‘जिसे समझना आसान नहीं जो जहां चाहे, झट चला जाये, ऐसे चित्त का बुद्धिमान पुरूष मोहन करे, मोहित चित्त सुखदायक होता है ’कृष्ण की आँखों में वह अद्भुत सम्मोहन और उस सम्मोहन के फलस्वरूप एक क्षण में तीव्र प्रवाह में ही गोपियां मुग्ध हो झूम उठती थीं और साथ ही झूम उठती सम्पूर्ण प्रकृति, जल, वायु और सृष्टि का कण-कण।
‘पुष्प चन्दन तगर या चमेली किसी की सुगन्ध उल्टी हवा नहीं जाती।’‘किन्तु पुर्ण पुरूष की सुगन्ध उल्टी हवा में भी जाती है, सभी दिशाओं में प्रवाहित होती हुई देवताओं और अप्सराओं को भी मोहित कर जाती है।’ ऐसी ही सुखदायक सुगन्ध सदैव बहती रहती थी श्री कृष्ण की दिव्य देह से, जो कि उन क्षणों में और भी तीव्र हो उठती थी जब वे बांसुरी को होठों से लगाकर दिव्य संगीत लहरी वायुमण्डल में फैला देते थे।
आखिर ऐसा क्या था उनके व्यक्तित्व में, जो जड़-चेतन, जीव-निर्जीव, पशु-पक्षी, स्त्री-पुरूष और देवी-देवता सभी को एक आनन्द के सागर में उतार देता था। कौन सी शक्ति, कौन सी विद्या, कैसी चैतन्यता थी उनके पास, जो उन्हें महापुरूषों में भी एक अद्वितीय स्थान पर लाकर खड़ा करती है? और क्या सम्बन्ध था उनके सम्मोहक व्यक्तित्व और उनकी बांसुरी, उनके पीत वस्त्रों, उनके मोर मुकुट तथा उनकी दिव्य मुस्कान में?
भारतवर्ष में युगों से ही ऋषि, महर्षि और योगीजन ने मन पर विजय पाने तथा आत्मा को जीवन में सर्वोपरि स्थान देने के लिये अनेकों प्रयास किये हैं, क्योंकि साधना के आधार पर उन्होंने बहुत पहले ही जान लिया था कि जीवन में पूर्णता हेतु, जीवन के सौन्दर्य को पूरी तरह पुष्पित करने हेतु मन का नहीं, अपितु आत्मा का विकास आवश्यक है। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु आध्यात्म का विकास हुआ और इस विज्ञान के केन्द्र में था मन के मोहन की प्रक्रिया। मन का मोहन यानि स्व-मोहन या सम्मोहन, क्योंकि जब तक स्वयं के विचार या स्वयं की शक्ति पूर्ण रूपेण केन्द्रित नहीं होगी, तब तक आत्मा की सुगन्ध का जीवन में प्रवाहित होना संभव ही नहीं। इसी उच्च स्थिति को प्रतीक रूप में प्रतिबिम्बित करता था पीत वस्त्रों को धारण करना- ‘‘जो बिना चित्त को मोहित किये पीत वस्त्रों को धारण करता है, वह संयम और सत्य से हीन, पीत वस्त्र का अधिकारी नहीं।’’
जो वस्त्रों से इसका कुछ अधिक लेना-देना नहीं है, क्योंकि जिसने अपनी आँखों में सम्मोहन को उतार लिया, उसके शरीर के चारों और वैसे ही एक स्वर्णिम आभामण्डल उत्पन्न हो जाती है।— परन्तु किसमें क्षमता है, इस आभामण्डल को देख पाने की? कोई-कोई ही वह क्षण होता था, जब कृष्ण के प्रेम से सराबोर गोपियों एवं उन सखाओं को सब कुछ स्पष्ट हो उठता। इसलिये पीत वस्त्रों को धारण कर, श्री कृष्ण इस अवस्था के एक मूक प्रतीक को अंगीकार किये रहते थे। ‘‘ जिसने चित्त को मोहित कर दिया है, शील पर प्रतिष्ठित है, एवं संयम और सत्य से युक्त है वही, पीत वस्त्र का अधिकारी है।’’
— और आकर्षक पीत वस्त्रों में विचरण करते श्री कृष्ण के बहुमुखी व्यक्तित्व को देख, सभी ठगे से रह जाते थे। जो प्रेम के कच्चे रेशम के धागे से बंधे होते थे, उन्हें लगता, कि मुरली मनोहर ने आँखो से कोई जादू कर दिया, परन्तु प्रेम की हिलोरों में किसे चिन्ता रहती है, कि उन्हें मोहित कर लिया गया है? उस आनन्द के अतिरेक में तो सुध-बुध खोकर सभी झूम, उठते। परन्तु उनके प्रतिद्वन्द्वी, जो कि उनके सम्मोहन से छूट पाने का भरसक प्रयास करते रहते, लेकिन विफल ही रहते, आलोचना करते रह जाते, कि छल से कृष्ण ने उन्हें प्रभावित किया।
और हमको भी ऐसा ही लगता है, कि सद्गुरू अपनी आँखो से, अपने सम्मोहन से, हमारे मन और हृदय पर अधिकार कर लेते हैं, किन्तु सत्य इससे सर्वथा विपरीत है। सद्गुरू तो केवल अपने ही मन को मोहित कर, केन्द्रित कर उसे पूर्णतः निर्मल कर डालते हैं। स्वयं की सम्पूर्ण शक्ति जब एकत्रित हो जाती है और जब व्यर्थ के विचारों में शक्ति नष्ट नहीं होती, तब मन पर आत्मा का आधिपत्य स्थापित हो जाता है।
सद्गुरू दृष्टिपात से जीवन में सौन्दर्य, सुगन्ध, पुरूषत्व, संगीत, हास्य तथा जीवन्तता का उद्भव हो उठता है। सौन्दर्य भी ऐसा कि मात्र उस महापुरूष तक सीमित न रहकर, वह स्वतः ही चारों ओर फैलने लग जाता है। फिर कौन होगा, जो सौन्दर्य, और वह भी निष्कलंक सौन्दर्य से प्रभावित न हो?— और फिर यह तो व्यक्ति पर निर्भर करता है- अगर उसका चित्त निर्मल है, तो वह उस सौन्दर्य के प्रवाह में स्वयं ही एकात्म हो जायेगा और अगर छल, द्वेष आदि उसके जीवन के आधार हैं, तो वह आलोचना पर उतर आयेगा।
क्या चन्द्रमा आप पर जादू करता है या आप ही उसकी अद्भुत छटा पर मुग्ध हो उठते हैं? क्या गुलाब की सुगन्ध आपको सम्मोहित करती है या आप ही उसका अनुभव कर उसकी सुगन्ध में बह जाते हैं? चन्द्रमा और गुलाब दोनों की ही दिव्यता हर क्षण, हर दिशा में प्रवाहमान रहती है। वह तो आप पर निर्भर है कि आप उससे किस प्रकार प्रभावित होते हैं और दिव्य पुरूष का सौन्दर्य तो होता ही ऐसा है, कि आप मुग्ध हुये बिना नहीं रह सकते।
—क्योंकि उसके सौन्दर्य में, उसकी आँखों में, उसके मुख मण्डल पर एक दिव्य छटा, एक ब्रह्म सत्य की आभा होती है, जो शरीर से प्रवाहित होती रहती है, अष्टगन्ध, मुख से उच्चरित होते दिव्य वचन तथा कण्ठ से प्रवाहित होता रहता है एक अद्भुत संगीत— और यह सम्पूर्ण दिव्यता संक्रमित होती है, वह पूर्ण पुरूष स्वयं कुछ नहीं करता, क्योंकि उसको कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं, कोई चाह ही नहीं, कोई आकांक्षा ही नहीं, परन्तु उसकी दिव्यता हरेक को प्रभावित करती ही है। चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरूष, जड़ हो अथवा चेतन।
जिसने स्वयं को जान लिया, वह चैतन्यता का पुंज बन जाता है, एक ऐसा पुंज, जो सभी को चैतन्यता प्रदान करता हुआ जीवन में चालयमान होता है। तब श्री कृष्ण की भांति उसकी आँखो में सम्मोहन की एक अद्भुत शक्ति प्रज्ज्वलित हो उठती है। कठिन नहीं है इस सम्मोहन को प्राप्त करना, परन्तु पहले मन से निकाल दें, कि दूसरों को प्रभावित करना सम्मोहन है। जब तक स्वयं आपका मन चंचल है, तब तक जीवन में इस सौन्दर्य का उद्भव सम्भव नहीं।
‘मेधावी पुरूष सम्मोहन, संयम, संन्यास द्वारा अपने लिये एक ऐसा द्वीप बना लेता है, जिसे बाढ़ भी नहीं डुबा सकती।’संन्यास, सम्मोहन, संयम आदि कोई भिन्न प्रक्रिया या जीवन शैली नहीं है, वरन् मूल से चिन्तन एक ही है, कि किस प्रकार से मन को सन्तुलित किया जाये, मोहित किया जाये और वह भी दूसरों के मन को नहीं, अपितु स्वयं अपने चित्त को। जब भी ऐसा हो जायेगा, तो आप अपने अन्दर ही अनुभव करेंगे एक दिव्यता, एक चैतन्यता, एक सुगन्ध, एक संगीत, जो अपने जीवन को ही नहीं, आपके आसपास के लोगों के जीवन को भी प्रेम, हास्य, निर्मलता, शांति तथा चैतन्यता से सराबोर कर देगा। इसी सम्मोहन की अवस्था को प्राप्त करने के लिये यह अनूठा कृष्ण तंत्र प्रयोग, जिसे रंग पंचमी पर सम्पन्न कर निश्चय ही सफलता के उच्च शिखर को आप छू सकते हैं।
रंग पंचमी के उत्सव पर आप इस साधना को सम्पन्न करें। यह साधना सायंकाल के पश्चात् प्रारम्भ कर दें।
इस साधना में आवश्यक सामग्री कृष्ण तंत्र के मंत्रों से प्राण-प्रतिष्ठत ‘सम्मोहन यंत्र’, ‘कृष्ण चक्र’ और ‘सम्मोहन माला’ है।
सायं ही स्नानदि कर, स्वच्छ पीले वस्त्र धारण कर, पीले आसन पर उत्तर दिशा की ओर मुंह करके बैठ जाये। सामने चौकी पर गुलाब की पंखुडि़यां बिखेर दें। किसी पात्र में सम्मोहन यंत्र को स्थापित कर चौकी के मध्य में रखें।
अब यंत्र का पूजन अष्टगन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप आदि से करें। यंत्र के दाहिनी ओर एक पुष्प रखकर उस पर ‘कृष्ण चक्र’ रखें। यदि आपके पास कृष्ण चित्र हो, तो उसको भी स्थापित कर दें। अब भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करें-
कृष्ण चक्र पर मंत्र बोलते हुये केसर की बिन्दी लगाये-
1- ॐ किरीटाय नमः
2- ॐ कुण्डलाय नमः
3- ॐ शंखाय नमः
4- ॐ चक्राय नमः
5- ॐ अंगदाय नमः
6- ॐ पप्राय नमः
7- ॐ अंकुशाय नमः
8- ॐ धनुषाय नमः
9- ॐ शराय नमः।
सम्मोहन माला से निम्न मंत्र की 11 माला जप करें-
मंत्र जप समाप्त होने के पश्चात् साधक कृष्ण आरती सम्पन्न करे तथा नैवेद्य को स्वयं भी ग्रहण कर तथा परिवार एवं मित्रों में भी बांट दें।
साधना सम्पन्न होने के पश्चात् यंत्र, माला तथा चक्र किसी नदी में प्रवाहित कर दें। आप स्वयं अपने अन्दर एक नई चेतना अनुभव करेंगे। जिस कार्य को हाथ में लेंगे, उसमें निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी तथा आप अनुभव करेंगे कि अन्य लोग पहले से कहीं अधिक उत्साह के साथ आपकी सहायता करने के लिए तत्पर हो उठे हैं।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,