ओजस्वी प्रवचन-
यज्जोग्रतो दूरमुदैति देवं तदु सुप्रस्य तथैवैति। दूंरगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।।
दूराच्च कमानाय प्रतिप्राणायाक्षये। आस्मा अशृष्वन्नशा कामेना जनयत्स्व।।
हे परमेश्वर स्वरूप सद्गुरू! दिव्य शक्तिमय, मेरा मन, जो जागते हुये भी भटकता रहता है, संसारी भावों से ही युक्त रहता है, संकल्प विकल्प से युक्त रहता है, सुषुप्तावस्था में भी मन की कृति भटकती ही रहती है, मेरा मन दिव्य ज्योतियों से जाग्रत होकर सदा ही शुभ संकल्प से युक्त हो जाये।
मुझे बार-बार कामना करते हुये, इस ईश्वरीय हृदय में प्रतिपालन के लिये आशाओं को सुनकर सद्गुरू प्राप्त हो गये और संकल्प द्वारा उस अनन्त सुख, आनन्द को अपने भीतर उत्पन्न कर दिया है। यजुर्वेद और अथर्ववेद के इन श्लोकों से आज का प्रवचन प्रारम्भ करते हुये अपने शिष्यों और जगत के कल्याण की ही इच्छा रखता हूँ।
प्रश्न यह है कि यदि शिष्य दोष करे, यदि शिष्य गलती करे या गुरू की आज्ञा का पूरी तरह से पालन नहीं करे तो गुरू का क्या दोष होता है? शिष्य को क्या दोष लगता है और उसका परिमार्जन कैसे हो? एक ही प्रश्न के दो पहलू है और दूसरा प्रश्न है कि द्वैत और अद्वैत की स्थिति में कौन सी स्थिति ज्यादा श्रेयस्कर है, और कैसे? यह द्वैत और अद्वैत की स्थिति वैदिक काल से है, वैदिक काल में भी एक मंत्र है यजुर्वेद का-
दवा सो पवदना यजोवासे वः सतं दाह वैदो सतं
क्या हम जो कुछ देखते है, वह बिल्कुल एक अलग है और जो कुछ हम लोग है वह बिल्कुल अलग है और दोनों अलग-अलग है तो यह अद्वैत है और यदि दोनों अलग-अलग नहीं है तो ऐसा डिफरेन्स महसूस होता है, ऐसा अलगाव महसूस होता है और आगे की मीमांसा, आगे के उपनिषद्कारों ने जो इस प्रश्न को लेकर के बहुत जूझे और यह द्वैत के बाद अद्वैत का विचार, मन में द्वैत और अद्वैत की लड़ाई वैदिक काल से लगाकर आज तक भी चलती आई है। कुछ लोग कहते है कि इस संसार में द्वैत हैं, क्योंकि माया अलग चीज है, ब्रह्म अलग चीज है, तीसरी कोई चीज संसार में है ही नहीं। जो कुछ है, वह पूरा संसार और जिस संसार के हम भी एक प्राणी हैं, एक सदस्य, एक पदार्थ हैं, हम अपने आप में कोई नवीन वस्तु नहीं है। जैसे पत्थर एक पदार्थ है, जैसे रूई एक पदार्थ है, जैसे हवा एक पदार्थ है, उसी प्रकार से हम भी एक पदार्थ है और वैज्ञानिक भाषा में एक पदार्थ में भार होना चाहिये। पदार्थ उसको कहते हैं जो जगह घेरता हो, पदार्थ उसको कहते हैं जिसमें घनत्व होता है और मनुष्य में घनत्व भी है, मनुष्य जगह घेरता है और मनुष्य में भार है इसीलिये मनुष्य भी पदार्थ की श्रेणी में आता है और दूसरी ओर यह माया, जब हम और जब उपनिषदकार या वैदिककार जब यह कहते हैं-
‘अहं ब्रह्मस्मि द्वितीयो नास्ति’
मैं ब्रह्म हूँ और साथ-साथ एक बात और कह रहा है, द्वितीय यहां दूसरा कोई है ही नहीं। जब मैं ब्रह्म हूँ तो फिर यह पत्नी क्या है और मैं ब्रह्म हूँ तो यह पुत्र क्या है और मैं ब्रह्म हूँ तो फिर यह पंखा, यह लाईट, यह रोशनी, यह सुख, ये सामग्री की वस्तुयें, यह विलास का यह ऐशो आराम, भोग-विलास यह सब क्या है?
क्योंकि शास्त्र तो झूठ है नहीं, और शास्त्र में यह कहा है, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, क्योंकि संसार में केवल मैं हूँ ‘अहं’ और अहं शब्द बना है पूरी संस्कृत की वर्णमाला का सारगर्भित स्वरूप, क्योंकि वर्णमाला का प्रथम अक्षर ‘अ’ से शुरू होता है और अंतिम अक्षर ‘ह’ है। अ आ इ ई से शुरू करते हैं ग घ और य र ल व श स ष ह। अ से लगाकर ह तक जितने वर्ण हैं उसके बीच में जितने नाम आते हैं, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, आदमी, वे सब कुछ मैं हूँ।
इसीलिये उसने शास्त्र में कहा ‘अहं’, उसने मनुष्य के लिये, अहं नहीं कहा वह सब कुछ मैं ही हूँ और श्रीकृष्ण ने भी गीता में यही बात कही, जो ‘अहं ब्रह्मस्मि’ में शब्द आया, उसी ‘अहं’ की व्याख्या गीता में हुई और गीता के दसवें अध्याय को हम पढे़ तो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि मैं वृक्षों में पीपल का पेड़ हूँ ऐसा नहीं कि मैं कृष्ण हूँ, वे कह रहे हैं कि मैं नदियों में गंगा नदी हूँ, मैं पहाड़ों में हिमालय हूँ, मैं धातुओं में स्वर्ण हूँ, इसका मतलब कहने का यह है कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’ मैं ब्रह्म हूँ और यह अलग बात है कि तुम मुझको पत्ता समझ सकते हो, पेड़ समझ सकते हो, मुझे नदियां समझ सकते हो, मुझे धातु समझ सकते हो, वह जो कुछ भी समझ सकते हो, वह मैं स्वयं ही हूँ।
यह तो उन लोगों की विचारधारा है जो अद्वैत मानते है। यह अद्वैत मानने वाले लोगों का चिन्तन है, एक विचार है, एक धारणा है और उस विचार को भी हम बिल्कुल नैग्लेक्ट नहीं कर सकते हैं, मना नहीं कर सकते हैं अद्वैत, क्योंकि वह स्वयं कह रहे हैं कि मेरे अलावा संसार में जो कुछ है, वह है ही नहीं। द्वैत को मानने वाले भी विचारक है और वे कहते है कि अहं मैं तो हूँ इसको हम मना नहीं कर रहे, मगर मेरे अलावा भी कोई दूसरी चीजें हैं जो मेरे ऊपर प्रभाव डाल रही है। जो मेरे ऊपर प्रभाव डाल सकती है तो दूसरी कोई चीज जरूर है। वह यह नहीं कह रहे कि तुम पीपल के पेड़ नहीं हो, इसको हम भी मानते हैं और तुम नदी हो यह भी हम मान लेते हैं और तुम हिमालय हो यह भी हम मान लेते है मगर तुम पर अलग दूसरी चीज का प्रभाव पड़ता है तो फिर दूसरी चीज जरूर है जो प्रभाव पड़ता है और हम पर प्रभाव पड़ता है सर्दी का, गर्मी का, परिस्थितियों का, गाली का, प्रसन्नता का, सम्मान का, असम्मान का, बीमारियों का, रोग का, सुख का और दुःख का।
इसका मतलब ये चीजें कुछ और चीज हैं जो हम पर प्रभाव डालती है और प्रभाव कुछ दूसरी चीज डाल सकती है क्योंकि अगर तुम खुद प्रभाव ही हो तो फिर ये कभी गर्मी कभी सर्दी क्यों हमेशा व्याप्त होती है? अगर कोई दूसरी चीज है नहीं व्याप्त करने वाली, कोई चीज है ही नहीं, तो कभी तुम रोते हो, कभी तुम प्रसन्न होते हो, ऐसा क्यों होता है? इसीलिये लोग कह रहे है कि नहीं, एक ही चीज तब तक नहीं है, द्वैत है, वो चीज अलग-अलग है एक चीज ब्रह्म है और दूसरी वे सारी चीजे हैं जो इस ब्रह्म का प्रभाव डालती हैं, जिनको माया कहा गया है इसीलिये इन दोनों की अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग तरह से व्याख्या की है और कोई भी शास्त्र, कोई भी चिंतन तभी आगे बढ़ सकता है क्योंकि मैं एक ही लाइन की व्याख्या अपने ढंग से करूँगा तो दूसरा व्यक्ति अगले ढंग से करेगा।
कानून, जो भारतीय कानून बनाये गये हैं, उसकी पुस्तक प्रकाशित है और दोनों वकील उस पुस्तक में एक लाइन के दो अलग-अलग अर्थ निकालते है। एक कहता है नहीं इस कानून का यह अर्थ है, दूसरा वकील कहता है यह अर्थ है, लाईन एक ही लिखी है, दोनों के लिये कानून की पुस्तक अलग-अलग नहीं है, दोनों में उसके अर्थ अलग-अलग निकाले गये है। ठीक उसी प्रकार से द्वैत और अद्वैत मूल वस्तु स्थिति आत्म है प्राणश्चेतना और इस प्राणश्चेतना के उन लोगों ने दो अर्थ निकाले हैं जिसको ब्रह्म कहा गया है, जिसको माया कहा गया है।
प्रश्न यही नहीं समाप्त होता है। यहां तो मैंने तुम्हें यह समझाया है कि द्वैत का अर्थ क्या है, अद्वैत का अर्थ क्या है और विद्वानों ने द्वैत क्यों कहा और विद्वानों ने अद्वैत क्यों कहा और प्रारम्भ से लगाकर आज तक अद्वैत को भी मानने वाले सैकड़ों ऋषि, संन्यासी, विद्वान हुये और द्वैत को मानने वाले भी सैकड़ों ऋषि, संन्यासी, विद्वान हुये।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या गुरू और शिष्य अद्वैत है या द्वैत हैं? यह प्रश्न जरूरी है और इसका उत्तर शंकराचार्य ने अत्यन्त ही प्रमाणिक ढंग से दिया है और मैं शंकर का या शंकराचार्य का उदाहरण इसीलिये देता हूँ कि वे साक्षात् शिव के स्वरूपमय है और शिव अपने आप में पूर्णतः देव है। जिनको कि देवता ही नहीं महादेव कहा गया है और उन्होने जो कुछ व्याख्याये की, जो कुछ चिंतन किया, जो कुछ तर्क दिया, जो कुछ बात कही, वह अपने आप में अत्यन्त सारगर्भित और महत्वपूर्ण है और जहां गुरू और शिष्य प्रसंग आया वहां पर शंकराचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा-
पूर्ण सदैव पूर्ण मदैव रूपं गुरूवै वाताम पूर्ण मदैव शिष्यं
शिष्य गुरू से अलग है, शिष्य गुरू नहीं है और गुरू शिष्य नही है, वे दोनों एक अलग-अलग है, इसीलिये अलग-अलग है कि जीवन में अद्वैत है ही नहीं, अद्वैत केवल अपने आपको छलावा देना है और सही अर्थों में देखा जाय तो अद्वैत के मीमांसाकारों ने अंत में हार माननी स्वीकार की है और द्वैत, यह सिद्धांत मानने वालों ने अपने आप को सही ढंग से प्रतिपादित किया। मूल बात यह कि जिन्होंने यह कहा कि माया और ब्रह्म अलग-अलग है, इस बात को अधिकतर विद्वानों ने स्वीकार किया और प्रतिशत के हिसाब से कहे तो यह प्रतिशत 60 प्रतिशत और 10 प्रतिशत विद्वानों ने कहा कि अलग-अलग नहीं है। 60 प्रतिशत विद्वानों ने वेद से लगाकर अनवरत इस बात को कहा कि माया अलग है, ब्रह्म अलग है और माया व्याप्त होती है ब्रह्म पर भी, क्योंकि ब्रह्म किसी शरीर में स्थित है, ब्रह्म अलग खड़ा नहीं हो सकता। वह ब्रह्म जब शरीर में स्थित है तो वह शरीर उस माया से व्याप्त होता है। जब मैं सुख अनुभव करता हूँ तो ब्रह्म अनुभव नही कर रहा, मै अनुभव कर रहा हूँ मैं जो कि मेरा शरीर है, मै गर्मी महसूस कर रहा हूँ, मैं प्रसन्न हो रहा हूँ मैं उदास हो रहा हूँ, क्योंकि ब्रह्म तो निर्विकार है, निर्लिप्त है और निर्विकार है तो उसके ऊपर नही किसी प्रकार का प्रभाव पड़ता है, वह एक अलग चीज है।
इसलिये गुरू और शिष्य भी अपने आप में द्वैत है। शिष्य की मर्यादा है, गुरू की मर्यादा है। गुरू एक तत्व बोध है, शिष्य भी एक तत्व बोध है या यो कहा जाय कि गुरू का एक अंश बोध स्वरूप है। जो गुरू अपने आप में पूर्ण है उसका एक घटक, एक कण, एक चिंतन शिष्य है, मगर शिष्य अपनी क्रियाओं के माध्यम से, अपने चिंतन के माध्यम से, अपने विचारो के माध्यम से गुरू की ओर बराबर बढ़ता हुआ उसमे पूर्णतः लीन हो सकता है और लीन होकर के अद्वैत बन सकता है।
क्योकि शिष्य की अपनी एक स्थिति है, क्योकि जीवन का जो आनन्द शिष्य मे है, गुरू मे नहीं है, जो चिंतन शिष्य कर सकता है, गुरू नही कर सकता। गुरू एक मर्यादा में बंधा हुआ है। उस मर्यादा के बाहर गुरू नही जा सकता, मगर शिष्य के सामने दोनों रास्ते खुले हैं क्योंकि उसको चलने का एक रास्ता है। गुरू स्थिर है, एक जगह खड़ा हो गया है और गुरू खड़ा हो गया है उस ब्रह्म को पूर्णतः आत्मसात करके, क्योंकि वह स्वयं ब्रह्म स्वरूप है, गुरू नहीं रहा, गुरू स्वयं ब्रह्म बन गया है। जब ब्रह्म बन गया तो तब उसके लिये शरीर, माया मोह, ऐश आराम, भोग, विलास एक अन्य साधन उस पर व्याप्त नही होते, प्रभाव नही डालते है। वह दुःख आने पर भी दुःखी नहीं होता, सरल भाव से लेता है, प्रसन्नता आने पर भी खिलखिलाता नही है, एकदम से उछलता नही है सहज भाव से लेता है, दुःख आ गया तो ठीक है, सुख आ गया तो ठीक है, अगर शाम को हलवा मिठाई मिल गई तो भी ठीक है, सूखे टुकड़े मिल गये तो भी ठीक है। अगर ऐसा चिंतन उसके मानस में सहज रूप में है तो वह गुरू है।
गुरू की लिमिटेशन है, क्योंकि गुरू अपने ज्ञान के माध्यम से बढ़ता-बढ़ता उस ब्रह्म तक पहुँच गया है, जहाँ निर्विकार है, किसी प्रकार का विकार नही है और संसार में शास्त्रें ने 36 विकार बतलायें 37 वां कोई विकार नहीं। 36 विकारों में- काम, क्रोध, मोह, लोभ, लालच, स्वार्थ, ऐश, आराम, चिंतन, निद्रा, झूठ, छल, कपट, व्यभिचार, ममता, अटेचमेंट, स्नेह, हर्ष, शोक। ये सब संचारी भाव हैं और संचारी भाव आते है और चले जाते हैं। संचार का मतलब है गतिशील, एक ही भाव स्थिर नहीं रहता। जिनमें एक ही भाव स्थिर नहीं रहता उनको शिष्य कहते है और जो एक ही भाव से स्थिर रह जाते है उनको गुरू कहते है इसीलिये गुरू अपने आप में अद्वैत है।
शिष्य अपने आप में द्वैत है। शिष्य धीरे-धीरे अद्वैत की स्टेज में आ सकता है, वह पहुँच सकता है अपने आप में गुरू को स्थापित करके और अपने आपमें गुरू को स्थापन करने की क्रिया का प्रारम्भ होता है उसकी प्रारम्भिक स्थिति जो है दीक्षा और अंतिम स्थिति बनती है तब जब वह पूर्ण रूप से गुरूमय हो जाता है उसके सामने गुरू चिंतन ही दिखाई देता है। वह अगर राम की प्रशंसा करता है तो ऐसा लगता है कि मेरे सामने मेरे गुरू खड़े है। आज गुरूदेव ने धनुष बाण हाथ में ले लिया है, क्या बात है! यह चिंतन जब उसके शरीर में, समाहित चिंतनों में विचारधारा में समाहित हो जाता है तो संचारी भाव खत्म हो जाते है, क्योंकि तुलसीदास जब वृन्दावन गये और वृन्दावन में जाकर के उन्होंने कृष्ण के दर्शन किये तो उन्होंने कहा कि-
तुलसी मस्तक पद्म मै धनुष बाण लियौ हाथ
मैं आपको प्रणाम तो करता हूँ मगर मुझे कुछ सान्निध्यता अनुभूत नहीं होती, मैं तब तक नमस्कार कर सकता हूँ जब तक तुम्हारे हाथ में धनुष बाण हो, क्योंकि वे पूर्ण राममय हो गये थे। बांसुरी हाथ में लिये हुये व्यक्ति को वह पहचान ही नही पा रहा था उसको बड़ा अटपटा लग रहा था कि ये ऐसे कैसे हैं? और वह साफ कह रहा है कि तुलसी मस्तक पर पद्म में धनुष बाण लियो हाथ और ठीक यही स्टेज, जो तुलसी की राम के प्रति बनी, वह स्टेज शिष्य की गुरू के प्रति बनती है, क्योंकि जब वह उस राम की मूर्ति के दर्शन करता है तब भी उसको वही गुरू का चेहरा दिखाई देता है, वह गुरू का शरीर आज तो बड़े नये रूप में है पीताम्बर पहने हुये है, आज तो बड़ी ही प्रसन्न मुद्रा में हैं और जब वह गुलाब का पुष्प देखता है तो उस गुलाब के पुष्प में उसको मात्र गुरू का चित्र दिखाई देता है कि आज कितने सुन्दर ढंग से आज ये मुस्कुरा रहे है और उसको गुलाब के पुष्प में भी गुरू के साक्षात् बिम्ब दिखाई देते है।
यह दिखाई देने की क्रिया तब बनती है जब धीरे-धीरे शिष्य गुरू की ओर समर्पित होता है। मैंने कहा, प्रारम्भ उसका दीक्षा से है। दीक्षा का मतलब है धीरे-धीरे शिष्य नजदीक आये और शिष्य का मतलब है नजदीक आना और नजदीक की परिभाषा है बिल्कुल एक हो जाना, उसको ही नजदीक कहते है। पांच, तीन, एक इंच फिर आधा इंच और शिष्य का मतलब है निकट, निकटतर, निकटतम और पूर्णतया एक हो जाना। यह शिष्य की क्रिया है, यह शिष्य की गुरूमय बनने की क्रिया है और शिष्य की पूर्णता तब है जब वह गुरूमय बनता है, इसीलिये गुरू और शिष्य दोनों अलग-अलग है, बीच में डिफरेन्स है, वह पाँच फिट का हो सकता है वह डिफरेन्स तीन इंच का हो सकता है। यह डिफरेन्स पांच फुट या तीन इंच का क्यों होता है? जिसमें संसारी भाव ज्यादा होंगे वह उतना ही गुरू से दूर रहेगा क्योंकि कभी उसको क्रोध आयेगा, कभी उसको स्वार्थ आयेगा, कभी उसको चिंतन आयेगा, कभी वह उदास रहेगा तो सारा उसका जीवन का क्षण वह बिम्ब, संचारी भावों में ही व्यतीत हो जायेगा। वह उदास है, परेशान है, यह ऐसा हो गया वह ऐसा हो गया, वह बीच में छूट जायेगा। वह दो घंटे जो चिंतन किया, वह दो घंटे जो गुरूमय होना था, वह छूट जायेगा। वह गुरू चिंतन होना था, उस दूसरे चिंतन में चला गया फिर उसके बाद की अगर पाँच हजार मील जाये तो मैं ऐसा एक कर दूंगा, वह आधे घंटे पांच हजार मील जायेगा तो क्या कर दूंगा! आधा घंटा फिर उसमें चला गया और फिर सोचा कि शादी हुई नही शादी होती तो खुश रहता। ये संचारी भाव उसको घेरे रखते हैं। घंटे तो दिन में 24 ही हैं और उन चौबीस घंटे में 12 घंटे नींद में। इसका मतलब तुम्हारी आयु साठ साल है तो साठ साल में से तुम्हारे 16 वर्ष बाल्यावस्था में चले गये, उतने दिन पहनना आता ही नहीं था, तुम्हें खाना नहीं आता था, तुम्हें पीना सिखाया, बोलना सिखाया। 16 साल की अवस्था तुम्हारी वह चली गई, पीछे रहे तुम्हारे 44 साल में से 22 साल नींद में बिताओंगे और उन 22 साल में भी तुम 20 साल इन संचारी भावों में व्यतीत कर दोगे तो गुरू के हिस्से में तो तुम्हारे कुल जिन्दगी के मात्र दो वर्ष ही रहे इसीलिये पूरी जिन्दगी बीतने पर भी गुरू और शिष्य के बीस में जो पांच फीट की दूरी है, वह बनी रहती है। इसलिये जहां उसने प्रश्न किया है कि जहां शिष्य गलती करे तो, और गलती वह तब ही करता है जब उसमें संचारी भाव जाग्रत होते हैं या उसके ऊपर संचारी भाव होते हैं और जब संचारी भाव हावी होते हैं, जितने संचारी भाव हावी होंगे उतना ही शिष्य कमजोर होगा उतना ही शिष्यत्व से दूर होगा, क्योंकि संचारी भावों को हटाने के लिये एक ही क्रिया है वह गुरूमय बने और गुरूमय बनने के लिए निरन्तर गुरूमंत्र जप करे।
यदि आपने देखा होगा तो पूर्ण एकाकार त्रिविध भाव प्रधान व्यक्ति ऐसे ही होते हैं। मजनूं को पूछा गया कि तुमने खुदा देखा? राजा ने बुलाकर पूछा तो उसने कहा- बिल्कुल देखा, तुमने खुदा तो देखा और जी भर के देखा है कैसा है? ठीक लैला की तरह, ऐसी आंख है, ऐसी नाक है, ऐसा कान, ऐसा खुद उसका और कोई चिंतन नहीं, वह पूर्ण लैलामय हो गया था और कोई चिंतन ही नहीं था। जब राजा जैसा आदमी पूछता है, तुमने खुदा देखा? तो हाँ देखा है, वह दम के साथ कह रहा है और जो विवरण दे रहा है, अपनी लैला का दे रहा है और आप किसी प्रेमी को शुरू-शुरू में, कच्चा प्यार जिसको कहते हैं, उसकी आंख में एक तस्वीर गूंजती रहती है वह ऐसी है, उसका चेहरा गुलाब की तरह मुस्कुराता है, आंखें हिरणी की तरह हैं, वह सारी गाय, भेस, बकरी, सारी उसमें जोड़ देते हैं, नारी शरीर रहता ही नहीं, उस नारी शरीर में फूल पौधे, गुलाब, चमेली, पत्तियां, केवड़ा, मोगरा और सांप की तरह लट और खजूर की तरह आंखें और फलदार की तरह होंठ, वह सब पेड़ पंछी पशु बना कर खड़ा कर देता है। वह नारी शरीर कहां चला गया, वह उसके मानस में कुछ नहीं क्योंकि वह संचारी भाव जाग्रत हो गया और शिष्य में जब संचारी भाव होगा, जितना भाव है उतना गुरूत्व कम रहेगा इसलिये मैंने कहा कि पूरे जीवनभर भी वह पांच फुट की दूरी बनी रह सकती है और यदि चाहे तो भी वह गुरू के चरणों में नहीं पहुँच सकता है। इसलिये गलती तब होती है जब उसमें संचारी भाव होते है। गुरू ने आज्ञा दी और तुमने पूरा किया, परन्तु अब तुम उसमे संचारी भाव जोड़ोगे तो वह दूरी पांच से साढ़े छह फीट बन जायेगी। वह एक फीट पीछे सरकेगी, आगे की ओर नहीं बढेंगी क्योंकि तुम उसमें बुद्धि लगाओगे कि गुरू ने एक घंटे में आने को कहा, डेढ़ घंटा हो जायेगा तो गुरू जी कौन सी फांसी दे देंगे और चले जायेंगे। क्या बात है? लेट कैसे आये? गुरूजी मार्ग में गाड़ी पंचर हो गई, तो पहिया उतर गया था, पहिया ठीक किया थोड़ा। अब गुरूजी समझ रहे है, गुरू है तो बिल्कुल समझ रहे है, मगर वह यह नही समझ रहा है कि अभी यह पांच फीट पर था अब यह पांच फीट दो इंच पर है और वह दो इंच दूरी तुमने ही बनाई, गुरू ने नहीं। तुमने अपने वचनों से, अपने लक्षणों से, अपनी बुद्धि से अपनी दूरी बढ़ाई जबकि तुम्हारी ड्यूटी थी गुरू के और दो इंच नजदीक जाना और अगर तुमको कहा, यह काम करना है तो वह काम तुमको करना ही है क्योंकि गुरू को ज्यादा मालूम है कि तुम्हें उनके नजदीक जाने में क्या करना है।
गुरू तो केवल एक कर्त्तव्य है वह गुरू है, वह तुम्हारा पति नहीं, वह तुम्हारी पत्नी नहीं वह तुम्हारा भाई नहीं, वह तुम्हारा सम्बन्धी नहीं है वरन् वह तुम्हारा गुरू है और गुरू की तो केवल एक ही कल्पना है, वह शिष्य को अपने में समाहित करे। अगर पति हूँ मैं, जिस क्षण मैं पति बनूंगा तो मैं पत्नी से उस ढंग से बात करूंगा, उस समय मैं गुरू नहीं हूँ जब मैं पिता बनूंगा तो मैं अपने पुत्र से उस ढंग से बात करूंगा, वहां मेरी यह नहीं क्रिया होगी कि पुत्र मुझ में लीन हो, मगर जहां मै गुरू बनूंगा और जहां शिष्य है वहां पर उस गुरू का केवल एक ही धर्म, कर्त्तव्य है कि शिष्य को अपने अन्दर लाये। वह अन्दर लाने का प्रत्यन करता है और शिष्य उन संचारी भावों से दूर जाने का प्रयत्न करता है या नजदीक आने का प्रयत्न करता है इसलिये शिष्य को सापेक्षी कहा गया है कि शिष्य प्रयत्न करे और गुरू की तरफ बढ़े और प्रयत्न पूर्वक उन संचारी भावों को आप ही हटाये और फिर गुरू में लीन हो जाये फिर गुरू के चित्त और गुरू मंत्र में लीन हो जाये और कुवासना, कुविचार, चिंतन दूर हो जाते है। गुरू के चरणों की तरफ साफ-साफ देखता रहे और कुछ नहीं तो आँख बंद करके गुरू को अपने-आप में लीन करने की क्रिया करे और धीरे-धीरे सरकता सरकता एक क्षण ऐसा आता है कि वह गुरूमय बन जाता है क्योंकि उसे गुरू के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता है, पेड़ में भी उस गुरू को ही देखता है, यह तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम चार फीट की दूरी पर हो।
अब तुम जितने संचारी भाव कम कर सकोगे जितने गुरू मंत्र में लीन हो सकोगे जितने अपने मन में गुरू को धारण कर सकोगे जितना ही गुरू का कार्य कर सकोगे, मशीन भी चला रहे तो गुरू का कार्य है, गुनगुनाहट है तो गुरू की गुनगुनाहट है, कोई भजन भी गा रहा है तो गुरू का भजन गा रहा है वह अपने आप में लीन है तो गुरू में ही लीन दिखाई देता है हर स्थिति में गुरू ही दिखाई देता है। ऐसी स्टेज आ सकती है और ऐसी स्टेज आना उस ब्रह्म का साक्षात्कार करना, गुरूत्व को प्राप्त करना है। गुरूत्व को प्राप्त करना जीवन के टॉप पर पहुँचना है, जहाँ पर आम आदमी नही पहुँच सकता है लाखों में से एक व्यक्ति ही पहुँच सकता है, दो व्यक्ति पहुँच सकते है कहता हूँ तुम्हारे मेरे बीच में बहुत कम फासला रह गया है और मेरे पास बहुत कम समय रह गया है इसलिये हम उस फासले को कितना जल्दी पार कर लें, यह तुम पर निर्भर है। ये संचारी भाव तो जाग्रत होंगे ही, तुम नहीं गाओगे तो आस पड़ोस वाला फिल्मी गाना तो गायेगा ही, तुम उन संचारी भावों को तोड़ नहीं सकते, मगर तुम बिल्कुल उस में गुरूमय, प्राणमय हो सको तो वे फिल्मी गाने तुम्हारे बाधक नही बनेंगे।
मैंने एक किस्सा सुनाया कि अकबर दोपहर के समय, एक दिन दोपहर हो गई तथा नमाज पढ़ने का टाइम हो गया तो रास्ते पर ही चादर बिछा ली और घुटने टेक कर अकबर नमाज पढ़ने लगा तथा अल्ला के ध्यान में लीन होने लगा और ठीक एक बजे एक प्रेमी ने प्रेमिका को मिलने का टाईम दिया था, ‘ठीक एक बजे आयेगी तो ही मैं मिलूंगा उसके बाद नहीं मिलूंगा’ सुनकर प्रेमिका एकदम से हड़बड़ाती हुई घर से निकली की मां-बाप देखे नहीं, पांच मिनट का टाईम है फिर वह चला जायेगा। दौड़ती हुई जा रही थी, अकबर नमाज पढ़ रहा था चादर के ऊपर पांव रखती हुई चली गई। राजा पूरे भारत वर्ष का, बहुत गुस्सा आया, यह औरत है कि क्या है? मैं खुदा की इबादत कर रहा हूँ यह क्या कर रही है? खैर फिर नमाज-इबादत अकबर करने लगा। वह वापस प्रेमी से मिलकर जो कुछ बातचीत करनी थी, करके आई। वापस आई, उस चादर पर पांव रखने से बचाते हुए जाने लगी तो अकबर ने हाथ पकड़ा, बोला, मूर्ख! तुम्हें शर्म नहीं आती? मैं खुदा की इबादत कर रहा था, तुम चादर पर पांव रखकर चली गई? लड़की ने कहा- खुदा की इबादत कर रहे थे, तुम्हें कैसे मालूम पड़ा कि मैं आई और मैंने चादर पर पांव रखा? तुम्हें कैसे मालूम पड़ा की मैं गई? मुझे तुम दिखाई ही नहीं दिये मुझे तो न चादर दिखाई दी और न आप। मुझे तो प्रेमी दिखाई दे रहा था और कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। तुम्हें अल्ला दिखाई दे रहे थे या मैं दिखाई दे रही थी या चादर?
क्योंकि वह तो प्रेमीमय हो गई थी, वह गुरूमय हो गई थी इसीलिये न उसको अकबर दिखाई दिया न चादर दिखाई दी। उसकी आँख के सामने प्रेमी था और जाना था।— और जब तुम गुरूमय हो जाओगे तो न तुम्हें गाने सुनाई देंगे, न फिल्मी गीत सुनाई देंगे, न ही आसपास का वातावरण और संचारी भाव दिखाई देगा। तुम गुरूमय बन जाओगे, यह संचारी भाव दिखाई देगा नहीं तब तुम गुरूमय बन जाओगे। यह संचारी भाव अपनी जगह चलेंगे, तुम अपनी जगह चलोगे और फिर वह दो इंच का और सरकना हुआ गुरू के पास और मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम गुरूमय बन सको, तुम गुरू में लीन हो सको। आप एक विशाल सागर के समीप खड़े है, विस्तार अनन्त है इस सागर का और अनन्त ही रहस्य छिपे है, इसकी अतल गहराइयों में। पहुँच तो आप गए हैं— और यह पहुँचना आवश्यक है।
आवश्यक इसलिये, क्योंकि हर नदी बहती है केवल और केवल सागर में विलीन होने के लिये और सागर मतभेद नहीं करता, उसका विस्तार सभी के लिये सदा निमंत्रण संप्रेषित करता रहता है परन्तु तट पर पहुँच कर वहां खड़े रहने से कुछ नहीं होगा, आगे बढ़कर समाना होगा उसमें। गुरू भी खुली बाहों से सदा खड़ा रहता है। निमंत्रण उसका हर क्षण बना रहता है और केवल एक क्षण की आवश्यकता होती है उसकी बांहों में समाने के लिये, उसकी आत्मा से एकाकार होने के लिये। उसकी ओर से कोई विलम्ब नहीं, वह कभी नहीं कहता, नहीं आज नहीं— कल!
कहता भी है, तो पहल आपकी ओर से होती है। यह तो चाहता है आप उसी क्षण, उसी लम्हें में सब त्याग कर, स्वयं को भुला कर उसके बुद्धत्व से एक हो जाये, उसके कृष्णतत्व को आत्मसात् कर लें। परन्तु आप ठिठक जाते है। ऐसे खुले निमंत्रण से एकाएक आप भयभीत हो जाते है, संकोच करते हैं, भ्रमित होते है, और अपने व्यर्थ के आभूषणों-अहंकार, मोह, लोभ आदि से चिपके रहते हैं। — और यह खेल है सब कुछ खो देने का। आप जिस भार के तले दबे जा रहे है, वह कोई परेशानियों या सांसारिक समस्याओं के कारण नहीं, अपितु आपके अपने अहंकार के कारण है और गुरू कहता है ‘भूल जाओ, छोड़ दो सब, आ जाओ मेरी बाहों में—’
वह संसार छोड़ने को नहीं कह रहा, न ही परिवार त्यागने को तुमसे आग्रह कर रहा है, अपितु कह रहा है-
सीस उतारे भूई धरे, वो पयसै घर मांहि
अपने सीस को, अपनी बुद्धि को, अपनी
समझ-बूझ को एक तरफ रख दो, क्योंकि इस यात्रा में यह बाधक ही है। जब तक इसका त्याग नहीं होगा, वह अपेक्षित रूपान्तरण नहीं हो पायेगा, जिसका समस्त मानव जगत अधिकारी है।
अन्दर तुम्हारे एक बीज है, एक आत्मा है— उसको जगाना है, उसको पुष्पित करना है, तभी जीवन का वास्तविक आनन्द स्पष्ट होगा। तब सांसारिक कार्य-कलापों में भी रत आप अनोखे आनन्द में डूबे रहेंगे, तब संसार अपनी समस्याओं और कठिनाइयों के बावजूद एक सुन्दर उपवन समान दिखाई देगा, जिसमें कांटे भी हैं और सुगन्धित पुष्प भी।
समझाने से यह बात समझ नहीं आ सकती, पढ़ने से कुछ प्राप्त नहीं हो सकता। हाँ इतना अवश्य हो सकता है कि गुरू की वाणी से आप एक क्षण के लिये अपनी निद्रा से जाग्रत हो जाये और जान ले, कि गुरू ठीक कह रहा है, तो उस क्षण पूर्ण चैतन्य बने रहना। दोबारा सो मत जाना। वही क्षण महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसमें आप इस प्रक्रिया के प्रैक्टिकल में उतर सकते हैं। यह विज्ञान है ही प्रैक्टिकल, मात्र पढ़ने से काम नहीं चलेगा।
और सद्गुरू तक आप पहुँच गये है, तो इस प्रक्रिया में उतरना और भी आसान है। करना बस इतना है कि आप अपनी बुद्धि को एक तरह छोड़े उसे बीच में न लाये।
गुरू देने को तैयार है, एक क्षण में यह रूपान्तरण घटित हो सकता है। इसके लिये वर्षों का परिश्रम नहीं चाहिये। हाँ, पहले तो आपको ही तैयार होना पड़ेगा। गुरू तो अपनी अनुकंपा हर वक्त संप्रेषित करते ही रहते हैं, उसे ग्रहण करना है। गंगा तो विशुद्ध जल सदा प्रवाहित करती ही रहती है, तृष्णा शांत करनी है तो आपको उठ कर जाना ही होगा, झुकना ही पड़ेगा, अंगुली में पानी भर कर होठों तक लाना ही होगा। यह प्रैक्टिकल क्रिया है। बैठे-बैठे आप प्यास नहीं बुझा सकते और अगर यह सोचें कि झुकूंगा नहीं, तो प्यास बुझने वाली नहीं है।
अगर शिष्य या फिर एक इच्छुक व्यक्ति प्रयास करने के बाद भी बुद्धि से मुक्त नहीं हो पाता, तो गुरू उस पर प्रहार करता है और यही गुरू का कर्त्तव्य भी है, कि उस पर तीक्ष्ण से तीक्ष्ण प्रहार करे तब तक, जब तक कि उसके अहंकार का किला ढह न जाये क्योंकि भतर कैद है आत्मा और विशुद्ध प्रेम। जब यह बांध गिरेगा तभी प्रेम, चेतना और करूणा का प्रवाह होगा तभी सूख चुके हृदय में नई बहार का आगमन होगा, तभी पथराई कठोर आँखो में प्रेम की यह अद्वितीय चमक उभरेगी।
गुरू के पास अनेकों तरीके है प्रहार करने के कठोर कार्य सौंप कर, परीक्षा लेकर, साधना कराकर— और जब ये सभी निष्फल होते दिखे तो विशेष दीक्षा देकर वह ऐसा कर सकता है, परन्तु पहले वह सभी प्रक्रियाओं को आजमा लेता है ताकि व्यक्ति तैयार हो जाये, प्रहारों से वह इतना सक्षम हो जाये कि विशेष दीक्षा के शक्तिशाली प्रवाह को सहन कर सके। कुछ बनो न बनो पर, उस आनन्द को प्राप्त कर सको। तुम्हारा प्रत्येक दिन उत्साह पूर्ण हो, मैं तुम्हें देखता हूँ नित्य उदासीपूर्ण मरे हुए चेहरे, उदास और रोते हुए चेहरे। मैं जब सुबह-सुबह देखता हूँ तो सोचता हूँ कि ये सभी शिष्य है या मुर्दे कब्रों में से उठकर आये हैं? मुझे अफसोस होता है कि मैं गलत हूँ कि या शिष्य गलत है? क्योंकि चेहरे ऐसे थप्पड़ खाये हुये, मुरझाये हुये चेहरे, उदास चेहरे क्या हैं? क्या यह कब्र में से तो उठकर आये नहीं! क्योंकि तुम में उत्साह नहीं है, एक चेतना नहीं है, एक जाग्रत अवस्था नहीं हैं? यह नहीं, तो तुम गुरूमय नहीं हो और जब गुरूमय बनोगे तो चेहरे पर एक अपूर्व चेतना, लाली मेरे लाल की, मैं भी हो गई लाल—। वह खुद लालमय हो जाती है लालीयुक्त हो जाती है, उसका चेहरा लाल हो जाता है और मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा प्रत्येक क्षण प्रफुल्लता पूर्ण हो, सफलता पूर्ण हो, ओज पूर्ण हो, जोश पूर्ण हो, उत्साह पूर्ण हो और गुरूपूर्ण हो, मैं ऐसा आशीर्वाद देता हूँ।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी