुँचेगा, तभी ब्रह्मचर्य अवस्था प्राप्त हो पायेगी। ब्रह्मचारी का ध्यान से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, ध्यान के लिये जरूरी नहीं है कि वह ब्रह्मचारी बने, क्योंकि ध्यान की अंतिम अवस्था ब्रह्मचर्य है— जब वहाँ पहुँचेगा, तब वह ब्रह्मचारी कहला सकेगा, प्रारम्भ में ब्रह्मचारी कैसे कहला सकेगा? प्रारम्भ में तो शरीरचारी कहलायेगा, ब्रह्मचारी या ब्रह्मचर्य तो बहुत बाद की अवस्था है क्योंकि ब्रह्म को जानकर, उसके अनुसार चलने की क्रिया जो करता है, वह ब्रह्मचारी है।
साधुता का तात्पर्य—भगवे कपड़े पहनने की क्रिया को साधुता नहीं कहते हैं, जो एकाग्र रह सकता है, जो निर्विकार रह सकता है, जिसके मन में, जिसके चित्त में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता, जो किसी स्त्री को देखकर मोहान्ध नहीं होता, जो विषय-वासनाओं में लीन नहीं होता, जो अपने आप में साक्षीभाव सीख गया है, जिसने अपने आपको साध लिया है, जिसने मन को साध लिया है वह साधु है।
यह आवश्यक नहीं है कि, केवल साधु ही ध्यान कर सकता है— और सही अर्थों में कहा जाये तो, साधु ध्यान कर ही नहीं सकता, क्योंकि साधु करेगा तो उसकी आंख में विकार उत्पन्न होगा, क्योंकि उसने उन इच्छाओं का दमन किया है, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि, संन्यासी नहीं उतर सकता। यदि वह सही अर्थों में न्यास कर चुका है, छोड़ चुका है, साक्षीभाव में आ चुका है, तो वह सन्यासी है और यदि वह संन्यासी है तो, वह ध्यान की गहराई में उतर सकता है। इसलिये ध्यान के लिये— न कुंआरे रहने की जरूरत है—न विवाह करने की जरूरत है— न स्त्री होना जरूरी है— न हिमालय में जाना जरूरी है— आप किसी भी स्थिति में हों— मगर आपके अन्दर एक तीव्र लालसा हो, इच्छा हो, एक भावना हो, एक दृढ़ निश्चय हो- समर्पण का।
यहां तीनों चीजें आवश्यक हैं। एक पहला साक्षीभाव- जहां आप अपने परिवार को साक्षीभाव से देखते हुए सद्गुरू के पास खड़े हैं। दूसरा, समर्पण- अपने आपको साक्षीभाव में रखते हुए मन से, विचारों से, प्राणों से, भावनाओं को अपने आप को समर्पित करें और समर्पण के बाद आपके पास सोचने का, निर्णय करने का, कोई चिन्तन, कोई क्षमता नहीं है। गुरू क्या कर रहा है? इसकी तुम्हें गणित करने की जरूरत नहीं है, गुरू क्या कह रहा है, तुम्हें ये देखने की जरूरत है। और तीसरा, प्रबल इच्छाशक्ति- मुझे इसी जीवन में इस शरीर से आगे बढ़कर उस जगह पहुँच जाना है, जो पूर्णता प्राप्ति की जगह है, जो अपने आप ध्यान की जगह है।
प्रश्नः क्या ध्यान में जप करने से जल्दी सफलता और सिद्धि मिलती है?
जब आप ध्यान में पहुँच गये, तब जप हो ही नहीं सकता, फिर कोई चिंतन नहीं रहेगा। एक तरफ आप आँख बंद करेंगे और दूसरी तरफ आप लक्ष्मी की माला जपेंगे—आप चिन्तन, आपकी विचारधारा तो लक्ष्मी में है, माला में हैं, फिर ध्यान कहाँ हुआ? ध्यान का ध्येय है ‘न’ जहाँ कुछ भी अहसास नहीं है, शरीर का भी, प्राणों का भी और मन का भी—कुछ है ही नहीं, तो फिर माला कहां से आ गई? लक्ष्मी कहाँ से आ गई? फिर मंत्र-जप कहाँ से आ गया? ध्यान जहाँ है वहाँ पर मंत्र जप की आवश्यकता नहीं है। ध्यान जहाँ है वहाँ किसी प्रकार के क्रियाकलापों की आवश्यकता नहीं है।
क्योंकि इनको तो हम पहले शरीर पर ही छोड़ चुके हैं और वहाँ से आगे बढ़कर हमने जिस भाव-भंगिमा को स्पर्श कर लिया, वहाँ यह धन-दौलत वगैरह सब सामान्य सी बात है, क्योंकि उसके सामने स्वयं लक्ष्मी साकार उपस्थित होगी ही। ऋद्धि-सिद्धि, महाकाली, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी, धन-वैभव, यश-प्रतिष्ठा तो उसके चरणों में रहेंगे ही, क्योंकि वह उस स्थान पर है, जिसको पूर्ण कहा गया है, भौतिक रूप से भी, आध्यात्मिक रूप से भी और राजसी रूप से भी। जनक अपने आप में पूर्ण राजा थे, उनकी सैकड़ों रानियां थी, परन्तु उसके बाद भी वे पूर्ण ब्रह्मचारी थे। कृष्ण सोलह हजार रानियों के पति होते हुये भी पूर्ण ब्रह्मचारी थे, क्योंकि वे ब्रह्म को जानने की क्रिया करते थे। इसलिये पत्नी होना या प्रेमिका होना अथवा पति होना इन बातों का ब्रह्मचारी होने से कोई मतलब नहीं है। इसलिये ध्यान में माला, मंत्र-जप की आवश्यकता होती ही नहीं और जहाँ पर मंत्र जप है, वहाँ ध्यान नहीं है। ध्यान और बाहरी क्रियाकलाप दोनों अलग-अलग तथ्य है।
प्रश्नः मन में कामुक और बुरे विचार उठते रहते हैं, इनको दबाने के लिये क्या किया जाना चाहिये?
मन में कामुक और बुरे विचार इसलिये उठ रहे हैं, क्योंकि आपने स्वयं को पहचानने की क्षमता को भुला दिया है। आपको इस बात का अहसास नहीं है कि हीरा क्या है, और कंकड क्या है? उज्ज्वलतम हीरा कोयले की खदान से ही निकलता है। जहां कोयला पैदा होता है, वहीं हीरा पैदा होता है, एक ही धरती पर एक ही खान में, किन्तु उसे पहचानने की क्षमता होनी चाहिये। यह इस बात पर निर्भर है कि, आप कंकड़-पत्थर चुनते हैं, कोयला चुनते हैं या हीरा चुनते हैं- यह तो आपकी इच्छा की बात है और यदि ऐसे विचार मन में हैं तो इनको दबाने की आवश्यकता नहीं है, दबाने से तो ये और ज्यादा उभर कर सामने आयेंगे। गेंद को पृथ्वी पर जितना जोर से मारेंगे, वह उतनी ही ज्यादा दबेगी और वह जितनी ज्यादा दबेगी, उतनी ही ज्यादा उछलेगी—इन विचारों को दबाने की आवश्यकता नहीं हैं।
यदि आपके कामुक विचार हैं तो आप उनको रूपान्तरित कर सकते हैं। यदि स्त्री की तरफ मोहान्ध हैं, तो आप नदी की तरफ मोह करिये, आप फूल की तरह अपने आपको झुकाइये, आकाश में टिमटिमाते तारों से बात करना सीखिये, हवा से बात करने की क्रिया सीखिये, पेड़ों के झुरमुट के बीच में बैठकर अपने आप का काम में रूपान्तरण हो जायेगा, क्योंकि जो काम, जो धारणा, जो विकार आप स्त्री के शरीर में देख रहे थे, वह प्रकृति में देखने लग जायेंगे— आपको नदी उतनी ही सुन्दर दिखाई देने लगेगी, आपको गुलाब के फूल से प्रेम होने लगेगा, आपको वासन्ती हवा से प्रीत होने लगेगी, आपको टिमटिमाते हुये तारों में एक अजीब सी आनन्द की अनुभूति होने लगेगी।
इसलिये इन कामुक और बुरे विचारों को दबाने की आवश्यकता नहीं है, इनको रूपान्तरित करने की आवश्यकता है— और रूपान्तरित करने के लिए संगीत आपका सहारा बन सकता है, चित्रकारी आपका सहारा बन सकती है, गायन आपका सहारा बन सकता है, प्रकृति आपका सहारा बन सकती है—और सबसे ज्यादा आप अपने आपका सहारा बन सकते हैं। जब आप अपने आप से प्रेम करने लगेंगे, फिर आपको दूसरों से प्रेम करने की जरूरत ही नहीं होगी। जब आप अपने आपके प्रति मोहग्रस्त होंगे, तो आपको दूसरों के प्रति मोहग्रस्त होने की जरूरत ही नहीं रहेगी। इसलिये इन विचारों को दबाने की आवश्यकता ही नहीं है, इन्हें रूपान्तरित करने की आवश्यकता है। यह बाहरी भेद है, रूपान्तरित करना भी बाहरी भेद है, यह विचार आना भी बाहरी भेद है और बाहरी भेदों को अपने प्रयत्नों से रूपान्तरित किया जा सकता है।
प्रश्नः क्या कोई ऐसा मंत्र-जप या विधि है, जिससे जल्दी से जल्दी ध्यान लग जाये?
पिछले पच्चीस हजार वर्षों में ऐसा कोई मंत्र-जप या ऐसी साधना विधि नहीं बनी है, जिसके द्वारा जल्दी से जल्दी ध्यान लग जाये। ध्यान ऊपर तलछट से हो ही नहीं सकता और मंत्र जप ऊपरी तलछट जैसे ही होते हैं, ऐसे विचारों से युक्त होते हैं, ऐसी इच्छाओं से युक्त होते हैं— जैसे- मेरी इच्छा है, मैं लखपति बन जाऊं, क्योंकि मैं लक्ष्मी की साधना करता हूं और लक्ष्मी का मंत्र जप कर रहा हूँ– यह ऊपरी तलछट का चिन्तन है। मैं बलवान होना चाहता हूँ, मैं ताकतवान होना चाहता हूँ, मैं शत्रुओं को परास्त करना चाहता हूँ इसलिये मैं बगलामुखी मंत्र जप कर रहा हूँ– यह ऊपरी तलछट है।
और ऊपरी तलछट अपने-आप में बाहरी कार्यों पर नियन्त्रण प्राप्त करने की अदम्ब इच्छा है, वह चाहे लोभ हो, चाहे काम हो, चाहे क्रोध हो, चाहे वासना हो, और जहां ऐसा है, वहां ध्यान नहीं हो सकता। ध्यान के लिये इन वस्तुओं की आवश्यकता है ही नहीं, मंत्र जप से ध्यान संभव ही नहीं है, ध्यान के लिये तो अपने आपको भुला देना पड़ेगा। जिसने अपने आपको भुला दिया, उसने ध्यान की ओर पहली बार कदम बढ़ा दिया। सजग रह कर अपने दोनों हाथों को सद्गुरू के हाथों में सौंप देने की क्रिया को ध्यान की पहली स्थिति कहते हैं। अपने आप को उनके चरणों में समर्पित कर देने की क्रिया को ध्यान की दूसरी सीढ़ी कहते हैं। अपने आपको मिटा कर उनमें पूर्णरूप से लीन होने की क्रिया को तीसरी सीढ़ी कहते हैं। उनके सुख और दुःख में ही अपना सब कुछ समझने की क्रिया को ध्यान की चौथी स्थिति कहते हैं। और इसके लिये कोई मंत्र जप है ही नहीं, इसके लिये कोई माला है ही नहीं, इसके लिये किसी भी प्रकार के क्रियाकलाप की आवश्यकता है ही नहीं।
इसलिये मंत्र जप के माध्यम से ध्यान नहीं हो सकता, ये अधकचरे साधु, पाखण्डी पंडित ऐसा मंत्र दे सकते हैं- ध्यान के लिये मंत्र करते समय या राम-राम करते समय आप ध्यान में लीन हो जायेंगे, यह भ्रम है, यह धोखा है, यह छल है, यह गुमराह करने की प्रकृति है, क्योंकि जहां विचार है, वहां ध्यान नहीं हो सकता, जहां कुछ पाने की इच्छा है वहां ध्यान नहीं हो सकता। जो सब कुछ छोड़ देता है, वह सब कुछ प्राप्त कर सकता है। टुकड़ों-टुकड़ों में खाने से सब कुछ प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि हम कंकड-पत्थर तो इकट्ठे कर सकते हैं, मगर मूल रूप से जो कुछ प्राप्त करना है, उसको खो देते हैं। ज्योंही हम पत्नी को प्राप्त करना चाहते हैं, ज्योंही हम पुत्र को प्राप्त करना चाहते हैं, तो इस रूप में कंकड-पत्थर ही हम इकट्ठे करते रहते है। एक पत्नी, दो पत्नी, दस पत्नियां, प्रेमिकायें, बीस प्रेमी, पांच लाख रूपये, दस लाख रूपये- ये सब कुछ तो ऐसा ही है, जो यहीं पर है, आगे तो कुछ जा नहीं सकता, दरवाजे तक भी नहीं जा सकता, वहां तो आपकी अर्थी अकेली ही जायेगी।
वह धन जो अद्वितीय है, जिसको आन्नद कहा गया है, वह इन चीजों से नहीं प्राप्त हो सकता, इन चीजों को छोड़ने पर ही अखण्ड आनन्द की प्राप्ति हो सकती है। जिसने अखण्ड प्राप्त कर लिया, उसके सामने ऐसे ध्येय तो कंकड पत्थर की तरह ही हैं। वह ठोकर मार देगा हीरों को, क्योंकि उसके सामने तो सैकड़ो राजा-महाराजाओं की भी जरूरत नहीं है— लक्ष्मी तो उसके चरणों में बैठकर उसके पांव दबाती रहती है—उसके सामने तो सैकड़ों सिद्धियां हाथ बांधे खड़ी रहती हैं— क्योंकि वह नर से नारायण बना हैं। और आप ज्यों ही नर से नारायण बनेंगे, त्योंही लक्ष्मी आपके चरणों में रहेगी। आप शांत समुद्र बन सकेंगे, तभी आप उस जहर— जो शेषनाग का जहर है, उस पर आराम से लेट सकेंगे, जहर आपके शरीर में व्यास नहीं हो पायेगा, बाहरी संसार का जहर भी आपके शरीर को नुकसान नहीं पहुँचा सकता। इसलिये ऐसी किसी भी विधि के माध्यम से भूलकर भी ध्यान की ओर बढ़ने की कोशिश मत करना, क्योंकि वह समय का अपव्यय होगा।
प्रश्नः धारणा क्या है?
ध्यान से आगे की जो स्थिति है, वह धारणा है। धारणा का मतलब है- ‘मैंने अपने आपको अपने आप में अवस्थित कर लिया है, मैं अपने आप में लीन हो गया हूँ’ ध्यान तक तो गुरू तुम्हें अपने साथ ले जाता है, उसके बाद गुरू तुम्हें छोड़ देता है। गुरू तुम्हें उस जगह ले जाकर खड़ा कर देता है, जहाँ गुरू बनने की क्रिया शुरू हो जाती है। जब तक तुम शिष्य हो, तब तक तुम उसकी उंगली पकड़कर चल रहे हो, मगर ध्यान की अन्तिम अवस्था पर पहुँच कर गुरू तुम्हें छोड़ देता है, क्योंकि उसे मालूम है- अब मैं उसे गुरू बनने की ओर प्रवृत्त कर रहा हूँ। उसको मैं सूर्य बनाने की ओर प्रवृत्त कर रहा हूँ। अभी तक तो यह दीपक था, मगर अब इसमें इतनी क्षमता आ गई है कि, जो कुछ मैंने दिया है वह खो नहीं सकता, इसके हृदय में जम गई है मेरी बात। ध्यान की जिस अवस्था में वह पहुँचा है, उस अवस्था से वापस नहीं आयेगा। संसार में रहेगा भी तो, साक्षीभाव में ही रहेगा, एक दिखावे के रूप में ही रहेगा, क्योंकि वह भी इस संसार का ही प्राणी है, परिवार का एक सदस्य है। साक्षीभाव के बीच में वह उस परिवार के साथ हंसता, रोता, मुस्कराता हुआ, छल करता हुआ, गीत गाता हुआ, नृत्य करता हुआ और उदास होता हुआ दिखाई देगा। यह बस बाहरी क्रियाकलाप इसलिये है कि वह संसार में है, वह परिवार में है।
मगर अन्तः स्थल में वह ध्यान की अतल गहराइयों में है, धारणा में है। पूर्णता के साथ में है, अब यह वहां से हट नहीं सकता। अब बाहरी मोह-माया इसको व्याप्त नहीं हो सकती, अब यह मुझसे परे नहीं हो सकता, अब इसके हटने की क्रिया नहीं है। जब उसमें द्रष्टा भाव आ जाता है— तब गुरू उंगली छोड़ देता है, तब गुरू उसका हाथ छोड़ देता है। जब वह धारणा शक्ति में खड़ा हो जाता है, उसके पांव में मजबूती आ जाती है, तब वह आगे की स्थिति प्राप्त कर लेता है— और जहाँ आगे की स्थिति प्राप्त होती है, वहां स्थिरता आने लग जाती है, जब हृदय में धारणा शक्ति प्रारम्भ हो जाती है, तब वह विचलित नहीं होता, तब किसी धन के ढेर को देखकर उसमें लोभ व्याप्त नहीं होता।
इस अवस्था में पहुँचने पर, इससे आगे का कदम है- धारणा शक्ति। यहाँ पहुँचने के बाद वह पीछे हटता ही नहीं है। जिसने एक बार उस आनन्द को चख लिया, उसे ऐसा लगेगा बहुत गंदा समाज है, घिनौना और घटिया, झूठ, छल और कपट से भरा हुआ—वह उस जगह अवस्थित हो जाता है, जहां अवस्थित होने की क्रिया को धारणा कहते हैं। धारणा शक्ति ध्यान के आगे की क्रिया है, वहाँ ध्यान अपने आप आगे बढ़ेगा, उस समय उसको फिर गुरू की जरूरत नहीं है, क्योंकि उसके आगे वह अपने आप में सद्गुरू बनने की क्रिया की ओर बढ़ता है। वह स्वयं अपने आप में रूपान्तरित हो जाता है— तब उस में रूपान्तरित होने की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। वह नर से नारायण बनने की ओर आधी से ज्यादा दूरी पार कर लेता है और धीरे-धीरे परिवर्तित होता हुआ धारणा शक्ति में पहुँचते ही वह अपने आप परमहंस अवस्था में पहुँच जाता है।
‘परमहंस’- हंस के समान स्वच्छ और निर्मल, जिसमें किसी प्रकार का मैल नहीं है, छल नहीं है, छूठ नहीं है, कपट नहीं है, मोह नहीं है— और किसी भी प्रकार की असात्विकता नहीं है— गोपियों के बीच रहकर कृष्ण अपने आप में योगेश्वर हैं— राधा से प्रेम करता हुआ भी वह अपने आपमें ब्रह्मचारी है— हजारों रानियों का पति होते हुए भी वह अखण्ड ब्रह्मचारी है- और महाभारत का युद्ध करते हुये भी वह अपने आप में जगद्गुरू है- ‘कृष्णं वंदे जगद्गुरू’ यह स्थिति धारणा शक्ति के माध्यम से ही सम्भव है। धारणा शक्ति तक पहुँचने के लिये कुछ प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन ध्यान तक पहुँचने के लिये तो सद्गुरू की जरूरत है और ध्यान के आगे धारणा तक पहुँचने के लिये सद्गुरू नहीं है, क्योंकि वहां तो अकेले ही यात्र करनी है, क्योंकि वहां से आगे का रास्ता उसका राजपथ है, कोई पगडंडी नहीं है, अटपटी जगह नहीं है, अस्पष्ट नहीं है, यह सीधा राजपथ है, जहां चलते रहना है— उस पथ पर अपने आप उसके पैर बढ़ेंगे—अपने आप उसकी मस्तियां बढेंगी—और वह अपने आप उस जगह खड़े हो जायेगा- जिसे परमहंस अवस्था कहा गया है।
प्रश्नः पल-पल, चौबीसों घंटे सजग कैसे रहा जा सकता है?
चौबीसों घंटे सजग रहने के लिये किसी प्रकार का प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है, तुम्हें साक्षीभाव से रहना है, सजग तो तुम्हारे अन्दर जो गुरू है, वह रहेगा। जब गुरू को तुमने अपने अन्दर धारण कर लिया तो वह अपने आप में सजग है ही, क्योंकि वह गुरू शरीर नहीं है, क्योंकि वह गुरू तो परमहंस से भी ऊपर की अवस्था है- वह ‘नारायणत्व’ की अवस्था है, वह ‘ब्रह्मत्व’ की अवस्था है, वह ‘पूर्णता’ की अवस्था है— जब वह अन्दर है, तो जितनी बार भी हृदय धड़केगा, तो सद्गुरू की ही धड़कन होगी, गुरू शब्द के बिना हृदय धड़क ही नहीं सकता, धड़कन तभी होगी जब गुरू होगा— क्योंकि गुरू उस धड़कन के साथ एकाकार हो जाता है।
प्रत्येक धड़कन के साथ गुरू को सजग रहना पड़ता है- कहीं छल, झूठ, कपट या दूसरी मलिन चीज उसकी धड़कन के साथ नहीं धड़के— सजग तो गुरू को रहना है, तुम्हें साक्षीभाव से रहना है, क्योंकि सजगता तुम्हारे नेत्रें में शरीर में नहीं है, सजगता तुम्हारी धड़कन में है—और धड़कने के लिए हृदय को कहना नहीं पड़ता- तुम धड़को— वह तो ऑटोमेटिक क्रिया है, आप सोते हैं तब भी हृदय धड़केगा ही, आप जगते हैं तब भी हृदय धड़केगा, आप कार चला रहे हैं तब भी हृदय धड़केगा—और जब वह धड़केगा— और गुरू जाग्रत है, अतः वह तुम्हें अपने आप जाग्रत रखेगा ही। पल-पल तुम्हें उस रास्ते पर बढ़ायेगा ही। आवश्यकता केवल इतनी ही है कि, तुम्हें अपनी धड़कन में गुरू को एकाकार कर देना है। यह सजगता जीवन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
प्रश्नः क्या धर्म के माध्यम से ध्यान व धारणा संभव है?
धर्म हमारी चीज नहीं है, हमने धर्म को स्वीकार नहीं किया है, धर्म तो हम पर थोप दिया गया है। मेरे मां-बाप हिन्दू थे, इसलिये मैं हिन्दू बन गया और यदि मैं मुसलमान के घर जन्म लेता, तो आटोमेटिकली मुसलमान बन जाता- इसका अर्थ है, मैंने सोच विचार कर धर्म को धारण नहीं किया है। ये तो जिन मां-बाप के घर में जन्म लिया और वे जो थे, वही मुझे बनना पड़ा, इसलिये धर्म आन्तरिक प्रवृत्ति नहीं है।
धर्म बाह्य प्रवृत्ति है— और जो बाह्य प्रवृत्ति है, उसके माध्यम से ध्यान प्राप्त नहीं हो सकता, वह शरीर की अवस्था है, हमारा शरीर हिन्दू है— हमारा शरीर मुसलमान है। जब शरीर समाप्त हो जायेगा, तब तुम न हिन्दू रहोगे, न मुसलमान रहोगे, क्योंकि शरीर है तो तुम्हारा धर्म है— क्योंकि शरीर के माध्यम से तुमने धर्म को पहचाना है। मैं हिन्दू हूँ, इसलिये मुझे मंदिर के सामने झूकना चाहिये। मैं मुसलमान हूँ इसलिये मुझे मस्जिद के सामने झूकना चाहिये। यह ‘हूं’ शब्द अहंकार का द्योतक है, अहंकार तुम्हारे शरीर में है, शरीर तुम्हारा धर्म है- ‘शरीरं धारयति स धर्मः’। जो शरीर धारण कर सकता है, वह ध्यान कैसे बना सकता है, ध्यान तो उसके बहुत आगे की चीज है, सातवें तल पर है। इसलिये धर्म के माध्यम से ध्यान की अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिये ध्यान के लिये- न हिन्दू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न सिख है। न निराकार है, न साकार है, न सगुण है, न निर्गुण है। न देवता है, न दानव है, न राक्षस है। न भाई है, न बहन है, न सम्बन्धी है, न रिश्तेदार है।
कुछ भी नहीं है, इसलिये धर्म के माध्यम से तुम ध्यान प्राप्त नहीं कर सकते, धर्म के माध्यम से धारणा भी संभव नहीं है, यह तो केवल बाह्य शरीर की अवस्था है— और शरीर की अवस्था से शांति और ध्यान को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
प्रश्नः कई साधु-संत और गुरू ध्यान की और धारणा की अलग-अलग विधियां बताते हैं, जबकि आपकी पद्धति सर्वथा अलग है, तो क्या वे सभी पद्धतियां गलत हैं?
मेरी राय में कोई पद्धति गलत नहीं है। वह व्यक्ति गलत है, यदि उसे ज्ञान नहीं है, यदि वह केवल शब्दों के माध्यम से ही आपको भ्रमित करता है, तो वह गलत है—पद्धति गलत नहीं। तिब्बत में ध्यान करने की विधि अलग है, वहां पर इन चित्त अवस्थाओं की आवश्यकता है ही नहीं, उन लामाओं की पद्धति बिलकुल हटकर है- उसके माध्यम से भी ध्यान की अवस्था प्राप्त होती है।
इसलिये मैं यह नहीं कहता- कोई विधि गलत है। विधि तो सभी सही हैं मगर व्यक्ति को ज्ञान नहीं- उस साधु को, योगी को या गुरू को ज्ञान नहीं है तो, वह जो कुछ देता है अधूरा देता है, वह गलत है— और आजकल अधिकांश हमें कचरा ही प्राप्त होता है, क्योंकि उन्होंने सही रास्ते को चुना ही नहीं और सही रास्ते पर चले ही नहीं— उन्होंने तो केवल भगवे कपड़े पहने, पाखण्ड किया, चोटी रखी, त्रिपुण्ड लगाया जटा बढ़ा दी, बाहरी वेश बदल दिया, बाहरी कपड़े बदल दिये— और बाहरी कपड़ों के माध्यम से कोई साधु या संत नहीं बन सकता।
बाहरी क्रिया-कलापो से वह साधु-संत नहीं बन सकता और जब वह साधु-संत है ही नहीं, तो फिर उसके विचार अपने आप में मिथ्या हैं, क्योंकि वह उस रास्ते पर चला ही नहीं— जब वह इस रास्ते पर चला ही नहीं, तो फिर वह बता ही नहीं सकता- ‘ध्यान क्या चीज है?’ वह तो शब्दों के माध्यम से केवल भ्रमित कर सकता है और शब्दों के माध्यम से तो कोई भी किसी को धोखा दे सकता है, छल कर सकता है, शब्दों के माध्यम से कोई भी किसी के सामने, किसी की प्रकार का पाखण्ड प्रदर्शन कर सकता है— शब्द अपने आप में ध्यान नहीं है।
मैं किसी भी विधि को गलत नहीं कहता हूँ। इसलिये उन व्यक्तियों को वे चाहे साधु हैं, चाहे संन्यासी हैं, चाहे योगी हैं, चाहे हिमालय में रहने वाले हैं, चाहे दिल्ली में रहने वाले हैं, प्रश्न यह नहीं है, कि वे कहाँ रहते हैं? प्रश्न यह है कि, क्या वे सही अर्थों में जानकार हैं? यदि वे जानकार है और उनको किसी अन्य विधि का ज्ञान है, तो वे सही हैं बारह सौ विधियां हैं ज्ञान प्राप्त करने की, एक-दो विधि नहीं, इस संसार में बारह सौं विधियां है— और सभी बारह सौ विधियाँ अपने आप में प्रमाणिक हैं। देखना यह है- उस व्यक्ति के पास खाली शब्दों की लफ्रफाजी है या सही विधि है। देखना यह है, कि क्या वह रास्ते पर चला हुआ है या केवल भ्रमित कर रहा है। इसलिये मुझे किसी साधु-संन्यासी से विरोध नहीं है, मुझे केवल उसके अहंकार से विरोध है, उसकी नासमझी से विरोध है, उसकी लफ्रफाजी से विरोध है, वह जो भ्रमित कर रहा है, उससे विरोध है।
प्रश्नः समाधि क्या है?
जब ध्यान के बाद व्यक्ति धारणा शक्ति में पहुँच जाता है, तब गुरू अपने आप में निश्चिन्त हो जाता है- अब यह अपने रास्ते पर निरन्तर गतिशील होगा ही, क्योंकि बाहरी संसार की कोई विषय वासना, कोई भावना इनको गंदा नहीं कर सकती, इसको मैला नहीं कर सकती, इसको हटा नहीं सकती— और वह उसका साथ छोड़ देता है— मगर वह देखता रहता है सजग दृष्टि से कि, वह सही रास्ते पर किस ढंग से बढ़ रहा है, क्योंकि उसको बराबर गतिशील बनाये रखना भी आवश्यक है, यदि आगे गतिशील नहीं होगा, तो फिर पीछे की ओर हटेगा, गति तो है ही, चाहे आगे की ओर हो, या पीछे की ओर हो।
यदि वह आगे की ओर गतिशील नहीं हुआ, तो पीछे की ओर वापिस लौटकर एक साधारण सी स्थिति में आ सकता है, यह डर है— उस गुरू को भी डर रहता है, इसलिये वह उस जगह खड़ा रहता है, जहाँ ध्यान की क्रिया समाप्त होती है— और उसको धारणा की ओर बढ़ा देता है— ज्योही वह पीछे हटता है, त्योंहि गुरू उसको धक्का देकर धारणा की ओर बढ़ा देता है। यद्यपि ऐसे क्षण बहुत कम होते हैं, मगर फिर भी एकाध बार ऐसा हो सकता है।
इसलिये गुरू की क्रिया बहुत कठिन होती है, उसको बिल्कुल सजग रहना पड़ता है—और उस समय फिर भी उसके मन में एक ही बात रहती है, कहीं वह अधोगामी नहीं बन जाये, इसलिये उस जगह गुरू बिल्कुल सजग खड़ा रहता है, जहां पीछे की ओर एक खतरनाक ढलान होती है। मगर ऐसा बहुत कम हो पाता है, जिसने एक बार उस आनन्द को चख लिया, अनुभव कर लिया, वह इन विषय-वासनाओं में लीन हो पायेगा—? वह तो बढ़ेगा ही और निरन्तर बढ़ता रहेगा और जब धारणा शक्ति मजबूत हो जाती है, तो गुरू निशि्ंचत हो जाता है- वह राजपथ पर है, क्योंकि उसके आगे की क्रिया, पूर्णता की क्रिया- समाधि है। समाधि का मतलब है- अपने आपको पूर्ण रूप से विस्मृत कर देना। समाधि के पांच अर्थ हैं-
समाधि का अर्थ है- अपने आपको पूर्णता तक पहुँचा देना।
समाधि का अर्थ है- पूरे ब्रह्माण्ड से अपने आपको एकाकार कर देना।
समाधि का अर्थ है- समस्त ब्रह्माण्ड में शरीर विचरण करना।
समाधि का अर्थ है- समस्त ब्रह्माण्ड को अपनी आँखों से देखना।
समाधि का अर्थ है- उस ब्रह्माण्ड की किसी भी हलचल में हस्तक्षेप करके उसको अपने या सामने वाले के अनुकूल बना देना।
जब ऐसा हो जाता है, तो फिर मृत्यु उसे नहीं छू सकती, क्योंकि वह मृत्यु से ऊपर उठ जाता है, काल से भी ऊपर उठ जाता है, फिर समय उसको स्पर्श नहीं करता, फिर दो सौ साल, पांच सौ साल, हजार साल उसके सामने कोई मायने नहीं रखते। दस हजार साल भी उसके लिये उतने ही होते हैं, जितना कि एक सैकण्ड या एक मिनट होता है, फिर वह अजन्मा होता है, निर्विकार होता है, निश्चिन्त होता है।
यह अलग बात है, यदि वह चाहे कि मुझे जन्म लेने का भाव प्रदर्शित करना है— जन्म लेना और अवतरण होना दोनों ही अलग-अलग चीजे हैं। कृष्ण ने जन्म नहीं लिया, कृष्ण अवतरित हुये, ऐसा लगा देवकी को कृष्ण मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ— ऐसा अहसास हुआ। वेदव्यास ने कहा- नवें महीने तक भी देवकी को यह अहसास ही नहीं हुआ कि, वह गर्भवती है। अचानक उसकी आँख खुलती है, तो समाने रोता हुआ कृष्ण उसे दिखाई देता है— और उसका मातृत्व, वात्सल्य जाग्रत हो जाता है—उसके स्तनों से दूध निकलने लग जाता है—वह अपने सीने से उसको लगा लेती है—यह जन्म लेने की क्रिया नहीं है—यह अवतरित होने की क्रिया है— और उस एक क्षण के लिए वह विस्मृति में डूब गई— क्षणमात्र में एक ऐसा घटना घटित हो गई, जो अपने आप में अद्वितीय है— और उस अद्वितीय घटना में उच्चतम स्थिति का व्यक्तित्व अवतरित हो गया। समाज ने उसको जन्म कहा पर योगियों ने उसको अवतरण कहा।
समाधि अवस्था तक पहुँचा हुआ व्यक्ति जन्म नहीं लेता। वह चाहे तो अवतरित हो सकता है। उसका चेहरा अपने आप में दैदीप्यमान हो जाता है, वह अपने आप में उस आनन्द को प्राप्त कर लेता है, जिसे वेदों ने-
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णदमुच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवा व शिष्यते।
उस पूर्ण में यदि पूर्ण मिला दें, तब भी पूर्ण रहेगा और निकाल दें तब भी पूर्ण ही रहेगा, क्योंकि ब्रह्माण्ड पूर्ण है, यह पृथ्वी पूर्ण है, मनुष्य पूर्ण है— और वही मनुष्य यह यात्र पूर्ण करता हुआ उस समाधि अवस्था तक पहुँचा जाता है- बूंद अपने आप में समुद्र बन जाती है- इस बूंद से समुद्र बन जाने की क्रिया को ध्यान, धारणा और समाधि कहते हैं।
वास्तव में ही वे व्यक्ति- वह चाहे पांच साल का हो, वह चाहे साठ साल का हो, वह चाहे बालक हो या बालिका हो, वह चाहे यौवनवती हो, वह चाहे वृद्धावस्था को प्राप्त हो—अवस्था का कोई भेद नहीं है, यदि किसी व्यक्ति का सौभाग्य हो कि, उसको जीवन में सद्गुरू मिलें, कोई अद्वितीय व्यक्तित्व मिले, तो इस रास्ते पर गतिशील हो—मगर उसकी पहचान बहुत कठिन है— कठिन इसलिये, क्योंकि वह हमारे समाज का ही एक अंग बनकर रहता है, हमारे समाज की तरह ही वह हंसता है, रोता है, खिलखिलाता है— और उसके बावजूद भी वह अपने आप में अलग बना रहता है, अपने अन्दर साक्षीभाव रखता हुआ।
लोग उसको कामी कह सकते हैं, लोग उसको दुराचारी कह सकते हैं, उसको गालियां दे सकते हैं, उसको हल्का कह सकते हैं—बार-बार उनके मन में विभ्रम पैदा होता है— और इस भ्रम को ही माया कह सकते हैं। यह व्यक्ति बार-बार अपने आस-पास के परिवेश पर माया का आवरण डालेगा, क्योंकि वह हजार लोगों की भीड़ को उस जगह नहीं पहुँचा सकता— संभव नहीं है उसके लिये, वह तो उन हजारों कंकड़ों से दो-चार हीरे ही छांटेगा— और उन दो-चार हीरो को छाटने के लिये बार-बार उसको माया का आवरण डालना ही पड़ेगा। ज्यों ही माया का आवरण डाला त्यों ही आस-पास के व्यक्ति, शिष्य, समुदाय सोचेंगे- यह व्यक्ति इतना महान हो ही नहीं सकता— संभव ही नहीं– – यह तो सामान्य आदमी है— यह भी बीमार पड़ता है— यह भी उदास होता है— यह भी चिन्तित होता है, फिर इस में महापुरूष जैसे कौन-कौन से चिह्न हैं? इसका उत्तर मैं इस लेख में पहले भी दे चुका हूँ-
जिसके पास बैठने से ही एक आनन्द, एक सुख की अनुभूति होती है।
जिसके पास बैठने से ही एक तृप्ति सी अनुभव होती है।
जिसके पास बैठने से ही पूर्णता अनुभव होती है।
जिसके चले जाने से एक खालीपन का अहसास होता है,
जैसे सब कुछ तो वही है, लेकिन सब कुछ खत्म हो गया, यह घर वही है, आश्रम वही है, क्रिया वही है, भोजन वही है, सब वही है—मगर वह आनन्द की अनुभूति नहीं है। शरीर तो वैसे का वैसा है मगर उसमें स्पन्दन नहीं है।
उस स्पन्दन को गुरू कहते हैं— उस स्पन्दन को पूर्णत्व कहते हैं— और ऐसे पूर्णत्व प्राप्त व्यक्ति को आप पहचान सकें— और आपका सौभाग्य हो कि, आप उसके पास पहुँच सकें— आपका अहोभाग्य हो कि, वह आपको अपना ले और यह आपके जीवन की सर्वोच्च निधि है, यदि वह आपको अपने पास खींच ले।
यह हजारों-हजारों जन्मों के पुण्य की प्रतीति है कि वह आपकी उंगली पकड़ कर उस रास्ते पर गतिशील करे- जो रास्ता मनुष्यता से समाधि अवस्था का है, जो रास्ता बूंद से समुद्र बनने की प्रक्रिया है, जो रास्ता जमीन से गौरी-शंकर पर्वत के शिखर तक पहुँचने की क्रिया है और जब आप गौरी-शंकर के शिखर पर पहुँच कर खड़े हो सकेंगे, वह आपके जीवन का श्रेष्ठतम क्षण होगा, तब पूरे विश्व की आँखे आप पर टिकी होगी।
आप सभी मेरे साथ उस गौरी-शंकर शिखर तक पहुँचे, संसार की आँखे आपकी ओर टिकी हों, आपके माँ-बाप धन्य हों, पिछली और आने वाली पीढियां गौरव के साथ आपको अपना कह सकें— और मेरे हृदय में आपकी अवस्थिति बन सके— मेरे हृदय में आप स्थापित हो सकें। मैं ऐसा ही आपको आशीर्वाद देता हूं।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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