अंधेरे में खड़ा नास्तिक भी उतना ही झूठा है, जितना अंधेरे में खड़ा आस्तिक झूठा है। जिसने नहीं जाना है, उसका यह कहना भी व्यर्थ है कि ईश्वर नहीं है, उसका यह कहना भी व्यर्थ है कि ईश्वर है, ये दोनों बातें ही व्यर्थ हैं। वस्तुतः अंधेरे में ही मतवाद खड़े होते हैं, प्रकाश में कोई वाद नहीं है। प्रकाश काफी है, वाद की कोई जरूरत नहीं। सब सिद्धांत अंधेरे में निर्मित होते हैं, प्रकाश में सिद्धांतों की कोई जरूरत भी नहीं। जहां सत्य प्रगट है वहाँ शब्द खो जाते हैं, और जहाँ सत्य की समझ है वहां सिद्धांत को बनाने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।
इस जगत में सत्य किसी के जीवन में अतिचार नहीं करता, किसी के जीवन का अतिक्रमण नहीं करता, सत्य किसी के जीवन में किसी भी भांति की गुलामी नहीं लाता, बंधन नहीं लाता, इसलिये सत्य मुक्ति है। सत्य जबरदस्ती आरोपित नहीं होता। जब आप ही तैयार न हों, सत्य आपके द्वार पर खड़ा रहेगा, लेकिन थपकी नहीं देगा, द्वार को खटखटायेगा भी नहीं। सत्य को अपने जीवन में आत्मसात करने के लिये, आपके हृदय से दिया गया निमंत्रण ही उसका आगमन बन सकता है और प्रार्थना ही है हृदय के द्वार को खोलने की विधि। प्रार्थना से जब भी कोई पूछता है, तो उसके हृदय के द्वार खुले होते हैं, संदेह लेकर वह नहीं आता, सिर्फ प्रश्न लेकर आता है। प्रश्नों के उत्तर हो सकते हैं, संदेहों के उत्तर नहीं हो सकते, क्योंकि जिसे संदेह ही करने हैं वह आपके हर उत्तर का संदेह किये चला जाता है।
हम पूछते हैं ईश्वर क्या है? कहाँ है ईश्वर? ईश्वर है या नहीं? हम वहाँ से शुरू करते हैं जहां से अंत होना चाहिये। दुःखी आदमी पूछता है, सुख क्या है? लेकिन समझदार सदा पूछेगा—अगर दुःख है तो—कि दुःख क्या है? क्यों है दुःख? क्योंकि निदान तो दुःख से शुरू होगा। बुद्धिमान खोजी वह है, जो उस सवाल को पूछता है, जिसके जवाब को अभी वह समझ सकेगा। ऐसे व्यक्तियों के लिये जीवन के सत्य का ज्ञान अर्जित करना सर्वप्रथम महत्वपूर्ण होता है।
बुद्ध ने चार आर्य सत्य कहे हैं- चार बुनियादी सत्य और उन्होंने कहा है, कि चार को जो जान ले वह सबको जान लेता है। पहला की मनुष्य दुःख में है, पहला आर्य सत्यः दुःख। दूसरा कि मनुष्य दुःख में होने के कारण हैं- अकारण दुःख में नहीं, क्योंकि अकारण दुःख में हो तो छुटकारे का कोई उपाय नहीं हो सकता और तीसरा क्योंकि कारण भी हो, मनुष्य दुःख में भी हो, लेकिन अगर कोई मार्ग या विधि न हो, तो भी दुःख के बाहर नहीं हो सकता। तो बुद्ध ने कहा, पहला सत्यः ‘दुःख’, दूसरा सत्यः ‘दुःख के कारण’, और तीसरा सत्यः ‘दुख मुक्ति का उपाय’। लेकिन दुःख भी हो, दुःख के कारण भी हों, दुःख-मुक्ति का उपाय भी हो, लेकिन दुःख-मुक्ति से छूटने की संभावना न हो— ऐसी कोई अवस्था ही न होती हो जहाँ मनुष्य दुःख के बाहर हो जाये, तो हम एक दुःख से छूटकर दूसरे दुःख में पहुँच जायेंगे। तो बुद्ध ने चौथा आर्य सत्य कहा है, ‘दुःख-मुक्ति की अवस्था है।’ बस ये चार काफी हैं।
सत्य को समझने की विद्या का ज्ञान होना सभी के लिये आवश्यक व महत्वपूर्ण है, क्योंकि विद्या का अर्थ है विधि, सत्य तक पहुँचने का मार्ग। परन्तु ऐसी भी विधि हैं जो विधि मालूम पड़ती हैं पर हमें सत्य तक नहीं पहुँचाती, इन्हें अविद्या कहा जाता है। सत्य को समझने के लिये, बहुत सी विधियां, बहुत से मार्ग हैं। सबसे अधिक जो भ्रांत मार्ग है, वे विस्मृति के हैं— किसी भी तरह व्यक्ति अपने को भूल जाये, तो उसके लिये कोई बंधन नहीं होता और जब वह ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है। तो वह भगवान के दर्शन कर सकता है- जिसे अपना भी दर्शन नहीं हुआ, वह भी भगवान के दर्शन कर लेता है, जिसे अपना भी पता नहीं, वह भी परम का पता लगा लेता है।
मनुष्य का जो बड़े से बड़ा रोग है, वह आलस्य है- वह प्रमाद है— बिना कुछ किये मिल जाये, बिना चले मंजिल आ जाये, एक कदम भी न उठाना पड़े, मंजिल ही चलती हुई आ जाये, तो इससे शुभ और क्या होगा? आपको भी बड़ा सुख है, क्योंकि आपको मुफ्रत में कुछ मिलता मालूम पड़ता है, जिसके लिये कुछ भी करने की जरूरत नहीं और अधिक लोग बिना कुछ किये पाना चाहते हैं और ऐसे ही व्यक्ति जो बिना कुछ किये सत्य को पाना चाहते हैं, वही अविद्या के रास्ते पर चलते हैं। अविद्या का अर्थ है- ऐसी सब विधियां, जिनसे द्वार खुलता नहीं लेकिन द्वार के खुले होने का भ्रम पैदा हो जाता है।
जो व्यक्ति सत्य को समझने के लिये अपने प्रश्नों का उत्तर ढूंढता है। वह उत्तर इतने कठिन नहीं, असली बात प्रश्न है, क्योंकि प्रश्न करनेवाले में ही उत्तर को जन्म लेना होता है। उत्तर कहीं बाहर से नहीं आता, उत्तर कहीं बाहर नहीं है, उत्तर आपके भीतर है। अगर ठीक प्रश्न आप पूछ सकते हैं तो आपके भीतर का उत्तर जागना शुरू हो जाता है। ठीक प्रश्न का अर्थ है कि आप अपने भीतर उत्तर को चोट देने लगते हैं। आपके भीतर संवेदनशील तरंगे हों तो बाहर के उत्तर भी सहयोगी हो सकते हैं, दोनों के मिलन बिंदु पर उत्तर उपलब्ध होता है। लेकिन भीतर अगर संवेदना जागी न हो, भीतर अगर प्यासा प्राण न हो, भीतर अगर कोई पुकार न हो, भीतर अगर कोई अभीप्सा न हो, तो कोई उपाय नहीं— वे सब प्रश्न, वे सब उत्तर व्यर्थ चले जाते हैं।
हमे अपने आपसे सही प्रश्न करना पड़ेगा, जिससे हमारे अन्दर से ही उस प्रश्न का उचित उत्तर प्राप्त हो सके। यह वह विद्या है- विधि है, मार्ग है जिसके माध्यम से जीवन के परम सत्य को समझा जा सकता है। यही वह उपाय है जो हमारे जीवन के अनेक प्रश्नों को, हमारे समस्याओं के उत्तर प्रदान कर सकता है।
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