आवश्यक इसलिये क्योंकि हर नदी बहती है केवल और केवल सागर में विलीन होने के लिये और सागर मतभेद नहीं करता, उसका विस्तार सभी के लिये सदा निमंत्रण संप्रेषित करता रहता है। परन्तु तट पर पहुँच कर वहाँ खड़े रहने से कुछ नहीं होगा, आगे बढ़कर संभाला होगा उसमें।
गुरु भी खुली बाहों से सदा खड़ा रहता है। निमंत्रण उसका हर क्षण बना रहता है और केवल एक क्षण की आवश्यकता होती है उसकी बाहों में समाने के लिये, उसकी आत्मा से एकाकार होने के लिये। उसकी ओर से कोई विलम्ब नहीं, वह कभी नहीं कहता, नहीं आज नहीं—कल!
कहता भी है, तो पहल आपकी ओर से होती है। वह तो चाहता है आप उसी क्षण, उसी लम्हे में सब त्याग कर, स्वयं को भूला कर उसके बुद्धत्व से एक हो जाये, उसके कृष्णत्व को आत्मसात कर लें। परन्तु आप ठिठक जाते है। ऐसे खुले निमंत्रण से एकाएक आप भयभीत हो जाते है, संकोच करते है, भ्रमित होते हैं और अपने व्यर्थ के आभूषणों-अहंकार, मोह, लोभ आदि से चिपके रहते है। यह खेल है सब कुछ खो देने का।
आप जिस भार के तले दबे जा रहे है, वह कोई परेशानियो या सांसारिक समस्याओं के कारण नहीं अपितु आपके अपने अहंकार के कारण है और गुरु कहता है भूल जाओ, छोड़ दो सब, आ जाओ मेरी बाहों में— वह संसार छोडने को नहीं कह रहा, ना ही परिवार त्यागने का तुमसे आग्रह कर रहा है, अपितु कह रहा है-
अपनी समझ-बूझ को एक तरफ रख दो, क्योंकि इस यात्र में यह बाधक ही है। जब तक इसका त्याग नहीं होगा, वह रुपान्तरण नहीं हो पायेगा, जिसका समस्त मानव जगत अधिकारी है।
अन्दर तुम्हारे एक बीज है, एक आत्मा है—-उसको जगाना है, उसको पुष्पित करना है, तभी जीवन का वास्तविक आनन्द स्पष्ट होगा। तब सांसारिक कार्य-कलापों में भीतर आप एक अनोखे आनन्द में डूबे रहेंगे, तब संसार अपनी समस्याओं और कठिनाइयों के बावजूद एक सुन्दर उपवन समान दिखाई देगा, जिसमें कांटे भी हैं और सुगन्धित पुष्प भी। समझाने से यह बात समझी नहीं जा सकती, पढ़ने से कुछ प्राप्त हो नहीं सकता है। हाँ इतना अवश्य हो सकता है, कि गुरु की वाणी से आप एक क्षण के लिये अपनी निद्रा से जागृत हो जाये और जान लें, कि गुरु ठीक कह रहा है। तो उस क्षण पूर्ण चैतन्य बने रहना। दोबारा सो मत जाना। वही क्षण महत्वपूर्ण है क्योंकि उसमें आप इस प्रक्रिया के प्रैक्टिकल में उतर सकते हैं। यह विज्ञान है ही प्रैक्टिकल, मात्र पढ़ने से काम नहीं चलेगा। और सदगुरु तक आप पहुँच गये है, तो इस प्रक्रिया में उतरना और भी आसान है। करना बस इतना है, कि अपनी बुद्धि को एक तरफ रख छोड़े, उसे बीच में न लाये।
गुरु देने को तैयार है, एक क्षण में यह रुपान्तरण घटित हो सकता है। इसके लिये वर्षो का परिश्रम नहीं चाहिये। हाँ, पहले तो आपको तैयार होना पडे़गा। गुरु तो अपनी अनुकंपा हर वक्त संप्रेषित करते ही रहते हैं, उसे ग्रहण आपको करना है। गंगा तो विशुद्ध जल सदा प्रवाहित करती ही रहती है, तृष्णा शान्त करनी है तो आपको उठकर जाना ही होगा, झुकना ही पडेगा, अंजुली में पानी भर कर होठों तक लाना ही होगा। यह प्रैक्टिकल क्रिया है। बैठे-बैठे आप प्यास नहीं बुझा सकते और अगर यह सोंचे, कि झुकूंगा नहीं, तो प्यास बुझने वाली नहीं है।
अगर शिष्य या फिर एक इच्छुक व्यक्ति प्रयास करने के बाद भी बुद्धि से मुक्त नहीं हो पाता, तो गुरु उस पर प्रहार करता है और यही गुरु का कर्त्तव्य भी है, कि उस पर तीक्ष्ण से तीक्ष्ण प्रहार करे, तब तक जब तक कि उसके अहंकार का किला ढह न जाये। क्योंकि भीतर कैद है आत्मा और विशुद्ध प्रेम। जब यह बांध गिरेगा तभी प्रेम, चेतना और करुणा का प्रवाह होगा, तभी सूख चुके हृदय में नई बहार का आगमन होगा, तभी पथराई कठोर आँखों में प्रेम की वह अद्वितीय चमक उभरेगी। और गुरु के पास अनेको तरीके है प्रहार करने के-
कठोर कार्य सौंप कर, परीक्षा लेकर, साधना कराकर और जब ये सभी निष्फल होते दिखे तो विशेष दीक्षा देकर वह ऐसा कर सकता है। परन्तु पहले वह सभी प्रक्रियाओं को अजमा लेता है ताकि व्यक्ति तैयार हो जाये, प्रहारों से वह इतना सक्षम हो जाये, कि विशेष दीक्षा के शक्तिशाली प्रवाह को सहन कर सके।
गुरु का भी धर्म है, कि विशेष दीक्षाओं के माध्यम से शिष्यों की समस्याओं का समाधान करे और इसके लिये गुरु विशेष क्षणों का चुनाव करता है। वह जानता है, कि बहार आने पर ही फूल खिलते है, इसलिये ऐसे क्षणों को वह चुनता है, जो सैकडों वर्षो बाद आते है और ऐसी उच्च प्रक्रियाओं के लिये सर्वथा अनुकूल होते है। दीक्षा का अर्थ है, गुरु की आत्मिक शक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित करना, अपना सर्वस्व गुरु के चरणों में सौंपना-अब यह जीवन आपका है, आप जैसे चाहे इसे संवार दें।
और जान लें, कि सद्गुरु का कोई निजी स्वार्थ होता नहीं, अगर स्वार्थ है तो वह गुरु नहीं। उसका उद्देश्य तो मात्र इतना है, कि व्यक्ति को उस परम स्वतंत्रता का बोध करा दे, जिसे पाकर कोई भी सांसारिक समस्या, दुःख, पीड़ा उसके मन पर आघात नहीं कर पाती और पूर्ण निश्चिन्त हो वह सदा बिना भय और संशय के उच्चता एवं सफलता की ओर अग्रसर होता रहता है-सांसारिक जीवन में भी और आध्यात्मिक जीवन में भी।
तब एक अनूठा संतुलन स्थापित हो जाता है। आज हर मनुष्य के जीवन में असंतुलन है। सांसारिक जीवन में वह इतना डूब गया है, कि उसे स्मरण ही नहीं रहा कि आध्यात्मिक तल पर भी उसका अस्तित्व है। उस पक्ष को सर्वथा उसने अनदेखा कर दिया, जिसके कारण संसार के दुःख एवं पीड़ा रूपी आघात उसे यों हिला कर रख देते है, जैसे आंधी में एक पत्ता। इसी असंतुलन के कारण आज संसार में इतना पाप, असन्तोष, आतंकवाद व्याप्त है।
सांसारिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में सन्तुलन द्वारा ही इन सबका अंत सम्भव है और इस प्रक्रिया में सहायक हो सकते हैं केवल और केवल एक सद्गुरु। दीक्षा कोई सामान्य क्रिया नहीं है, कि मंत्र दे दिया और तुम अपने घर, मैं अपने घर। गुरु तो जिम्मेदारी लेता है, पूरी जिम्मेदारी! प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक शिष्य की समस्याओं के समाधान हेतु वह सदा सचेत रहता है और उनके जीवन को पूर्णता प्रदान करने के लिये तत्पर रहता है।
दीक्षा वह अनेकों प्रकार से दे सकता है- मंत्र के द्वारा, स्पर्श द्वारा या मात्र दृष्टिपात द्वारा। अनेकों लोग विशेषतः तथाकथित वैज्ञानिक संदेह प्रकट कर सकते हैं मंत्रों के सन्दर्भ में, परन्तु अगर वह पूर्ण गुरु है, तो सिद्ध कर देता है, कि वैदिक मंत्र प्रमाणिक ही नहीं, अपितु इतने शक्तिशाली हैं, कि क्षण में व्यक्ति का रुपान्तरण कर दे।
व्यक्ति तैयार हो, और तैयार का मतलब तन, मन, धन से एवं बिना हिचक के, बिना भय और सन्देह के, तो गुरु को एक क्षण नहीं लगता और यह उपलब्धि जो गुरु प्रदान करता है, कोई सामान्य नहीं है। व्यक्ति के जन्मों की न्यूनताओं को नष्ट करना पडता है अपने तप द्वारा और न केवल उसकी न्यूनताओं अपितु उसके माता-पिता, उसके पूर्वजों की समस्त न्यूनताओं को समाप्त करना होता है, क्योंकि वे सब संस्कारो द्वारा, आनुवांशिक प्रक्रिया द्वारा उसमें विद्यमान होती हैं। उसके तन की, उसके मन की, उसके रक्त की शुद्धि करनी होती है गुरु को।
एक सामान्य व्यक्ति को यह सब कठिन प्रतीत हो सकता है, परन्तु गुरु के लिये नहीं। वह तो बस अपनी तप ऊर्जा को हर क्षण प्रवाहित करता रहता है और जो भी बुद्धि से मुक्त हो सके, इस चेतना को ग्रहण कर रुपान्तरित हो सकता है। तब विशेष दीक्षा की आवश्यकता नहीं। सद्गुरु के शरीर से हर दम तप शक्ति संप्रेषित होती रहती है। यदि आप उसे ग्रहण कर लें, तो— ग्रहण आपको करना है, गुरु कोई मतभेद नहीं करता। उसके लिये सभी बराबर है। आप तैयार है, तो उस चेतना को अंगीकृत कर लेंगे और चैतन्यता प्राप्त कर लेंगे, यह भी दीक्षा ही है एक प्रकार से, क्योंकि गुरु की ही शक्ति द्वारा आपके भीतर एक प्रस्फुटन होता है।
परन्तु स्वतः यह न हो पाये, तो गुरु विशेष तरीके अपनाता है और इसके लिये प्रयोग करता है मंत्र दीक्षा, स्पर्श दीक्षा और दृष्टिपात दीक्षा का। हाँ, इनका प्रयोग तभी गुरु करता है, जब शिष्य स्वयं ग्रहणशील नहीं हो पाता। बहुत से उदाहरण है, ऐसे, जब मात्र गुरु की समीपता से आत्मोपलब्धि हो गई! परन्तु ऐसा हुआ केवल उनके साथ जो अहंकार रहित थे, जो बुद्धि से पूर्ण चैतन्य, शिष्यता की ओर अग्रसर एवं एक ललक से भरपूर थे कि आत्म ज्ञान ही जीवन का एक मात्र सत्य है, उच्चतम लक्ष्य है। उनके मन और बुद्धि के सभी द्वार खुले होते, कि न जाने कब वह क्षण आ जाये जब सद्गुरु से साक्षात्कार हो जाये।
ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे विदुर। श्रीकृष्ण के दर्शन मात्र से पूर्ण चेतना को प्राप्त हुये एवं एक क्षण में परब्रह्म में लीन हो गये। बुद्ध के शिष्य थे आनन्द-तीस वर्ष तक बुद्ध उन पर प्रहार करते ही रहे, तब कहीं उनका अहंकार गला और वहीं एक शिष्य थे राहुलभद्र जो बुद्ध की शरण में पहुँचे नहीं, कि पूर्ण रुपेण कुण्डलिनी जाग्रत हो गई और वे बुद्धत्व को प्राप्त हो गये। होता है ऐसा! और इस प्रक्रिया को कहा जाता है ‘विशुद्ध दीक्षा’ – गुरु के समीप गये नहीं, कि उनकी चैतन्यता को प्राप्त कर लिया। परन्तु इसमें शिष्य का तैयार होना आवश्यक है। अगर वह अहं को छोड़ नहीं पाता, तो यह संभव नहीं और तब गुरु विशेष दीक्षा का प्रयोग करते है।
विशेष दीक्षा क्या है, यह पहले जान ले। एक माँ कैसे भिन्न है अन्य मानवों से। शरीर तो वैसा ही होता है-मांस, मज्जा, हड्डी, लहु आदि। परन्तु उसमे ममत्व होता है, मातृत्व की भावना होती है, जो वह समग्रता से, पूर्णता से अपने शिशु में उडे़ल देती है। वैसी ही करुणा, वैसा ही प्रेम होता है गुरु के मन में। आपने देखा होगा, कि जब शिष्य झुकता है गुरु के चरणों में तो वह पीठ पर, सिर पर हाथ रखता है और मुख से उच्चरित करता है-आशीर्वाद! क्यों हाथ रखता है? आपने शायद गौर नहीं किया। शरीर में विद्यमान, आत्मा में मौजूद प्रेम, तप शक्ति दो प्रकार से प्रवाहित हो सकते हैं-स्पर्श अर्थात अंगुलियों या शरीर के माध्यम से और नेत्रों के माध्यम से।
ध्यान दे तो सभी भावनाओं का संप्रेषण नेत्रों के माध्यम से होता है। घृणा करे तो नेत्रों से, क्रोध करें तो नेत्रों से और प्रेम करें तो भी नेत्रों से ही भावना व्यत्तफ़ होती है। आपको कुछ बोलने की आवश्यकता ही नहीं। मेरी आँखे आपको बता देगी, कि गुरुजी खुश हैं या नाराज हैं या क्रोधित हैं। मैं बोलूं अथवा नहीं बोलूं आप भांप लेंगे, क्योंकि आँख हमेशा सत्य ही बोलती हैं। इसलिये क्योंकि उनमें से भावनाये प्रवाहित होती हैं। जो आपके भीतर है, वही उनमें प्रतिबिम्बित हो उठता है।
तो गुरु की आत्मिक तपस्या का अंश आँखों से प्रवाहित होता रहता है। हाथ की अंगुलियों के माध्यम से यह सम्भव है। विशेष दीक्षा का अर्थ है शिष्य गुरु के सामने आये और गुरु एक सेकण्ड उसकी आँखों में ताके और शक्ति का एक तीव्र प्रवाह उसके नेत्रों के माध्यम से उसके शरीर में एक आलोड़न, एक प्रक्रिया को आरम्भ कर देगी, उसकी निद्रा को भंग कर देगी और उसे पूर्ण चेतन्य कर देगी।
इसके लिये आवश्यक नहीं कि गुरू पाँच मिनट तक आँखों में घूरता रहे। एक बार एक शिष्या मेरे पास आई और बोली-कमाल है गुरु जी! उस व्यक्ति की आँखों में तो आपने एक मिनट तक देखा और मुझे केवल दस सेकण्ड। एक दो या दस मिनट दृष्टिपात से कोई ज्यादा तपस्या का अंश नहीं जायेगा। इसके लिये तो एक क्षण भी बहुत होता है। एक सेकण्ड लगता है स्विच दबाने में और पूरी बिल्डिंग रोशनी से चकाचौंध हो जाती है। गुरु जानता है, कि मस्तिष्क में किस स्विच पर प्रहार करना है और इसके लिये उसे मात्र एक क्षणांश की आवश्यकता होती है और अगर बटन ही गलत है, प्रक्रिया ही गलत है, तो दस मिनट तक करने पर भी कुछ नहीं होगा। तो विशेष दीक्षा यानी गुरु ने एक पल आँखों में देखा और अगले क्षण रुपान्तरण घटित हुआ। शिष्य यह याद रखे, कि आँख न झपकाये और पूर्ण क्षमता से तपस्यांश ग्रहण करे।
तब उस तपस्या शक्ति के प्रवाह से शिष्य की सुप्त दिव्य शक्तियाँ एकाएक जागृत होने लगती हैं। दीक्षा के भी अनेको चरण हो सकते है और प्रत्येक चरण में शिष्य नवीन शक्तियाँ प्राप्त करता हुआ आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करता है। चैतन्यता का अर्थ है, कि व्यक्ति आत्मा से जुड़ गया है तथा आगे आध्यात्मिक उन्नति के लिये तैयार है। विशेष दीक्षा द्वारा चैतन्यता प्रदान करने की पहली प्रक्रिया है राज्याभिषेक दीक्षा। दीक्षा के कई क्रम है-राज्याभिषेक, पट्टाभिषेक, साम्राज्याभिषेक और इनके पश्चात तीन अन्य दीक्षाये है। राज्याभिषेक दीक्षा का अर्थ है, व्यक्ति के अन्दर की सारी वृत्तियां जागृत हो और कुण्डलिनी का एकदम जागरण हो, विस्फोट हो और इस प्रकार आज्ञा चक्र जागरण द्वारा उन सब दृश्यों को व्यक्ति देख पाये, जो कि सामान्यतः सम्भव नहीं। वे दृश्य कहीं दूर किसी घटना के हो सकते है, पूर्व जन्म के हो सकते हैं, सिद्धाश्रम के हो सकते है या किसी अन्य लोक अथवा ग्रह के हो सकते है। एक प्रकार से व्यक्ति सूक्ष्म शरीर द्वारा भी आने-जाने में सक्षम हो जाता है तथा एक स्थान पर बैठकर कही की भी घटनाओं का अवलोकन कर सकता है।
दीक्षा के दूसरे क्रम में है ब्रह्माण्ड पार्श्वीकरण दीक्षा तथा तीसरी दीक्षा साम्राज्याभिषेक दीक्षा होती है, जिसके द्वारा व्यक्ति पूर्णतः संयमित, शुद्ध, निर्मल और अविचल हो जाता है। फिर वह सन्यास में रहे या गृहस्थ में उस पर बाहरी वृत्तियों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसे ही जैसे श्री कृष्ण थे, चाहे वे गोपियों के साथ थे या राक्षसों के बीच, वे निर्मल ही बने रहे और युद्ध भूमि में भी शांत निर्मल ही बने रहते। उनके ऊपर न युद्ध का कोई प्रभाव पड़ा, न दुर्योधन जैसे राक्षसों का, न ही वे किसी आसक्ति में लीन हुये। इसीलिये उन पर किसी प्रकार का कोई आक्षेप नहीं हो सकता।
इस प्रकार की उच्च दिव्य स्थिति को प्राप्त करने की पहली सीढ़ी है राज्याभिषेक दीक्षा। इसके बाद और एक दीक्षा होती है और जो छः दीक्षाये होती हैं। उसके पश्चात् ही व्यक्ति पूर्णता प्राप्त करता है। इन दीक्षाओं को गुरु तभी प्रदान करता है, जब व्यक्ति में समर्पण की भावना जाग्रत हो और जब गुरु यह अनुभव करे, कि शिष्य अब तैयार है। जब व्यक्ति गुरु के पास जाता है और सिद्धाश्रम जाने की, आध्यात्म में पूर्णता प्राप्त करने की इच्छा व्यत्तफ़ करता है, तो इस इच्छा के फलीभूत होने के लिये ये दीक्षाये लेनी ही पडती है। अगर आप समझे, कि मात्र सोच लेने से सिद्धाश्रम पहुँच जायेंगे, तो यह सम्भव नहीं है। इसके लिये अन्दर एक तीव्र चेतना का जागरण आवश्यक है। इस प्रकार की विशिष्ट दीक्षाओं के लिये शिष्य को गुरु की सेवा भी करनी पड़ती है और जब गुरु समझता है, कि व्यक्ति गुरु सेवा करते-करते उस स्तर तक पहुँच गया है, कि गुरु शब्द सुनते ही आँख में आँसू छलछला पड़ते हैं, तो समझना चाहिये, कि वह इस दीक्षा का अधिकारी बन गया है।
मात्र गुरु शब्द उच्चारित करने से शिष्य नहीं बना जा सकता और न ही अन्दर की वृत्तियों को जाग्रत किया जा सकता है। वृत्तियों का अर्थ है-करुणा, दया, प्रेम, ममत्व, स्नेह, श्रेष्ठता और भावाभिव्यक्ति। यानि पूर्ण रुप से गुरु की भावनाओं में लीन होना। स्वयं के विचार, स्वयं की कोई इच्छा रहे ही नहीं। यह कठिन अवश्य है, मगर गुरु के सान्निध्य में यह सम्भव है। गुरु से दूर रहकर इस प्रकार की प्रक्रिया सम्भव नहीं हो सकती। भावाभिव्यक्ति तब होती है, जब गुरु शिष्य का परस्पर एक गहनसम्बन्ध बनता है और सम्बन्ध का सेतु तैयार होता है सेवा के माध्यम से। आप निःस्वार्थ भाव से गुरु की सेवा करते रहे, तो एक बीज बनता है, एक दूसरे के निकट आने की क्रिया बनती है और पूर्ण रुप से गुरु में समाहित होने की क्रिया बनती है।
जब मैं सन्यास जीवन में था, तो बड़ी कठिनता के बाद इस प्रकार की दीक्षाये प्राप्त हुई थी और मैं जानता हूँ कि मुझे कितना अधिक श्रम करना पड़ा। गुरुसेवा, गुरुनिष्ठा, गुरुभक्ति के साथ निरन्तर पठन, चिंतन, मनन के द्वारा ही भूख और प्यास की परवाह किये बिना दीक्षा का वह महान ज्ञान प्राप्त कर सका जो मुझे संसार में बांटना था। श्रीकृष्ण ने सांदीपन ऋषि से दीक्षा ग्रहण की तब ऋषि अनुभव कर रहे थे, कि यह तो कृष्ण उन पर अनुकम्पा कर रहे है, उन्हें गुरु का सम्मान देकर। कृष्ण को आवश्यकता नहीं थी, परन्तु एक औपचारिकता, एक सामाजिक कर्त्तव्य तो निभाना था ही। सांदीपन जानते थे, कि इन्हें भला वे क्या प्रदान कर सकते है। परन्तु एक सामाजिक प्रक्रिया थी जिसे निभाना था। वे गुरु भी ऐसा अनुभव कर रहे थे, मन ही मन कह रहे थे- हम आपको राज्याभिषेक दीक्षा क्या दें, कौन सी पट्टाभिषेक दीक्षा दें—यह स्थिति ही जाने क्या बन गई? आप हमें समझा सकते हैं, कि साम्राज्याभिषेक दीक्षा क्या होती है, चैतन्य अवस्था क्या होती है, कुण्डलिनी जागरण किस प्रकार होती है। हम तो निमित्त मात्र है। आप शायद हमे सौभाग्य प्रदान कर रहे है और हमे गुरु शब्द से सम्मानित कर रहे है।
कई ऐसे गुरु मिले मुझे अपने परम पूज्य गुरुदेव भगवदपाद स्वामी सच्चिदानन्द के पास पहुँचने से पहले। परन्तु ये दीक्षाये मात्र समाजीकरण का एक अंग थी, मात्र एक औपचारिकता! वह तो मैं जानता था, वे भी जानते थे, कि पूर्व जन्म के संबंध थे, कभी उन्हें ज्ञान प्रदान किया था और– – साम्राज्याभिषेक दीक्षा प्रारम्भिक दीक्षा है। उस महासमुद्र में छलांग लगाने के एक पहला कदम। अपने आप में यह सम्पूर्ण दीक्षा तो है ही मगर इसके बाद दो दीक्षायें और फिर तीन और दीक्षाये होती है। इसके बाद की पाँच दीक्षाओं में प्रत्येक दीक्षा उन ग्रन्थियों को खोलती है, जिनके माध्यम से एक नर नारायण बन सकता है, एक पुरुष पुरुषोत्तम बन सकता है, एक व्यक्ति विराट हो सकता है।
नर से नारायण बनने की यह प्रक्रिया केवल दीक्षाओं के माध्यम से सम्भव है, किसी भी शिक्षा, किसी पाठ्यक्रम से संभव नहीं है। इन दीक्षाओं के लिये केवल इतना आवश्यक है, कि व्यक्ति गुरु चरणों एवं गुरु सेवा में रत रहे।
और पूर्ण भावाभिव्यक्ति की क्या पहचान है? यदि ‘गुरु’ शब्द का उच्चारण हो और एकदम से गला रुंध जाये— और आँख से आँसू प्रवाहित होने लग जाये और ऐसा एहसास हो कि मेरे पास केवल 24 घण्टे हैं, अगर कहीं 28 घण्टे होते तो और अधिक गुरु-सेवा कर पाता— गुरु से पहले उठे और बाद में सोये। एक आहट हो और चौकन्ना हो जाये। हल्का सा इशारा हो और समझ जाये, कि अब गुरु को क्या आवश्यकता है। इतनी तीव्र भावना हो।
इस दीक्षा के बाद गुरु-शिष्य के तार मिल जाते हैं। यह दीक्षा अन्दर की सभी वृत्तियों को और कुण्डलिनी को आज्ञा चक्र तक पहुँचाने की क्रिया है। इसके माध्यम से आज्ञा चक्र की सारी शक्तियाँ शनैः शनैः जाग्रत होती है और अंततः कुण्डलिनी आगे जाती है और सहस्त्रार पर पहुँचती है। सहस्त्रार सिर में एक ऐसा भाग है जहाँ एक हजार नाडि़याँ अपने आप में ऊर्ध्व यानि उल्टी होकर अमृताभिषेक करती है तथा जब सहस्त्रार जागृत हो जाता है, तो यह अमृत झरने लगता है और समस्त शरीर में फैल जाता है, जिसके कारण अद्भुत आभायुक्त एवं कान्तिवान हो जाता है।
आपने देखा होगा चित्रों में कि भगवान विष्णु लेटे हुये है और एक हजार फन वाला शेषनाग उन पर छाया किये हुये है। इसका अर्थ है, कि भगवान विष्णु का सहस्त्रार पूर्णतः जागृत है। ऐसा ही सहस्त्रार हर मनुष्य के सिर में स्थित है, उस स्थान पर जहाँ सिर में चोटी होती है। वह अमृतवर्षा पूरे शरीर को अमृतमय बना देती है। ऐसे व्यक्ति के शरीर से एक अद्वितीय सुगन्ध प्रवाहित होने लग जाती है। किसी में ग्राह्म शक्ति हो तो उसे एहसास हो जायेगा, हालांकि आम आदमी ऐसा नहीं कर पायेगा, परन्तु थोड़ा भी चेतनावान व्यक्ति सुगन्ध भांप लेता है और जान लेता है, कि यह व्यक्ति पूर्णता प्राप्त व्यक्तित्व है।
ऐसा व्यक्ति विदेह हो जाता है। संसार की कोई चिन्ता उसे नहीं रहती। वह एक ऐसे आनन्द को प्राप्त कर लेता है, जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता और ऐसे आनन्द से सराबोर व्यक्ति संसार के दुःखों, सन्तापों के बीच भी अविचलित एवं संयमित बना रहता है। उसका जीवन काव्यात्मक हो जाता है, संगीतमय हो जाता है, सुगन्धमय हो जाता है। शक्कर आप खा सकते हैं परन्तु उसके स्वाद का वर्णन नहीं कर सकते। आप कहेंगे मीठा है, तो मीठी तो बहुत चीजें होती हैं, परन्तु स्वाद कैसा है? यह आप दो हजार पन्नों में भी नहीं बता सकते! गुलाब की सुगन्ध को भी शब्दों में नहीं बाँध सकते। ठीक उसी प्रकार उस आनन्द की अनुभुति भी शब्दों में नहीं समझाई जा सकती। वह तुरीयावस्था होती है और ऐसे व्यक्ति को कोई एक बार देख लें, तो उसे भूलाया ही नहीं जा सकता।
एक अद्भुत सम्मोहन पैदा हो जाता है, उसके व्यक्तित्व में। वह व्यक्ति किसी को सम्मोहित करने का प्रयत्न नहीं करता, उसका कोई भाव नहीं होता परन्तु उसका व्यक्तित्व कुछ ऐसा अनूठा हो जाता है, कि लोग स्वयं सम्मोहित हो उठते हैं। ऐसा चैतन्य प्रवाह उसके शरीर से होता रहता है, कि लोग खींचे चले आते है। गुरु और शिष्य में एक बहुत बड़ा गैप (दूरी) होती है, जब तक वह भर नहीं जाता शिष्य उस स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकता और इस दूरी को कम करना केवल सेवा और दीक्षा द्वारा सम्भव है और जब गुरु के मन में चिन्तन उत्पन्न होता है, कि अब यह व्यक्ति पूर्ण समर्पित है और तैयार है, तो वह उसके शरीर का, उसके मन का, उसके हृदय का रुपान्तरण कर देता है।
इस शरीर की क्षमताये असीम और अद्भुत है यह शरीर पूरे ब्रह्माण्ड में विचरण कर सकता है। दूर-दूर की घटनाओं का एक स्थान पर बैठे-बैठे अवलोकन भी कर सकता है, किसी ग्रह शुक्र, शनि पर भी जा सकता है और अन्य किसी को एहसास भी नहीं होगा, कि व्यक्ति में ये सब क्षमतायें हैं। एक बार में वह कई स्थानों पर प्रकट हो सकता है। एक स्थान में किसी कार्य में लीन रहते हुये वह अन्य किसी दूरस्थ स्थान की घटनाओं को देख सकता है।
ऐसा तब होता है, जब सहस्त्रार जाग्रत होता है, जब अमृताभिषेक होता है। अंतिम दीक्षा अमृताभिषेक होती है और तब व्यक्ति के शरीर से अष्टगन्ध प्रवाहित होने लगती है और सामान्य लोग बेशक अष्टगन्ध का पूर्ण एहसास न कर पायें, परन्तु कहीं न कहीं सूक्ष्म रूप से वह सुगन्ध उनको प्रभावित करती है और वे खींचे चले आते है और सद्गुरु प्राप्त करना भी बड़े सौभाग्य की बात है या तो भाग्य अच्छा हो या कई जन्मों के अच्छे संस्कार या सम्बन्ध हो, तो गुरु सान्निध्य प्राप्त हो पाता है।
सामीप्य का लाभ भी हर एक नहीं उठा पाता। कृष्ण कौरवों के भी उतने ही समीप थे, जितने वे पाण्डवों के थे, परन्तु भावना दोनों पक्षों की भिन्न थी और इसीलिये कृष्ण ने पाण्डवों को, अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे वह उनका विराट स्वरुप देख पाया, उनकों जान पाया। दिव्य दृष्टि है आपके पास, तो आप देख सकते है, कि सूक्ष्म रुप में कैसे सिद्धाश्रम के योगी आकर मेरे समीप बैठ जाते है।
वे मुझे छोड़ना नहीं, किसी भी हालत में और मुझे भी उनसे स्नेह है, उन्हें छोड़ नहीं सकता। गुरु शिष्य को नहीं छोड़ सकता। मेरे मना करते-करते वे आते ही है। जब दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है, तो जैसे मैं देख सकता हूँ आप भी उनको देख सकते है और विराट स्वरुप को दिखाने के लिये चर्म-चक्षुओं के अलावा अन्य सूक्ष्म दृष्टि देने की आवश्यक है और यही प्रक्रिया है राज्याभिषेक आदि दीक्षाओं की-पहले ज्ञान दृष्टि जागृत होती है फिर आत्म दृष्टि, उसके बाद दिव्य दृष्टि जिसके माध्यम से हम बैठे-बैठे ब्रह्माण्ड के सारे रहस्यों को जान सकते है।
हम गुरु को वास्तव में पहचान सकते हैं। उससे पहले हम गुरु में स्थित नारायण को नहीं पहचान सकते। हमारी दृष्टि मात्र उसके नर स्वरुप तक सीमित रहती है। आप जो पहचानते है, वह एक नर है और अगर उस नारायण स्वरुप को सिद्धाश्रम के योगी देख सकते है, तो आप भी देख सकते है। ऐसे दीक्षाये देना गुरु के लिये परम आवश्यक है ताकि यह ज्ञान, यह अमूल्य धरोहर लुप्त न हो जाये। आने वाली पीढि़यों के पास न तो ये मंत्र होंगे, न यह ज्ञान होगा, न दीक्षा देने की प्रक्रिया होगी। सब समाप्त हो जायेगा और निश्चय ही मेरे साथ सब समाप्त हो जायेगा। यह सब ज्ञान, ये सब मंत्र, लोगों को ज्ञात ही नहीं होंगे। लोगों ने तो क्या पण्डितों ने भी सुने ही नहीं होंगे और मुझे बड़ा तनाव, बड़ी चिन्ता होती है, कि क्या होगा? किस प्रकार से होगा?
कैसे यह ज्ञान बना रहे? समझ नहीं आता है। परन्तु विधाता अवश्य ऐसे शिष्य देंगे जो इस ज्ञान को आत्मसात कर सकेंगे। आत्मसात करने के लिये आपको भगवे कपड़े पहनने की जरुरत नहीं। इसका आधार तो सेवा है और अपने आप में पूर्ण रुप से समाहित होने की क्रिया है। आपकी कोई इच्छा, स्वार्थ नहीं हो। सेवा के बाद यह भावना न आये कि मैं कुछ कर रहा हूँ, ‘अहं’ बीच में आते ही सब परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। भावना हो, कि गुरु करा रहा है और मेरे माध्यम से करा रहा है, यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है। वे गुरु कह रहे थे- ‘‘हमारा बड़ा सौभाग्य है, कि हम निमित्त बने, आपको दीक्षा देने में। शायद न जाने कितने हमारे जन्मों के पुण्य होंगे, कितना अधिक पुण्य किया होगा, कि हम निमित्त भी बने। हजार दो हजार साल तपस्या प्राप्त करने पर भी शायद ही आपका सान्निध्य प्राप्त हो सकता है। परन्तु प्रतीक ही हम बनें, यह बड़ी बात है। ब्रह्माण्ड के, काल के पटल पर यह घटना तो अंकित हो ही गई, कि हम बैठे है और दीक्षा क्रम बन रहा है।’’
अतः सद्गुरू निखिलेश्वरानन्द जी के अवतरण पर्व जो कि सूर्यग्रहण व अक्षय धनदा तृतीया युक्त महोत्सव पर ‘सूर्यग्रहण तेजस्विता निखिलेश्वरानन्द प्राणशः चेतना अक्षय धन लक्ष्मी साधना दीक्षा’ अवश्य ही ग्रहण करें। ऐसी उच्च दीक्षा आप सदगुरु से प्राप्त कर पाये, ऐसा मेरा आशीर्वाद है-
‘‘ आशीर्वाद आशीर्वाद आशीर्वाद’’
‘‘परम् पूज्य सद्गुरूदेव कैलाश श्रीमाली जी’’
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