भीतर है चैतन्य का वास, बाहर है विराट का विस्तार। इस विराट से सम्बन्धित होने के दो उपाय हैं। यह जो बाहर फैला हुआ है और यह जो भीतर निवास कर रहा है, इन दोनों के मिलन की दो यात्राएं है। एक यात्रा है परोक्ष, Indirect, वह यात्रा होती है इन्द्रियों के द्वार से। एक यात्रा है प्रत्यक्ष- Direct, माध्यमहीन, वह यात्रा होती है अतीन्द्रिय अवस्था से। यदि बाहर जो जगत है उसे जानना है तो दो द्वार हैं, एक द्वार है कि मैं शरीर का उपयोग कर के उसे जाने और एक उपाय है कि हम समस्त माध्यम छोड़ दे और उसे जानें।
साधारणतः, बाहर प्रकाश है तो हम आँख के बिना नहीं जान सकते हैं और बाहर ध्वनि है तो कान के बिना नहीं जान सकते हैं और बाहर रंग है तो इन्द्रियों का उपयोग करना पड़े- इन्द्रियों से हम जानते है कि बाहर क्या है, इन्द्रियाँ हमारे ज्ञान का माध्यम है। स्वभावतः, इन्द्रियों से मिला हुआ यह ज्ञान वैसा ही है, जैसे कहीं कोई घटना घटे और कोई हमें आकर खबर दे। हमारा जानना इन्द्रियों के माध्यम से है। फिर इन्द्रियां जो हमें खबर देती हैं वही मानने के लिये हम मजबूर हैं, क्योंकि हमारे पास और खबर पाने का कोई उपाय नहीं है। परन्तु इन्द्रियों की खबर में इन्द्रियों की व्याख्या संयुक्त हो जाती है। इन्द्रियां बाहर के जगत की खबर हमें ज्ञात कराने का माध्यम है।
लेकिन क्या ऐसा भी हो सकता है कि हम बिना माध्यम के जगत को देख सकें? क्योंकि जब हम बिना माध्यम के जगत को देखेंगे तभी सत्य दिखाई पड़ेगा। इसलिये ऋषियों की जो गहनतम खोज है वह यह है, कि जब तक इन्द्रियों से हम जगत को जानते हैं, तब तक जिसे हम जानते हैं वह जगत के ऊपर इन्द्रियों द्वारा आरोपित प्रक्षेपण है, उसी का नाम माया है। जो आपने देखा है वह दृश्य ही नहीं है, देखनेवाला भी संयुक्त हो गया है। तो जब कोई आदमी आपको किसी के सम्बन्ध में खबर देता है कि वह आदमी बहुत अच्छा है, तो वह सिर्फ उस आदमी के सम्बन्ध में खबर नहीं देता, अपने सम्बन्ध में भी खबर देता है। और जब कोई आदमी कहता है कि वह आदमी बहुत बुरा है, तो वह उस आदमी के सम्बन्ध में ही खबर नहीं देता, अपने सम्बन्ध में भी खबर देता है। शायद दूसरे के सम्बन्ध में उसकी खबर गलत भी निकल जाये, लेकिन खुद के सम्बन्ध में गलत नहीं निकल सकती। हमारी इन्द्रियां व्याख्या को संयुक्त करती हैं। वे निष्क्रिय हैं- द्वार नहीं है, सक्रिय प्रक्षेपक भी है।
तो एक तो मार्ग है इन्द्रियों के द्वार से, जो सत्य का विस्तार है, उसे जानने का। इस सत्य को जानने से जो ज्ञान हमारी पकड़ में आता है, जिन्होंने इन्द्रियों के पार भी जगत को देखा है, वे कहते है, वह ज्ञान हमारी ‘माया’ है और यह जो जगत हमें दिखाई दे रहा है, बिलकुल है, लेकिन जैसा आपको दिखाई पड़ रहा है, वैसा नहीं है। वैसा दिखाई पड़ना आपकी दृष्टि है, वह दृष्टि इस जगत को माया बना दे रही है, जैसा जगत आपको दिखाई पड़ रहा है, वह आपकी व्याख्या है।
इसलिये, इस जगत में एक माया नहीं है, जितने इस जगत को जाननेवाले है, उतनी मायाये है। हर आदमी अपना जगत निर्मित किये हुये जी रहा है, हर आदमी के आस-पास एक जगत है। आप अपने जगत में घिरे हुये जीते हैं, आपका पड़ोसी अपने जगत में घिरा हुआ जीता है, इन दोनों जगत का कहीं कोई तालमेल नहीं होता। इस जगत को इन्द्रियों के द्वारा जानने की जो स्थिति है, वह जाग्रत है। इन्द्रियों के माध्यम से इस जगत को जानने की जो अवस्था है, उसे जाग्रत कहते है।
‘सूर्य आदि देवताओं को—’ इस पंक्तियों का तात्पर्य है, कि सूर्य केंद्र है। हम अपने चारों तरफ जो भी देखते हैं, अगर उन सबके केंद्र को हम खोंजे तो सूर्य केंद्र है। सूर्य बुझ जाये तो हमारा पूरा जगत अभी राख हो जाये। जीवन सूर्य है। इसलिये सूर्य आदि को देवता कहा है, बाकी सब गौण हैं, सूर्य प्रमुख है। सूर्य यानी जीवन। भारतीय संस्कृति में सूर्य को देवता माना जाता है। भारतीय मनुष्यों के सोचने का ढंग यह है कि जिससे हमें कुछ भी मिले, उसके प्रति अनुगृहित होना अनिवार्य है, क्योंकि अनुग्रह के बिना हमारे भीतर जो श्रेष्ठतम है उसका आविर्भाव नहीं होता। मनुष्य के भीतर जो भी श्रेष्ठतम है वह अनुग्रह के भाव से ही विकसित होता है। जितना अनुग्रह का भाव भीतर होगा, उतनी ही मनुष्य की आत्मा विकासमान होती है।
अनुग्रह का भाव धार्मिक चित्त का आधारभूत लक्षण है। उसी अनुग्रह के भाव पर उसे प्रभु का प्रसाद उपलब्ध होता है। इसलिये सूर्य को, सिर्फ प्रभावित होकर— कि वह अग्नि का महापिंड है, किन्हीं ने हाथ जोड़कर नमस्कार कर लिये होंगे, ऐसा नहीं है। जिन्होंने नमस्कार किया था, वे सत्य को भलीभांति जानने और पहचानने लगे थे— कि उस नमस्कार से सूर्य को कुछ नहीं मिलता, लेकिन नमस्कार करने वाले को बहुत कुछ मिलता है। वह अनुग्रह की संवेदना पैदा होनी शुरू होती है, वह Gratitude और उसमें ही सरलता जन्म जाती है, उसमें ही निर्दोष चित्त हो जाता है।
इस जगत में जिन्होंने अनुग्रह की किरणें खोजनी चाही है, उन्हें कण-कण से वे किरणें मिलती हुई मालूम पड़ी है, जहाँ से भी अनुग्रह का सम्बन्ध जुड़ जाता है, हमने उसी जगह को देवता कहा है। देवता का अर्थ है, जिसने हमें दिया ही है और हमसे लिया नहीं। देवता का अर्थ है- जिससे हमें मिला ही है, सदा मिलता रहा है, नहीं मांगा है तो भी मिलता रहता है, हमने धन्यवाद नहीं दिया तो भी मिलता रहा है। उसका मिलना, उससे मिलना बेशर्त है। तो हमने देवता कहा है और हम उसे और कुछ भी नहीं दे सकते लौटाकर, लेकिन धन्यवाद तो दे ही सकते हैं।
यह जो चारों तरफ फैला हुआ प्रभु का विस्तार है और इससे हमारे तार-तार जुड़े हैं, इस जोड़ का बोध जब इन्द्रियों के द्वारा चेतना को होता रहता है, तो उसे जाग्रत अवस्था कहते हैं।
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