यजुर्वेद और अथर्ववेद के इन श्लोको से आज का प्रवचन प्रारम्भ करते हुये अपने शिष्य और जगत के कल्याण की ही इच्छा रखता हूँ- भ्रमजाल में, संसार के विषयों में आसक्त व्यक्ति किस प्रकार साधक शिष्य बनकर गुरूमय होकर परमानन्द की प्राप्ति कर सकता है? कैसे गुरू और शिष्य एकाकार हो सकते हे, उन्हीं संशयों का निवारण करता हुआ परमपूज्य सद्गुरूदेव का यह ओजस्वी प्रवचन-
प्रश्न यह है कि शिष्य दोष करे, यदि शिष्य गलती करे या गुरू की आज्ञा का पूरी तरह से पालन नहीं करे तो गुरू को क्या दोष लगता है और उसका परिमार्जन कैसे हो? लगभग वैसा प्रश्न है और दूसरा प्रश्न है कि द्वेत और अद्ववेत की स्थिति में कौन सी स्थिति ज्यादा श्रेयस्कर है और कैसे? यह द्वेत और अद्वैत की स्थिति वैदिक काल से है, वैदिक काल में भी एक मंत्र है यजुर्वेद का-
क्या हम जो कुछ देखते है वह बिल्कुल एक अलग है और जो कुछ हम लोग है वह बिल्कुल अलग है और अगर दोनों अलग-अलग है तो यह अद्वैत है और यदि दोनों अलग अलग नहीं है तो ऐसा डिफरेन्स महसूस होता है ऐसा अलगांव महसूस होता है और आगे की मीमांसा, आगे के उपनिषदकारों ने इस प्रश्न को लेकर के बहुत झुंझे और यह द्वैत के बाद अद्वैत का विचार, मन में द्वैत और अद्वैत की लड़ाई वैदिक काल से लगाकर आज तक भी चलती आई है। कुछ लोग कहते है कि इस संसार में द्वैत है क्योंकि माया अलग चीज है ब्रह्म अलग चीज है, तीसरी कोई चीज संसार में है ही नहीं। जो कुछ है वह पूरा संसार और जिस संसार के हम भी एक प्राणी है, एक सदस्य एक पदार्थ है, हम अपने आप में कोई नवीन वस्तु नहीं है जैसे पत्थर एक पदार्थ है, जैसे रूई एक पदार्थ है, जैसे हवा एक पदार्थ है, उसी प्रकार से हम भी एक पदार्थ है और वैज्ञानिक भाषा में एक पदार्थ में भार होना चाहिये। पदार्थ उसको कहते है जो जगह घेरता हो, पदार्थ उसको कहते है जिसमें घनत्व होता है और मनुष्य में घनत्व भी है, मनुष्य जगह घेरता है और मनुष्य में भार है इसीलिये मनुष्य भी पदार्थ की श्रेणी में ही आता है और दूसरी यह माया जब हम और जब उपनिषदकार या वैदिककार जब यह कहते है ‘‘अहं ब्रह्मास्मि द्वितीयों नास्ति’’ मैं ब्रह्म हूँ और साथ साथ एक बात और कह रहा है द्वितीय यहां दूसरी कोई चीज है ही नहीं। जब मैं ब्रह्म हूँ तो फिर यह पत्नी क्या है और मैं ब्रह्म हूँ तो यह पुत्र क्या है और मैं ब्रह्म हूँ तो फिर यह पंखा यह लाईट यह रोशनी यह सुख या सामग्री की वस्तुयें यह विलास का यह ऐशो आराम, भोग-विलास यह सब क्या है?
क्योंकि शास्त्र तो झूठ है नहीं और शास्त्र में यह कहा है ‘अहं ब्रह्मास्मि’ क्योंकि संसार में केवल मैं हूँ ‘अहं’ और अहं शब्द बना है पूरे संस्कृत की वर्णमाला का प्रथम अक्षर ‘अ’ से शुरू होता है और अंतिम अक्षर ‘ह’ है। अ आ ई से शुरू कहते है ग घ और य र ल व श ष स ह। अ से लगाकर ह तक जितने वर्ण है और उस बीच में जितने नाम आते है, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, आदमी वह सब कुछ ‘मैं’ हूँ। इसीलिये उसने शास्त्र में कहा ‘अहं’ उसने मनुष्य के लिये अहं नहीं कहा वह सब कुछ मैं ही हूँ और श्रीकृष्ण ने भी गीता में यही बात कहीं जो ‘अहं ब्रह्मास्मि’ में शब्द आया उसी ‘अहं’ की व्याख्या गीता में हुई और गीता के दसवें अध्याय में हम पढें तो कृष्ण अर्जुन को कह रहे है कि मैं वृक्षों में पीपल का पेड़ हूँ, मैं पहाड़ों में हिमालय हूँ, मैं धातुओं मे स्वर्ण हूँ इसका मतलब कहने का यह है कि ‘‘अहं ब्रह्मास्मि’’ मै ब्रह्म हूँ और यह अगर तुम मुझको पत्ता समझ सकते हो, पेड़ समझ सकते हो, मुझे नदियां समझ सकते हो, पेड़ धातु समझ सकते हो, वह जो कुछ भी समझ सकते हो वह मैं स्वयं ही हूँ।
यह तो उन लोगों की विचारधारा है जो अद्वैत मानते है। यह अद्वैत मानने वाले लोगों के चिन्तन है, एक विचार है एक धारणा है और उस विचार को भी हम बिल्कुल नैगलेक्ट नहीं कर सकते है, मना नहीं कर सकते है अद्वैत क्योंकि वह स्वयं कह रहे है कि मेरे अलावा संसार में जो कुछ है वह है ही नहीं। द्वैत को मानने वाले भी विचारक है और वे कहते है कि ‘अहं’ मैं तो हूँ इसको हम मना नहीं कर रहे मगर मेरे अलावा भी कोई दूसरी चीजें है जो मेरे ऊपर प्रभाव डाल रही है जो मेरे ऊपर प्रभाव डाल सकती है तो दूसरी कोई चीज जरूर है वह नहीं कह रहे कि तुम पीपल के पेड़ हो, इसको हम भी मानते है और तुम नहीं हो यह भी हम मान लेते है, और तुम हिमालय हो यह भी हम मान लेते है मगर तुम पर अगर दूसरी चीज का प्रभाव पड़ता है तो फिर दूसरी चीज जरूर है जो प्रभाव पड़ता है और हम पर प्रभाव पड़ता है सर्दी का गर्मी का, परिस्थितियों का, गाली का, प्रसन्नता का, सम्मान का, असम्मान का , बीमारियों का, रोग का, सुख का और दुःख का।
इसका मतलब ये चीजें कुछ और चीज है जो हम पर प्रभाव डालती है और प्रभाव कोई दूसरी चीज डाल सकती है क्योंकि अगर तुम खुद प्रभाव ही हो तो फिर ये कभी गर्मी सर्दी क्यों हमेशा व्याप्त होती है अगर कोई दूसरी चीज है नहीं, व्याप्त करने वाली कोई चीज है ही नहीं तो कभी तुम रोते हो कभी तुम प्रसन्न होते हो ऐसा क्यों होता है? इसीलिये लोग कह रहे है की नहीं एक ही चीज तब तक नहीं है द्वैत है दो चीजे अलग-अलग है एक चीज ‘ब्रह्म’ है और दूसरी वे सारी चीजें है जो इस ब्रह्म पर प्रभाव डालती है जिनको ‘माया’ कहा गया है इसीलिये इन दोनों की अलग-अलग विद्वानो ने अलग-अलग तरह से व्याख्या की है और कोई भी शास्त्र कोई भी चिंतन तभी आगे बढ़ता है जब कहीं विरोध होता है। विरोध नहीं हो तो शास्त्र आगे नहीं बढ़ सकता है क्योंकि मैं एक ही लाइन की व्याख्या अपने ढंग से करूंगा तो दूसरा व्यक्ति अपने ढंग से करेगा।
जो भारतीय कानून बनाये गये है उसकी पुस्तक प्रकाशित है और दोनों वकील उस पुस्तक में एक लाइन के दो अलग-अलग अर्थ निकालते है। एक कहता है नहीं इस कानून का यह अर्थ है, दूसरा वकील कहता है यह अर्थ है लाईन एक ही लिखी है, दोनों के लिये कानून की पुस्तक अलग-अलग नहीं है, दोनों में उसके अर्थ अलग अलग निकाले गये है। ठीक उसी प्रकार से द्वैत और अद्वैत मूल वस्तु स्थिति आत्म है प्राणश्चेतना है और इस प्र्राणश्चेतना के उन लोगों ने दो अर्थ निकाले है जिसको ‘ब्रह्म’ कहा गया है जिसको ‘माया’ कहा गया है। प्रश्न यही नहीं समाप्त होता है यहाँ तो मैंने तुम्हें यह समझाया कि द्वैत का अर्थ क्या है अद्वैत का अर्थ क्या है और विद्वानों ने द्वैत क्यों कहा और विद्वानों ने अद्वैत क्यों कहा और प्रारम्भ से लगाकर आज तक अद्वैत को भी मानने वाले सैकड़ों ऋषि, संन्यासी, विद्वान हुये और द्वैत को मानने वाले सैकड़ों ऋषि, संन्सासी, विद्वान हुये।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या गुरू और शिष्य अद्वैत है या द्वैत है? यह प्रश्न जरूरी है और इसका उत्तर शंकराचार्य ने अत्यन्त ही प्रमाणिक ढंग से दिया है और मैं शंकर का या शंकराचार्य का उदाहरण इसीलिये देता हूँ कि वे साक्षात शिव के स्वरूपमय है और शिव अपने आप में पूर्णतः देव है जिनको कि देवता ही नहीं महादेव कहा गया है और उन्होंने जो कुछ व्याख्यायें की जो कुछ चिंतन किया जो कुछ तर्क दिया जो कुछ बात कहीं वह अपने आप में अत्यन्त सारगर्भित और महत्वपूर्ण है और जहाँ गुरू और शिष्य का प्रसंग आया वहाँ पर उन्होंने शंकराचार्य से स्पष्ट रूप से कहा-
शिष्य गुरू से अलग है शिष्य गुरू नहीं है और गुरू शिष्य नहीं है वह दोनों अलग-अलग है इसीलिये अलग-अलग है कि जीवन में अद्वैत है ही नहीं अद्वैत केवल अपने आप को छलावा देना है और सही अर्थो में देखा जाये तो अद्वैत के मीमासांकारों ने अंत में हार मानना स्वीकार की है और द्वैत यह सिद्धांत मानने वाले ने अपने आप को सही ढंग से प्रतिपादित किया है। यदि यह कि जिन्होंने यह कहा कि माया और ब्रह्म अलग अलग है इस बात को अधिकतर विद्वानों ने स्वीकार किया और प्रतिशत के हिसाब से कहे तो यह प्रतिशत 90 प्रतिशत और 10 प्रतिशत है, 10 प्रतिशत विद्वानों ने कहा कि अलग अलग नहीं है 90 प्रतिशत विद्वानों ने वेद से लगाकर इस बात को कहा कि माया अलग है ब्रह्म अलग है और माया व्याप्त होती है ब्रह्म पर भी क्योंकि ब्रह्म किसी शरीर में स्थित है ब्रह्म अलग खड़ा नहीं हो सकता।
वह ब्रह्म जब शरीर में स्थित है तो वह शरीर उस माया से व्याप्त होता है जब मैं सुख अनुभव करता हूँ तो ब्रह्म अनुभव नहीं कर रहा मैं अनुभव कर रहा हूँ, मैं जो कि मेरा शरीर है मैं गर्मी महसूस कर रहा हूँ, मैं सर्दी महसूस कर रहा हूँ, मैं प्रसन्न हो रहा हूँ, मैं उदास हो रहा हूँ। क्योंकि ब्रह्मा तो निर्विकार है निर्लिप्त है और निर्विकार है तो उसके ऊपर न किसी प्रकार का प्रभाव पड़ता है वह एक अलग चीज है। इसीलिये गुरू और शिष्य भी अपने आप में द्वैत है। शिष्य की एक मर्यादा है गुरू की एक मर्यादा है। गुरू एक तत्व बोध है शिष्य भी एक तत्व बोध है या यों कहा जाय कि गुरू का एक अंश बोध स्वरूप है। जो गुरू अपने आप में पूर्ण है उसका एक-, एक कण, एक चिंतन, शिष्य है मगर शिष्य अपनी क्रियाओं के माध्यम से अपने चिंतन के माध्यम से अपने विचारों के माध्यम से गुरू की ओर बराबर बढ़ता हुआ उसमें पूर्णत लीन हो सकता है। और लीन होकर के अद्वैत बन सकता है क्योंकि शिष्य की अपनी एक स्थिति है
क्योंकि जीवन का जो आनन्द शिष्य में है गुरू में नहीं है जो चिंतन शिष्य कर सकता है गुरू नहीं कर सकता। गुरू एक मर्यादा में बंधा हुआ है। उस मर्यादा के बाहर गुरू नहीं जा सकता मगर शिष्य के सामने दोनों रास्ते खुले है क्योंकि उसको चलने का एक रास्ता है गुरू एक स्थिर है एक जगह खड़ा हो गया है और गुरू खड़ा हो गया है उस ब्रह्म को पूर्णत आत्मसात् करके क्योंकि वह स्वयं ब्रह्म स्वरूप है गुरू नहीं रहा गुरू स्वयं ब्रह्म बन गया है जब ब्रह्म बन गया तो तब उसके लिये शरीर माया मोह, एश आराम, भोग, विलास एक अन्य साधन बन गये जो कि उस पर व्याप्त नहीं होते प्रभाव डालते है व्याप्त नहीं होते वह दुःख आने पर भी दुःखी नहीं होता सरल भाव से लेता है दुःख आ गया तो ठीक है सुख आ गया तो ठीक है अगर शाम को हलवा मिठाई मिल गई तो ठीक है सूखे टुकड़े मिल गये तो ठीक है
अगर ऐसा चिंतन उसके मानस में सहज रूप में है तो वह गुरू है। गुरू की लिमिटेशन है क्योंकि गुरू अपने ज्ञान के माध्यम से बढ़ता बढ़ता उस ब्रह्म तक पहुँच गया है जहां निर्विकार है किसी प्रकार का विकार नहीं है और संसार में शास़्त्रें में-काम, क्रोध, मोह, लोभ, लालच, स्वार्थ, ऐश, आराम, चिंतन, निद्रा, झूठ, छल, कपट, व्याभिचार, ममता, अटेचमेंट, स्नेह, हर्ष, शोक यह सब संचारी भाव है संचारी भाव आते है और चले जाते है। संचार का मतलब है गतिशील एक ही भाव स्थिर नहीं रहता जिनमें एक ही भाव स्थिर नहीं रहता उनको शिष्य कहते है और जो एक ही भाव में स्थिर रह जाते है उनको गुरू कहते है। इसीलिये गुरू अपने आप में अद्वैत है शिष्य अपने आप में द्वैत है, शिष्य धीरे-धीरे अद्वैत की स्टेज में आ सकता है,
वह जा सकता है अपने आप में गुरू अद्वैत है शिष्य अपने आप में द्वैत है, शिष्य धीरे-धीरे अद्वैत की स्टेज में आ सकता है, वह जा सकता है अपने आप में गुरू को स्थापित करके और अपने आप में गुरू को स्थापन करने की क्रिया का प्रारम्भ होता है दीक्षा और अंतिम स्थिति बनती है जब पूर्ण रूप से गुरूमय हो जाता है उसके सामने गुरू ही चिंतन दिखाई देता है वह अगर राम की प्रशंसा करता है तो ऐसा लगता है कि मेरे सामने मेरे गुरू खड़े है आज गुरूदेव ने धनुष बाण हाथ में ले लिया है क्या बात है यह चिंतन जब उसके शरीर में समाहित चिंतन में विचारधाारा में समाहित हो जाता है तो संचारी भाव खत्म हो जाते है क्योंकि जब तुलसीदास वृन्दावन गये और वृन्दावन में जाकर के उन्होंने कृष्ण के दर्शन किये तो उन्होंने कहा कि-
मैं आपको प्रणाम तो करता हूँ मगर मुझे कुछ सान्निध्यता अनुभूत नहीं होती, मैं जब तक नमस्कार कर सकता हूँ जब तक तुम्हारे हाथ में धनुष बाण हो क्योंकि वह पूर्ण राममय हो गये थे। बांसुरी हाथ में लिये हुये व्यक्ति को वह पहचान ही नहीं पा रहा था उसको बड़ा अटपटा लग रहा था कि यह कैसे है और वह साफ कह रहा है कि तुलसी मस्तक पर पदम मैं धनुष बाण लियो हाथ और ठीक यही स्टेज जो तुलसी की राम के प्रति बनी।
वह स्टेज शिष्य की गुरू के प्रति बनती है क्योंकि जब वह उस राम की मूर्ति के दर्शन करता है तब भी उसको वही गुरू का चहरा दिखाई देता है वह गुरू का शरीर आज तो बड़े नये रूप में पीताम्बर पहने हुये है और आज तो बड़े ही प्रसन्न मुद्रा में है और जब वह गुलाब का पुष्प देखता है तो उस गुलाब के पुष्प में उसको गुरू का चित्र दिखाई देता है कि आज कितने सुन्दर ढं़ग से आज यह मुस्कुरा रहे है और उसको गुलाब के पुष्प में भी गुरू के साक्षात बिम्ब दिखाई देते है।
यह दिखाई देने की क्रिया तब बनती है जब धीरे-धीरे शिष्य गुरू की और समर्पित होता है। मैनें कहा प्रारम्भ उसका दीक्षा से है, दीक्षा का मतलब है तुम्हारा धीरे धीरे नजदीक आना और नजदीक की परिभाषा है बिल्कुल एक हो जाना उसको नजदीक कहते है। पाँच दो से तीन एक इंच फिर आधा इंच और शिष्य का मतलब है निकट, निकटतम और पूर्णता एक हो जाना।
यह शिष्य की क्रिया है यह शिष्य की गुरूमय बनने की क्रिया है और शिष्य की पूर्णता तब है जब गुरूमय बनता है इसलिये गुरू और गुरूमय बनता है इसलिये गुरू और शिष्य दोनों अलग-अलग है, बीच में डिफरेन्स है वह पाँच फिट का हो सकता है वह डिफरेन्स तीन इंच का हो सकता है। यह डिफरेन्स पांच फुट या तीन इंच का क्यों होता है जिसमें संचारी भाव ज्यादा होंगे वह उतना ही गुरू से दूर रहेगा क्योंकि कभी उसको क्रोध आयेगा, कभी उसको स्वार्थ आयेगा, कभी उसका चिंतन आयेगा, कभी वह उदास रहेगा तो सारा उसका जीवन का क्षण वह बिम्ब संचारी भावों में ही व्यतीत हो जायेगा। वह उदास है, परेशान है, यह ऐसा हो गया वह ऐसा हो गया, वह गुरूपद छूट जायेगा वह दो घंटे जो चिंतन किया वह दो घंटे जो गुरू मय होना था वह छूट जायेगा। वह गुरू चिंतन होना था वह उस चिंतन में चला गया फिर उसके बाद कि अगर मैं पांच हजार मिल जाये तो ऐसा कर दूंगा वह आधे घंटे पांच हजार मिल जायेगा तो क्या कर देगा आधा घंटा फिर उसमें चला गया और फिर सोचा कि शादी हुई नहीं शादी होती तो लोग बहुत खुश है और मैं उस प्रकार की राय नहीं करता जो लोग शादी करने के बाद करते मैं उसको सुखी रखता तो दो घंटे उसमें खर्च हो गये संचारी भाव आये नहीं। यह संचारी भाव उसको घेरे रखते है घंटे तो दिन में 24 ही है और उन चौबीस घंटे में 12 घंटे नींद के इसका मतलब तुम्हारी उम्र साठ साल है भी तो साठ साल में तुम्हारे 26 वर्ष बाल्यावस्था में चले गये उतने दिन तुम्हारे हाथ में थे ही नहीं तुम्हें नेकर पहनना आता ही नहीं था तुम्हें खाना नही आता था तुम्हें पीना नहीं आता था तुम्हारी मां ने तुम्हें पीना सिखाया तुम्हारे चाचा जी ने उठना सिखाया बोलना सिखाया 36 साल की अवस्था तुम्हारी वह चली गई, पीछे रहे तुम्हारे 44 साल में से 22 साल नींद में चले गए पीछे रहे 22 साल और उन 22 साल में भी तुम 20 इन संचारी भावों में व्यतीत कर दोगे तो गुरू के हिस्से में तुम्हारे कुल जिन्दगी के दो वर्ष रहे इसीलिये पूरी जिन्दगी बीतने पर भी गुरू और शिष्य के बीच में जो पांच फीट की दूरी है वह बनी रहती है इसलिये जहां उसने प्रश्न किया है कि जहां शिष्य गलती करे तो और गलती वह तब ही करता है। जब उसमें संचारी भाव जाग्रत होते है या उसके ऊपर संचारी भाव हावी होते है और जब संचारी भाव हावी होते है जितने संचारी भाव हावी होंगे उतना ही शिष्य कमजोर होगा उतना ही शिष्यत्व से दूर होगा, क्योंकि वह संचारी भावों को हटाने के लिये एक ही क्रिया है कि वह गुरूमय बने और गुरूमय बनने के लिये निरन्तर गुरूमंत्र जप करें।
यदि आपने देखा होगा तो कुछ त्रिविल ऐसे होते है अगर कुछ मजनू को पूछा गया कि तुमने खुदा देखा, राजा ने बुलाकर पूछा तो बिल्कुल देखा, तुमने देखा, तुमने खुदा को देखा और जी भर के देखा है, कैसा है। ठीक लैला की तरह ऐसी आंख है ऐसी कान ऐसा खुदा उसका और कोई चिंतन नहीं, वह पूर्ण लैलामय हो गया था और कोई चिंतन ही नहीं था जब राजा जैसा आदमी पूछता है तुमने खुदा देखा तो हां देखा है वह दम के साथ कह रहा है और जो विवरण दे रहा है अपनी लैला का दे रहा है और आप किसी प्रेमी को शुरू शुरू में कच्चा प्यार जिसको कहते है उसकी आंख में एक तस्वीर गूंजती रहती है वह ऐसी है उसका चेहरा गुलाब की तरह मुस्कराता है आंख हिरणी की तरह है वह सारी गाय, भेस, बकरी सारी उसमें जोड़ देता है नारी शरीर रहता ही नहीं उस नारी शरीर में फूल पौधे, गुलाब, चमेली, पत्तियां, केवड़ा, मोगरा और सांप की तरह लट और खजूर की तरह आंखे और फलदार की तरह होंठ वह सब पेड़ पंछी पशु बना कर खड़ा कर देता है। वह नारी शरीर कहां गया वह उसके मानस में कुछ है नहीं क्योंकि वह संचारी भाव जाग्रत हो गया और शिष्य में जब संचारी भाव होगा जितना भाव है उतना गुरूत्व कम रहेगा इसलिये मैंने कहा कि पूरे जीवनभर भी वह पांच फुट की दूरी बनी रह सकती है और यदि चाहे तो छह महिने भी वह गुरू के चरणों में पहुँच सकता है इसलिये गलती तब होती है जब उसमें संचारी भाव होते है। गुरू ने आज्ञा दी और तुमने पूरा किया तुम उसमें संचारी भाव जोड़ोगे तो वह दूरी पांच से साढे छह फीट बन जायेगी वह एक फीट पीछे सरकेगी, आगे की और नहीं बढ़ेगी क्योंकि तुम उसमें बुद्धि लगाओंगे कि गुरू ने एक घंटे में आने को कहा डेढ़ घंटा हो जायेगा तो गुरूजी कोैन सी फांसी दे देंगे और चले जायेंगे। क्या बात है? लेट कैसे आये? गुरूजी मार्ग में गाड़ी पंचर हो गई तो पहिया उतर गया था, पहिया ठीक किया थोडा। अब गुरूजी समझ रहे है तो बिल्कुल समझ रहे है मगर वह समझ नहीं रहा कि अभी यह पांच फीट पर था अब यह पांच दो इंच पर है ओर वह दो इंच दूरी तुमने ही बनाई गुरू ने नहीं। तुमने अपने वचनों से, अपने लक्षणों से, अपनी बुद्धि से अपनी दूरी बढ़ाई जबकि तुम्हारी डिय्टी थी गुरू के और दो इंच नजदीक जाना और अगर तुमको कहा यह काम करना है तो वह काम तुमको करना ही है। क्योंकि गुरू को ज्यादा मालुम है कि तुम्हें उनके नजदीक जाने में क्या करना है। गुरू तो केवल एक कर्तव्य है वह गुरू है वह तुम्हारा पति नहीं, वह तुम्हारी पत्नी नहीं वह तुम्हारा भाई नहीं, वह तुम्हारा सम्बन्धी नहीं वह तुम्हारा गुरू है और गुरू की तो केवल एक ही कल्पना है वह शिष्य को अपने में समाहित करें। अगर पति हूँ मैं जिस क्षण मैं पति बनूगा तो मैं पत्नी को उस ढंग से बात करूँगा, उस समय मैं गुरू नहीं हूँ। जब मैं पिता बनूंगा तो मैं अपने पुत्र से उस ढंग से बात करूंगा वहां मेरी यह क्रिया नहीं होगी कि पुत्र मुझ में लीन हो मगर जहाँ मैं गुरू बनूंगा और जहाँ शिष्य है वहाँ पर उस गुरू का केवल एक ही धर्म कर्त्तव्य है कि शिष्य को अपने आप अन्दर लायें। वह अन्दर लाने का प्रयत्न करता है और शिष्य उन संचारी भावों से दूर जाने का प्रयत्न करता है या नजदीक आने का प्रयत्न करता है इसीलिये शिष्य को सापेक्षी कहा गया है कि शिष्य प्रयत्न करे और गुरू की तरफ बढे और प्रयत्न पूर्वक उन संचारी भावों को हटाकर आप ही हटाये और फिर गुरू में लीन हो जायें।
फिर गुरू की चित और गुरू मंत्र में लीन हो जाये और कुवासना, कुविचार, चिंतन जाते है तो हाल में बैठ जायें गुरू के चरणों की तरफ साफ-साफ देखता रहें और कुछ नहीं तो आंख बंद करके गुरू को अपने आप में लीन होने की क्रिया करें और धीरे-धीरे सरकता सरकता एक क्षण ऐसा आता है कि वह गुरूमय बन जाता है क्योंकि उसे गुरू के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता है, पेड़ में भी उस गुरू को देखता है, यह तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम चार फिट की दूरी पर नहीं हो अब तुम जितने संचारी भाव कम कर सकोगे जितने गुरू मंत्र में लीन हो सकोगे जितने अपने मन में गुरू को धारण कर सकोगे जितना ही गुरू का कार्य कर सकोगे, मशीन भी चला रहे हो तो गुरू का कार्य है गुनगुनाहट है तो गुरू में लीन है दिखाई देता है तो गुरू ही दिखाई देता है ऐसी स्टेज आ सकती है और स्टेज आना उस ब्रह्म का साक्षात्कार करना है और ब्रह्म से साक्षात्कार करना गुरूत्व को प्राप्त करना और गुरूत्व को प्राप्त करना जीवन के टॉप पर पहुँचना है। जहाँ पर आम आदमी नहीं पहुँच सकता है लाखों में से एक व्यक्ति पहुँच सकता है दो व्यक्ति पहुँच सकते है इसीलिये तुम्हारे मेरे बीच में बहुत कम फासला रह गया है और मेरे दिन बहुत कम समय रह गया है इसलिये हम उस फासले को कितना जल्दी पार कर लें यह तुम पर निर्भर है यह संचारी भाव तो जाग्रत होंगे ही, तुम नहीं गाओंगे तो आस पड़ोस वाला फिल्मी गाना तो गायेगा ही, तुम उन संचारी भावों को तोड़ नहीं सकते मगर तुम बिल्कुल उस में गुरूमय प्राणमय हो सकों तो तुम्हें वह फिल्मी गाने काम नहीं आयेंगे।
मैंने एक किस्सा सुनाया कि अकबर दोपहर के समय, एक दिन दोपहर हो गई तो नमाज पढ़ने का टाइम हो गया तो रास्ते पर ही चादर बिछा ली और घुटने टेक कर अकबर नमाज करने लगा उस अल्ला के ध्यान में लीन होने लगा और ठीक एक बजे एक प्रेमी ने प्रेमिका को मिलने का टाइम दिया था कि ठीक एक बजे आयगी तो ही मैं मिलूंगा उसके बाद नहीं मिलूंगा सुन लें और प्रेमिका एक दम से हड़बड़ाती हुई घर से निकली कि माँ बाप देखे नहीं पांच मिनट का टाइम है फिर वह चला जायेगा। दौड़ती हुई जा रही थी अकबर नमाज पड़ रहा था चादर के ऊपर पांव रखती हुई चली गई, राजा पूरे भारत वर्ष का बहुत गुस्सा आया यह औरत है कि क्या है, मैं खुदा की इबादत कर रहा हूं यह क्या कर रही है खैर फिर नमाज इबादत अकबर करने लगा। वह वापस प्रेमी से मिलकर जो कुछ बातचीत करनी थी करके आई वापस आई, उस चादर पर पांव रखने लगी तो अकबर ने हाथ पकड़ा बोले मूर्ख! तुम्हें शर्म नहीं आती मैं खुदा की इबादत कर रहा था तुम चादर पर पांव रखकर चली गई, खुदा की इबादत कर रहे थे तुम्हें कैसे मालूम पड़ा कि मैं आई और मैंने चादर पर पांव रखा तुम्हें कैसे मालूम पड़ा कि मैं गई, मुझे तुम दिखाई ही नहीं दिये मुझे तो न चादर दिखाई दी और न आप मुझे तो प्रेमी दिखाई दे रहा था और कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। तुम्हें भगवान दिखाई दे रहे थे मैं दिखाई दे रही थी या चादर क्योंकि वह प्रेमी मय हो गई थी वह गुरूमय हो गई थी इसीलिये न उसको अकबर दिखाई दिया न चादर दिखाई दी उसके आँख के सामने प्रेमी था और जाना था और जब तुम गुरूमय हो जाओं तो न तुम्हें गाने दिखाई देंगे न फिल्मी गीत सुनाई देंगे, आसपास का वातावरण और संचारी भाव दिखाई देगा तब तुम गुरूमय बन जाओंगे। यह संचारी भाव अपनी जगह चलेंगे, तुम अपनी जगह चलोगे और फिर वह दो इंच का सरकना हुआ गुरू के पास और मैं आशीर्वाद देता हूं कि तुम गुरूमय बन सकों तुम गुरू में लीन हो सको। कुछ बनो न बनो उस आनन्द को प्राप्त कर सको तुम्हारा प्रत्येक दिन उत्साह पूर्ण हो, मैं तुम्हें देखता हूँ नित्य उदासी पूर्ण मरे हुये चहरें उदास और रोते हुये चेहरें। मैं जब सुबह सुबह देखता हूँ तो सोचता हूँ कि शिष्य है या मुर्दे कब्रों में से उठकर आये है, मुझे अफसोस होता है कि मैं गलत हूँ कि या शिष्य गलत है क्योंकि चेहरे ऐसे थप्पड़ खायें हुये, मुरझाये हुये चेहरे उदास चेहरे क्या है?
क्या यह कब्र में से तो उठकर आये नहीं, क्योंकि तुम में उत्साह नहीं है, एक चेतना नहीं है, एक जाग्रत अवस्था नहीं है। यह नहीं तो तुम गुरूमय नहीं हो और जब गुरूमय बनोगे तो चेहरे पर एक अपूर्ण चेतन लाली मेरे लाल कि मैं हो गई लाल, वह खुद लालमय हो जाती है ललायी युक्त हो जाती है उसका चेहरा लाल हो जाता है और मैं चाहता हूं कि तुम्हारा प्रत्येक क्षण प्रफुल्लता पूर्ण हो, सफलता पूर्ण हो, ओज पूर्ण हो, जोश हो, उत्साह पूर्ण हो और गुरूपूर्ण हो मैं ऐसा ही आशीर्वाद देता हूँ।
परम् पूज्य सद्गुरू
कैलाश श्रीमाली जी
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