स्वामी दयानंद सरस्वती अपने महान व्यक्तित्व एवं विलक्षण प्रतिभा के कारण जनमानस के हृदय में विराजमान हैं । स्वामी दयानंद सरस्वती उन महान संतों में अग्रणी हैं जिन्होंने देश में प्रचलित अंधविश्वास, रूढि़वादिता, विभिन्न प्रकार के आडंबरों व सभी अमानवीय आचरणों का विरोध किया । हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देने तथा हिंदू धर्म के उत्थान व इसके स्वाभिमान को जगाने हेतु स्वामी जी के महत्वपूर्ण योगदान के लिये भारतीय जनमानस सदैव उनका ऋणी रहेगा ।
स्वामी दयानंद एक महान शिक्षाविद्, समाज सुधारक और एक सांस्कृतिक राष्ट्रवादी भी थे। वे प्रकाश के एक महान सैनिक थे, भगवान की दुनिया में एक योद्धा, पुरुषों और संस्था के मूर्तिकार थे। दयानंद सरस्वती का सबसे बड़ा योगदान आर्य समाज की नींव थी जिसने शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में एक क्रांति ला दी। स्वामी दयानंद सरस्वती उन सबसे महत्वपूर्ण सुधारकों और आध्यात्मिक बलों में से एक हैं जिन्हें भारत में हाल के दिनों में जाना गया है। दयानंद सरस्वती के दर्शन को उनके तीन प्रसिद्ध योगदान ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’, ‘‘वेद भाष्य भूमिका’’ और वेद भाष्य से जाना जा सकता है। इसके अलावा उनके द्वारा संपादित पत्रिका ‘‘आर्य पत्रिका’’ भी उनके विचार को दर्शाती है। आर्य समाज के महान संस्थापक स्वामी दयानंद आधुनिक भारत के राजनीतिक विचारों के इतिहास में एक अद्वितीय स्थान रखते हैं। जब भारत के पढ़े-लिखे युवक यूरोपीय सभ्यता के सतही पहलुओं की नकल कर रहे थे और भारतीय लोगों की प्रतिभा और संस्कृति पर कोई ध्यान दिये बिना इंग्लैंड की राजनीतिक संस्थाओं को भारत की धरती में रोपित करने के लिये आंदोलन कर रहे थे, जिसने भारत की अवज्ञा को बहुत आहत किया स्वामी दयानंद पश्चिम के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व के खिलाफ थे।
स्वामी दयानंद, भारत-आर्य संस्कृति और सभ्यता के सबसे बड़े प्रेरित भी भारत में राजनीति में सबसे उन्नत विचारों के सबसे बड़े प्रतिपादक साबित हुये। वह मूर्तिपूजा, जाति प्रथा, कर्मकांड, भाग्यवाद, नशाखोरी के खिलाफ थे। वे दबे-कुचले वर्ग के उत्थान के लिये भी खड़े थे। वेद और हिंदुओं के वर्चस्व को ध्यान में रखते हुये, उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म का विरोध किया और संधी आंदोलन को हिंदू संप्रदाय के अन्य संप्रदायों को फिर से संगठित करने की वकालत की। दयानंद ने राज्य के सिद्धांत, सरकारों के प्रारूप, तीन-विधान सरकार के कार्य, कानून के नियम आदि के बारे में बताते हुये राजनीतिक विचार व्यक्त किये।
स्वामी दयानंद एक महान शिक्षाविद, समाज सुधारक और एक सांस्कृतिक राष्ट्रवादी भी थे। वे प्रकाश के एक महान सैनिक थे, भगवान की दुनिया में एक योद्धा, पुरुषों और संस्था के मूर्तिकार थे। दयानंद सरस्वती का सबसे बड़ा योगदान आर्य समाज की नींव थी जिसने शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में एक क्रान्ति ला दी। स्वामी दयानंद सरस्वती उन सबसे महत्वपूर्ण सुधारकों और आध्यात्मिक बलों में से एक हैं जिन्हें भारत ने हाल के दिनों में जाना है। दयानंद सरस्वती के प्रमुख व्यक्तित्व ने आर्य समाज आंदोलन की पौरुष क्षमता और उसके लगभग सभी अनुयायियों में असाधारण प्रतिबिंब पाया था। शिक्षा के क्षेत्र में आर्य समाज का योगदान सराहनीय है। डॉ. राधा कृष्णनन के अनुसार ‘‘आधुनिक भारत के मंदिरों में, जिन्होंने लोगों के आध्यात्मिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और देशभक्ति की आग को जलाया है, मुझमें, उनमें से स्वामी दयानंद ने प्रमुख स्थान पर कब्जा कर लिया है।
स्वामी दयानंद सरस्वती के धार्मिक विचार स्वामी दयानंद सरस्वती के धार्मिक विचार इस प्रकार थे-
वेदों मे आस्था- स्वामी जी वेदों को आध्यात्मिक उन्नति का साधन मानते थे। वेद स्वयं प्रमाण है। इसी आधार पर उन्होंने मंत्रपाठ हवन यज्ञ आदि पर विशेष जोर दिया। स्वामी दयानंद का कहना था कि वेद ईश्वरीय है।
ईश्वर, जीव तथा प्रकृति के अस्तित्व में विश्वास- स्वामी ने ईश्वर, जीव तथा प्रकृति तीनों को शाश्वत सत्य रुप में स्वीकार किया। उनका मानना था कि, ईश्वर अर्थात परमात्मा संपूर्ण विश्व में व्याप्त है। वह सत्चित्त आनंद स्वरूप है। सृष्टि की रचना करके परमात्मा अपनी स्वाभाविक रचनात्मक शक्ति का प्रयोग करता है।
एकेश्वरवाद मे विश्वास- स्वामी जी पक्के एकेश्वरवादी थे। उन्हें हिंदूओं कें अनेक देवी-देवताओं के ‘भक्तिमार्गियों’ के व्यक्ति रूप ईश्वर में विश्वास नहीं था। आडंम्बर के सिद्धांत को नहीं मानते थे।
कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष में विश्वास- स्वामी दयानंद का कर्म और पुर्नजन्म के सिद्धांतों मे विश्वास था। कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है और उसके अनुसार ही मनुष्य का पुर्नजन्म होता है जन्म मरण के बंधन और दुःखों से छुटकारा पाना ही मोक्ष है।
यज्ञ हवन और संस्कारों में विश्वास- स्वामीजी वैदिक यज्ञ और हवन को आवश्यक मानते थे। उनका मत था कि संस्कारों के द्वारा शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास होता है।
मूर्तिपूजा तथा अन्य कर्मकांडों का विरोध- स्वामीजी ने मूर्ति पूजा का घोर विरोध किया। इसे वे हिंदुओं के पतन का कारण मानते थे। राष्ट्रीय क्षेत्र में उन्होंने भारतीयों में राजनीतिक चेतना जागृत की। हिंदुओ में स्वाभिमान एवं देश प्रेम की भावना को जागृत किया।
आर्य समाज में साहित्यिक एवं शैक्षणिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किये। हिन्दी भाषा में पुस्तकें लिखकर हिन्दी भाषा को समृद्ध बनाया। उन्होंने शिक्षण संस्थाओं में सभी जाति के बच्चों के साथ समान व्यवहार करने को कहा। वे नारी शिक्षा के भी प्रबल समर्थक थे।
स्वामी दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचार उन्होंने छूआछूत की भावना का घोर विरोध किया। स्वामी दयानंद सरस्वती स्त्री स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। उनका विचार था कि बिना अच्छी माताओं के राष्ट्र निर्माण नहीं हो सकता है। बालविवाह, बहुविवाह और दहेज प्रथा का घोर विरोध किया और विधवा-विवाह का समर्थन किया। स्त्री शिक्षा पर भी उन्होंने विशेष जोर दिया।
स्वामी दयानंद ने ‘‘भारत भारतीयों के लिये है’’ का नारा दिया। भारतीयों में आत्मसम्मान और आत्म गौरव की भावना उत्पन्न की।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,