जलाशय के स्वामी अदृश्य यक्ष ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें रोकते हुये पहले कुछ प्रश्नों का उत्तर देने की शर्त रखी। सहदेव उस शर्त और यक्ष को अनदेखा कर जलाशाय से पानी लेने लगे। तब यक्ष ने सहदेव को निर्जीव कर दिया। सहदेव के न लौटने पर क्रमशः नकुल, अर्जुन और फिर भीम ने पानी लाने की जिम्मेदारी उठाई। वे उसी जलाशय पर पहुंचे और यक्ष की शर्तों की अवज्ञा करने के कारण निर्जीव हो गये।
अंत में चिंतातुर युधिष्ठिर स्वयं उस जलाशय पर पहुंचे। अदृश्य यक्ष ने प्रकट होकर उन्हें आगाह किया और अपने प्रश्नों के उत्तर देने के लिये कहा। युधिष्ठिर ने धैर्य दिखाया। उन्होंने न केवल यक्ष के सभी प्रश्न ध्यानपूर्वक सुने अपितु उनका तर्कपूर्ण उत्तर भी दिया जिसे सुनकर यक्ष संतुष्ट हो गया। जिसमें से एक प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर ने पिता के महत्तव का उल्लेखख किया है-
आकाश से भी ऊंचा पिता इसलिये होता है क्योंकि वह आपके लिये एक छत्र की भूमिका निभाता है। उसकी देख-रेख और उसके होने के अहसास से ही आप खिलते हैं। आपके आकाश में खिलने में पिता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
पिता क्या होता है और पिता क्या सोचता है यह पिता बनकर ही ज्ञात होता है। जो व्यक्ति अपने पिता की भावना को नहीं समझता है उसका पुत्र भी इसका अनुसरण करता है। पिता के वचनों की सत्यता और उनके प्रेम को व्यक्ति पिता बनने के बाद ही जान पाता है। वह पिता महान है जो अपने पुत्र-पुत्री के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करता हो और उनके भीतर अपना संपूर्ण अनुभव डालता हो। पिता की सीख जिंदगी में हमेशा काम आती है लेकिन पिता सीख देने वाला भी होना चाहिये। आपकी जिंदगी में यदि पिता का कोई महत्व नहीं है तो आप ऊंचाइयों के सपने देखना छोड़ दें।
अर्थात ‘पिता’ ही धर्म है, ‘पिता’ स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। ‘पिता’ के प्रसन्न हो जाने से सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। इसके साथ ही कहा गया है कि ‘पितु र्हि वचनं कुर्वन न कन्श्चितनाम हीयते’ अर्थात ‘पिता’ के वचन का पालन करने वाला दीन-हीन नहीं होता।
पिता की भूमिका, महत्व व प्रभाव के कारण ही जीवन के कठिन अवसरों पर वे ही हमारी ताकत बनकर उभरते हैं और हमें मानसिक हौंसला, मजबूती व संतुष्टि प्रदान करते हैं। पिता के सदैव पथ प्रदर्शक की भूमिका में होने के कारण ही हम पूरे आत्मविश्वास के साथ सही दिशा में जीवन में आगे बढ़ पाते हैं। इसीलिये, माता-पिता तथा गुरू की सेवा-सुश्रुषा ही श्रेष्ठ तप है। जो पुत्र माता-पिता एवं गुरू का अनादर करता है, उसकी सब क्रियाये निष्फल हो जाती हैं, क्योंकि माता-पिता के ऋण से मुक्त होना असम्भव है।
अत: हमें ‘पितृ-दिवस’ पर यह संकल्प लेना चाहिये कि वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति के अनुरूप ही हम अपने पिता के प्रति सभी दायित्वों का पालन करने का हरसंभव प्रयास करेंगे। जो व्यक्ति माता-पिता की आज्ञा मानता है, उनका हित चाहता है, उनके अनुकूल चलता है तथा माता-पिता के प्रति पुत्रोचित व्यवहार करता है, वास्तव में वही पुत्र है। हमें हमेशा यह याद रखने की आवश्यकता है कि ‘‘देवतं हि पिता महत्’’ अर्थात ‘पिता’ ही महान देवता है।
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