सतयुग के समय एक महा बलशाली राक्षस था, जिसका नाम मुर था। उसने अपनी शक्ति से स्वर्ग लोक को जीत लिया था। उसके पराक्रम के आगे इंद्र देव, वायु देव, अग्नि देव कोई भी नहीं टिक पाये थे, जिस कारण उन सभी को जीवन व्यापन के लिये मृत्युलोक जाना पड़ा। हताश होकर इंद्र देव कैलाश गये और भोलेनाथ के सामने अपने दुःख और तकलीफ का वर्णन किया। उन्होंने प्रार्थना की कि वे उन्हें इस परेशानी से बाहर निकाले, भगवान शिव ने उन्हें विष्णु जी के पास जाने की सलाह दी, उनकी सलाह पर सभी देवता क्षीरसागर पहुँचे, जहाँ विष्णु जी निंद्रा में थे। सभी ने इंतजार किया। कुछ समय बाद विष्णु जी के नेत्र खुले तब सभी देवताओं ने उनकी स्तुति की। विष्णु जी ने उनसे क्षीरसागर आने का कारण पूछा। तब इंद्र देव ने उन्हें विस्तार से बताया कि किस तरह मुर नामक राक्षस ने सभी देवताओं को मृत्यु लोक में जाने के लिये विवश कर दिया। सारा वृतांत सुन विष्णु जी ने कहा ऐसा कौन बलशाली हैं जिसके सामने देवता नही टिक पाये। तब इंद्र ने राक्षस के बारे में विस्तार से बताया कि इस राक्षस का नाम मुर हैं उसके पिता का नाम नाड़ी जंग हैं यह ब्रह्मवंशज हैं। उसकी नगरी का नाम चन्द्रावती हैं उसने अपने बल से सभी देवताओं को हरा दिया और उनका कार्य स्वयं करने लगा हैं वही सूर्य है वही मेघ और वही हवा और वर्षा का जल है। उसे हरा कर हमारी रक्षा करे नारायण।
पूरा वर्णन सुनने के बाद विष्णु जी ने इंद्र को आश्वासन दिया कि वो उन्हें इस विपत्ति से निकालेंगे। इस प्रकार विष्णु जी मुर दैत्य से युद्ध करने उसकी नगरी चन्द्रावती जाते हैं, मुर और विष्णु जी के मध्य युद्ध प्रारंभ होता हैं, कई वर्षों तक युद्ध चलता है, कई प्रचंड अस्त्र-शस्त्र का उपयोग किया जाता हैं पर दोनों का बल एक समान सा एक दूसरे से टकरा रहा था। कई दिनों बाद दोनों में मल युद्ध शुरू हो गया और दोनों लड़ते ही रहे कई वर्ष बीत गये। बीच युद्ध में भगवान विष्णु को निंद्रा आने लगी और वे बदरिकाश्रम चले गये, शयन करने के लिये भगवान हेमवती नामक एक गुफा में चले गये। मुर भी उनके पीछे घुसा और शयन करते भगवान को देख मारने को हुआ जैसे ही उसने शस्त्र उठाया भगवान के अंदर से एक सुंदर कन्या निकली और उसने मुर से युद्ध किया। दोनों के मध्य घमासान युद्ध हुआ जिसमे मुर मूर्छित हो गया बाद में उसका मस्तक धड़ से अलग कर दिया गया। उसके मरते ही दानव भाग गये और देवता इन्द्रलोक चले गये। जब विष्णु जी की नींद टूटी तो उन्हें अचम्भा सा लगा कि यह सब कैसे हुआ तब कन्या ने उन्हें पूरा युद्ध विस्तार से बताया जिसे जानकर विष्णु जी प्रसन्न हुये और उन्होंने कन्या को वरदान मांगने को कहा, तब कन्या ने भगवान से कहा मुझे ऐसा वर दे कि अगर कोई मनुष्य मेरा अभ्यर्थना करे तो उसके सारे पापो का नाश हो और उसे विष्णुलोक मिले।
तब भगवान विष्णु ने उस कन्या को एकादशी नाम दिया और कहा कि जो भी तुम्हारी अथ्यर्थना व व्रत करेगा उस व्यक्ति के पापो का नाश होगा और उन्हें विष्णुलोक मिलेगा, उन्होंने यह भी कहा इस दिन तेरे और मेरे भक्त समान होंगे यह व्रत मुझे सबसे प्रिय होगा जिससे मनुष्य को मोक्ष प्राप्त होगा। इस प्रकार भगवान चले जाते हैं और एकादशी का जन्म सफल होता है।
भगवान विष्णु जो लक्ष्मी के अधिपति हैं पाताललोक में शेषनाग की शय्या पर लेटे जगत् का परिचालन करते है। सारी शक्तियां उनमें समाहित हैं। इसी कारण यह लोक चल रहा है, जीवन की यात्रा भी नर से नारायण की यात्रा है। दशों अवतार भगवान विष्णु का ही स्वरूप है, उन भगवान श्री हरि के चरण कमलो में समर्पित यह साधना है-
सृष्टि का प्रारम्भ भगवान विष्णु से माना गया है और संसार विष्णु की ही माया लीला का स्वरूप है, भगवान विष्णु का सगुण स्वरूप भी है और निर्गुण स्वरूप भी, माया रूपी स्वरूप में वे लक्ष्मी के साथ अपने भक्तों को अभिष्ट फल प्रदान करते हैं।
विष्णु साधना का पुरश्चरण बारह लाख मंत्रें का और पुरश्चरण के पश्चात् इसके शतांश बारह हजार मंत्र का हवन विधान है।
साधना का मार्ग संक्षिप्त नहीं है और जब भी साधना करें, तो पूर्ण विधि-विधान सहित सम्पन्न करें। उसी रूप में साधना से पूर्ण सफलता प्राप्त होती है। आगे जो विधान दिया जा रहा है उसके पांच भाग हैं, न्यास भी हैं, उन्हें उसी रूप में सम्पन्न करना है।
श्री विष्णु उत्पन्ना एकादशी साधना केवल श्राद्ध पक्ष को छोड़कर कभी भी शुभ मुहूर्त में रविवार को या किसी भी एकादशी के दिन प्रारम्भ की जा सकती है। पूर्ण सिद्धि बारह लक्ष मंत्रों की है, जिसका साधक अपने कार्य अनुसार निश्चित कार्यक्रम से जप सम्पन्न कर सकता है। हर रविवार को यह पूजा विधान अवश्य ही सम्पन्न करना चाहिये। विष्णु मंत्र को चैतन्य मंत्र माना गया है, इसी कारण विष्णु साधना में सफलता प्राप्त होती ही है।
इस साधना में मूल रूप से ‘विष्णु महा यंत्र’ आवश्यक है, जिसे एक लकड़ी के बाजोट पर पीला वस्त्र बिछा कर स्थापित करें और पूरे अनुष्ठान में उसी रूप में स्थापित रहने दें, इसे हटाना ही नहीं है। इसके अतिरिक्त अबीर, गुलाल, कुंकुम, केसर, चन्दन, मौली, सुपारी तथा अर्पण हेतु प्रसाद आवश्यक है।
इस साधना क्रम में विष्णु के सभी स्वरूपों का पूजन किया जाता है। वह पूजन करते हुये ‘विष्णु कमल बीज’ चन्दन में डुबो कर अर्पित करना है। इस हेतु काफी मात्र में चन्दन पहले से ही रख लेना चाहिये।
श्री विष्णु की साधना में विनियोग, साधना तथा पंचावरण पूजा का विशेष विधान है। सभी दिशाओं में स्थित विष्णु स्वरूपों का पूजन किया जाता है अतः इसे इसी रूप में सम्पन्न करना है। दाहिने से शरीर के अंगों को स्पर्श करना है, अर्पण भी दाहिने हाथ से किया जाता है, यह विशेष ध्यान रहे।
विनियोग-
अस्य श्री द्वादशाक्षरमन्त्रस्य प्रजापति ऋषि्ार्ः गायत्री छन्दः
वासुदेवः परमात्मा देवता, सर्वेष्ट सिद्धये जपे विनियोगः।
(इसे पढ़कर भूमि में जल गिरा दें)
ऋष्यादिन्यास-
ऊँ प्रजापति ऋषये नमः शिरसि गायत्री छन्दसे नमः मुखे वासुदेव परमात्मा देवतायै नमः हृदि विनियोगाय नमः सर्वांगे।
करन्यास-
ऊँ अंगुष्ठाभ्यां नमः, नमः तर्जनीभ्यां नमः, भगवते मध्यमाभ्यां नमः,
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
हृदयादिन्यास-
नमः शिरसे स्वाहा, भगवते शिखायै वषट्, वासुदेवाय कवचाय हुं,
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय अस्त्रय फट्
ध्यान-
विष्णु शाद चन्द्रकोटि सदृशं शंखं रथांड्ग्गदाम्।
अम्भोजंदधतं सिताब्जनिलयं कान्त्या जगन्मोहनम्।।
आबद्धांगदहारकुण्डलमहामौलिं स्फुरत्कंकणम्।
श्रीवत्सांकसुदारकौस्तुभधरं वन्दे मनीन्द्रैः स्तुतम्।।
भावार्थ हाथों में कोटिशरद्चन्द्रधवल शंख, चक्र, गदा, पप्र लिये, सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल, गले में हार एवं उदार कौस्तुभमणि, बाहों पर केयूर एवं कलाई पर चमचमाते करभूषण कंकण धारण किये हुये, अपनी कमनीय कान्ति से विश्वविमोहन करने वाले, ऋषिमुनि अभिवन्दित, श्री वत्सांक, परम महत्वद्योतक वक्षस्थल पर श्वेत वामार्वत (चिन्ह विशेष), श्वेत कमलनिवासी, मुनीन्द्रों के द्वारा संस्तुत भगवान विष्णु का मैं वन्दन करता हूँ।
अपने सामने जो यंत्र स्थापना के लिये पीठ बनाई गई है, उस पर वस्त्र बिछा के सबसे पहले पीठ पूजन किया जाता है और यह पूजन पूर्व दिशा से प्रारम्भ करते हुए आठ दिशाओं तथा अन्त में पीठ के मध्य दिशा का पूजन किया जाता है। यह क्रम निम्न प्रकार से होगा, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक पीठ शक्ति का ध्यान कर उस दिशा में पुष्प चढ़ायेः-
ऊँ विमलायै नमः, ऊँ उत्कर्षिण्यै नमः, ऊँ ज्ञानायै नमः,
ऊँ क्रियायै नमः, ऊँ योगायै नमः, ऊँ प्रह्रयै नमः,
ऊँ सत्यायै नमः, ऊँ ईशानायै नमः, ऊँ अनुग्रहायै नमः
(मध्य में)
अब यंत्र स्थापना प्रारम्भ होता है, हाथ में पुष्प लेकर उसे चन्दन में डुबो कर पीठ के मध्य में आसन स्थापित करें और निम्न मंत्र बोलते हुए यंत्र को पुष्प के इस आसन पर स्थापित करें-
अब धूप, दीप इत्यादि देकर नमस्कार कर शांत भाव में बैठ कर ‘वैजयन्ती माला’ से निम्न मंत्र का जप करना चाहिये, जप की संख्या साधक की इच्छा पर निर्भर करती है और यह क्रम निरन्तर चलते रहना चाहिये।
शास्त्रोक्त विधान है कि 12 अक्षर के इस मंत्र का सम संख्या लक्ष अर्थात् 12 लाख मंत्रों का जप करने से साधक को पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है तथा भगवान विष्णु की अभीष्ट कृपा सिद्धि से साधक मनोवांछित फल प्राप्त करता है। सब प्रकार के पापदोष दूर होकर साधक श्री विष्णु का तेज ग्रहण करने में समर्थ रहता है, यह साधना तो निश्चय ही सर्वोत्तम साधना है।
वर्तमान समय में सामान्य साधक के लिये इतने अधिक मंत्र जप संभव नहीं है। साधक सवालाख मंत्र जप संकल्प लें और तीन महीने में मंत्र जप अनुष्ठान अवश्य पूर्ण कर लें।
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