अनेक मतमतान्तरों से भरे हिन्दू धर्म में सबको ही समुचित सम्मान दिया गया है और जब साधक वास्तव में ही अपने इष्ट से तादात्म्य स्थापित करने की स्थिति में आ जाता है, तभी वह समझ जाता है, कि वस्तुत: भेद तो कहीं है ही नहीं। इस स्थिति तक पहुंचने के पहले सबको एक ही मानना अथवा कहना मिथ्या प्रलाप से अधिक कुछ है नहीं। केवल ऐसा साधक ही इष्ट को अपने गुरू में साक्षात अनुभव कर सकता है।
इसी कारणवश गुरू साधना केवल एक प्राथमिक साधक के ही जीवन की आवश्यकता नहीं, वरन उच्च स्तर तक पहुंच गये साधक की भी प्रथम आवश्यकता है। प्राथमिक साधक गुरू का अवलम्बन इस कारण से लेता है, क्योंकि उसे अपने इष्ट तक पहुंचने का उपाय प्राप्त करना होता है और उच्च स्तर पर पहुंच गया साधक इसे (गुरू साधना को) इस कारणवश सम्पन्न करना चाहता है, क्योंकि गुरू साधना का तात्पर्य केवल गुरू की भक्ति ही न होकर जीवन के उन आयामों को प्राप्त करना होता है, जो कि केवल साधना के द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं। गुरू की आत्मा एवं प्राण साधना में ही निवास करती है और साधक किसी भी रूप में किसी भी साधना का अवलम्बन क्यों न ले, वास्तव में उसे गुरू साहचर्य की ही प्राप्ति होती है।
इसका कदाचित सबसे अधिक उपयुक्त उत्तर यही हो सकता है, कि गुरू साधना के माध्यम से व्यक्ति स्वयं ही अपने अन्दर गुरूत्व धारण करने की वह क्रिया करता है जिसके द्वारा वह कालान्तर में किसी भी सिद्धि अथवा लक्ष्य तक पहुंच सकता है।
गुरू साधना का अर्थ गुरूदेव को प्रसन्न करना भी नहीं होता, क्योंकि वे तो अपने ‘सदाशिव’ स्वरूप में सदैव प्रसन्न रहते ही हैं। शिष्य के कल्याणार्थ वे उसके विषों का सहर्ष पान करते ही रहते हैं, किन्तु जब वे अनुभव करते हैं, कि उनके शिष्य ने स्वयं को ‘साधित’ करने की अपेक्षा उनकी भक्ति ही प्रारभ कर दी है तो उन्हें क्लेश अवश्य होता है, क्योंकि गुरू से यह सूक्ष्म भेद नहीं छुपा सकता, कि उनका कौन सा शिष्य, किस भावना के वशीभूत होकर, उनसे क्या निवेदन कर रहा है।
इसी कारणवश आदर्श साधक तो वही है, जो प्रत्येक स्थिति में साधना का अवलम्बन लिये ही रहे। नित-नूतन पद्धतियों का ज्ञान प्राप्त करता ही रहे। केवल साष्टांग रूप से गुरूदेव के समक्ष बिछ जाना ही समर्पण नहीं होता, वरन उनके मानस से तादात्म्य स्थापित करने का प्रयत्न करते हुये उसी अनुरूप कार्य करने की चेष्टा करना भी ‘समर्पण’ होता है और गुरूदेव इसी समर्पण को अधिक प्रसन्नता से स्वीकार करते हैं।
हमारी पात्रता ऐसी नहीं है, कि हम गुरूदेव के विचारों को उनके ही अनुरूप समझ सकें, क्योंकि विविध वासनाये एवं संस्कार हमें विचलित करते ही रहते हैं, इस दशा में साधना ही वह मार्ग शेष रह जाता है,जो मार्ग के ऐसे संस्कार रूपी कंकड़ों को हटा सके और साधक अधिक तीव्रता से अपने लक्ष्य तक जा सके- ‘गुरू सेवा’ करते हुये।
‘गुरू सेवा’ साधना का सर्वोच्च स्वरूप अवश्य है, किन्तु यह ध्यान में रखना आवश्यक है, कि केवल वही व्यक्ति गुरू सेवा कर सकता है, जो ‘शिष्यता’ से युक्त हो, क्योंकि वही गुरू की इच्छा को समझने की (भले ही कुछ अंशों में) पात्रता रखता है। केवल कार्यरत हो जाना ही गुरू सेवा नहीं होती, वरन ऐसी ‘सेवा’ तो कालान्तर में कई विरोधाभासों को ही जन्म दे देती है। अत: जिन साधकों के मन-मस्तिष्क में यह भ्रम हो, कि वे मात्र गुरूदेव के समीप होने से अथवा कार्यरत रहने से ही साधनात्मक जीवन की उच्चता में प्रवेश कर गये हैं, उन्हें अपने आप में संशोधन कर ही लेना चाहिये। ‘गुरू’ से अधिक महत्ता ‘गुरूतत्व’ की मानी गई है तथा गुरूतत्व को समुचित आदर न देना मूढ़ता का लक्षण माना गया है-
अर्थात- ‘मूढ़ लोग ही गुरूतत्व को न जानकर यज्ञ, दान, तपस्या, तीर्थ, व्रत एवं अन्य धर्मों का आश्रय लेते हैं’ (उनका परायण करते हैं)।
वस्तुत: गुरूदेव तो किसी भक्ति को प्रश्रय देते ही नहीं है, किन्तु यह हमारे देश की विशेषता रही, कि जब-जब उसने किसी आचरण को ग्रहण करने में कठिनाई अनुभव की, तब-तब बड़ी सूक्ष्मता से उस आदर्श या आचरण की वन्दना ही प्रारम्भ कर दी। साधक को इस दुर्गुण से सावधान रहना चाहिये और केवल आत्मोन्नति की दृष्टि से ही नहीं, वरन गुरूदेव की प्रियता प्राप्त करने की दृष्टि से भी साधना का अवलम्बन निरन्तर ग्रहण किये रहना चाहिये।
पूज्यपाद गुरूदेव के सहस्त्रों शिष्यों में से ऐसे अनेक शिष्य हैं, जो अपनी क्षमता भर प्रयास करते ही रहते हैं, कि वे किस प्रकार से पूज्यपाद गुरूदेव की संतुष्टि का हेतु बन सकें, उन्हें प्रसन्न कर सकें, उनके तनाव के क्षणों में कुछ कमी ला सकें।
यह लेख एवं साधना ऐसे ही श्रेष्ठतम शिष्यों को समर्पित है, जो यह समझ सके है, कि वे गुरू की सेवा तभी कर सकेंगे, जब वे स्वयं किसी ‘गुरूत्व’ से आपूरित होंगे।
गुरू साधना केवल कुछ मंत्र जप कर लेने की क्रिया ही नहीं होती, वरन अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को बदलने की क्रिया होती है। अपने दुष्चिन्तनों, कुसंस्कारों को पहचानते हुए, निरन्तर उनसे संघर्ष करते हुये अपने आपको एक नवीन व्यक्तित्व में परिवर्तित करने की क्रिया ही यथार्थत: ‘गुरू साधना’ है।
मंत्र विशेष इसी कार्य में सहयोग देते हैं। साधना विशेष इसी आंतरिक भावना को त्वरा देने के साथ ही साथ उन उपायों को भी सुलभ करती है जिससे साधक अल्प समय में ही अपने लक्ष्य तक पहुंच सके।
जो साधक गुरू साधना को ही अपने जीवन का आधार बना लेते हैं, उनके सौभाग्य की तो कोई उपमा ही नहीं दी जा सकती, क्योंकि ऐसे साधक पर गुरूदेव की सीधी दृष्टि होती है और जब वे स्वयं अनुभव कर लेते हैं, कि मेरे इस विशेष साधक का लक्ष्य केवल आत्मोन्नति को माध्यम से जन सामान्य के लिये हितकारी बनना है, तो वे ऐसी अनेक विभूतियां स्वयं प्रदान कर देते हैं, जिनका शिष्य को ज्ञान तक नहीं होता है।
हम तो कुछ सिद्धियों एवं धन आदि को ही साधना का फल मानकर बैठे हैं, जबकि साधना के तो इतने अधिक आयाम हैं, जिनकी सामान्यत: कल्पना भी नहीं की जा सकती है। एक सम्पूर्ण योगी ही सम्पूर्ण रूप से ऐश्वर्याधिपति हो सकता है और वही भगवान शिव की भांति सर्वथा निर्लिप्त रह सकता है। जिस प्रकार भगवान शिव कुबेर के भी स्वामी होते हुये केवल बाघाम्बर एवं राख लपेटे रहते हैं, ठीक वहीं क्रिया किसी श्रेष्ठ साधक की भी होती है। जिसका भंडार भरा होता है वह प्रदर्शन नहीं करता और जिसके पास एक ही आभूषण होता है, वही उसे घुमा-फिरा कर दिखाने का उपक्रम करता रहता है।
गुरू साधना के माध्यम से साधक के ‘भंडार’ इस प्रकार भरते चले जाते हैं, कि उसे अनुभव भी नहीं होता और जब वह किसी वस्तु की कामना करता है, तो पीछे मुड़कर देखने पर आश्चर्यचकित रह जाता है, कि उसके पास तो भंडार के भंडार भरे पड़े हैं। यद्यपि गुरू साधना का प्रथम पुष्प तो विरक्ति, पीड़ा, तनाव होता ही है…
इस तथ्य को छुपाया भी नहीं जाना चाहिये, क्योंकि जो साधक गुरू साधना में प्रवेश करने की इच्छा रखे, उसे यह बात स्पष्ट होनी ही चाहिये।
गुरू साधना में प्रवेश करने का अर्थ है- ‘प्रेम के घर में प्रवेश कर जाना’ और कबीरदास के ही शब्दों में इसके लिये तो बहुत कुछ त्यागने की मनोवृत्ति एवं साहस होना आवश्यक ही होता है-
अपने लक्ष्य को अपने मन में स्पष्ट रखना ‘लिप्सा’ नहीं होती, क्योंकि प्रत्येक साधक किसी न किसी ‘प्राप्ति’ के लिए ही तो गुरू-अवलम्बन ग्रहण करता है, किन्तु जहां वह कुछ मंत्र जप करके यह आशा करने लगता है, कि शीघ्र ही सभी सिद्धियां और वैभव उसी झोली में स्वत: आकर गिर जायेंगी, वहां वह निस्पृह नहीं अपितु स्पृहायुक्त है और ऐसे साधक को कम से कम गुरू साधना में कोई स्थान नहीं मिल सकता।
गुरू साधना तो एक प्रकार से आत्मीयता प्रगाढ़ करने की क्रिया है। शिष्य मानसिक रूप से जितना अधिक दृढ़ चिंतन युक्त होता जाता है, गुरूदेव के आदर्शों एवं लक्ष्यों की पूर्ति हेतु स्वयं को सक्षम बनाने में सफल होता जाता है, उतनी ही तीव्रता से गुरूदेव स्वयं उसके जीवन के अन्य पक्षों को सफल बनाने की क्रिया को सम्पन्न करते जाते हैं।
दुर्भाग्य से हमने साधना का अर्थ केवल ‘सिद्ध’ करना और उस ‘सिद्धि’ का मनमाना उपयोग करना ही समझ लिया है, किन्तु गुरू तो गुरू होते हैं। वे ‘सिद्ध’ हो ही नहीं सकते, यद्यपि ‘रीझ’ अवश्य सकते हैं। उनको ‘रिझा’ लेना ही इस साधना की सर्वोच्च उपलब्धि है।
गुरू साधना तो मुख्य रूप से एक आन्तरिक तालमेल को सम्पन्न करने की ही क्रिया है, नित्य आत्मविवेचन कर स्वयं को सन्नद्ध एवं सबल करने की युक्ति है और जिसे हम साधना कहते हैं, वह वास्तव में इन सभी बातों को पुष्ट करने का एक प्रकार ही होती है। केवल आन्तरिक चिन्तन से ही गुरू साधना में सफलता नहीं पाई जा सकती, न ही केवल मंत्र जप के माध्यम से गुरू साधना में सफलता पाई जा सकती है।
इसी मूल रहस्य को ध्यान में रख कर पत्रिका में समय-समय पर गुरू साधना की अनेक विधियां प्रकाशित की जाती रही है। ‘मांत्रोक्त गुरू साधना’, ‘तांत्रोक्त गुरू साधना, ‘शक्तियुक्त गुरू साधना’ आदि इसी क्रम में आने वाली कुछ दुर्लभ पद्धतियां हैं।
‘मांत्रोक्त पद्धति’ जहां साधना मार्ग में प्रवेश करने वाले साधकों के लिये उपयुक्त विधि है, वहीं ‘तांत्रोक्त पद्धति’ उन साधकों के लिये अनुकूल है, जो साधना मार्ग में कुछ आगे बढ़ गये हैं। दस महाविद्या साधनाओं में प्रवेश करने के इच्छुक साधकों हेतु सर्वाधिक उपयुक्त पद्धति- ‘शक्तियुक्त गुरू साधना’ होती है।
इसके उपरांत भी गुरू साधना की इतिश्री नहीं हो जाती, अपितु अनेक आयाम शेष रह जाते हैं, जो न केवल प्राथमिक स्तर के साधक के लिये वरन उच्च स्तर के साधकों के लिये भी महत्वपूर्ण होते हैं। जिस प्रकार एक वायुमान, वह भले ही कितनी ही ऊंचाई तक उड़ने में सक्षम क्यों न हो, उसे पुन:-पुन: धरती पर आकर ईंधन प्राप्त करना ही होता है, ठीक उसी प्रकार साधनाओं के माध्यम से ‘ईंधन’ प्राप्त करते ही रहना पड़ता है, जिससे चित्त उनमुक्त होकर उस आकाश में विचरण कर सके जिसे आनन्द का आकाश कहा जाता है।
प्रस्तुत साधना, इसी श्रेणी की साधना है तथा इसे विशिष्ट साधकों के मध्य ‘गुरू हृदयस्थ वशीकरण साधना’ से जाना जाता है। इस साधना पद्धति में गुरू की उपासना केवल बीज रूप में की जाती है, अर्थात् उन्हें भौतिक स्वरूप में न मानकर एक पुंज के रूप में देखा जाता है और उनसे सम्बन्धित स्वरूप वही होता है, जो कि उस बीज मंत्र विशेष का होता है।
बीज मंत्र केवल अक्षर नहीं होते वरन सम्पूर्ण स्वरूप ही होते हैं तथा साधक साधना के मध्य, अपनी पात्रता के अनुसार किसी क्रम पर इनका वास्तविक साक्षात भी कर लेता है। वस्तुत: बीज मंत्र का यही ‘साक्षात’ ही उससे सम्बन्धित देवी-देवता का वास्तविक स्वरूप होता है। गुरूदेव भी ‘देव स्वरूप’ ही तो हैं, अत: यह स्वाभाविक ही है, कि उनका भी मूल स्वरूप किसी बीज मंत्र के माध्यम से स्पष्ट हो।
प्रस्तुत साधना गुरू साधना के क्रम में एक अत्यन्त तीव्र एवं विस्फोटक प्रभाव की साधना है, जिसे केवल गुरू पूर्णिमा अथवा किसी गुरू पुष्य को ही सम्पन्न किया जा सकता है।
इस विलक्षण साधना को पूर्णता से सम्पन्न करने के लिए कुछ नियमों का दृढ़ता से पालन करना आवश्यक ही होता है।
इस साधना को सम्पन्न करने के इच्छुक साधक को चाहिये, कि वह साधना के निश्चित दिवस से लगभग तीन दिन पहले से ही यथासंभव मौन व्रत का आश्रय ले ले, केवल अत्यन्त आवश्यकता होने पर ही वार्तालाप करे, ब्रह्मचर्य का कठोरता से पालन करे, भूमि शयन करे तथा यथासंभव एक ही समय अन्न ग्रहण करता हुआ निरन्तर तीन दिनों तक प्रतिदिन कम से कम 21 माला गुरू मंत्र तो जप कर ही ले।
योग्य साधक पन्द्रह दिन की अवधि निर्धारित कर सवा लाख मंत्र जप का एक पुरश्चरण करके अपने आपको इस साधना हेतु सक्षम बनाते हैं।
नियत दिवस गुरू पूर्णिमा 03 जुलाई शिव शक्ति सोमवार को साधक ब्रह्म मुहूर्त में उठें अथवा रात्रि के दूसरे प्रहर में इस साधना को सम्पन्न करें।
इस साधना हेतु उसके पास ताम्र पत्र पर अंकित ‘गुरू बीज यंत्र’ होना अति आवश्यक है, जो इस साधना का सर्वस्व है। इसके अतिरिक्त उसके पास चार ‘लघु नारियल’ एंव एक ‘कमल गट्टे की माला’ होनी भी शास्त्रोचित मानी गई है। साधक गहरे लाल रंग का नूतन गुरू पीताम्बर अवश्य ओढ़ें।
पूजन हेतु उत्तर दिशा में बैठें। सर्वप्रथम यंत्र का पंचोपचार (गंध, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य) पूजन करें तथा यंत्र के चारों कोनों पर एक-एक लघु नारियल स्थापित कर उन पर कुंकुम का टीका लगाये।
यंत्र पर दृष्टि एकाग्र रखते हुये भी निम्न ध्यान करें-
ध्यान-
ध्यान मंत्र के उच्चारण के बाद उसी प्रकार यंत्र पर त्राटक करते हुये कमलगट्टे की माला से निम्न ‘गुरू बीज मंत्र’ की कम से कम पांच माला जप अवश्य करें। केवल एक ही अक्षर का बीज मंत्र होने के कारण साधक इसे सरलतापूर्वक सम्पन्न कर सकते हैं-
मंत्र जप के उपरांत मूल गुरू मंत्र की भी 01 माला सम्पन्न करें तथा पहले से प्राप्त किये गुये पूज्यपाद गुरूदेव के चित्र के समक्ष आरती प्रज्वलित कर पूर्ण भाव से, अपनी त्रुटियों की क्षमा मांगते हुये आरती सम्पन्न करें।
साधना की समाप्ति पर सभी सामग्री को विसर्जित कर दें।
गुरू पूर्णिमा पर साधना शिविर में आकर भी इस साधना को अवश्य सम्पन्न करें, क्योंकि इस साधना को साक्षात गुरू चरणों में बैठकर करने का सौभाग्य तो कुछ और ही है।
अत्यन्त लघु प्रकृति की यह साधना होने के कारण इसे सम्बन्धित दिवस की प्रात: उठकर अल्पकाल में इसे सम्पन्न किया जा सकता है।
वास्तव में इस प्रकार की साधना को सम्पन्न करने से साधक इस लाभ को और भी अधिक तीव्रता एवं सम्पूर्णता से ग्रहण कर पाता है, जो साधना शिविरों में पूज्यपाद गुरूदेव के शक्तिपात द्वारा प्राप्त होते हैं।
साधना के किसी भी स्तर पर खड़े साधक के लिये यह गुरू साधना एक नवीनता ही लेकर आयेगी, जिसका कुछ ही दिनों में साधक स्वयं अनुभव कर सकेगा।
इस साधना में स्वत: ही लक्ष्मी तत्त्व का समावेश है, जिससे यह जीवन के भौतिक पक्षों को भी समुन्नति करने में सहायक साधना है।
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