धन की तीन प्रधान गतियां हैं-भोग- जिससे रोग पैदा होता है। नाश-राज्य चोर या लूटपाट के द्वारा। दान-जिससे जीवन में यश, सम्मान, पुण्य एवं मोक्ष प्राप्त होता है। पुरूषार्थ- चतुष्ट्य में अर्थ का द्वितीय स्थान है। अर्थ का सम्बन्ध धन-सम्पति से होते हुये, भौतिक उपकरण तथा सुख से भी है। वस्तुतः अर्थ का अभिप्रायः भौतिक साधनों एवं उपकरणों से है, जो व्यक्ति को सांसारिक सुख उपलब्ध कराते हैं।
व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाये, तो मनुष्य की आर्थिक एवं भौतिक आवश्यकतायें अर्थ के माध्यम से ही पूर्ण होती है। अतः अर्थ से तात्पर्य उन सभी भौतिक वस्तुओं तथा साधनों से है, जो व्यक्ति की सुख-सुविधा में प्रयुक्त होते है। बृहस्पति ने अर्थ को जगत का मूल स्वीकार किया है-
अर्थशास्त्र में इसे प्रधान तत्व निरूपित किया गया है-
नीतिशतक के अनुसार धनी व्यक्ति अच्छे कुल तथा उच्च स्थिति का माना जाता है। वह पण्डित, वेदज्ञ, वक्ता, गुणज तथा दर्शनीय माना जाता है-
मनुष्य को अपने जीवन में अनेक प्रकार के कर्त्तव्य तथा उत्तरदायित्व पूरा करने के लिये अर्थ की आवश्यकता पड़ती है। यह अर्थोपार्जन धर्म के माध्यम से ही होना चाहिये, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। साधारणतः व्यक्ति सुख-सुविधा, धन-ऐश्वर्य का आकांक्षी रहता है। ऋग्वैदिक युग में आर्य भी भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति जागरूक थे, जैसा कि यह भ्रामक धारणा पश्चिमी विद्वानों तथा उनके चाटुकार भारतीय विद्वानों ने फैलायी है, कि ‘भारतीय आर्यो को भौतिक सुख सुविधाओं का ज्ञान नहीं था तथा वे मात्र आध्यात्मिक उन्नति के लिये ही प्रयत्नशील रहते थे।’
यह धारणा पूर्णतः निराधार है। भारतीय आर्य भी धन-सम्पति, गाय-अश्व इत्यादि की वृद्धि के लिये ईश्वर से प्रार्थना करते थे। इस प्रकार का भौतिक सुख व सुविधा अर्थ से ही सम्भव है।
अतः अर्थ का अभिप्राय विस्तृत है-यह सुख सुविधा का साधन है, जो व्यक्ति को भौतिक सुख तथा आनन्द प्रदान करने में सहायक होता है। व्यक्ति में प्राप्त करने की प्रवृति की तुष्टि ही अर्थ है। ऐसी स्थिति में जीवन की समस्त सुविधायें, आर्थिक कामनायें तथा भौतिक सुख अर्थ से सम्बन्धित है, जिनकी प्राप्ति अर्थ के माध्यम है। परिवार के पोषण एवं उसे समृद्ध तथा उन्नतिशील बनाने में अर्थ का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
गृहस्थ जीवन के विभिन्न धार्मिक कार्यो व कर्त्तव्यों की पूर्ति अर्थ के द्वारा ही सम्भव हो पाती है। अतः अर्थ के माध्यम से व्यक्ति जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। स्पष्ट है कि अर्थ सामाजिक लक्ष्य-प्राप्ति का साधन है, जिससे भौतिक सुख की प्राप्ति होती है। इस सम्बन्ध में याज्ञवल्क्य तथा राजा जनक का प्रसंग स्मरणीय है-
‘‘एक बार जब याज्ञवल्क्य राजा जनक के यहाँ पहुँचे तब जनक ने उनसे पूछा-आपको धन और पशु अथवा शास्त्रर्थ और विजय चाहिये? उन्होंने उत्तर दिया-मुझे दोनों चाहिये।’’ निश्चय ही याज्ञवल्कय की दृष्टि में अर्थ का भी महत्त्व था।
भारतीय शास्त्रकारों ने अर्थ की महत्ता और आवश्यकता पर समान बल दिया है। महाभारत में कहा गया है-‘अर्थ उच्चतम धर्म है। प्रत्येक वस्तु उस पर निर्भर करती है। अर्थ सम्पन्न लोग सुख से रह सकते है। अर्थहीन लोग मृतक के समान है। किसी एक के धन का क्षय करते हुये, उसके त्रिवर्ग को प्रभावित किया जा सकता है।’
अर्थ को काम तथा धर्म का आधार माना गया है। इससे स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त होता है। धर्म स्थापन के लिये अर्थ अनिवार्य है, क्योंकि इसी से प्राप्त सुविधा के द्वारा धार्मिक कृत्य किये जा सकते है-
जो धन से अनाहत है, वह धर्म से भी, क्योंकि समस्त धार्मिक कार्यो में धन की अपेक्षा की जाती है। अर्थ विहीन व्यक्ति ग्रीष्म की सुखी सरिता के समान माना गया है
बृहस्पति के अनुसार अर्थ सम्पन्न व्यक्ति के पास मित्र, धर्म, विद्या, गुण क्या नहीं होता। दूसरी ओर अर्थहीन व्यक्ति मृतक और चाण्डाल सदृश है। अतः अर्थ ही जगत का मूल है।
एक बार किसी सन्यासी योगी से जिज्ञासु ने प्रश्न किया-‘‘महाराज! आप तो सर्वथा वीतरागी और निस्पृह है, फिर भी आप लक्ष्मी को इतना अधिक महत्त्व क्यों देते है?’’
योगी ने स्नेह से कहा-‘‘वत्स! तुम्हारी बात सत्य है कि मैं लक्ष्मी को अधिक महत्त्व देता हूँ और इसका कारण भी है। मेरे इतने गृहस्थ और सन्यासी जो शिष्य है, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी तो मेरा दायित्व है। बिना लक्ष्मी के यह सब कैसे सम्भव है? इसलिये संन्सास जीवन में भी लक्ष्मी की पग-पग पर आवश्यकता पड़ती ही है। बिना धन के धर्म की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।’’
इससे स्पष्ट है, कि धन की आवश्यकता जीवन में होती ही है। कौटिल्य ने भी अर्थ को धर्म जितना ही शक्तिशाली व महत्त्वपूर्ण बताया है तथा काम और धर्म का आधार बताया है। आपस्तम्ब ने मनुष्य को धर्मानुकूल सभी सुखों का उपयोग करने के लिये निर्दिष्ट किया है। स्पष्ट है, कि व्यक्ति के जीवन में सुख की सर्वोपरि महत्ता है, जिसे प्राचीन विचारकों ने अत्यन्त तर्कपूर्ण भाषा में व्यक्त किया है। मनु के अनुसार त्रिवर्ग ही श्रेय है, जिसमें अर्थ की अपनी विशेष महत्ता है-
स्पष्ट है, कि मनुष्य के जीवन में अर्थ का महत्त्व धर्म से भी अधिक है, यदि व्यक्ति के पास धन है तभी वह धार्मिक कार्य कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति की भौतिक सुख-सुविधाओं व वस्तुओं के प्रति लालसा रहती है, जो धन के माध्यम से ही सम्भव है, किन्तु व्यक्ति का धन संग्रह धार्मिक रूप से ही सम्भव है, धन संग्रह धार्मिक रूप से होना चाहिये, अधार्मिक रूप से नहीं तथा इसका व्यय भी धर्म सम्मत ढंग से होना चाहिये, न कि अधार्मिक ढंग से।
आधुनिक काल में अर्थ का संचय तथा व्यय दोनों ही अधिकांशतः अधार्मिक ढंग से होता है, जो कि पतन की ओर ही ले जाता है। व्यक्ति का अर्थ व्यय भी अधार्मिक कार्यो जैसे-द्यूत क्रीड़ा, मद्यपान में ही होता है। अर्थ का संग्रह भी अधार्मिक कार्यो जैसे-छल, कपट, लूट, अवैधानिक रूप से आवश्यक वस्तुओं के संग्रह, भिन्न-भिन्न वस्तुओं की भिन्न-भिन्न में मिश्रण के द्वारा होता है। अधार्मिकता तथा अन्याय से अर्जित भौतिक सुख तथा धन-सम्पति का फल दुःखद होता है तथा धर्म विरूद्ध कार्यो में धन व्यय करना भी निन्दनीय माना गया है।
मनु के अनुसार यदि काम तथा अर्थ धर्म विरूद्ध है, तो उनका त्याग कर देना चाहिये-
अतः अर्थ के निमित किये जाने वाले प्रयास में धर्म की संस्तुति अवश्य ही होनी चाहिये।
निधि श्रीमाली
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