जीवन में यह सत्य है कि परिवार में एकदम बीमारी आ जाये, परिवार के किसी सदस्य का एक्सीडेंट हो जाये, जिस व्यक्ति पर भरोसा करे वह व्यक्ति घाटा पहुँचा दे, कोई अचानक आपको धोखा दे दे, कोई शत्रु आपके विरूद्ध षड्यन्त्र रच दे, कहीं अकस्मात् रूप से कोई ऐसा कार्य हो जाये, जिससे आपकी प्रतिष्ठा पर हानि पहुँचे।
वे सब स्थितियां जीवन में सुख का नाश कर, दुःख में वृद्धि करती है और जीवन की उन्नति को पीछे धकेलती है, इन स्थितियों के होते आप जो श्रम करते है, वह श्रम आपको पूर्ण रूप से फलदायी नहीं रहता। साधना ही इसका उत्तर है साधना द्वारा ही इन स्थितियों पर विजय संभव है। कुछ साधनायें वृद्धि की साधनायें होती है, जिनको सही तरीके से गुरू आशीर्वाद से सम्पन्न करने से जीवन में उन्नति प्राप्त होती है।
कुछ साधनायें जिनमें कुछ विशेष तंत्र प्रयोग भी शामिल है, शत्रु नाश, बाधा निवारण, मारण प्रयोग, स्तम्भन एवं वशीकरण प्रयोग की साधनायें होती है, जिसको साधक अपने कार्यो की पूर्ति हेतु, बाधाओं के नाश के लिये करता है।
कुछ विशेष रक्षा साधनायें होती है, जो कि भविष्य में आने वाली बाधाओं के संबंध में एक कवच का रूप बन जाती है, जिससे यदि बाधायें आये भी, तो आप पर प्रभाव न डाल सकें। इन बाधाओं की आपको पूरी जानकारी हो जाये, जिससे समय रहते, उचित उपाय किया जा सके।
यह महत्त्वपूर्ण वरूथिनी देवी साधना विशेष प्रयोग दिवस के दिन सम्पन्न की जाती है और इसका विधान अत्यन्त सरल है और विशेष बात यह है कि यह साधना गृहस्थ व्यक्तियों के लिये है क्योंकि गृहस्थ को ही अपने जीवन में पग-पग पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है, अपने घर परिवार के अतिरिक्त समाज में रहते हुये उसे सब कार्य निभाने पड़ते है, वह चारों ओर से जिम्मेदारियों के तारों से बंधा एक कुशल नट की भांति जीवन जीता है, जहां थोड़ा पैर चूका कि परेशानियां, दस गुना बढ़ जाती है।
‘योगिनी हृदय तंत्र’ के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के साथ जिन विशेष शक्तियों की उत्पत्ति की, उनमें प्रमुख ‘वरूथिनी’ है।
‘अष्टादस निकाय’ में इस साधना का जो वर्णन मिलता है, वह निश्चय ही इस साधना के पूर्ण स्वरूप को स्पष्ट करता है।
शक्तागम साहित्य में ‘श्री विद्यार्ण’ ग्रंथ में भी इस साधना के सिद्धान्त तथा उपासना के संबंध में विवरण है, यह ग्रंथ प्रकाशित ही नहीं हुआ, इस ग्रंथ की एक हस्तलिखित प्रति जम्मू रघुनाथ मन्दिर पुस्तकालय में है, यह ग्रंथ शंकराचार्य द्वारा लिखा गया है।
इसमें लिखा है कि यदि कोई साधक वरूथिनी सिद्धि प्राप्त कर लेता है, तो वह सम्पूर्ण ज्ञाता बन जाता है, उसे भविष्य की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। साधक में सूर्यत्व प्रबल हो जाता है, उसका मस्तिष्क अत्यन्त तीव्र तथा विशेष विचारशील हो जाता है।
अपने कार्यो के गुण अवगुण का ज्ञान हो जाता है और उसके सामने अपना मार्ग स्पष्ट रहता है कोई भी विपरीत स्थिति आने पर सिद्धि प्राप्त साधक को पूर्ण जानकारी हो जाती है और वह उसकी निवृति का मार्ग ढूंढ़ लेता है। शक्ति संचार के तीव्रत्व में एक तादात्म्य हो जाता है, जिससे उसकी शक्ति एक सही दिशा में अग्रसर रहती है, व्यर्थ के कार्यो में उसकी शक्ति का नाश नही होता है। गुण तथा द्रव्य दोनों की ही प्राप्ति संभव हो जाती है।
वरूथिनी साधना एक तांत्रिक प्रयोग है, इस प्रयोग में साधक को कुछ विशेष सावधानियां भी रखनी पड़ती है। साधक एकादशी के दिन भोजन ग्रहण न करें, साधना के दिन शारीरिक रूप से पूर्ण स्वस्थ हों। साधना के दिन साधक के मन में विशेष उत्साह हो, यह उत्साह शक्ति गुरू ध्यान कर साधक अवश्य ही प्राप्त कर सकता है।
साधना के समय किसी भी प्रकार का विघ्न न हो इसलिये जिस कमरे में साधना करें, उस कमरे में दरवाजे अच्छी तरह से बन्द कर दें। पूजा के दौरान यदि कोई दरवाजा खटखटायें या बाहर कोई आवाज हो तो भी दरवाजा न खोलें।
इसकी साधना प्रक्रिया थोड़ी जटिल है, लेकिन क्रमबद्ध रूप से करने पर साधक सरलता पूर्वक प्रयोग सम्पन्न कर सकता है, इसमें मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठा युक्त ‘वरूथिनी तंत्र बाधा निवारण यंत्र’ ‘दो जोडी दो मुखी रूद्राक्ष’ तथा ‘21 हकीक पत्थर’ आवश्यक है। इस साधना में किसी प्रकार की माला की आवश्यकता नहीं है।
सर्वप्रथम गुरू पूजन कर 21 बार गुरू मंत्र का जप करें, इसी प्रकार भैरव पूजन कर सुपारी रूप में अथवा शुद्ध भैरव लिंग के रूप में या फिर भैरव गुटिका का पूजन कर अपने सामने एक ओर स्थापित कर दें।
भैरव पूजा में 21 बार निम्न मंत्र का जप करें।
अब अपने सामने एक ताम्र पात्र में पुष्प रख कर बाधा निवारण यंत्र जो कि ताम्रपत्र पर अंकित हो, शुद्ध जल से धो कर उस पर स्थापित करें और सिन्दूर चढ़ायें, उसके साथ ही पूजा स्थान में धूप अवश्य जला दे, ध्यान कर अपनी बाधाओं के नाश की प्रार्थना कर वज्र मुद्रा अर्थात् दोनों घुटने टिका कर पैर पीछे करके बैठे तथा बाधा निवारण हेतु निम्न मंत्र का 21 बार जप करें-
पहले से ही सिन्दूर से रंग कर रखे हुये चावलों को प्रत्येक बार मंत्र जप के समय, पात्र में रखे यंत्र पर अर्पित करते रहे।
इसके पश्चात् दोनों दो मुखी रूद्राक्षों को अपने सामने यंत्र पात्र के बाहर सफेद चावल की ढेरी पर रखे और उन पर चंदन चढ़ायें, शिव का ध्यान करे, अपने पैरों को सीधा कर पालथी मार कर बैठ जाये दाये हाथ में जल ले कर बारी-बारी से रूद्राक्षों पर चढ़ाते रहें तथा प्रत्येक रूद्राक्ष पर इक्यावन बार यह प्रयोग सम्पन्न करें।
यह पूजन कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् अपने सामने तीन लाइनों में 21 हकीक पत्थर रखें तथा प्रत्येक हकीक पत्थर पर तिल तथा सरसों चढ़ा दें, अब मंत्र जप आरम्भ करे तथा अपने हाथ में थोड़े तिल और सरसों ले लें, इस समय अपनी मुद्रा दूसरी ओर कर दें, मंत्र जप के समय दिये की ओर देखना नहीं है अर्थात् दीपक आपके पीठ पीछे हो।
मंत्र जप प्रारम्भ करने से पहले अपनी सारी बाधाओं को एक कागज पर लिख कर उस पर लाल डोरा बांध कर अपने पास दीपक के साथ रख दें। जब 101 बार मंत्र जप पूर्ण हो जाये तो यह कागज उस दीपक की लौ में भस्म कर दें तथा जोर से फूंक मार दीपक को बुझा दें, अब अपने सामने से हकीक पत्थर, तिल, सरसों तथा कागज की राख आदि को लेकर एक लाल कपड़े में बांध दें और इसे अलग कोने में रख दें।
जब यह सारी साधना सम्पन्न हो जाये तो केवल गुरू के सम्मुख अर्पित किया हुआ प्रसाद ही ग्रहण करें अन्य प्रसाद जो कि भैरव गुटिका के सामने अर्पित है, श्वान अर्थात् किसी कुत्ते को खिला दें।
लाल कपड़ें में बांधे गये हकीक पत्थर, तिल, सरसों तथा राख को घर से दूर गड्ढा खोद कर गाड दे। घर आ कर पुनः स्नान कर शुद्ध श्वेत वस्त्र पहिन कर गुरू आरती तथा शिव आरती सम्पन्न करे।
यह साधना अत्यन्त प्रभावकारी एवं महत्वपूर्ण है, रक्षा कवच की यह महत्त्वपूर्ण साधना साधक को बाधाओं की अति होने पर, जीवन में हर समय चिन्ता रहने पर, हर समय आशंका रहने पर अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिये।
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