कूर्म, मत्स्य, वराह अवतार इत्यादि के पश्चात युग के अनुसार त्रेता युग में भगवान विष्णु का प्रथम अवतार पुरूष रूप में राम के रूप में जाना जाता है। राम का अवतरण त्रेता युग में हुआ था और तब तक सृष्टि में एक व्यवस्था बन चुकी थी। राज्य व्यवस्था, लोक व्यवस्था, कार्य व्यवस्था, स्त्री-पुरूषों के धर्म-नियम, दैनिक आचार विचार के दृश्य, ईश्वर उपासना, यज्ञ इत्यादि पूरे भारत वर्ष में गुंजरित होने लग गये थे। जैसे संसार में वर्तमान समय में व्यवस्था दिखाई देती है उसी प्रकार एक व्यवस्था स्वरूप विद्यमान था। मंदिर, घर, समाज निर्माण प्रेम सुख-दुःख इत्यादि सब स्थितियों का निर्माण हो चुका था और सृष्टि अपनी एक विशेष व्यवस्था क्रम में चल रही थी।
लेकिन यह भी सत्य है कि अच्छाई के साथ बुराई का भी विकास होता है। धर्म के साथ किसी न किसी रूप में थोड़ा बहुत अधर्म का भी विकास होता है। ऋषि प्रवृत्तियों के साथ, राक्षसी प्रवृत्तियों का विकास होता है। इसी रूप में भगवान राम के अवतरण कथा में ये सारी स्थितियां विद्यमान थीं। समाज थोड़ा बिखरने लगा था। गुरूकुल व्यवस्था थी तो उसके साथ-साथ थोड़ी राक्षसी वृत्तियां भी बढ़ रही थीं, कई स्थितियों में शक्ति का प्रदर्शन बुरी वृत्तियों को नाश करने के बजाय उनके विकास में होने लग गया था। और इसी को त्रेता युग कहा गया है जब भगवान राम ने पुरूष रूप में अपना प्रकटीकरण किया और प्रथम बार उन सब लीलाओं को एक चमत्कार के रूप में नहीं अपितु एक वीर और योग्य पुरूष के रूप में प्रकट किया जो कि प्रत्येक मनुष्य में अवश्य ही होने चाहिये यदि वह अपने जीवन में उन्नति के मार्ग पर बढ़ना चाहता है। पूरे रामचरित्र में अर्थात राम के जीवन में एक भी ऐसी घटना नहीं है जो कि विशेष चमत्कारों से भरी हो अथवा ऐसा कार्य हों जो कि मनुष्य के लिये अचरज भरे हों। पूरी मर्यादा आर्दश के साथ सारे गुणों को भगवान राम ने विकास किया। राम का पूरा चरित्र ही मर्यादा के साथ आसुरी प्रवृत्तियों पर देव प्रवृत्तियों की विजय को दर्शाता है।
राम के पूरे जीवन से एक विशेष बात यह प्रकट होती है कि जो भी व्यक्ति उनकी शरण में आया उसकी उन्होंने पूर्ण रूप से रक्षा की और उसे अभय प्रदान किया और सेवा के स्वरूप हनुमान को पूरे जगत में विख्यात किया। इसीलिये जहां-जहां राम का नाम लिया जाता है वहां उनके शिष्य भक्त हनुमान का नाम अवश्य आता है। शास्त्र तो यहां तक कहते हैं कि हनुमान भक्ति के बिना और हनुमान को समझे बिना राम को समझना कठिन है। हनुमान ने अपने जीवन में जो उदाहरण सेवा के रूप में प्रस्तुत किया वहीं आदर्श स्वरूप बन गया। यदि लोक रूप में भगवान राम के गुरू वशिष्ठ, विश्वामित्र थे तो हनुमान के सर्वेश्वर गुरू और उपास्य देव भगवान राम ही थे। जिनके मुख में सदैव श्रीराम का ही उच्चारण होता है।
भगवान विष्णु ने जब रघुवंशी महाराज दशरथ के यहां जन्म लिया, तब उनका नाम ‘राम’ हुआ। विद्वानों ने ‘राम’ शब्द की व्याख्या करते हुये कहा है कि जो सन्तजनों की सब कामनाओं को पूर्ण करते हैं, जो आसुरी शक्तियों के विनाश के लिये प्रवृत्त रहते हैं, वह ‘राम’ है।
‘‘जिस नित्यानन्द-स्वरूप, चिन्मय और अनन्त ब्रह्म में योगीजन लीन रहते हैं, वह परमेश्वर ही ‘राम’ शब्द से सम्बोधित किया जाता है।’’
‘‘जो सब जीवों में, चल-अचल में अन्तर्यामी रूप से व्याप्त हैं, उनको ही राम कहते हैं।’’
वह देह रहित, अवयव रहित, अद्वितीय, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ ‘राम’ ही भक्तों के इच्छित कार्यों को सिद्ध करने के लिये, मर्यादा की रक्षा के लिये आत्म-उदाहरण द्वारा जन-जन को मार्ग दर्शन के लिये आत्मशक्ति से अवतार लेते हैं। इस तरह साकार होने से ही परमेश्वर ‘स्वयं भू’ कहलाता है। गीता के अनुसार अवतार का ‘जन्म’- ‘कर्म’ दिव्य होता है। वे स्वयं ही उत्पन्न होते हैं, कारणोद्भूत नहीं होते। दशरथ के यहां अवतरित होने वाले राम भी स्वयंभू हैं। वे ज्योति स्वरूप हैं। अपने प्रकाश से सदा प्रकाशित रहते हैं। वे साकार होने पर भी अनन्त रहते है।
तुलसीदास के अनुसार सच्ची रामोपासना वही है जिसमें राम के प्रति प्रेम ही (भाव से जप-ध्यान हो), नीतिपथ का अनुसरण हो और काम-क्रोध को निग्रह करने का सफल प्रयास हो। उनके अनुसार उपास्य का शील स्वभाव उपासक में आ जाना चाहिये। शील के बिना कोई भी उपासना उच्च भूमि तक नहीं पहुँच सकती। यदि उपासना में शील नहीं है, वह उपासना आत्म-प्रवचना है, दम्भ है।
भूत-प्रेत भगाने से लेकर, विष उतारने तथा बीमारियों से मुक्ति दिलाने से लेकर ऋण उतारने की बाधाओं में राम रक्षा स्तोत्र का पाठ बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस स्तोत्र के एक-एक शब्द में अपूर्व शक्ति, साहस तथा अमूल्य गुण छिपे हुये हैं। इसके एक-एक शब्द में नई शक्ति है, नई क्षमताये हैं। बाधाओं पर विजय प्राप्त करने का यह अमोघ साधन है।
राम-रक्षा स्तोत्र में शब्दों का संयोजन अपने आप में विलक्षण एवं अप्रतिम है, जिसकी वजह से एक विशेष ध्वनि का निर्माण होता है और उस ध्वनि के कम्पन, बीमार के अचेतन मन में जाकर उसे साहस एवं दृढ़ता प्रदान करते हैं। इस आत्म बल से ही रोग दूर होते हैं तथा उसे आरोग्य, बल एवं शान्ति मिलती है। जो व्यक्ति जितनी ही पुष्टता तथा विश्वास से इस स्तोत्र का पाठ करता है उसे उतनी ही जल्दी सफलता प्राप्त होती है। यह अपने आप में एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है और यह प्रक्रिया लाखों लोगों ने लाखों बार आजमाई है तथा उन्हें अपने कार्यों में सफलता मिली है।
राम रक्षा वज्र यंत्रराज कवच धारण करने से-
1 जीवन के सभी मनोरथ पूरे होते हैं।
2 पूर्वजन्मकृत दोषों एवं पापों का नाश होता है।
3 आने वाली आपत्तियां स्वतः ही समाप्त हो जाती है।
4 ग्रहकलेश में भी पूर्ण शांति प्राप्त होती है।
5 मित्रों से मित्रता सुदृढ़ होती है तथा शत्रु भी अनुकूल हो जाते हैं।
6 संकट के समय राम रक्षा कवच धारण कर हनुमान मंत्र के साथ इस स्तोत्र का पाठ किया जाये तो अपूर्व बल एवं शक्ति प्राप्त होती है।
इसके अलावा राम रक्षा कवच की महानता का वर्णन करना ठीक उसी प्रकार होगा जिस प्रकार सूर्य को दीपक दिखाना।
गुरूदेव ने तो एक बार अपने प्रवचन में कहा कि ‘जिसके घर में राम-कृष्ण और गुरू का चित्र नहीं स्थापित है वह घर ही शमशान की भांति है जहाँ मनुष्य नहीं भूत-प्रेत, पिशाचों का निवास होता है।’
वास्तव में राम रक्षा कवच सभी प्रकार की बाधाओं की शांति के लिये तंत्र रक्षा कवच के समान ही फलप्रद है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि यह यंत्र पूर्णता मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठायुक्त होना चाहिये।
आप यह साधना राम नवमी 30-03-2023 को सम्पन्न कर सकते हैं। इसके लिये आप अपने पूजन स्थान में प्रातः उत्तर अथवा पूर्व की ओर मुख कर बैठें। लाल रंग के आसन पर बैठें, सामने श्रीराम का हनुमान सहित चित्र स्थापित हो और समक्ष गुरू चित्र स्थापित करें। इसके साथ ही एक थाली में स्वास्तिक बना कर पुष्प और अक्षत का आसन देकर मंत्रसिद्ध प्राण प्रतिष्ठायुक्त राम रक्षा वज्र कवच स्थापित करें। और इस पर पुष्प अर्पित करें। गुरू चित्र तथा राम के स्वरूप पर माल्यार्पण करें। श्री हनुमान मूर्ति अथवा चित्र पर सिन्दूर का तिलक लगायें। स्वयं अपने ललाट पर सिन्दूर का तिलक करें तथा एक हनुमान भक्त के रूप में कवच का पूजन करें। उसके पश्चात् षोडश उपचार विधि से गुरू पूजन, हनुमान पूजन सम्पन्न करें तथा भगवान श्रीराम का पूजन नीचे दी गई विधि अनुसार न्यास सहित सम्पन्न करें।
ऊँ रां अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ऊँ रीं तर्जनीभ्यां नमः।
ऊँ रूं मध्यमाभ्यां नमः।
ऊँ रैं अनामिकाभ्यां नमः।
ऊँ रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
रः करतलकपृष्ठाभ्यां नमः।
इति करन्यासः।
ऊँ रां हृदयाय नमः।
ऊँ रीं शिरसे स्वाहा।
ऊँ रूं शिखायै वषट्।
ऊँ रैं कवचाय हुं।
ऊँ रौं नेत्रत्रयाय वौषट्।
ऊँ रः अस्त्रय फट्।
दूति हृदयादि षडङ्गन्यास:।
ऊँ रां नमः ब्रह्मरन्घ्रे।
ऊँ रां नमः भ्रवोर्मध्ये।
ऊँ मां नमः हृदि।
ऊँ यं नमः नाभौ।
ऊँ नं नमः लिङ्गे ।
ऊँ मं नमः पादयोः।
इति मंत्रवर्णन्यासः।
मंत्र न्यास के पश्चात् एक माला राम मंत्र का जप अवश्य कर लें।
पूजन के पश्चात् लाल धागे में पिरोकर इस यंत्र को धारण करें तथा हर समय इसे धारण किये रहें। यह कवच शिष्य के लिये एक राम वरदान है। जो हर समय उसकी रक्षा करता रहता है।
इसके पश्चात् नीचे दिये गये कवच का पाठ करें-
अब सब कामनाओं को पूर्ण करने वाला ध्यान अर्थात् जिनका नील मेघ के समान श्याम शरीर है, जो बिजली के समान चमकते हुये पीले वस्त्र को धारण किये हैं, जिनके कोमल अंग हैं, बड़ी-बड़ी आँखे हैं, जो अतिशय सुन्दर और युवा हैं, जिनके साथ सीता और लक्ष्मण विद्यमान हैं, जो जटा-मुकुट धारण किये हैं, तलवार, तरकस, धनुष और बाण हाथ में लिये हैं और दानवों का संहार करते हैं।
भावार्थः- अगस्त मुनि द्वारा रचित इस राम रक्षा वज्र कवच में साधक पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम से प्रार्थना करते हुये निवेदन करता है कि- हे श्रीराम, आप मेरे मस्तक पर सदैव छत्र छाया बनाये रखें। रघुवंश में आपका जन्म हुआ है उस रूप में पूर्व दिशा में मेरी रक्षा करें। रघु वर रूप में दक्षिण दिशा में, पावन पवित्र रूप में पश्चिम दिशा में तथा उत्तर रूप में दशरथ पुत्र रघुपति मेरी रक्षा करें। मेरे नेत्रों के ऊपरी भाग पर हे दूर्वादल श्याम तथा आज्ञा चक्र भाग पर आप जनार्दन रूप में मेरी रक्षा और कृपा रखें। मेरे दोनों कर्ण भाग की राजेन्द्र रूप में तथा नेत्रों की राजीव लोचन रूप में रक्षा करें।
मेरी नासिका की राजश्वी रूप में तथा कर्ण के मूल भाग में रघुवंशी रूप में, मेरे पूरे भाल ललाट की रघुवल्लभ रूप में रक्षा करें। आप वाक्पति हैं और रघुकुल में उत्तम हैं और श्रीरामचन्द्र हैं इस रूप में मेरी जिह्ना, दंत पंक्ति और मुख की रक्षा करें। उस पर सदैव आपका नाम रहे।
जगत् द्वंद रूप में मेरे कण्ठ की तथा रावण नाशक रूप में मेरे कन्धों की रक्षा करें। आपने अपनी बांह पर धनुष बाधा धारण किया हुआ है, उसी रूप में मेरी बाहों की रक्षा करें तथा बाली मर्दन तथा राक्षसान्तक के रूप में मेरे हाथों की रक्षा करें। हरि रूप में मेरे हृदय में निवास कर आपका ध्यान बना रहे। वक्ष स्थल एवं पीठ भाग पर सीतापति एंव जगदीश्वर रूप में रक्षा करें।
लक्ष्मी का मैं आंकाक्षी हूँ और मेरे मध्य भाग की लक्ष्मीश् रूप में रक्षा करें तथा कटि भाग, जंघा इत्यादि शरीर की कौशल्या नंदन, दुर्गति नाशन, ऋषिकेश और सत्य विक्रम रूप में रक्षा करें। जंघा तथा उरू भाग की रक्षा हनुमंत प्रिय रूप में करें।
मेरे शरीर के सभी अंगों की विष्णु तथा सम्पूर्ण के सभी जोड़ों की रक्षा अनामय रूप में करें। मधुविनाशक रूप में मेरे ज्ञानेन्द्रियों और प्राणों की रक्षा करें। आप लक्ष्मण भ्राता हैं उसी रूप में मेरी वाक्शक्ति एवं इन्द्रियों की रक्षा करें। आपने भगवान शिव के धनुष को तोड़ कर जो महान् कार्य किया उस कारण आपका नाम हर को दण्ड खंडन है।
मैंने मन, वचन, बुद्धि, अहंकार द्वारा इस जन्म में तथा पूर्व जन्म में जो भी पाप दोष किये हैं उन्हें शीघ्र भस्म कर दसों दिशाओं में मेरी रक्षा करें। हे भगवान श्रीराम आप सदैव मेरी रक्षा करें। मैं आपके शरणागत हूँ और मुझे ज्ञात है कि आप अपने भक्तों की कोई भी प्रार्थना व्यर्थ नहीं जाने देते। अपने लीला रूप में सदैव और सदैव राक्षसों का संहार किया।
अपने भक्तों को प्रेम दिया उसी रूप में मुझे जीवन में कृपा, प्रेम एवं रक्षा सदैव प्रदान करते रहें। आप पुरूषोत्तम हैं यही कामना अभिलाषा इस राम भक्त की है।
उपरोक्त स्तोत्र में भगवान के विभिन्न स्वरूपों की महिमा का वर्णन राम भक्त द्वारा किया जाता है और भगवान राम अपने प्रत्येक रूप में साधक की हनुमान रूपी शिष्य की भांति रक्षा करते हैं।
वास्तव में राम रक्षा कवच जीवन का वह वरदान है जो दुर्लभ व्यक्तियों को ही प्राप्त होता है और यह भी सत्य है कि यह कवच केवल गुरू कृपा से ही प्राप्त हो सकता है। इसे धारण करने के पश्चात् कुछ ही दिनों में मुख मण्डल पर एक विशेष ताजगी तथा आभा आ जाती है। इसके बारे में अधिक लिखना अनिवार्य नहीं है। यह तो धारण करने के पश्चात् ही जान सकते हैं लेकिन यह भी सत्य है कि राम के समान प्रत्यक्ष देव को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
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