गुरूर्चिन्तयं रूपं आहेतुं प्रमेयं ध्यानं विचिन्त्यं प्रमेय पाद्यं
ग्राहां सतां पूर्ण मदैव तुल्यं निर्वेद रूप मपरं गुरूवै सहेतुम्
यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कथन है, ऋषि का, एक महत्वपूर्ण चिन्तन है आचार्य का, महर्षि का, क्योंकि जीवन तब तक निस्सार है, व्यर्थ है, जब तक जीवन का कोई प्रयोजन ही नहीं है, जीवन का कोई चिन्तन ही नहीं है, फिर जीवन क्या है? किसे हम जीवन कहें?
क्या सांस लेने की क्रिया को हम जीवन कह सकते हैं?
क्या जिन्दा रहने की कल्पना को जीवन कह सकते हैं?
यह सब तो जीवन नहीं हो सकता और जब जीवन का मूल्य और महत्व ही ज्ञात नहीं है, जब जीवन का अर्थ और जीवन का मकसद ही हमें पता नहीं है तो फिर हम वैसे ही पशु है जो डोलते रहते है, एक अज्ञात नकेल डाले हुये, उनको स्वयं का ज्ञान नहीं, कि वे किस तरफ जा रहे हैं? उनको खुद को पता नहीं कि वे कौन से रास्ते पर खड़े हैं? उनको खुद को यह ज्ञान नहीं कि उनकी मंजिल कहां समाप्त होगी? जिस रास्ते का प्रारम्भ पता नहीं है, जिस रास्ते का अता-पता नहीं है, उस रास्ते पर चलना तो अंधे की तरह से चलना होता है, जिसका सूत्र हमारे हाथ में नहीं, जिसका चिन्तन और ज्ञान हमारे हाथ में नहीं है, तब हम किन शब्दों में उसे जीवन कह सकते हैं?
हम तो केवल अपनी लाश को कंधो पर उठायें हुये शमशान की ओर बढ़ते चले जाते हैं, एक क्षण रूक कर सोचने की जरूरत है— कि क्या हमारा जीवन पशु जीवन से ऊपर उठा है?—क्या हमने अपने जीवन के मकसद को समझा है?—क्या हम जानते हैं कि हमें जीवन में कहाँ तक पहुँचना है?—क्या हमने कभी निर्णय लिया है कि जीवन के किस भाग पर हम खड़े है?—हमने कभी सोचा ही नहीं। हमने तो भोग-विलास को ही जीवन मान लिया, हमने तो सांस लेने की क्रिया को ही जीवन मान लिया, हमने तो जिन्दा रहने की कल्पना को ही जीवन मान लिया— यह कितनी छोटी सी बात है। कपड़े पहनना, कपड़े उतार देना, सांस लेना, सांस छोड़ देना, भोजन करना, पानी पीना, अपने जीवन के अन्य क्रियाकलाप करना, ये तो जीवन के प्रकार है— जीवन तो नहीं है। जीवन तो किसी और ताने-बाने से बुना होता है।
जीवन तो वह होता है, जिसका सूत्र हमारे हाथ में होता है। जीवन तो वह होता है जिसका मर्म हमें ज्ञात होता है। हम जिन्दा तो हैं— सामाजिक और वैज्ञानिक परिभाषा में हम जीवित हैं, मगर शास्त्रीय पद्धति में हम मृत हैं, क्योंकि शास्त्र के अनुसार जिसमें चेतना नहीं है, जिसमें इस बात का होश नहीं है कि मैं क्या हूं? कहां जा रहा हूं? कहां पहुंचना है? वह मृत है।
हम एक क्षण भर अगर रूक के सोचे तो हमे ज्ञात ही नहीं कि हमें कहाँ पहुँचना है? हमने तो चांदी के चंद टुकड़ों को इकट्ठा करने की क्रिया को ही जीवन मान लिया। दो-चार मकान बना लेने की जीवन पद्धति को ही जीवन मान लिया है। यह तो जीवन का एक प्रकार है, कि भौतिक दृष्टि में, चाहे निर्धनता में जिये, चाहे अमीरी में जियें, वैभव में जिये। जब तक जीवन के इस मूल चिन्तन को नहीं समझेंगे तब तक हम सही अर्थों में जीवित भी नहीं हो पायेंगे, तो फिर जीवन की परिभाषा को समझायेगा कौन?
शास्त्रों में तो इसको जीवन नहीं कहा जाता है। शास्त्रों में तो इस क्रिया को मृत्यु कहा जाता है और हम सही अर्थों में जीवित मुर्दे हैं, जो चलते तो हैं, मगर होश नहीं है, खाते-पीते तो हैं, मगर उसका कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि हमने कभी इन रहस्यों को, इस चिन्तन को सोचा समझा ही नहीं और नहीं सोचा-समझा तो उसका आनन्द भी नहीं लिया जा सकता। जीवन का आनन्द तो वे लेते हैं, जो जीवन को समझते हैं। जो कभी मानसरोवर के किनारे गया ही नहीं, वह मानसरोवर के आनन्द को समझ ही नहीं सकता। जो छोटी-छोटी तलैयाओं के किनारे बैठा रहा हो, वह क्या जाने की मानसरोवर में क्या आनन्द है, कितना विस्तृत झील है, कितना अतल जल है, कितना स्वच्छ निर्मल पानी है, वह उस वैभव को, वह उसकी सम्पदा को, वह उस झील की विशालता को नहीं समझ सकता, वह उस तलैया को ही जीवन मान बैठा है।
मेंढक जब कुयें के किनारे से चलना शुरू करके और पूरा चक्कर लगाकर फिर उसी स्थान पर आ जाये और कहे-यही पूरा विश्व है, तो उसके हिसाब से तो वही विश्व है, क्योंकि उसने पूरा चक्कर काटा है— मगर यदि कभी मेंढक को तलाब में डाल दिया जाये तो उतने अथाह जल को देखकर वह आश्चर्य में पड़ जायेगा, अरे! मैंने तो कुछ नहीं देखा था, दुनिया तो कुछ और है। संसार तो कुछ और है— और यदि वह भले से भी उस तलाब को पूरा चक्कर लगा ले और मन में प्रसन्नता व्यक्त कर ले, कि अब मैंने पूरा विश्व देख लिया है, पूरा जीवन देख लिया है, अब इससे बड़ा तालाब, इससे बड़ी जल राशि, इससे बड़ा जलाशय क्या हो सकता है। यह तो बहुत लंबा-चौड़ा तालाब है, और मैंने प्रयत्न करके इसका पूरा एक चक्कर लगाया है, यह तो जीवन है— और यदि वह समुद्र में गिर जाये और समुद्र के अथाह जल को देखे तो उसे और अधिक आश्चर्यचकित हो जाना पड़ेगा, कि वह तो एक छोटा सा हिस्सा था, वह जीवन था ही नहीं।
तुम्हारी भी स्थिति उस कुएं के मेंढक की तरह है, तुमने भी एक सीमित दायरे में घूमने की क्रिया को ही जीवन मान लिया है। पत्नी है, एक-दो पुत्र है, थोड़ा-सा धन है, मकान है, समाज में सम्मान है, सम्पदा है और इसी को तुमने जीवन मान लिया है, क्योंकि इससे बाहर निकलने का तुमको ज्ञान ही नहीं रहा, कभी बाहर गये ही नहीं, कभी देखा ही नहीं कि इससे बड़ा भी एक समाज है, स्थान है— और जब तुम वहां जाओगे, तो तुम जो जीवन जी रहे थे, तुम जिस घेरे में आबद्ध थे, वह एक बहुत छोटा-सा हिस्सा है, जिसमें कोई आनन्द नहीं है, वह तो एक विवशता है, एक मजबूरी है। समाज में जिन्दा रहना तुम्हारी मजबूरी है। परिवार का पालन-पोषण करना तुम्हारी मजबूरी है। समाज सदैव तुम्हारे साथ, या परिवार तुम्हारे साथ नहीं चल सकता, परिवार का सहयोग तुम्हें जीवन में नहीं मिलेगा।
जब ‘वाल्मीकि’ डाकू थे— ऋषि तो बहुत बाद में बने— उन्होंने रामायण की रचना तो बहुत बाद में की, पहले तो वह भयानक डाकू था—लूटना—खसोटना— मारना—छीन लेना ही उसका कार्य था। एक बार नारद उसके हाथ में पड़ गये, नारद तो वीणा बजाते हुये नारायण-नारायण करते चले जा रहे थे और वाल्मीकि ने उन्हें पकड़ लिया, सुबह से कोई शिकार मिला ही नहीं, बड़ी मुश्किल से यह आदमी नजर आया, उसने उनकी वीणा छीन ली।
नारद ने कहा- अरे! तुम एक साधु को लूट रहे हो, तुम ये क्या कर रहे हो। उसने कहा- कोई दूसरा मिला ही नहीं और जब तक मैं लूट-खसोट नहीं कर लूं, तब तक मैं भोजन करता ही नहीं, न कोई कार्य करता हूँ, तुम पहले ही व्यक्ति मिले, दोपहर हो गई, यह वीणा बेचकर कुछ तो धन मिल ही जायेगा और तुम्हारे कपड़े भी खोल लूं, ये कपड़े भी बाजार में बेच दूंगा।
वाल्मिकी ने कहा- उचित तो नहीं—मगर मैं यह करूंगा जरूर, क्योंकि मुझे अपने परिवार का पालन-पोषण करना है। नारद ने कहा- क्या तुम्हारा परिवार तुम्हारा साथ देगा, क्योंकि तुम तो पाप कर रहे हो।
वाल्मीकि ने कहा- जरूर यह पाप कर्म है, किसी की हत्या कर देना पाप है, किसी को छल से लूट लेना पाप है— मैं जानता हूं कि यह पाप है, मगर मैं अकेला ही तो पाप नहीं कर रहा हूँ, अपने परिवार के लिये कर रहा हूँ, परिवार मेरा साथ देगा ही। नारद ने कहा- पहले तुम अपने परिवार वालों से पूछ लो। वाल्मीकि ने एक रस्सी से नारद को पेड़ से बांध दिया और घर चले गये।
बूढ़ी मां से पूछा- तू मुझे बता, कि मैं जो छीना-झपटी, लूट-खसोट, हत्याये कर रहा हूँ, यह पाप तो है ही।
माँ ने कहा- बेटा जरूर पाप है।
वाल्मीकि ने कहा- मैं इससे तुम लोगों को रोटी खिला रहा हूँ, अन्न दे रहा हूँ, आवास दे रहा हूँ, तो तुम भी पाप में भागीदार हो। मां ने कहा- मैं तो पाप में भागीदार नहीं होती, यह तुम्हारा कर्त्तव्य है कि माँ को रोटी खिलाओ, तू कैसे कमा कर लाता है यह तू जाने— पाप करेगा तो पाप का फल तू ही भुगतेगा, मैं तो भुगतूंगी नहीं— और मैंने पाप के लिये तुझे कहा ही नहीं, मैं इसमें भागीदार नहीं हो सकती।
वाल्मीकि पत्नी के पास गये, पत्नी से कहा- देख डाकू हूँ और सैकड़ों लोगों की हत्यायें की है, लूटा है, खसोटा है, मारा है, औरतों के गहने छीने है और तुझे दिये हैं, तुझे पहनाये हैं, क्या छीनना, झपटना, लूटना, मारना पाप है। पत्नी ने कहा- निःसंदेह पाप है। वाल्मीकि ने पूछा- यह तुम्हारे लिये कर रहा हूँ क्योंकि ऐसा करने पर ही तो मैं तुम्हें अन्न दे सकता हूँ भोजन दे सकता हूँ आवास दे सकता हूँ गहने दे सकता हूँ और तुम्हारे लिये ही तो कर रहा हूँ तो तुम भी पाप में भागीदार हो।
पत्नी ने कहा- मैं तो पाप में भागीदार नहीं हूँ, एक पति का कर्त्तव्य है, धर्म है, कि वह पत्नी का भरण-पोषण करे— कैसे करते हो, यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, यह तुम्हारा धर्म है, पाप का फल तुम्हे भोगना पड़ेगा।
वाल्मीकि वापस आ गये, नारद को पेड़ से खोला और छोड़ दिया, उसी क्षण उन्होंने डाकू का कार्य छोड़ करके, छीना-झपटी का कार्य छोड़ कर साधु जीवन प्रारम्भ कर दिया— क्या तुम भी वाल्मीकि डाकू से कुछ कम हो?— क्या तुम छीना-झपटी नहीं कर रहे?— छल नहीं कर रहे?— झूठ, कपट और असत्य नहीं कर रहे?— और यह सब तुम परिवार वालों के लिये कर रहे हो और तुम्हें यह गलतफहमी है, कि ऐसा करने पर परिवार वाले तुम्हारा साथ देंगे, पाप में भागीदारी होंगे। पाप में भागीदार तो वे नहीं होंगे, असत्य और अधर्म के वे भागीदार नहीं बनेंगे। तुम्हें अकेले ही यह पाप भोगना पड़ेगा, तुम खुद ही इसके जिम्मेदार हो।
जब तक तुम ऐसा करोगे तब तक जीवन में तुम्हें कुछ मिलेगा ही नहीं, तब तक जीवन का तुम अर्थ समझोगे ही नहीं जरूरत तो तुम्हें यह है कि कोई ऋषि मिले, कोई नारद मिले, कोई गुरू मिले जो तुम्हें ज्ञान दे सके—यह सब कुछ बेकार है। जिस रास्ते पर तुम चल रहे हो उस रास्ते से तो श्मशान की यात्रा ही हो सकेगी, यह तो कफन ओढ़ कर श्मशान में सोने की साधना है, प्रयोग है, जीवन है, इसमें कुछ पाना है ही नहीं, खोना ही खोना है और तुम प्राप्त नहीं कर रहे हो— जो कुछ तुम प्राप्त कर रहे हो यह मकान, यह धन, ये चांदी के टुकड़े ये कागज के चंद नोट, यह पत्नी, यह पुत्र— ये तो मृत्यु के साथ पीछे खड़े रह जायेंगे यह तुम्हारे साथ-साथ चलेगा ही नहीं, तुम्हारे साथ उनकी यात्रा नहीं है और जो तुम्हारे साथ नहीं है, वे तुम्हारे साथ उनकी यात्रा नहीं है और जो तुम्हारे साथ नहीं है, वे तुम्हारे सहयोगी नहीं हैं।
साथ तो तुम्हारे जीवन चलेगा, तुम्हारी प्राणश्चेतना चलेगी, तुम्हारी भावनाये चलेगी। यदि तुम ऐसा चिन्तन करते हो, यदि तुम्हारे मन में ऐसा विचार है तो तुम जीवन का पहला सबक सीख सकते हो, पहला अध्याय पढ़ सकते हो, मगर उसके लिये तो जरूरत है, दमखम के साथ कहने वाले गुरू की, समझाने वाले व्यक्तित्व की। एक ऐसे व्यक्तित्व की, जो तुम्हें डाकू जीवन से मनुष्य जीवन दे सके, एक ऐसे व्यक्तित्व की, जो तुम्हे समझा सके, कि तुम जो कुछ कर रहे हो वह तुम खुद कर रहे हो, उसके लिये कोई सहयोगी नहीं है। तुम्हारे पाप कार्य में कोई भागीदार नहीं है, तुम जो झूठ और छल कर रहे हो, उसका फल भी तुम्हें ही भोगना पड़ेगा-और जिन्होंने भी अपने जीवन में झूठ, छल, कपट और असत्य का आचरण किया, उनका बुढापा अत्यन्त दुःखदायी अवस्था में व्यतीत हुआ रोगों से जर्जर, अभावों से पीडि़त, असत्य, परेशान, दुःखी, अतृप्त। जब बेटे उनको पूछते ही नहीं जब बहुये उनका साथ देती ही नहीं और समाज उन्हें धिक्कारता है कि इसने जीवन भर छल-कपट किया है।
ऐसा तुम्हारा जीवन किस काम आयेगा, क्या प्रयोजन है इस जीवन का? क्योंकि इस जीवन को लाश की तरह उठा करके तो तुम इस जीवन में कुछ प्राप्त कर ही नहीं सकते और इसीलिये नहीं कर सकते कि यह सब जीवन है ही नहीं। जो जीवन है, वह तो पत्थरों के ढेर हैं, कपट के पत्थर है, असत्य और व्यभिचार के, उनसे प्राप्त होता है दुःख, परेशानियां, अड़चने, बाधाये, रोग, जर्जरता, बुढापा और मृत्यु— ये ही तुम्हारे सामने है। दो-चार कदम बढ़ाते ही इनका सामना करना पड़ेगा फिर कोई तुम्हारा साथ नहीं देगा, घर वाले भी नहीं, पत्नी भी नहीं, पुत्र भी नहीं, बन्धु-बांधव भी नहीं, समाज भी नहीं।
क्योंकि तुमने अपने जीवन में ऐसा मार्गदर्शक ढूंढा ही नहीं जो तुम्हें ज्ञान दे सके, झकझोर सके, चेतना दे सके, दमखम के साथ तुम्हारे साथ खड़ा हो सके, तुम्हें कह सके कि यह सब गलत है, तुम्हे कह सके कि तुम गलत रास्ते पर हो, तुम्हे कह सेके की यह रास्ता श्मशान की ओर जाता है— अमृत की ओर नहीं, सुख और सौभाग्य की ओर नहीं, आनन्द की ओर नहीं।
यदि आनन्द की यात्रा नहीं है तो वह जीवन नहीं है। ऐसे तो तुम्हारे बाप-दादा, परदादा हजारों लोग जाकर श्मशान में मृत्यु को प्राप्त हो गये और आज उनका नाम लेने वाला भी कोई नहीं है। तुम भी उसी तरीके से मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे— और तुम्हें कोई पूछने वाला नहीं होगा, कोई तुम्हारे लिये विचार करने वाला भी नहीं होगा, कोई अहसास करने वाला भी नहीं होगा कि तुमने कितना परिश्रम किया है।
इसीलिये जीवन में गुरू की जरूरत होती है— जरूरत होती है। उस गुरू को प्राप्त करने की क्रिया भी तुम्हें ही करनी पड़ेगी, गुरू स्वयं तुम्हारे पास आकर के खड़ा नहीं होगा, तुम्हें ढूंढना पड़ेगा। नदी को खुद गंगोत्री से चलकर समुद्र की ओर जाना होगा, समुद्र उठकर गंगोत्री के पास नहीं पहुँचेगा। तुम्हें खुद उठकर पत्तों के पास, पुष्पों के पास पहुँचना पड़ेगा, जहां सुगंधित हवा है, जहां आनन्द के हिलोरे हैं— वे खिलखिलाते, झूमते पुष्प तुम्हारे पास आकर के खड़े नहीं हो जायेंगे।
यात्रा तो तुम्हें स्वयं को करनी होगी, तुम्हें स्वयं को खोजना होगा। जिस प्रकार से तुम धन खोजते हो, पुत्र खोजते हो, उसी प्रकार से गुरू की खोज भी तुम्हारे लिये अनिवार्य है, अनावश्यक है- ऐसा गुरू, जो सशक्त हो- जो समर्थ हो- जो योग्य हो- जो प्रहार करने वाला हो- जो हाथ पकड़ के समझाने वाला हो- जो तुम्हें चेतना देने वाला हो।
इस यात्रा में तुम्हारे अन्दर कई प्रकार की भ्रांतियां आयेंगी, क्योंकि तुमने इन भ्रांतियों को ही पाल रखा है। तुमने अपने अन्दर शक, संदेह, कपट और व्यभिचार को पाल रखा है और वे सब तुम्हारे सामने तन कर खड़े हो जायेंगे, तुम्हारे मार्ग को भ्रष्ट करेंगे, तुम्हे कुमार्ग पर गतिशील करेंगे, वे कहेंगे- गुरू की खोज व्यर्थ है, तुम्हे यह कहेंगे- यह समय बर्बाद करना है। तुमने अपने जीवन में छल को प्रश्रय दिया है। तुमने अपने जीवन में कपट का साथ दिया है, तो वे इस समय तुम्हारे सामने खड़े रहेंगे, क्योंकि इससे उनका स्वार्थ सिद्ध होता है।
कायर और बुजदिल हताश हो जाते हैं, निराश हो जाते हैं, खोज बंद कर देते हैं, मगर जो हिम्मती है, दृढ निश्चयी है, जो एक क्षण में जल उठने वाले हैं, जो निश्चय कर लेते हैं, कि मुझे कुछ करना है, खोज करनी है, मुझे ऐसा घिसा-पिटा जीवन नहीं जीना है, मुझे अपने जीवन में वह सब कुछ प्राप्त करना है, जो जीवन का आनन्द है, जो जीवन का ऐश्वर्य है, जो मृत्यु से अमृत्यु की ओर जाने वाला है, जो आनन्द प्रदान करने वाला है, ऐश्वर्य प्रदान करने वाला है, जो सही अर्थों में पूंजी देने वाला है, धनवान बनाने वाला है और उसकी खोज में जो पहला कदम आगे बढा देता है, वही साधक है, शिष्य है।
जो निश्चय करके यह प्रयत्न करता है, कि मुझे गुरू को प्राप्त करना ही है, वह संन्यासी है, वह योगी है। दूसरा, जो इस रास्ते पर गतिशील होने की क्रिया करता है, वह सही अर्थों में तपस्वी है। जंगलों में खाक छानने वाले को तपस्वी नहीं कहते, जो जीवन के मर्म को समझने की कोशिश करते हैं। वे ‘योगी’ और ‘संन्यासी’ है। जो गुरू की खोज में आगे बढ़ते हैं वे साधु हैं, जो गुरू को प्राप्त करके ही रहते हैं। वे शिष्य हैं— और जो प्राप्त कर लेता है, उसे जीवन में एक रास्ता मिल जाता है, उसे जीवन में एक चेतना मिल जाती है, वह निश्चय ही उस जीवन-पथ पर तेजी के साथ अग्रसर हो जाता है।
किसी आँख, नाक, कान, हाथ, पैर वाले को शिष्य नहीं कहते। चलने-फिरने वाले व्यक्ति को शिष्य नहीं कहते। शिष्य तो उसे कहते हैं, जिसमें श्रद्धा और समर्पण है, जो इन दोनों से निर्मित होता है वह शिष्य कहलाता है— और अगर वह शिष्य बनता है, तो उसे रास्ते का ज्ञान होता है, भान होता है, वह जीवन के रास्ते पर गतिशील हो सकता है। मात्र दीक्षा लेने वाले को शिष्य नहीं कहते, सिर मुंडाने को भी शिष्य नहीं कहते, हरिद्वार में स्नान करने वाले को भी शिष्य नहीं कहते, और गुरू के पैर दबाने वाले को भी शिष्य नहीं कहते, ये तो सब उनके प्रकार हैं।
शिष्य का तात्पर्य है कि नजदीक होना। गुरू से बहुत अधिक नजदीक हो जाना और इतना अधिक नजदीक हो जाना की गुरू और शिष्य में कोई अन्तर ही नहीं रहे, अगर अन्तर रह गया हो तो वह शिष्य बना ही नहीं फिर वह अपने आपको शिष्य नहीं कह सकता। गुरू और शिष्य में इतना भी गैप नहीं रहना चाहिये, इतना भी अन्तर नहीं रहना चाहिये की बीच में से हवा भी न निकल सके— उसके जीवन का सारा चिन्तन, सारा क्रियाकलाप गुरूमय ही हो जाता है— गुरू ही उसका ओढना— गुरू के शब्दों का श्रवण करना— और गुरू की सेवा करना- — गुरूमय हो जाना— और उसकी आँखों में गुरू का भाव तैरने लगता है।
इस जीवन मार्ग पर केवल शिष्य चल सकता है, साधक तो बहुत छोटी सी चीज है। शिष्य के सामने साधक, योगी, तपस्वी उसके सामने कहीं ठहर नहीं पाते, उसके सामने यक्ष, गन्धर्व, किन्नर और देवता अपने आप में कोई मूल्य नहीं रखते, क्योंकि शिष्य एक चेतनापुंज होता है, एक दीपक होता है वह अपने आप में श्रद्धा का एक पूर्ण स्वरूप होता है, समर्पण की साकार प्रतिमा होता है, जो गुरू के जागने से पहले जगता है, गुरू के सोने के बाद सोता है।
जो केवल इस बात का चिन्तन करता है कि गुरू की कैसे सेवा की जाये? हम गुरू के किस प्रकार से हाथ पैर बनें, नाक बनें, आंख बनें, सिर बनें, विचार बनें, भावना बनें, धारणा बनें, किस प्रकार से बनें? किस युक्ति से बनें? जो केवल इतना और केवल इतना ही चिन्तन करता है, वही सही अर्थों में शिष्य कहलाता है— और सच्चा शिष्य— सही अर्थों में बना हुआ सच्चा शिष्य ही अपने- आप उस रास्ते पर खड़ा हो जाता है, जो पूर्णता का रास्ता होता है, जो पवित्रता का रास्ता होता है, जो ब्रह्म तक पहुँचने का रास्ता होता है। इसीलिये शिष्य की समानता तो देवता, यक्ष, गन्धर्व कर ही नहीं सकते, तपस्वी और साधु तो बहुत छोटी सी बात है।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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