पूज्यपाद गुरूदेव ने कभी मुनि शब्द की यह सरल व्याख्या स्पष्ट की थी। निश्चय ही ऐसा सत्पुरूष एकान्त में उस तत्व का चिन्तन करेगा, जो मानव के अस्तित्व के साथ से ही उसके लिये रहस्य एवं कौतुक का पर्याय रहा है, किन्तु इसी चिन्तन के क्रम में कई ऐसे आयाम एवं विश्राम भी आते हैं, जो कालान्तर में सम्पूर्ण मानव जाति के लिये केवल पथ प्रदर्शक ही नहीं, पथ भी बन जाते हैं। इन्हें ही हम सरल शब्दों में साधनाये कहते है। ‘मुनि’ का मूल लक्ष्य तो कुछ और ही होता है, किन्तु समाज के लिये उसके ये आयाम ही सार्थक हो जाते हैं।
दूसरी ओर किसी भी मुनि की यह सहज भावना होती है, कि वह सम्पूर्ण मानव जाति को शीतलता एवं तृप्ति देने का कार्य भी करे और इसी भावना से परिपूर्ण होने पर उसके द्वारा कुछ अद्वितीय साधनाये उद्भूत हो ही जाती हैं। इस दृष्टि से जैन मुनियों का योगदान अनुपमेय है। स्वयं सरल, आशा एवं तृष्णा से रहित जीवन जीते हुये भी उन्होंने जिन विविध प्रकारों की साधना पद्धतियां स्पष्ट की, उनसे ज्ञात होता है कि वे यथार्थतः कितने अधिक करूणा से ओत-प्रोत थे।
सम्पूर्ण साधना साहित्य इसी प्रकार मनन का एक विपुल भण्डार है। यह ज्ञान का भी भण्डार है और इसे व्यवहार का भी भण्डार कहा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान व व्यवहार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह सिक्का है जीवन का, जिसके किसी भी पक्ष को नकारा नहीं जा सकता और न ही नकारने से उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा, यदि हम हठ पूर्वक नकारना भी चाहेंगे, तो एक प्रकार से उपेक्षा ही करेंगे तथा यह उपेक्षा कालान्तर में हमें ही पीड़ादायक सिद्ध होगी। जैन मुनिजन इस तथ्य से परिचित थे और इसी कारणवश जैन साधनात्मक साहित्य में ज्ञान व व्यवहार का उचित समन्वय भी देखने को मिलता है।
जहां ज्ञान व व्यवहार का उचित अनुपात होता है, वहीं महासरस्वती का भी निवास होता है। दम्भ युक्त ज्ञानी अथवा ज्ञान रहित धनवान के समीप महासरस्वती का आगमन सम्भव नहीं होता। युगों से एक लोकोक्ति चली आयी है कि लक्ष्मी और सरस्वती का परस्पर विरोध है, अतः धनवान व्यक्ति ज्ञान रहित एवं ज्ञानवान व्यक्ति धन रहित होता है। साधक परम्पराओं का सम्मान तो कर सकता है, किन्तु इस प्रकार के चिन्तन उसे अग्राह्य ही होते हैं।
श्रेष्ठ मुनिजन भी कदाचित् इस लोक विश्वास को ग्रहण करने में असमर्थ रहे और फलस्वरूप उन्होंने इस दिशा में भी पर्याप्त मनन-चिन्तन किया। यों भी एक श्रेष्ठ मुनि अन्तः करण से एक श्रेष्ठ साधक ही तो होता है। जैन सम्प्रदाय के साधनात्मक साहित्य में जहां एक ओर धन-सम्पत्ति प्रदायक श्रेष्ठतम साधनाये उपलब्ध होती हैं, वहीं ज्ञान पक्ष से सम्बन्धित विलक्षण साधनाये भी प्राप्त होती है। जैन साधकों के मध्य यद्यपि इनका स्वरूप परम्पराओं के कारण कुछ भिन्न है।
सनातन पद्धति में साधक जिसे ‘महासरस्वती’ की साधना की संज्ञा देते हैं, जैन मुनिजन उसे मेधा की साधना के नाम से विभूषित करते हैं। इनमें अर्थात् सरस्वती की साधना एवं मेधा की साधना में एक सूक्ष्म भेद है। महासरस्वती की साधना जहां मूलतः ब्रह्म ज्ञान से सम्पर्कित है, वहीं मेधा की साधना सम्पूर्ण रूप से मस्तिष्क की प्रखरता एवं चैतन्यता से सम्बन्धित है।
मेधा की साधना का अर्थ है- व्यक्ति न केवल परम ज्ञान की प्राप्ति में सफल हो, अपितु दिन-प्रतिदिन की अड़चनों आदि का भी सुगमता पूर्वक समाधान प्राप्त करता हुआ अपने जीवन को निरन्तर गतिशील रख सके। महासरस्वती के साधकों में इसी बात की न्यूनता रह जाती है। वे परम ज्ञान या ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति में संलग्न होने के साथ-साथ व्यावहारिक जीवन से विरक्त हो जाते हैं, जिसका फल उन्हें प्रायः किसी बलिदान से भी चुकाना पड़ जाता है। यह बलिदान स्वास्थ्य, परिवार, बन्धु-बान्धव, प्रतिष्ठा या सामान्य सुख-चैन में से किसी एक का अथवा इन सभी का भी हो सकता है।
हमें गर्व होना चाहिये, कि जैन मुनिजन ने भारतीय साधनात्मक जीवन की उस परम्परा को बचा कर रखा है, जिसमें योग एवं मोक्ष दोनों को ही श्रेष्ठ मान कर दोनों के उचित समन्वय की बात प्रतिपादित की गयी है। जैन समुदाय की सम्पन्नता को दृष्टिगत रखते हुये शेष किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
मेधा का उल्लेख प्राचीन साधनात्मक ग्रंथों में भी मिलता है, किन्तु उसकी जैसी व्याख्या एवं साधना का समन्वय जैन सम्प्रदाय में मिलता है, वह एक अलग ही स्थान रखता है। प्राचीन ग्रंथों में मेधा का आध्यात्मिक अर्थ ही प्रधान है, जबकि जैन सम्प्रदाय में व्यवहारिक अर्थ। मेधा से युक्त अर्थात् मेधावी होने के लिये यह आवश्यक नहीं, कि व्यक्ति ने शास्त्रें का अध्ययन किया हो अथवा किसी विशेष मापदण्ड पर खरा उतरता हो। कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी आयु-वर्ग का हो अथवा किसी भी व्यवसाय से सम्बन्धित हो, वह मेधावी की श्रेणी में आने का पात्र हो सकता है, यहां तक कि एक निरक्षर व्यक्ति भी मेधावी हो सकता है। सामान्य बोलचाल में जिसे ‘चतुर’ कहा जाता है, मेधावी उसी का समीप पर्यायवाची है। ‘चतुर’ शब्द से किंचित धूर्तता का भी बोध होता है, जबकि मेधावी का यह अर्थ नहीं है। वस्तुतः मेधा शब्द का भारतीय चिन्तन में एक गहन स्थान है, किन्तु यहां उसकी चर्चा एवं विवेचना अभीष्ट नहीं है।
प्रसिद्ध जैन मुनि प्रतिपाद सूरि ने अपने ग्रंथ प्रतिपाद-सूरि-सार में इस विषय पर गहन विवेचन करने के उपरान्त वह दुर्लभ साधना विधि भी स्पष्ट की है, जिसके कारण ही ईस्वी काल के प्रारम्भ की शताब्दियों में जैन मुनि न केवल ज्ञान के, अपितु राज सम्मान एवं वैभव के भी पात्र रहे। जैन मुनि श्री प्रतिपाद सूरि के विषय में अधिक उल्लेख नहीं मिलता। ऐसा प्रतीत होता है, कि किन्हीं प्रसिद्ध जैन मुनि ने व्यर्थ के विवादों से बचने के लिये छद्म नाम से इस ग्रंथ का प्रतिपादन किया था, क्योंकि उस काल में जैन मुनि वर्ग से सामाजिक सम्पर्क की अनुमति प्राप्त नहीं होती थी। यद्यपि इससे हमारे लक्ष्य पर कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि साधक तो अर्जुन की भांति केवल ‘‘मछली की आंख’’ अर्थात् साधना की प्रामाणिकता पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखता है। यह साधना अपने आपमें प्रामाणिक है।
इस महत्वपूर्ण साधना को सम्पन्न करने का उचित अवसर सरस्वती जयन्ती है, सरस्वती जयन्ती को वसंत पंचमी भी कहा जाता है और वसंत पंचमी का पर्व जड़ता को समाप्त करने का पर्व माना गया है। इसके अलावा यह साधना किसी भी माह में बृहस्पतिवार की प्रातः सम्पन्न की जा सकती है। जैन मतावलम्बी साधना पद्धति होने के कारण इस साधना में श्वेत वस्त्र, आसन का ही सर्वाधिक महत्व है। साधक को चाहिये, कि वह स्नानादि से पवित्र होकर पूर्व या उत्तर मुख होकर बैठे तथा अपने समक्ष किसी ताम्रपात्र पर कुंकुम अथवा श्वेत चंदन अथवा अष्टगंध से किसी साफ तीली के द्वारा निम्न प्रकार से अष्टदल कमल अंकित करें-
ध्यान रखें, कि कमल की आठ पंखुडि़यां(या दल) ही अंकित करनी है। इसके उपरान्त मूल साधना प्रारम्भ होती है। साधक पहले से प्राप्त किये एवं मेधा मंत्रें से सिद्ध ‘आठ गोमती चक्रों’ में से एक-एक गोमती चक्र को प्रत्येक दल में रखें तथा प्रत्येक गोमती चक्र का पूजन कुंकुम, अक्षत, पुष्प की पंखुडि़यों, धूप एवं दीप से करें तथा शुद्ध घी का दीपक लगायें। कमल के मध्य में ‘मेधा यंत्र’ का स्थापन कर इसी प्रकार पूजन करें। इसके उपरान्त ‘कमल गट्टे की माला’ से निम्न महत्वपूर्ण जैन मंत्र का इक्कीस माला मंत्र जप करें-
इस प्रकार यह साधना सम्पूर्ण होती है। मंत्र जप के पश्चात् सभी सामग्रियों को किसी नदी में विसर्जित कर दें। यह साधना उन साधकों के लिये विशेष लाभदायक है, जिन्हें जन सम्पर्क से सम्बन्धित कार्यों को अपनी आजीविका का साधन बनाना होता है, यथा- एडवोकेट, चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट, प्रचार माध्यमों से जुड़े व्यक्ति या इसी प्रकार के अन्य व्यवसायी। विद्यार्थियों के लिये भी इस साधना का महत्व स्पष्ट ही है। साधकों को चाहिये, कि वे स्वयं तो यह साधना सम्पन्न करें ही, साथ ही साथ अपनी संतानों को भी इसमें संयुक्त करें, जिससे उनकी बुद्धि एवं विवेक में प्रखरता आ सके।
इस साधना की छोटी आयु के बालकों के संदर्भ में एक अन्य विशेषता यह भी है, कि इसे उनको सम्पन्न करा देने के बाद शीघ्र ही स्पष्ट होने लगता है, कि वे किस क्षेत्र में तीव्रता से गतिशील हो सकेंगे, क्योंकि इस साधना के द्वारा बालक के उन गुणों का उद्दीपन हो जाता है, जो कालान्तर में उसके भविष्य का आधार बन सकें। इस विशेषता प्राप्त करने के युग में इस साधना का महत्व इस आधार से सर्वोपरि हो ही जाता है। इस दुर्लभ साधना में जिस प्रकार से मेधा(सरस्वती) एवं ऐश्वर्य(लक्ष्मी) का योग किया गया है, वह तो अपने आपमें व्याख्या हेतु एक पृथक विवेचन का ही स्थान रखती है।
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