उपनिषदों के प्रारम्भ में ब्रह्म के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट करते हुये प्रश्न पूछा गया कि ‘किं कारणं ब्रह्म’ अर्थात जगत का कारण जो ब्रह्म है, वह कौन है ? आगे चलकर ब्रह्म के स्थान पर रूद्र और शिव शब्द का प्रयोग किया गया है। ‘एकोहि रूद्र: स: शिव’ अर्थात जो जगत पर शासन करते हैं वे रूद्र भगवान एक ही है, वे प्रत्येक जीवन के भीतर स्थित हैं, समस्त जीवों का निर्माण कर पालन करते हैं और प्रलय में सबको समेट लेते हैं। अर्थात यह जगत पूर्ण रूप से रूद्र स्वरूप ही है, एक ही रूद्र से अणु परमाणु रूप में जीवन आत्मारूप में कोटि-कोटि रूद्र उत्पन्न हुये जो रूद्र में ही विलीन हो जाते हैं।
नारायण उपनिषद में भगवान शिव को अनेक नामों से प्रणाम किया गया है-
इसीलिये भगवान रूद्र के सम्बन्ध में कहा गया है कि भगवान शिव ही इन्द्र इत्यादि देवताओं की उत्पति हेतु, वृद्धि हेतु अधिपति और सवर्ग्य हैं, वे परमदेव सबको सद्बुद्धि से संयुक्त करें।
इस संसार में कर्म फल देने के लियें ही सृष्टि होती है। व्यक्ति अपने जीवन में नाना प्रकार के सुख और दु:ख भोगता हुआ अन्तत: पूर्ण सृष्टि में विलीन हो जाता है। इसलिये भगवान शिव को प्रलय का देव कहा गया है जो व्यक्ति के जीवन में सब दु:खों को हर लेते हैं, इसीलिये वे हर हैं और प्रार्थना में भी कहा जाता है – हर हर महादेव अर्थात जो हरण करने वाले हैं, वे ही तो महादेव हैं।
अव्यक्त और व्यक्त दोनों ही रूपों में शिव को जाना जाता है, इसीलिये शिव सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं। निर्गुण रूप में वे लिंगाकार रूप में और सगुण रूप में विभिन्न रूपों में सर्वपूज्य हैं।
शिव भक्ति के अधीन शिव को त्रिनेत्र, त्रिशूल, मुण्डमाला धारी एवं दिगम्बर, श्मशान वासी, अर्धनारीश्वर, भस्मधारी माना है। वास्तविक रूप में शिव के त्रिनेत्र त्रिकाल अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान ज्ञान के बोधक हैं।
शिव के त्रिनेत्र सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि स्वरूप है।
शिव की मुण्डमाला प्रत्येक व्यक्ति को मृत्यु का स्मरण कराती रहती है, जिससे वे दुष्कर्मों से विरक्त रहने का प्रयास करते हैं।
शिव दिगम्बर होते हुये भी भक्तों के ऐश्वर्य को बढ़ाने वाले और मुक्त हस्त में दान करने वाले हैं। श्मशानवासी होते हुये भी तीनों लोकों के स्वामी हैं अर्धनारीश्वर होते हुये भी योगाधिराज हैं, मदनजित अर्थात काम को जीतने वाले होकर भी सदा महाशक्ति भगवती उमा के साथ हैं, भस्मधारी होते हुये भी अनेक रत्नराशियों के अधिपति हैं, वही शिव अजन्मा और अनेक रूपों में विभूषित हैं, व्यक्त भी हैं और अव्यक्त भी।
भगवान शिव के महादेव, भव, दिव्य, शंकर, शम्भु, उमाकांत, हर, मुण्ड, नीलकंठ, ईश, ईशान, महेश, महेश्वर, परमेश्वर, सर्व, रूद्र, महारूद्र, कालरूद्र, त्रिलोचन, विरूपाक्ष, विश्वरूप, कामदेव, काल, महाकाल, कालविकरण, पशुपति इत्यादि अनेक नाम हैं।
शिव शब्द का अर्थ है कल्याण, शिव ही शंकर हैं, शं का अर्थ है कल्याण, क का अर्थ है करने वाला अर्थात शंकर ही कल्याणकारी देव हैं, ब्रह्म ही शिव है, सृष्टि की उत्पति और पूर्णता शिव में ही है।
जिस प्रकार पुष्प में सुगंध, चन्द्र में शीतलता, सूर्य में प्रभा सिद्ध है, उसी प्रकार शिव में शक्ति भी सिद्ध है, शक्ति को किसी भी रूप में भी कहा जाये उमा, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, ब्रह्माणी, इन्द्राणी, महाकाली सब शिव के साथ ही निहित है।
शिव पुरूष रूप में है तो उमा स्त्री स्वरूप, शिव ब्रह्म है तो उमा सरस्वती, शिव विष्णु और उमा लक्ष्मी, शिव सूर्य तो उमा छाया, शिव चन्द्र हैं तो उमा तारा, शिव यज्ञ हैं तो उमा वेदी, शिव अग्नि है तो उमा स्वाहा इसीलिये शिव और शक्ति दोनों की संयुक्त रूप से ही आराधना की जाती हैं। लिंगाकार रूप में भी शिव और शक्ति का समन्वित रूप लिंग और वेदी के रूप में प्रकट होता है।
प्रणव अक्षर ‘ऊँ’ शिव का गान कहा गया है अर्थात संसार की प्रथम ध्वनि ‘ऊँ’ ही थी, ओंकार की ध्वनि अर्थात प्राण से सम्बन्ध में कहा गया है, कि यह सर्वव्यापी है, यह तारक मंत्र है, ब्रह्म विद्या है, यह सकल मंत्रों का मूल है, इसीलिये प्रत्येक मंत्र के पहले प्राण मंत्र अर्थात ऊँ बोला ही जाता है।
सदाशिव को मृत्युंजय कहा गया है, उन्हें त्र्यंबक कहा गया है, सांसारिक प्राणी सदैव यम अर्थात मृत्यु से बचने का प्रयत्न करता है और केवल शिव को ही महाकाल, मृत्युंजय और अमृतेश्वर कहा गया है, शिव ही काल से ऊपर महाकाल हैं, मृत्यु को जीतने वाले हैं, इसीलिये मृत्युंजय हैं, जीवन में बार-बार मृत्यु से बचाकर अमृत दिलाने में समर्थ है।
भगवान शिव आध्यात्मिकता के देव हैं तो भौतिकता के भी देव है, भौतिक जगत में व्यक्ति को जीवन में परिवार, पुत्र, आनन्द, विद्या, ज्ञान, भयहीनता सब कुछ तो चाहिये और ऐसा ही तो भगवान शिव का स्वरूप है, शक्ति स्वरूपा उमा पार्वती सदैव साथ हैं, देव अग्रणी गजानन्द पुत्र हैं, वहीं शौर्य देव कार्तिकेय दूसरे पुत्र हैं, ऋद्धि सिद्धि पुत्र वधूये हैं, सब कुछ होते हुये भी आनन्द से युक्त होकर, भस्म धारण कर हिमालय वासी हैं अर्थात सब गुणों को रखते हुये भी मोह से परे हैं, जहां शिव हैं वहां भगवती है, जहां शिव हैं वहां गणपति हैं, जहां शिव हैं वहां शौर्यपति कार्तिकेय हैं, जहां शिव हैं वहां ऋद्धि और सिद्धि हैं। जहां शिव हैं, वहां जल है क्योंकि शिव की जटाओं में जल धारण करने की क्षमता है और जहां जल है वहीं जीवन भी है।
कुण्डलिनी शक्ति जागरण में ज्योति स्वरूप शिवलिंग का पूजन शिव और शक्ति का समन्वित पूजन है, यह पृथ्वी रूपी इष्ट और आकाश रूपी लिंग का मिलन है। शिव साधना, शिव सिद्धि, शिव कृपा बिना शिवलिंग पूजन सम्भव ही नहीं और निरन्तर बहती जल धारा जीवन के जल तत्व को अभिव्यक्त करती है, यदि मनुष्य की देह से जल तत्व हटा दिया जाये तो जीवन समाप्त हो जाता है, इसीलिये जीवन के प्रतीक शिवलिंग का सदैव अभिषेक किया जाता है। अभिषेक का तात्पर्य है अर्पण, अभिषेक का तात्पर्य है ग्रहण करना, अभिषेक का तात्पर्य है निरन्तर प्रवाह होते रहना अर्थात जहां शिव हैं वहीं निरन्तर प्रवाह है। यह सृष्टि भी जल से उत्पन्न हुई है और जल में ही विलीन हो जाती है। इसीलिये कहा गया है जल के बिना जीवन की कल्पना व्यर्थ है।
अर्थात मनुष्य में जल ही जीवन प्रदान करता है, जब तक जल है तब तक जीवन है, देह में भी रूधिर के रूप में जल तत्व ही तो विद्यमान है, इस शरीर में पंचतत्वों में आकाश, भूमि, जल, वायु, अग्नि में भी जल तत्व को प्रधान माना गया है। नेत्रों की भाषा भी आनन्द स्वरूप, करूणा स्वरूप प्रेम अश्रु के रूप में ही प्रकट होती है, जीवन का निरन्तर क्रम भी जल तत्व वीर्य के माध्यम से प्रकट होता है, सत्व और रज ही तो सृष्टि का क्रम निर्विघ्न रूप से चलाते रहते हैं।
जल को देखते ही मन में प्रसन्नता उदय होती है क्योंकि शरीर के भीतर का जल बाह्य जल से अपने आप को जोड़ता है, देह को हजार विधियों से स्वच्छ रखा जा सकता है लेकिन देह के ऊपर जल डालकर स्नान करने से जो निर्मलता प्राप्त होती है वह और किसी अन्य माध्यम से प्राप्त नहीं हो सकती है। वर्षा में बरसते हुये जल को देखकर आत्मा भी प्रसन्न हो जाती है, मनुष्य हर ऋतु में अर्थात शीत, उष्ण ऋतु में अपने आप को संयोजित कर लेता है लेकिन वर्षा की न्यूनता में सब कुछ शुष्क हो जाता है, वर्षा तो भगवान शिव का वरदान है जो आकाश मार्ग से पृथ्वी को तृप्ति करने के लिये आती है और जब तक मनुष्य के जीवन में तृप्ति नहीं आती तब तक वह शुष्क अनुभव करता है, इसीलिये भगवान शिव को रसेश्वर कहा गया है, रस का तात्पर्य है जल तत्व और जीवन में जितने जल तत्व है वे भगवान शिव से ही उत्पन्न माने गये हैं।
जो सत्य है वह शिव है, जो शिव है वह सुन्दर है, इसीलिये जो शिव है वह सत्य है, जो शिव है वह आनन्द है और यही है – सत्यम शिवम् सुन्दरम्!
महाभारत के युद्ध से पूर्व श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सलाह दी थी, कि वह महाभारत में विजयी होना चाहता है, वह यदि कौरवों की असंख्य सेना पर सफलता पाना चाहता है, वह मृत्यु को जीतना चाहता है और वह यदि जीवन में पूर्ण सफलता के साथ भाग्योदय चाहता है, तो भवगान शिव की पाशुपतास्त्रेय साधना के अलावा और कोई ऐसी साधना नहीं है, जो कि जीवन में पूर्णता दे सके।
पाशुपतास्त्रेय साधना के विषय में विश्वामित्र जैसे दुर्धर्ष ऋषि ने एक स्वर में स्पष्ट किया है, कि पाशुपतास्त्रेय साधना प्राप्त करना ही जीवन का सौभाग्य है। भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये, उनसे समस्त साधनाओं में सिद्धि और सफलता प्राप्त करने का वरदान प्राप्त करने के लिये यह प्रयोग श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है।
1- ग्रह संयोगों एवं स्वयं के कर्म दोषों से साधनाओं में सिद्धि मिलते-मिलते रह जाती है, उन सभी का प्रभाव भगवान पशुपति की कृपा से समाप्त हो जाता है और अगले वर्ष भर के लिये कर्म दोषों व ग्रह नक्षत्रों का विपरीत प्रभाव लगभग नगण्य हो जाता है, जिससे किसी भी साधना में सफलता असन्दिग्ध हो जाती है।
2- भगवान शिव मोक्ष प्रदायक देवता हैं, इस साधना के प्रभाव से साधक का परलोक सुधर जाता है।
3- साधक को जीवन में कहीं पर भी असफलता, अपमान या पराजय नहीं देखनी पड़ती।
4- भगवान शिव भाग्य के अधिपति देवता हैं। जिनका भाग्योदय नहीं हो रहा हो या जिनका भाग्य कमजोर हो अथवा जीवन में कार्य भली प्रकार से सम्पन्न नहीं हो रहे हों, उन्हें अवश्य भगवान शिव की साधना सम्पन्न करनी चाहिए।
5-इस साधना को यदि पूर्ण श्रद्धा और भक्ति के साथ सम्पन्न किया जाये, तो भगवान शिव के अत्यन्त भव्य दर्शन भी साधक को प्राप्त होते हैं, जिससे साधक के सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं।
इस साधना में बाण लिंग की मुख्य रूप से आवश्यकता होती है। बाण लिंग को बेल पत्र का आसन देकर किसी पात्र में स्थापित कर निम्न ध्यान मंत्र करें-
ऊँ ध्यायेन्नित्यं महेशं रजत गिरि निभं चारू चन्द्रावतंसं, रत्नाकल्पोज्ज्वलांगं परशु मूग वराभीति हस्तं प्रसन्नं।
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममर गणैर्व्याघ्र कृत्तिं वसानं, विश्वाघं विश्व वन्द्यं निखिल भय हरं पंच वक्त्रं त्रिनेत्रं।।
अब अपने सिर पर एक पुष्प रखें तथा नर्मदेश्वर शिवलिंग के सामने भी एक पुष्प रखकर अपने और शिव के परस्पर प्राण सम्बन्ध स्थापित करते हुये निम्न उच्चारण करें।
पिनाक-धृक् इहावह इहावह, इह तिष्ठ इह तिष्ठ, इह
इह सन्निधेहि इस सन्निधेहि, इह सन्निधत्स्व,
यावत् पूजां करोम्यहं। स्थानीयं पशुपतये नम:।
इसके बाद रूद्रयामल तंत्र के अनुसार रूद्राक्ष माला से निम्न मंत्र की 05 माला मंत्र जप करें-
यह सम्पूर्ण प्रकार की सफलता देने वाला मंत्र है और इसके माध्यम से पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है। शास्त्रों में इसे अष्टाष्ट मंत्र या अष्ट शिव मंत्र कहते हैं, जो अपने आप में अद्वितीय है। प्रयोग समाप्ति के बाद आरती करें। बाद में रूद्राक्ष माला व बाण लिंग को पूजा स्थान में स्थापित कर दें।
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