अर्थात् अन्न कोई मात्र पेट भरने वाली वस्तु नहीं है, अपितु व्यक्ति के समस्त संस्कारों का जन्म उसके ग्रहण किये गये अन्न से ही निर्मित होता है। यदि अन्न पवित्र होगा, शुद्ध होगा, सद्वृत्ति से उपार्जित होगा, तो निश्चय ही उसे ग्रहण करने वाले में बुद्धि, संस्कार, सद्वृत्ति का विकास होगा।
शास्त्रों में कहा गया है- ‘अन्नं ब्रह्मं’ अर्थात् अन्न गेहूं या चावल के दानों को नहीं कहते बल्कि अन्न तो साक्षात ब्रह्म का स्वरूप है, जिससे पूरे शरीर का निर्माण हुआ है, जिससे पूरे शरीर को जीवन शक्ति प्राप्त होती है। आर्य परिवारों में बालकों को यह शिक्षा दी जाती है कि भोजन करने से पूर्व भगवान को अर्पित कर के अन्न ग्रहण करें, यह अन्न की दिव्यता का सूचक है। भोजन में भी प्रकार होते हैं- तामसिक, राजसिक और सात्विक- इसी के अनुसार व्यक्तित्व बनता है।
भक्ष्य-अभक्ष्य में भेद करने वालों की बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है, जबकि जो साधक हैं, वे इस बात को जानते हैं, कि अन्न का मन से कितना गहरा सम्बन्ध है और वे सात्विक आहार ही ग्रहण करते हैं।
अन्न के तामसिक या सात्विक होने पर ही इतिश्री नहीं हो जाती, अपितु यह भोजन को निर्माण करने वाले व्यक्ति के आचार, विचार, संस्कार, पवित्रता-अपवित्रता आदि का भी भोजन पर प्रभाव पड़ता है। गुरू नानक एक बार सैदपुर पहुँचे। वहां के एक उच्च अधिकारी मलिक भागो के घर पितर पक्ष के अवसर पर भोज का आयोजन था। उसने गुरू नानक को भी भोज में आमंत्रित किया, परन्तु नानकदेव ने भोजन करने से इंकार कर दिया। मलिक भागो ने क्रोध में पूछा- ‘मेरे यहां भोजन करने में आपको क्यों आपत्ति है?’
‘क्योंकि तुम्हारे भोजन में खून है।’- नानक बोले मलिक चिढ़कर बोला- ‘जिस नीच लालो के घर आपने भोजन किया है, क्या उसके भोजन में दूध था?’
‘हां तुम ठीक कहते हो, उसमें वास्तव में दूध था’
‘दूध था?’ मलिक विस्मय और क्रोध के मिले स्वर में पूछा।
‘हां, लालो का भोजन कठोर परिश्रम की कमाई है, इसलिये उसमें दूध है।’
‘और मेरा भोजन?’
‘असहाय और निर्धन लोगों की बेगार है, इसलिये उसमें खून है!’ नानक बोले
‘इसका कोई प्रमाण?’
‘प्रमाण तो कोई नहीं है, परन्तु सत्य को प्रमाणित किया जा सकता है।’ और ऐसा बोलकर नानकदेव ने एक हाथ में भाई लालो की रूखी रोटी ली और दूसरे हाथ में मलिक का पकवान। फिर दोनों को निचोड़ा। ऐसा करने पर लालो की रूखी-सूखी रोटी से दूध निकला और मलिक भागो के पकवान से खून।
यह देखकर मलिक ने नानक के चरणों में गिरकर आजीवन परिश्रम से आजीविका कमाने का प्रण किया। अर्थात किस तरह अन्न उपार्जित किया गया है, साधक जीवन में इसका भी महत्व है, जो श्रेष्ठ साधक होते हैं, वे हर कहीं भोजन नहीं कर लेते।
अन्नपूर्णा जीवन में अन्न, धान्य एवं सकल भोज्य पदार्थों को प्रदान करने वाली देवी के रूप में पूजित हैं। आज भी भारत में कई ऐसे योगी हैं, जिन्हें अन्नपूर्णा सिद्धि प्राप्त है, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-1- स्वामी महेशानन्द जी, उत्तरकाशी, 2- स्वामी रामेश्वरानन्द जी, गंगोत्री, 3- लाल बाबा, गंगोत्री मार्ग, 4- बहिन सुप्रिया, केदारनाथ, 5- स्वामी विद्यानन्द, शेषनाग, कश्मीर, 6- हीरजाभाई मेघाजी, सोमनाथ, गुजरात, 7- स्वामी रघुनाथ, कन्याकुमारी। जिन्हें अन्नपूर्णा सिद्ध थी
गढ़वाल का एक महत्वपूर्ण शहर है ‘टिहरी’ और इससे थोड़ी ही दूर पर एक महत्वपूर्ण आश्रम है ‘शिवानन्द आश्रम’। इस आश्रम में लगभग तीस-चालीस शिष्य और स्वामी शिवानन्द जी रहते हैं, ये सिद्ध योगी हैं और पूरे गढ़वाल में इनकी चर्चा है। सौ वर्ष से भी काफी अधिक आयु होने पर भी पहाड़ों में पैदल चल लेते हैं, आँखों पर चश्मे की जरूरत नहीं है, सिर के बाल काले हैं और मुँह में पूरे दांत हैं। लगभग सौं वर्षों से वे विविध साधनाओं में रत रहे हैं, पर जिसकी वजह से वे सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं वह है, उनकी ‘अन्नपूर्णा सिद्धि’।
गढ़वाल में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति बचा होगा, जिसने शिवानन्द आश्रम की यात्रा नहीं की होगी और भोजन नहीं किया होगा। सभी शिष्य अत्यन्त ही नम्र, विनीत और आग्रह करके भोजन करते हैं, जबकि पूरे आश्रम में किसी प्रकार का काई खाद्य पदार्थ नहीं है। जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण की रट लगाये रहते हैं, उनके लिये इस आश्रम का द्वार सदैव खुला है, वे जाकर अपनी बुद्धि आजमा सकते हैं।
स्वामी शिवानन्द जी पूज्यपाद सद्गुरूदेव निखिलेश्वरानन्द जी के शिष्य रहे हैं और कई वर्षों तक उनके साथ रहकर उनकी सेवा करते हुये कुछ साधनाये सम्पन्न की थीं। उनके द्वारा ही स्वामी शिवानन्द जी को अन्नपूर्णा साधना प्राप्त हुई थी और सिद्ध होने पर आज्ञा दी थी, कि तुम्हें गढ़वाल में ही कहीं पर आश्रम स्थापित करना है और गरीब लोगों के लिये अन्न, धन जुटाना है। गरीब बच्चों की शिक्षा व्यवस्था करनी है एवं साथ ही आध्यात्मिक चेतना भी जाग्रत करनी है। आज से लगभग 35-36 वर्ष पूर्व जब सद्गुरूदेव गृहस्थ रूप में उनके आश्रम पहुँचे थे, तो एकदम से उन्हें विश्वास नहीं हो सका, स्वामी शिवानन्द एकदम जड़वत खड़े के खड़े ही रह गये, उनकी आंखों से अश्रुधार निकलने लगी और वे गुरूदेव के चरणों में प्रणिपात हो गये।
इस अवसर पर सद्गुरूदेव के साथ ही गये एक शिष्य ने लिखा है कि आश्रम में ही एक कुटिया थी, कुटिया में ना तो किसी प्रकार का बर्तन था और न ही किसी प्रकार का कोई खाद्य पदार्थ। बाहर भोज हो रहा था, उस कुटिया में शिष्य आते, जमीन पर हाथ रखते और जिस पदार्थ की कामना करते उससे सम्बन्धित पदार्थ उनके हाथ के सामने उपस्थित हो जाता और वह शिष्य उसे परोसने बाहर चला जाता। इसी सिद्धि के आधार पर स्वामी शिवानन्द जी ने इलाहाबाद के एक कुम्भ मेले के अवसर पर दस हजार साधुओं को भोजन कराया था।
अन्नपूर्णा साधना आज भी साधकों के पास सुरक्षित है और साधना द्वारा सिद्ध की जा सकती है, परन्तु इसके लिये साधक का सत्संकल्पों से पूर्ण होना आवश्यक है। जो व्यक्ति सिद्धि प्राप्त हो जाने पर स्वार्थ प्रयोजन में न इरादा रखते हैं, उन्हें ही इस साधना को सम्पन्न करने का संकल्प करना चाहिये। जो प्रदर्शन के चक्कर में पड़ते है या जो धन अर्जन के उद्देश्य से ऐसी सिद्धि की आकांक्षा रखते हैं, उन्हें यह सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती।
इस साधना के सिद्ध होने पर साधक को कभी भी अन्न, धान्य की कमी नहीं होती। प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में देवी अन्नपूर्णा की कृपा उसके ऊपर बरसती ही रहती है। कभी भी घर से कोई भूखा नहीं जाता और न ही घर में किसी वस्तु का अकाल पड़ता है।
विश्वामित्र प्रणीत ‘तंत्र सार’ में अन्नपूर्णा साधना के निम्न लाभ बताये हैं-
1 इस साधना के सिद्ध करने के बाद व्यक्ति सिद्ध योगी बन जाता है, उसे महादेवियों के दर्शन प्राप्त होने लगते हैं, जिससे उसका साधनात्मक स्तर निरन्तर बढ़ता जाता है।
2 अन्नपूर्णा साधना सिद्ध होने पर कई सिद्धियां तो साधक को यों ही अपने आप प्राप्त हो जाती है।
3 साधक जहां भी रहता है, उसे मनोवांछित भोज्य पदार्थ उपलब्ध होता है, कितने ही लोग क्यों न हो, वह सबको आतिथ्य सत्कार देने में समर्थ होता है।
4 अन्नपूर्णा साधना को सम्पन्न करने के बाद साधक द्वारा ग्रहण किया अन्न उसके शरीर, बुद्धि और मन की शुद्धि कर उसे योग पथ पर आरूढ़ करता है।
5 एक बार भी यदि इस साधना को सम्पन्न कर लिया जाये, तो साधना के बाद घर में जो भी अन्न पकता है, इस अन्न को ग्रहण करने से भोजन करने वाले सभी सदस्यों के अन्दर सद्विचारों का, सुसंस्कारों का, पवित्र भावनाओं का, आपसी प्रेम आदि सद्गुणों का जागरण होता है। घर स्वर्ग तुल्य हो जाता है, क्लेश समाप्त हो जाते हैं, सभी के अन्दर परिवर्तन होता है और सन्तान संन्मार्ग पर चलकर उन्नति करती हैं।
6 अन्नपूर्णा साधना सिद्ध करने के बाद साधक के लिये सिद्धाश्रम के रास्ते स्वतः ही खुल जाते हैं।
7 यह मात्र घर में अन्न की कमी को पूर्ण करने की साधना नहीं है, अपतिु घर में सुसंस्कारों का सूत्रपात करने की साधना है, शरीर एवं मन के विकारों को दूर करने की साधना है। क्योंकि भगवती अन्नपूर्णा की कृपा से साधक के घर का अन्न मात्र फिर अन्न नहीं रह जाता अपितु एक दिव्य प्रसाद बन जाता है, जिसको ग्रहण करने के बाद रोग, शोक, सन्ताप, दुःख, दरिद्रता, दैन्य आदि कुछ भी ठहर नहीं सकते।
यह साधना अन्नपूर्णा जयन्ती के अवसर पर या किसी पुष्य नक्षत्र से प्रारम्भ की जा सकती है। साधक रेशमी धोती धारण कर बैठें, घी का दीपक व अगरबत्ती लगा लें। किसी पात्र में पुष्यासन देकर ‘अन्नपूर्णा सिद्धि यंत्र’ स्थापित करें।
इसके दाईं ओर ‘मयूर शिखा’ तथा यंत्र के बाईं ओर ‘शतपुष्या’ को स्थापित करें। इसके बाद सात जायफल रख दें और पास में कलश के ऊपर एक नारियल रख दें।
अब दाहिने हाथ में जल लेकर विनियोग करें-
ऊँ अस्य श्री अन्नपूर्णा महादेवी हृदय स्तोत्र महामंत्रस्य
श्री महाकाल भैरव ऋषि उष्णिक् छनदः महाषोढा
स्वरूपिणी महाकाल सिद्धा श्री अन्नपूर्णा अम्ब देवता,
ह्रीं बीजं, हूं शक्ति, क्रीं कीलकं, श्री अन्नपूर्णा अम्ब
प्रसादात समस्त पदार्थ प्राप्त्यर्थे मंत्र जपे विनियोग।
जल को भूमि पर छोड़ दें तथा पूरे शरीर के अंगों को दाहिने हाथ से स्पर्श करते हुये शरीर में अन्नपूर्णा का स्थापन करते हुये न्यास सम्पन्न करें-
श्रीमहाकाल भैरव ऋषये नमः शिरसि
उष्णिक् छन्दसे नमः मुखे
महाषोढा स्वरूपिणी महाकाल सिद्धि
श्री अन्नपूर्णा अम्ब देवतायै नमः हृदि
ह्रीं बीजाय नमः लिंगे
ह्रीं शक्तये नमः नाभौ
क्रीं कीलकाय नमः पादयो
समस्त पदार्थ प्राप्त्यर्थे मंत्र
जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे
इसके बाद अन्नपूर्णा लक्ष्मी माला से निम्न मंत्र की 11 माला नित्य 30 दिन तक सम्पन्न करनी चाहिये-
साधना समाप्ति के बाद यंत्र को कपड़े में लपेट कर जहां अन्न भण्डारण करते हों, वहां रख दें तथा अन्य सभी सामग्री को जल में विसर्जित कर दें।
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