यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कथन है ऋषि का, एक महत्वपूर्ण चिन्तन है आर्ष का, महर्षि का, क्योंकि जीवन तब तक निस्सार है, व्यर्थ है जब तक जीवन का कोई प्रयोजन न हो।
यदि जीवन का कोई लक्ष्य ही नहीं है, जीवन का कोई प्रयोजन ही नहीं है, जीवन का कोई चिन्तन ही नहीं है, फिर जीवन क्या है ? किसे हम जीवन कहे।
यह सब तो जीवन नही है, इन तत्वों के माध्यम से तो जीवन का निर्माण नहीं हो सकता और जब जीवन का मूल्य ओर महत्व ही ज्ञात नहीं है, जब जीवन का अर्थ और जीवन का मकसद ही हमें पता नहीं है, तो फिर हम वैसे ही पशु है जो डोलते रहते है, एक अज्ञात नकेल डाले हुये, उनको स्वयं को ज्ञान नहीं, कि वे किस तरफ जा रहे है, उनको खुद को पता नहीं कि वे कौन से रास्ते पर खडे है ? उनको खुद को यह ज्ञान नहीं कि उनकी मंजिल कहा समाप्त होगी? जिस रास्ते का प्रारम्भ पता नहीं है, जिस रास्ते का अंत पता नहीं है, उस रास्ते पर चलना तो अंधे की तरह से चलना होता है, जिसका सूत्र हमारे हाथ में नहीं है, जिसका चिन्तन और ज्ञान हमारे हाथ में नहीं है, तो हम किन शब्दों में उसे जीवन कह सकते है ?
हम तो केवल अपनी लाश को कन्धों पर उठाये हुये श्मशान की ओर बढ़ते चले जाते है, एक क्षण रूक कर सोचने की जरूरत है……………. कि क्या हमारा जीवन पशु जीवन से उपर उठा है ? क्या हमने अपने जीवन के मकसद को समझा है ? ………… क्या हम जानते है कि हमे जीवन में कहां तक पहुंचना है? …………….. क्या हमने कभी निर्णय लिया है कि जीवन के किस भाग पर हम खड़े है? हमने कभी सोचा ही नहीं, हमने तो भोग-विलास को ही जीवन मान लिया, हमने तो सांस लेने की क्रिया को ही जीवन मान लिया, हमने तो जिन्दा रहने की कल्पना को ही जीवन मान लिया….. यह कितनी छोटी सी बात है। कपड़े पहिनना, कपड़े छोड़ देना, सांस लेना, सांस छोड़ देना, भोजन करना, पानी पीना, अपने जीवन के अन्य क्रियाकलाप करना ये तो जीवन के प्रकार है…….जीवन तो नहीं है। जीवन तो किसी और ताने- बाने से बुना होता है।
जीवन तो वह होता है, जिसका सूत्र हमारे हाथ में होता है। जीवन तो वह होता है, जिसका मर्म हमें ज्ञात होता है। हम जिन्दा तो है……… सामाजिक और वैज्ञानिक परिभाषा में हम जीवित है, मगर शास्त्रीय पद्धति में हम मृत है, क्योंकि विज्ञान तो यह कहता कि जिसमें चेतना नहीं है, जिसमें इस बात का होश नहीं है कि मैं क्या हूँ? कहा जा रहा हूँ? कहा पहुंचना है? वह मृत है।
हम एक क्षण अगर रूक कर के सोचें तो हमें ज्ञात ही नहीं कि हमें कहां पहुंचना है? हमने तो चांदी के चंद टुकड़ो को इकट्ठा करने की क्रिया को ही जीवन मान लिया दो-चार मकान बना लेने की जीवन पद्धति को ही जीवन मान लिया। यह तो जीवन का एक प्रकार है, भौतिक दृष्टि में, चाहे निर्धनता में जीये, चाहे अमीर में जीये वैभव में जीये। जब तक जीवन के इस मूल चिन्तन को नहीं समझेंगे तब तक सही अर्थो में जीवित भी नहीं हो पायेंगे, तो फिर जीवन की परिभाषा को समझायेगा कौन?
शास्त्रों में तो इसको जीवन नहीं कहा जाता है। शास्त्रों में इस क्रिया को मृत्यु कहा जाता है, और हम सही अर्थो में जीवत मुर्दे है, जो चलते है, मगर होश नहीं है, जो खाते -पीते तो है, मगर उसका कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि हमने कभी इन रहस्यों को, उस चिन्तन को सोचा-समझा ही नहीं ….. और नहीं सोचा-समझा तो उसका आनन्द भी नहीं लिया जा सकता। जीवन का आनन्द तो वह लेते है, जो जीवन को समझते है। जो कभी मानसरोवर के किनारे गया ही नहीं, वह मानसरोवर के आनन्द को समझ ही नहीं सकता। जो छोटी-छोटी तलैयाओं के किनारे बैठा रहा हो, वह क्या जाने कि मानसरोवर में क्या आनन्द है, कितनी विस्तृत झील है, कितना अतल जल है, कितना स्वच्छ निर्मल पानी है, वह उसके वैभव को, वह उसकी सम्पदा को, वह उस झील की विशालता को नहीं समझ सकता, वह उस तलैया को ही जीवन मान बैठा है।
मेंढ़क जब कुएं के एक किनारे से चलना शुरू कर के और पूरा चक्कर लगा कर फिर उसी स्थान पर आ जाये ओर कहे- यही पूरा विश्व है, तो उसके हिसाब से तो यही विश्व है, क्योंकि उसने पूरा चक्कर काटा है……… मगर यदि कभी मेंढ़क को तालाब में डाल दिया जाये तो उतने अथाह जल को देखकर वह आश्चर्य में पड़ जायेगा -अरे मैंने तो कुछ नहीं देखा था, दुनिया तो कुछ और है, संसार तो कुछ और है …… और यदि वह भूल से भी उस तालाब का पूरा चक्कर ला दे और यह मन में प्रसन्नता व्यक्त कर ले, कि अब मैनें पूरा विश्व देख लिया है, पूरा जीवन देख लिया है, अब इससे बड़ा तालाब , इससे बड़े जल की राशि, इससे बड़ा जलाशय क्या हो सकता है? यह तो बहुत लम्बा चौड़ा तालाब है, और यदि वह समुद्र में गिर जाये और समुद्र के अथाह जल को देखे तो उसे और अधिक आश्चर्यचकित हो जाना पड़ेगा, कि वह तो एक छोटा सा हिस्सा था, वह जीवन था ही नहीं।
तुम्हारी भी स्थिति उस कुएं के मेंढ़क की तरह है, तुमने भी एक सीमित दायरें में घूमने की क्रिया को ही जीवन मान लिया है। पत्नी है, एक दो पुत्र है, थोड़ा सा धन है, मकान है, समाज में सम्पदा है, सम्मान है और इसी को तुमने जीवन मान लिया है, क्योंकि इससे बाहर निकलने का तुमको ज्ञान ही नहीं रहा, कभी बाहर गये ही नहीं, कभी देखा ही नहीं कि इससे बड़ा भी एक समाज है, स्थान है …………. और जब तुम वहां जाओंगे, तो तुम देखोंगे कि तुम जो जीवन जी रहे थे , तुम जिस घेरे में आबद्ध थे, वह तो एक बहुत छोटा सा हिस्सा है, जिसमें कोई आनन्द नहीं है, वह तो एक विवशता है, एक मजबूरी है। समाज में जिन्दा रहना तुम्हारी मजबूरी है। परिवार का पालन-पोषण करना तुम्हारी मजबूरी है। समाज तुम्हारे साथ या परिवार तुम्हारे साथ नहीं चल सकता, परिवार का सहयोग तुम्हें जीवन में नहीं मिलेगा।
जब वाल्मिकी डाकू थे……. ऋषि तो बहुत बाद में बने……… उन्होंने रामायण की रचना तो बहुत बाद में की, पहले तो वह भयानक डाकू थे, जिनके नाम से पूरा आर्यावर्त घबराता था, थर- थर कांपता था, उस रास्ते से कोई राहगीर जा ही नहीं सकता था……. लूटना …………. खसोटना ………….. मारना ………………… छीन लेना ही उसका कार्य था एक बार नारद उसके हाथ में पड़ गये नारद तो वीणा बजाते हुये नारायण -नारायण करते चले जा रहे थे और डाकू वाल्मिकी ने उन्हें पकड़, सुबह से कोई शिकार मिला ही नहीं, बड़ी मुश्किल से यह आदमी नजर आया, उसने उनकी वीणा छीन ली। नारद ने कहा- अरे! तुम एक साधु को लूट रहो हो, तुम ये क्या कर रहे हो?
उसने कहा- कोई दूसरा मिला ही नहीं, और जब तक मैं लूट-खसोट नहीं कर लूं , तब तक मैं भोजन करता ही नहीं, कोई कार्य करता हूँ…….. तो भोजन करता हूँ, तुम पहले ही व्यक्ति मिले, दोपहर हो गई, यह वीणा बेच कर कुछ तो धन मिल ही जायेगा, और तुम्हारे कपड़े भी खोल लूं, ये कपड़े भी बाजार में बेच दूंगा।
नारद ने कहा- यह तो पाप है, यह तो अधर्म है ……………… किसी साधु को, किसी संन्यासी को, किसी सामाजिक व्यक्ति को इस प्रकार से पकड़ और उसका सामान छीन लेना क्या उचित है।
उसने कहा- उचित तो नही …………… मगर मैं यह करूंगा जरूर।
वाल्मिकी ने कहा- जरूर! यह पाप कर्म है, किसी की हत्या कर देना पाप है किसी को छल से लूट लेना पाप है …. मै जानता हूँ कि पाप है, मगर मैं अकेला ही तो पाप नहीं कर रहा हूं, अपने परिवार के लिये कर रहा हूं, परिवार मेरा साथ देगा ही।
नारद ने कहा- पहले तुम अपने परिवार वालों से पूछ लो।
वाल्मिकी ने एक रस्सी से नारद को पेड़ से बांध दिया और घर गये।
बुड्ढी मां को पूछा – तू मुझे बता, कि मैं जो छीना- झपटी, लूट-खसोट, हत्याये कर रहा हूं , यह पाप तो है ही।
मां ने कहा- बेटा जरूर पाप है।
वाल्मिकी ने कहा- मैं इससे तुम लोगों को रोटी खिला रहा हूं, अन्न दे रहा हूं, आवास दे रहा हूं, तो तुम भी पाप में भागीदार हो।
मां ने कहा- मैं तो पाप में भागीदार नहीं होती, यह तुम्हारा कर्तव्य है कि मां को रोटी खिलाओं, तू कैसे कमा कर लाता है यह तू जाने ……. पाप करेगा तो पाप का फल तू ही भुगतेगा, मैं तो भुगतंगी नहीं ………और मैंने पाप के लिये तुझे कहा भी नहीं, मैं इसमें भागीदार नहीं हो सकती।
वाल्मिकी पत्नी के पास गये, पत्नी को कहा – देख मैं डाकू हूं और सैकड़ो लोगो की हत्याये की है, लूटा है, खसोटा है, मारा है, औरतों के गहने छीने है और तुझे दिये है, तुझे पहनाये है, क्या छीनना, झपटना, लूटना, मारना पाप है?
पत्नी ने कहा- नि:संदेह पाप है।
वाल्मिकी ने पूछा – यह तुम्हारे लिये कर रहा हूं , क्योंकि ऐसा करने पर ही तो मैं तुम्हें अन्न दे सकता हूं भोजन दे सकता हूं, आवास दे सकता हूं, गहने दे सकता हूं और तुम्हारे लिये तो कर रहा हूं, तो तुम भी तो पाप में भागीदार हो।
पत्नी ने कहा- मैं तो पाप में भागीदार नहीं हूं, मैं तो हूं ही नहीं, एक पति का कर्तव्य है, धर्म है, कि वह पत्नी का भरण पोषण करे, तुम मेरा भरण – पोषण करो …… कैसे करते हो, यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, यह तुम्हारा धर्म है, पाप का फल तुम्हें भोगना पड़ेगा।
वाल्मिकी वापस आ गये, नारद को पेड़ से खोला और छोड़ दिया, उसी क्षण उन्होंने डाकू का कार्य छोड़ कर के, छीना झपटी का कार्य छोड़ साधु जीवन प्रारम्भ कर दिया ………. क्या तुम भी वाल्मिकी डाकू से कुछ कम हो?…….. क्या तुम छीना – झपटी नहीं कर रहे?….. छल नहीं कर रहे?…. झूठ , कपट और असत्य नहीं कर रहे?……..और यह सब तुम परिवार वालो के लिए कर रहे हो, और तुम्हें यह गलतफहमी है, कि ऐसा करने पर परिवार वाले तुम्हारा साथ देंगे, पाप में भागीदार होंगे। पाप में भागीदार तो वे नहीं होंगे, असत्य और अधर्म के वे भागीदार नहीं बनेंगे। तुम्हें अकेले ही यह पाप भोगना पड़ेगा, तुम खुद ही इसके जिम्मेदार हो –
और जब तक तुम ऐसा करोगे तब तक जीवन में तुम्हें कुछ मिलेगा ही नहीं, तब तक जीवन का तुम अर्थ समझोगे ही नहीं, जरूरत तो तुम्हें यह है कि कोई ऋषि मिले,कोई नारद मिले, कोई गुरू मिले जो तुम्हें समझा सके, जो तुम्हें चेतना दे सके, जो तुम्हारे हृदय पर प्रहार कर सके, जो तुम्हें ज्ञान दे सके ……. यह सब बेकार है, जिस रास्ते पर तुम चल रहे हो उस रास्ते से तो श्मशान की यात्रा ही सम्भव हो सकेगी, यह तो कफन ओढ़ कर श्मशान में सोने की साधना है, प्रयोग है, जीवन है, इसमें कुछ पाना है ही नहीं, खोना ही खोना है, और तुम प्राप्त नहीं कर रहे हो ……… जो कुछ तुम प्राप्त कर रहे हो यह मकान, यह धन, ये चांदी के चंद टुकड़े, ये कागज के चंद नोट, यह पत्नी, यह पुत्र……. यह तो म़त्यु के साथ पीछे खड़े रहे जायेंगे , यह तुम्हारे साथ- साथ चलेगा ही नहीं, तुम्हारे साथ उनकी यात्रा नहीं है और जो तुम्हारे साथ नहीं है, वे तुम्हारे सहयोगी नहीं है।
साथ तो तुम्हारे जीवन चलेगा, तुम्हारी प्राणश्चेतना चलेगी, तुम्हारी भावनाये चलेगी। यदि तुम ऐसा चिन्तन करते हो, यदि तुम्हारे मन में ऐसा विचार है, तो तुम जीवन का पहला सबक सीख सकते हो, पहला अध्याय पढ़ सकते हो, मगर उसके लिये जरूरत है, दमखम के साथ कहने वाले गुरू की, जो तुम्हें समझा सके, कि तुम जो कुछ कर रहो हो वह तुम खुद कर रहे हो, उसके लिये कोई सहयोगी नहीं है। तुम्हारे पाप कार्य में कोई भागीदार नहीं है, तुम जो झूठ और छल कर रहे हो उसका फल भी तुम्हें ही भोगना पड़ेगा ………और जिन्होंने भी अपने जीवन में झूठ, छल, कपट और असत्य का आचरण किया, उनका बुढ़ापा अत्यन्त दु:खदायी अवस्था में व्यतीत हुआ……. रोगों से जर्जर, अभावों से पीडि़त, असत्य, परेशान, दु:खी, अतृप्त। जब बेटे उनको पूछते ही नही, जब बहुये उनका साथ देती ही नहीं और समाज उन्हें धिक्कारता है कि इसने जीवन भर छल- कपट किया है।
ऐसा तुम्हारा जीवन किस काम आयेगा, क्या प्रयोजन है इस जीवन का? क्योंकि इस जीवन को लाश की तरह उठा कर के तो तुम इस जीवन में कुछ प्राप्त है नहीं कर सकते, और इसीलिये नहीं कर सकते कि यह सब जीवन है ही नहीं। जो जीवन है, वह तो पत्थरों के ढ़ेर को उठाकर चलने की क्रिया है जो झूठ के पत्थर है, कपट के पत्थर है, असत्य और व्यभिचार के पत्थर है और उन्हें प्राप्त होता है दु:ख, परेशानियां, अड़चने, बाधाये, रोग, जर्जरता, बुढ़ापा और मृत्यु …….. यही तुम्हारे सामने है। दो-चार कदम चलने पर ही इनका सामना करना पड़ेगा, फिर तुम चाहे कितनी कुछ भी करो, बेकार है…….. फिर कोई तुम्हारा साथ नहीं देगा, घर वाले भी नहीं, पत्नी भी नहीं, पुत्र भी नहीं, बन्धु-बान्धव भी नहीं, समाज भी नहीं।
क्योंकि तुमने अपने जीवन में ऐसा दर्शक ढूंढा ही नहीं जो तुम्हे ज्ञान दे सके, झकझोर सके, चेतना दे सके, दमखम के साथ तुम्हारे साथ खड़ा हो सके, तुम्हें कह सके कि यह सब गलत है, तुम्हें कह सके कि तुम गलत रास्ते पर हो, तुम्हें कह सके कि यह रास्ता श्मशान की ओर जाता है………. अमृत की ओर नहीं, सुख और सौभाग्य की ओर नहीं, आनन्द की ओर नहीं ।
यदि आनन्द की यात्रा नहीं है, सौभाग्य की यात्रा नहीं है तो वह जीवन नहीं है। ऐसे तो तुम्हारे बाप-दादा, परदादा हजारों लोग जाकर श्मशान में मृत्यु को प्राप्त हो गये, और आज उनका नाम लने वाला भी कोई नहीं है। तुम भी उसी तरीके से मृत्यु को प्राप्त हो जाओगें ………..और तुम्हें कोई पूछने वाला नहीं होगा, कोई तुम्हारे लिये विचार करने वाला भी नहीं होगा, कोई अहसास करने वाला भी नहीं होगा, कि तुमने कितना प्रेम किया है।
और इसीलिये जीवन में गुरू की जरूरत होती है…………. जीवन के मध्य में। उस गुरू को प्राप्त करने की क्रिया भी तुम्हें ही करनी पड़ेगी, गुरू स्वयं तुम्हारे पास आकर के खड़ा नहीं होगा, तुम्हें ढूंढना पड़ेगा । नदी को खुद गंगोत्री से चलकर समुद्र की ओर जाना होगा, समुद्र उठकर गंगोत्री के पास नहीं पहुँचेगा । तुम्हें खुद उठ कर उन पतों के पास, पुष्पों के पास पहुंचना पड़ेगा,जहां सुगंधित हवा है, जहां आनन्द की हिलोर है ……………. वे खिलखिताते, झूमते पुष्प तुम्हारे पास आकर के खड़े नहीं हो जायेंगे।
यात्रा तो तुम्हें स्वयं को करनी होगी, तुम्हें स्वयं को खोजना होगा। जिस प्रकार से तुम धन खोजते हो, पुत्र खोजते हो, उसी प्रकार से गुरू की खोज करना भी तुम्हारे लिये अनिवार्य है, आवश्यक है- ऐसा गुरू, जो सशक्त हो- जो समर्थ- हो जो योग्य हो- जो प्रहार करने वाला हो- जो हाथ पकड़ के समझाने वाला हो- जो तुम्हें चेतना देने वाला हो।
इस यात्रा में तुम्हारे अन्दर कई प्रकार की भ्रांतिया आयेगी, क्योंकि तुमने इन भ्रांतियों को ही पाल रखा हैा तुमने अपने अंदर शक, संदेह, कपट और व्याभिचार पाल रखा है, और वे सब तुम्हारे सामने तन के खड़े हो जायेंगे, तुम्हारे मार्ग को पथ भ्रष्ट करेंगे तुम्हें कुमार्ग पर गतिशील करेंगे, वे कहेंगे- गुरू की खोज व्यर्थ है, तुम्हें यह कहेंगे- यह समय बर्बाद करना है। तुमने अपने जीवन में छल को प्रश्रय दिया है। तुमने अपने जीवन में कपट का साथ दिया है, तो वे इस समय तुम्हारें सामने खड़े रहेंगे, क्योंकि इससे उनका स्वार्थ समाप्त होता है।
कायर और बुजदिल हताश हो जाते है, निराश हो जाते है, खोज बंद कर देते है, मगर जो हिम्मती है, दृढ़ निश्चयी है, जो एक क्षण में जल उठने वाले है, जो निश्चय कर लेते है कि मुझे कुछ करना है, खोज करनी है, मुझे घिसा- पिटा जीवन नहीं जीना है, मुझे अपने जीवन में वह सब कुछ प्राप्त कर लेना है, जो जीवन का आनन्द है, जो जीवन का ऐश्वर्य है, जो मृत्यु से अमृत्यु की ओर जाने वाला है, जो आनन्द प्रदान करने वाला है, ऐश्वर्य प्रदान करने वाला है, जो सही अर्थो में पूंजी देने वाला है, धनवान बनाने वाला है, और उसकी खोज में जो पहला कदम बढ़ा देता है, वह साधक है, वह शिष्य है।
जो निश्चय करके यह प्रयत्न करता है कि मुझे गुरू को प्राप्त करना ही है, वह सन्यासी है, वह योगी है। दूसरा, जो इस रास्ते पर गतिशील होने की क्रिया करता है, वह योगी है। दूसरा, जो इस रास्ते पर गतिशील होने की क्रिया करता है, वह सही अर्थो में तपस्वी है। जंगलों में खाक छानने वाले को तपस्वी नहीं कहते, चारों तरफ आग लगा कर बीच में बैठने वाले को योगी नहीं कहते, जो जीवन के मर्म को समझने की कोशिश करते है, वे योगी और सन्यासी है, जो गुरू की खोज में आगे बढ़ते है, वे साधु है, जो गुरू को प्राप्त करके ही रहते है वे शिष्य है …………..और जो प्राप्त कर लेता है उसे जीवन में एक रास्ता मिल जाता है, उसे जीवन में एक चेतना मिल जाती है, वह निश्चय ही उस जीवन- पथ पर तेजी के साथ अग्रसर हो जाता है।
शिष्य किसी हाड़ मांस के पिण्ड को नहीं कहते।
-शिष्य तो भाव है।
-शिष्य तो चेतना है।
-शिष्य तो समर्पण का एक प्रकार है।
– जिसमें समर्पण नहीं, वह शिष्य हो ही नहीं सकता।
किसी आँख, नाक, कान, हाथ, पैर वाले को शिष्य नहीं कहते। चलने फिरने वाले व्यक्ति को शिष्य नहीं कहते, शिष्य तो उसे कहते है, जिसमें श्रद्धा और समर्पण है, जो इन दोनों से निर्मित होता है वह शिष्य कहलाता है………………..और अगर वह शिष्य बनता है, तो उसे रास्ते का ज्ञान होता है, भान होता है वह जीवन के रास्ते पर गतिशील हो सकता है।
मात्र दीक्षा लेने वाले को शिष्य नहीं कहते, सिर मुंड़ाने वाले को भी शिष्य नहीं कहते, हरिद्वार में स्नान करने वाले को भी शिष्य नहीं कहते, और गुरू के पैर दबाने वाले को भी शिष्य नहीं कहते, यह तो सब उसके प्रकार है।
शिष्य का तात्पर्य है कि- नजदीक होना। गुरू के बहुत अधिक नजदीक हो जाना और इतना अधिक नजदीक हो जाना कि गुरू और शिष्य में कोई अंतर ही नहीं रहे अगर अन्तर रह गया तो वह शिष्य बना ही नहीं, फिर वह अपने – आप को शिष्य नहीं कह सकता। गुरू और शिष्य में इतना भी गैप नहीं रहना चाहिये, इतना भी अन्तर नहीं रहना चाहिये कि बीच में से हवा भी निकल सके………. उसके जीवन का सारा चिन्तन, सारा क्रियाकलाप गुरूमय ही हो जाता है…………… गुरू ही उसका ओढ़ना ………. गुरू ही उसका बिछौना ……………………… गुरू ही उसका भोजन …………….और गुरू ही उसका खाना ………………. गुरू की ही वाणी बोलना …………………. और गुरू के शब्दों का श्रवण करना ………… और गुरू की सेवा करना ………….. गुरूमय हो जाना ……………. और उसकी आंखों में गुरू का भाव तैरने लगता है।
इस जीवन मार्ग पर केवल शिष्य चल सकता है, साधक तो बहुत छोटी सी चीज है, शिष्य के सामने साधक की कोई औकात नहीं होती योगी, तपस्वी उसके सामने कहीं ठहर नहीं पातें, उसके सामने यक्ष , गन्धर्व, किन्नर और देवता अपने आप में कोई मूल्य नहीं रखते, क्योंकि शिष्य एक चेतना पूंज होता है, एक दीपक होता है, वह अपने आप में श्रद्धा का एक पूर्ण स्वरूप होता है। समर्पण की साकार प्रतिमा होता है जो गुरू के जागने से पहले जागता है, गुरू के सोने के बाद सोता है।
जो केवल इस बात का ही चिन्तन करता है कि गुरू की कैसे सेवा की जाये? हम गुरू के किस प्रकार से हाथ पैर बने, नाक बने, आंख बने, सिर बने, विचार बने, भावना बने, धारण बने, किस प्रकार से बने? किस युक्ति से बने ? जो केवल इतना और केवल इतना ही चिन्तन करता है, वही सही अर्थो में शिष्य कहलाता है ……………… और सच्चा शिष्य सही अर्थो में बना हुआ सच्चा शिष्य ही अपने आप उस रास्ते पर खड़ा हो जाता है, जो पूर्णता का रास्ता है। इसीलिये शिष्य की समान्ता तो देवता, यक्ष , गन्धर्व कर ही नहीं सकतें, तपस्वी और साधु तो बहुत छोटी सी बात है।
शिष्य में कोई अलग तथ्य होता ही नहीं, वह गुरू का ही एक भाग होता है । गुरू की आंख को गुरू से अलग करके नहीं देखा जा सकता गुरू के हाथ को गुरू से अलग करके देखा नहीं जा सकता, ठीक उसी प्रकार से शिष्य को गुरू से अलग करके नहीं देखा जा सकता जो केवल सम्पूर्ण दृष्टि से गुरूमय हो जाता है वह शिष्य बन जाता है, ओर वही शिष्य बहुत बड़ा कार्य करता है, संसार का अद्वितीय कार्य। ऐसा ही शिष्य अपनी सेवा द्वारा गुरू को एक अवसर प्रदान करता है कि वह अपने ज्ञान को संसार के सामने रख सके।
यदि गुरू छोटे- छोटें कार्यो में ही व्यस्त हो जायेंगे तो ज्ञान किस समय देंगे ? चेतना किस समय देंगे ? जीवन के मूल्यवान कार्य किस समय करेंगे ? इन छोटी – छोटी चीजों को शिष्य अपने उपर लेकर गुरू को अवसर प्रदान करता है, कि वह ज्ञान की नदी प्रवाहित करे, उनके कार्यो और तनावों को वह अपने ऊपर लेकर के, उनको यह अवसर प्रदान करता है कि वह ज्ञान का मानसरोवर विश्व के सामने जाग्रत करे, चैतन्य करे जिसमें हजारों- लाखों लोग स्नान कर पवित्र हो सकें, जिसमें शिष्य अवगाहन कर सकें यह गुरू की सबसे बड़ी सेवा है, यही शिष्य का सबसे बड़ा कर्तव्य है।
धन देकर गुरू की सेवा नहीं की जा सकती, मिठाई खिलाकर भी गुरू की सेवा नहीं की जा सकती। वह तो गुरू को एक अवसर प्रदान करता है, उनकी व्यस्तता को वह अपने ऊपर झेल लेता है ……. और गुरू को मुक्त कर देता है, जिससे कि अन्य अत्यन्त महत्पूर्ण कार्य सम्पन्न किया जा सके। एक नए ग्रन्थ की रचना की जा सके। एक उपासना का मार्ग खोजा जा सके।
प्राचीन ऋषियों के उन मूर्त वाक्यों को नये सिरे से जाग्रत और चैतन्य किया जा सके। एक नए सिरे से समुद्र का अवगाहन किया जा सके और एक नई गंगा बनाई जा सके………… एक नया गंगोत्री का स्थान बनाया जा सके………….और यदि ऐसा होता है तो शिष्य सामान्य नहीं रहता, फिर उसका कद अपने – आप में बहुत ऊँचाई पर उठ जाता है ……….. फिर विश्व उसे श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से दिखाने लग जाता है।
आप यदि शिष्य बनें तो जनक ओर राम , कृष्ण और महावीर जैसे, बुद्ध और चेतना पुरूष जैसे योग्तम शिष्य बने, जिन्होंने शिष्यता के उन मापदण्डों को छुआ, जो अपने आप में भारतीय संस्कृति के लिये एक चेतना पुंज है। यदि शिष्य इस श्रद्धा और सम्मान को लेकर के, इस समर्पण को लेकर के आगे बढ़ता है, तो फिर उसे ध्यान करने की जरूरत होती ही नहीं, क्योंकि वह तो हर क्षण खोया रहता है, तो अपने गुरू चरणों में। उसे गुरू के चरण दिखाई नहीं देते, वहां हरिद्वार दिखाई देता है। वह उन चरणों को स्पर्श करता है तो उसे ऐसा लगता है, कि जैसे उसने काशी का चरण स्पर्श किया। जब गुरू- चरणामृत का पान किया तो ऐसा लगता है, कि जैसे उसने गंगा, यमुना सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु, कावेरी में अवगाहन कर लिया। वह उन चरणों में काबा देखता है, काशी देखता है, वह उन चरणों में मक्का देखता है। वह इन चरणों में अपने सम्पूर्ण देवताओं के दर्शन करता है, फिर उसे अन्य साधनाये तो अपने- आप में गौण हो जाती है।
गुरू का शरीर अपने आप- में ही एक जीवत- जाग्रत मंदिर है, चलता- फिरता मंदिर, ज्ञान का साकार पुंज …… जब उस साकार पुंज को अपने में समेटे हुये शिष्य आगे बढ़ता है तब शिष्य की आंख बदल जाती है। वह उन सामान्य गृहस्थ लोगो की तरह से गुरू को देखता ही नहीं, उसे गुरू के रूप में ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, इन्द्र, वरूण, यम, कुबेर, दिग्पाल अपने सामने साकार दिखाई देते है। जब वह भक्ति भाव से गुरू को प्रणाम करता है तो उसे लगता है कि सामने चारों वेद खड़े है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद। गुरू का प्रत्येक शब्द अपने आप’ में मंत्रमय हो जाता है, वेद वाक्य बन जाता है, ब्रह्म की दृष्टि होती है, जिसे पाकर वह अपने- आप को धन्य और गौरवशाली अनुभव करने लगता है। ध्यान- प्रक्रिया, तो अपने आप में खो जाने की प्रक्रिया है, अपने- आप को अतल गहराइयों में डूबा देने की प्रक्रिया है। ध्यान का तात्पर्य तो इतना ही है कि उसे अपने शरीर का ध्यान नहीं, ध्यान की प्रक्रिया का तात्पर्य यह है कि मानसरोवर में बहुत गहराई में डुबकी लगाई हो। ध्यान की प्रक्रिया का तात्पर्य तो यह है कि बाहर संसार, बाहरी क्रिया – कलापों का कोई अस्तित्व कोई भान उसे जीवन पर नहीं है …… ओर जब वह शिष्य बनता है, तब वह उच्चकोटि के ध्यान में संलग्न हो जाता है जो गतिशील ध्यान है, जड़ ध्यान है। जड़ ध्यान तो आंखों बंद करके पालथी मार कर अपने अन्दर उतरने की क्रिया है। वह तो बहुत सामान्य है, और आंख खोलकर ध्यान करने की प्रकिया तो अपने आप में ब्रह्म की प्रक्रिया है। यह ब्रह्म साधना है, गतिशील होते हुये ध्यान करते रहने की पूर्णतया की साधना माना गया है।
‘पूर्णमद: पूर्णमिद पूर्णात् दमुच्येते’ गतिशील है और पूर्ण बनता जा रहा है…………………….. गतिशील है और पूर्ण बनता जा रहा है……………. गतिशील है और पूर्ण बनता जा रहा है……………………….. गतिशील है और ध्यान करता जा रहा है, क्योंकि गतिशील होते हुये भी उसकी आंख में गुरू का ही बिम्ब रहता है…………. हर क्षण …. हर पल… प्रतिपल।
उसके जीवन का कण-कण, रोम- रोम गुरूमय होता जा रहा है, लीन होता जा रहा है, उसका खुद का कोई अस्तित्व होता ही नहीं, उसको अपने शरीर का कुछ भान ही नहीं होता, उसे सुख-दु:ख व्याप्त होता ही नहीं, उसे थकावट लगती ही नहीं। वह अहसास ही नहीं करता कि मुझे विश्राम की जरूरत है, उसे तो एक ही चिन्तन रहता है कि मैं गुरू के चरणों में किस प्रकार से रहुं ? किस प्रकार से ज्यादा से ज्यादा उनके कार्यो में सहयोग बनूं ? किस प्रकार से उनके ध्यान में डूबा रहूं ? रात्रि को वह अगर सोता भी है तो उसके मुंह से ही नहीं, उसके रोम-रोम से गुरू शब्द उच्चारित होता रहता है, गुरू मंत्र उच्चारित होता रहता है। उसका प्रारंभ, उसका सूर्योदय गुरू मंत्र से ही होता है, और उसकी निद्रा अवस्था, उसका सूर्यादय गुरू मंत्र से ही होता है, और उसकी निद्रा अवस्था गुरू से ही सम्पन्न होती है। यह गतिशील ध्यान है, यह अपने आप में ‘समाधिद’ की क्रिया है।
जमीन में गड़ने को समाधि नहीं कहते, वहां तो मुर्दे समाधिगत होते है, गड़ जाते है। जिसे अपने – आप का भान रहता ही नहीं, जो सम्पूर्ण चेतना के साथ गुरू के ज्ञान को, गुरू के कार्य को, गुरू की भावनाओं को, गुरू के आदर को, उनके सम्मान को, उनके शरीर को, उनके सौष्ठव को, अपने आप में पूर्णता देने का प्रयास करता है……… वह समाधि है। जब उसमें कोई दूसरा बिम्ब होता ही नहीं, जब कोई दूसरी चेतना ही नहीं होती, जब कोई दूसरा कार्य होता ही नहीं तब वह समाधि है और यह गतिशील समाधि है, और इसको ‘पूर्णत्व समाधि’ कहा गया है। जीवन के सम्पूर्ण आयामों में पूर्णता प्राप्त करने हेतु, ब्रह्म्य होने में दो ही तो मुख्य प्रकार है, दो ही तो आधारभूत सत्य है- ‘ध्यान’ और ‘समाधि’ ।
जहां अपना भान नहीं रहता है वह ‘ध्यान’ है………….. और शिष्य को अपना भान होता ही नहीं, उसका खुद का कोई विचार ही नहीं होता उसकी खुद की कोई क्रिया ही नहीं होती, वह तो खो जाता है, वह अपने- आप में डूब जाता है, निमग्न हो जाता है। गुरू उसे मानसरोवर में छलांग लगाने को कहते है। वह कहते है कि- इस किनारे पर खड़े मत रहो, किनारे पर पड़े घोंघे और पत्थरों को मत उठाओं इन घोंघो से, इन पत्थरों से जीवन का मूल्य नहीं बन सकता।
इन छोटी- मोटी साधनाओं से तुम्हारे जीवन में पूर्णता नहीं आ सकती तुम दो- चार साधनाये कर लोगे तो ठीक वैसा ही होगा, जैसे तुम ने दो चार कंकर, दो- चार कंकर पत्थरों से जीवन का सत्य, जीवन की पूर्णता का आभास नहीं हो सकता। यदि तुम्हें वास्तविक पूर्णतव के दर्शन करने है, यदि तुम्हें ब्रह्मय बनना है, तो तुम्हें किनारे का मोह छोड़ना पड़ेगा, फिर तुम्हें बीच मानसरोवर में छलांग लगानी पड़ेगी , बिना किसी के साथ उस खतरे को उठाते हुये अपने आप को चैलेंज देते हुये, अपने आप को फना करते हुये।
और जो बीच धार में छलांग लगा लेता है, उसके हाथ मोतियों से भरे होते है। बाहर निकलते समय उसके सारे शरीर पर, हाथों में मोती ही मोती होते है, उसकी आंखों में चमक होती है, उसके ललाट में एक प्रशस्तता होती है, उसका भाल हिमालय से भी ऊंचा होता है, उसका सारा शरीर दैदीप्यमान हो उठता है……और यह जीवन का सत्य है, डूब जाना अपने- आप में जीवन की पूर्णता है, क्योंकि वह सही अर्थो में पहली बार अपने समान के बंधन को तोड़ कर पंख फड़फड़ाने लगता है, पंख फड़फड़ाना सीखता है।
तुम पिंजरे में बंधे हुये राजहंस पक्षी हो, मगर तुम्हें अपने कुल और गौत्र का ज्ञान ही नहीं रहा, तुम्हें भान ही नहीं रहा कि पिंजरे के बाहर भी मेरा जीवन है। तुम हर समय भयभीत रहे कि कोई भी झपट्टा मार सकता है, कोई भी तुम्हारे पंख नोच सकता है। हर समय तुम भय से आकांत रहे कि कभी भी, कोई भी हमला कर देगा, और तुम्हारे जीवन को समाप्त कर देगा…………. यह जीवन तो पिंजरे में पड़े- पड़े भी समाप्त हो जायेगा…… मृत्यु तो पिंजरे के अन्दर भी तुम पर झपट्टा मार देगी………………उस समय तुम्हारे पास कोई चेतना नहीं होगी….. कोई सहायक नहीं होगा….. मृत्यु को धकेलने की तुम्हारे पास कोई क्रिया नहीं होगी।
गुरू तुम्हें पहली बार पिंजरे से बाहर निकालता है, समाज के बन्धनों से बाहर निकालता है, एक चेतना है, एक विस्तार देता है, तुम्हारे पंखों में ताकत देता है। जब तुम शिष्य बनते हो, जब तुम्हारी आंखों में गुरू भाव होता है, तो गुरू तुम्हें सही अर्थो में राजहंसो की पंक्ति में खड़ा करता है। तुम्हें अहसास करवाता है कि तुम बगुले नहीं हो, तुम्हें अहसास करवाता है कि तुम मामूली पक्षी नहीं हो, राजहंस बनाकर आकाश में उड़ने की क्रिया सिखाता है ……….और तुम निभर्य आकाश में अपनी पूर्ण क्षमता और गति के साथ उड़ते ही चले जाते हो, अनन्त की ओर ब्रह्म तत्व की ओर, पूर्णत्व की ओर…. और तुम सही अर्थो में उस आनन्द की प्राप्त कर लेते हो, जिसे ब्रह्मानन्द कहा है। यही तो जीवन है, और इसके लिये अपने- आप को खो देने की क्रिया होनी चाहिये। मैं खो गया हूं। तुम्हें भी खो जाना है। क्योंकि गुरू भी पहले खोया है।
गुरू भी पहले अपने आप में बीज रूप में था, एक छोटा सा बीज, एक चुटकी में आने लायक बीज, यदि उस बीज रूपी गुरू ने अपने आप- आप को मिट्टी में मिलाया, तो कुछ समय बाद वही बीज अत्यन्त विशाल बरगद का पेड़ बना, विशाल वृक्ष बना, छायादार वृक्ष, जिसके नीचे हजारों- लाखों लोगों ने विश्राम किया, आनन्द लिया, क्योंकि उन्होंने खो देने की प्रक्रिया का ज्ञान प्राप्त किया, चैलेंज लिया कि मुझे खो देना है अपने आप को, अपने आपको समाप्त कर देना है।
जो अपने- आप में समाप्त होने की क्रिया जानता है, वह अपने-आप में पूर्णता प्राप्त करने की क्रिया भी जानता है। जो डूब सकता है, वह निकल सकता है। भयभीत, कायर, बुजदिल और नामर्द अपने जीवन में कुछ भी नहीं सकते। जो जीवन में चैलेंज लेते है, वे मृत्यु के गाल पर थप्पड़ ली लगा सकते है। जो जीवन में शिष्य बनने का भाव पैदा करते है, वे काल के भाल पर अपना नाम अंकित कर लेते है। आने वाली पीढि़या उनका नाम गौरव और मर्यादा के साथ लेती है, उनके जीवन में एक चेतना होती है, उनके जीवन में एक पूर्णता होती है। जो आज मिटते है, आज खो जाते है, जैसे बीज खो गया और गुरू के रूप में विशाल वटवृक्ष बना। यदि शिष्य भी अपने बीज को समाप्त कर लेता है, मिटा देता है खो जाता है, चेतना युक्त बना जाता है, तो कल वह भी हजार- हजार बीजों के रूप में, हजार- हजार पौधों और पेड़ो के रूप में, विशाल वटवृक्षों के रूप में अवतरित होता है ………. और लाखों – करोड़ो लोगों को संताप से मुक्त कर सकता है, सांत्वना दे सकता है। यह खो लेने का भाव, यह अपने- आप में चेतना शून्य बना लेने का भाव शिष्यता है।
दीक्षा लेने की क्रिया को भी शिष्यता नहीं कहा जाता है।
हाथ जोड़ लेने की क्रिया को भी शिष्यतता नहीं कहा जाता।
केवल होठों से गुरू मंत्र उच्चारण करने को भी शिष्यता नहीं कहा जाता।
शिष्यता तो इससे बहुत ऊंची वस्तु है, तथ्य है। शिष्य वही बन सकता है जो खो सकता है, अपने आप को मिटा सकता है,
जो बीच समुद्र में कूदने की क्रिया को कर सकता है, जो सुगन्धित पवन बनकर पुरे विश्व में फैल सकता है, जो सेवा का साकार पूंज होता है, जो श्रद्धा का आधार होता है, जो समर्पण का मूर्तिमान स्वरूप होता है।
शिष्य के माध्यम से ही समझा जा सकता है कि समपर्ण क्या है ? उसके द्वारा ही जाना जा सकता है कि सेवा क्या कही जा सकती है ? किसे कहते है ? यह देवी- देवताओं की सेवा, पूजा और घंटे-घडि़याल बजाना अपने- आप में ढ़ोग है, पाखण्ड है, यह तो अपने आप में भुलाने की एक क्रिया है।
गुरू और शिष्य का संबंध और किस प्रकार शिष्य गुरूत्व में लीन हो कर आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है, इसके साथ ही अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को आत्मश्चेतना जाग्रत करने में व्यतीत कर पूर्णता प्राप्त कर सकता है, इन्हीं सब विषयों के संबंध में सद्गुरू की ओजस्वी वाणी यह महान प्रवचन –
गुरूर्चिन्यं रूपं अहेतुं प्रमेयं ध्यानं विचिन्त्यं परमेव पाद् यं
गरााह्मा सतां पूर्णाम दैव तुल्यं निर्वेद रूपम परं गुरूवै सहेतुम्
यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कथन है ऋषि का, एक महत्वपूर्ण चिन्तन है आर्ष का, महर्षि का, क्योंकि जीवन तब तक निस्सार है, व्यर्थ है जब तक जीवन का कोई प्रयोजन न हो।
यदि जीवन का कोई लक्ष्य ही नहीं है, जीवन का कोई प्रयोजन ही नहीं है, जीवन का कोई चिन्तन ही नहीं है, फिर जीवन क्या है ? किसे हम जीवन कहे।
क्या सांस लेने की क्रिया को हम जीवन कह सकते है ?
क्या जिन्दा रहने की कल्पना को जीवन कह सकते है?
क्या सन्तान उत्पन्न करने की भावना को जीवन कह सकते है ?
यह सब तो जीवन नही है, इन तत्वों के माध्यम से तो जीवन का निर्माण नहीं हो सकता और जब जीवन का मूल्य ओर महत्व ही ज्ञात नहीं है, जब जीवन का अर्थ और जीवन का मकसद ही हमें पता नहीं है, तो फिर हम वैसे ही पशु है जो डोलते रहते है, एक अज्ञात नकेल डाले हुये, उनको स्वयं को ज्ञान नहीं, कि वे किस तरफ जा रहे है, उनको खुद को पता नहीं कि वे कौन से रास्ते पर खडे है ? उनको खुद को यह ज्ञान नहीं कि उनकी मंजिल कहा समाप्त होगी? जिस रास्ते का प्रारम्भ पता नहीं है, जिस रास्ते का अंत पता नहीं है, उस रास्ते पर चलना तो अंधे की तरह से चलना होता है, जिसका सूत्र हमारे हाथ में नहीं है, जिसका चिन्तन और ज्ञान हमारे हाथ में नहीं है, तो हम किन शब्दों में उसे जीवन कह सकते है ?
हम तो केवल अपनी लाश को कन्धों पर उठाये हुये श्मशान की ओर बढ़ते चले जाते है, एक क्षण रूक कर सोचने की जरूरत है……………. कि क्या हमारा जीवन पशु जीवन से उपर उठा है ? क्या हमने अपने जीवन के मकसद को समझा है ? ………… क्या हम जानते है कि हमे जीवन में कहां तक पहुंचना है? …………….. क्या हमने कभी निर्णय लिया है कि जीवन के किस भाग पर हम खड़े है? हमने कभी सोचा ही नहीं, हमने तो भोग-विलास को ही जीवन मान लिया, हमने तो सांस लेने की क्रिया को ही जीवन मान लिया, हमने तो जिन्दा रहने की कल्पना को ही जीवन मान लिया….. यह कितनी छोटी सी बात है। कपड़े पहिनना, कपड़े छोड़ देना, सांस लेना, सांस छोड़ देना, भोजन करना, पानी पीना, अपने जीवन के अन्य क्रियाकलाप करना ये तो जीवन के प्रकार है…….जीवन तो नहीं है। जीवन तो किसी और ताने- बाने से बुना होता है।
जीवन तो वह होता है, जिसका सूत्र हमारे हाथ में होता है। जीवन तो वह होता है, जिसका मर्म हमें ज्ञात होता है। हम जिन्दा तो है……… सामाजिक और वैज्ञानिक परिभाषा में हम जीवित है, मगर शास्त्रीय पद्धति में हम मृत है, क्योंकि विज्ञान तो यह कहता कि जिसमें चेतना नहीं है, जिसमें इस बात का होश नहीं है कि मैं क्या हूँ? कहा जा रहा हूँ? कहा पहुंचना है? वह मृत है।
हम एक क्षण अगर रूक कर के सोचें तो हमें ज्ञात ही नहीं कि हमें कहां पहुंचना है? हमने तो चांदी के चंद टुकड़ो को इकट्ठा करने की क्रिया को ही जीवन मान लिया दो-चार मकान बना लेने की जीवन पद्धति को ही जीवन मान लिया। यह तो जीवन का एक प्रकार है, भौतिक दृष्टि में, चाहे निर्धनता में जीये, चाहे अमीर में जीये वैभव में जीये। जब तक जीवन के इस मूल चिन्तन को नहीं समझेंगे तब तक सही अर्थो में जीवित भी नहीं हो पायेंगे, तो फिर जीवन की परिभाषा को समझायेगा कौन?
कौन बतायेगा कि हमारे जीवन का मकसद क्या है?
कौन बतायेगा कि यह जीवन व्यर्थ है ?
कौन समझायेगा कि यह जीवन प्रामाणिक है ?
कौन समझायेगा कि जीवन को किस तरीके से जीना चाहिये?
क्या आपाधापी में भागते रहने को जीवन कहते है?
क्या हड़बड़ाट में चलते रहने को जीवन कहते है?
क्या हर समय व्यस्त रहने और तनाव में से गुजरने की क्रिया को ही जीवन कहते है?
क्या वृद्धता और जर्जरता, बीमारी, अशिक्षा, अभाव, कष्ट और पीड़ा को जीवन कहते है?
क्या कफन औढ़ कर श्मशान में सो जाने को जीवन कहते है?
शास्त्रों में तो इसको जीवन नहीं कहा जाता है। शास्त्रों में इस क्रिया को मृत्यु कहा जाता है, और हम सही अर्थो में जीवत मुर्दे है, जो चलते है, मगर होश नहीं है, जो खाते -पीते तो है, मगर उसका कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि हमने कभी इन रहस्यों को, उस चिन्तन को सोचा-समझा ही नहीं ….. और नहीं सोचा-समझा तो उसका आनन्द भी नहीं लिया जा सकता। जीवन का आनन्द तो वह लेते है, जो जीवन को समझते है। जो कभी मानसरोवर के किनारे गया ही नहीं, वह मानसरोवर के आनन्द को समझ ही नहीं सकता। जो छोटी-छोटी तलैयाओं के किनारे बैठा रहा हो, वह क्या जाने कि मानसरोवर में क्या आनन्द है, कितनी विस्तृत झील है, कितना अतल जल है, कितना स्वच्छ निर्मल पानी है, वह उसके वैभव को, वह उसकी सम्पदा को, वह उस झील की विशालता को नहीं समझ सकता, वह उस तलैया को ही जीवन मान बैठा है।
मेंढ़क जब कुएं के एक किनारे से चलना शुरू कर के और पूरा चक्कर लगा कर फिर उसी स्थान पर आ जाये ओर कहे- यही पूरा विश्व है, तो उसके हिसाब से तो यही विश्व है, क्योंकि उसने पूरा चक्कर काटा है……… मगर यदि कभी मेंढ़क को तालाब में डाल दिया जाये तो उतने अथाह जल को देखकर वह आश्चर्य में पड़ जायेगा -अरे मैंने तो कुछ नहीं देखा था, दुनिया तो कुछ और है, संसार तो कुछ और है …… और यदि वह भूल से भी उस तालाब का पूरा चक्कर ला दे और यह मन में प्रसन्नता व्यक्त कर ले, कि अब मैनें पूरा विश्व देख लिया है, पूरा जीवन देख लिया है, अब इससे बड़ा तालाब , इससे बड़े जल की राशि, इससे बड़ा जलाशय क्या हो सकता है? यह तो बहुत लम्बा चौड़ा तालाब है, और यदि वह समुद्र में गिर जाये और समुद्र के अथाह जल को देखे तो उसे और अधिक आश्चर्यचकित हो जाना पड़ेगा, कि वह तो एक छोटा सा हिस्सा था, वह जीवन था ही नहीं।
तुम्हारी भी स्थिति उस कुएं के मेंढ़क की तरह है, तुमने भी एक सीमित दायरें में घूमने की क्रिया को ही जीवन मान लिया है। पत्नी है, एक दो पुत्र है, थोड़ा सा धन है, मकान है, समाज में सम्पदा है, सम्मान है और इसी को तुमने जीवन मान लिया है, क्योंकि इससे बाहर निकलने का तुमको ज्ञान ही नहीं रहा, कभी बाहर गये ही नहीं, कभी देखा ही नहीं कि इससे बड़ा भी एक समाज है, स्थान है …………. और जब तुम वहां जाओंगे, तो तुम देखोंगे कि तुम जो जीवन जी रहे थे , तुम जिस घेरे में आबद्ध थे, वह तो एक बहुत छोटा सा हिस्सा है, जिसमें कोई आनन्द नहीं है, वह तो एक विवशता है, एक मजबूरी है। समाज में जिन्दा रहना तुम्हारी मजबूरी है। परिवार का पालन-पोषण करना तुम्हारी मजबूरी है। समाज तुम्हारे साथ या परिवार तुम्हारे साथ नहीं चल सकता, परिवार का सहयोग तुम्हें जीवन में नहीं मिलेगा।
जब वाल्मिकी डाकू थे……. ऋषि तो बहुत बाद में बने……… उन्होंने रामायण की रचना तो बहुत बाद में की, पहले तो वह भयानक डाकू थे, जिनके नाम से पूरा आर्यावर्त घबराता था, थर- थर कांपता था, उस रास्ते से कोई राहगीर जा ही नहीं सकता था……. लूटना …………. खसोटना ………….. मारना ………………… छीन लेना ही उसका कार्य था एक बार नारद उसके हाथ में पड़ गये नारद तो वीणा बजाते हुये नारायण -नारायण करते चले जा रहे थे और डाकू वाल्मिकी ने उन्हें पकड़, सुबह से कोई शिकार मिला ही नहीं, बड़ी मुश्किल से यह आदमी नजर आया, उसने उनकी वीणा छीन ली। नारद ने कहा- अरे! तुम एक साधु को लूट रहो हो, तुम ये क्या कर रहे हो?
उसने कहा- कोई दूसरा मिला ही नहीं, और जब तक मैं लूट-खसोट नहीं कर लूं , तब तक मैं भोजन करता ही नहीं, कोई कार्य करता हूँ…….. तो भोजन करता हूँ, तुम पहले ही व्यक्ति मिले, दोपहर हो गई, यह वीणा बेच कर कुछ तो धन मिल ही जायेगा, और तुम्हारे कपड़े भी खोल लूं, ये कपड़े भी बाजार में बेच दूंगा।
नारद ने कहा- यह तो पाप है, यह तो अधर्म है ……………… किसी साधु को, किसी संन्यासी को, किसी सामाजिक व्यक्ति को इस प्रकार से पकड़ और उसका सामान छीन लेना क्या उचित है।
उसने कहा-उचित तो नही …………… मगर मैं यह करूंगा जरूर।
वाल्मिकी ने कहा- जरूर! यह पाप कर्म है, किसी की हत्या कर देना पाप है किसी को छल से लूट लेना पाप है …. मै जानता हूँ कि पाप है, मगर मैं अकेला ही तो पाप नहीं कर रहा हूं, अपने परिवार के लिये कर रहा हूं, परिवार मेरा साथ देगा ही।
नारद ने कहा- पहले तुम अपने परिवार वालों से पूछ लो।
वाल्मिकी ने एक रस्सी से नारद को पेड़ से बांध दिया और घर गये।
बुड्ढी मां को पूछा – तू मुझे बता, कि मैं जो छीना- झपटी, लूट-खसोट, हत्याये कर रहा हूं , यह पाप तो है ही।
मां ने कहा- बेटा जरूर पाप है।
वाल्मिकी ने कहा- मैं इससे तुम लोगों को रोटी खिला रहा हूं, अन्न दे रहा हूं, आवास दे रहा हूं, तो तुम भी पाप में भागीदार हो।
मां ने कहा- मैं तो पाप में भागीदार नहीं होती, यह तुम्हारा कर्तव्य है कि मां को रोटी खिलाओं, तू कैसे कमा कर लाता है यह तू जाने ……. पाप करेगा तो पाप का फल तू ही भुगतेगा, मैं तो भुगतंगी नहीं ………और मैंने पाप के लिये तुझे कहा भी नहीं, मैं इसमें भागीदार नहीं हो सकती।
वाल्मिकी पत्नी के पास गये, पत्नी को कहा – देख मैं डाकू हूं और सैकड़ो लोगो की हत्याये की है, लूटा है, खसोटा है, मारा है, औरतों के गहने छीने है और तुझे दिये है, तुझे पहनाये है, क्या छीनना, झपटना, लूटना, मारना पाप है?
पत्नी ने कहा- नि:संदेह पाप है।
वाल्मिकी ने पूछा – यह तुम्हारे लिये कर रहा हूं , क्योंकि ऐसा करने पर ही तो मैं तुम्हें अन्न दे सकता हूं भोजन दे सकता हूं, आवास दे सकता हूं, गहने दे सकता हूं और तुम्हारे लिये तो कर रहा हूं, तो तुम भी तो पाप में भागीदार हो।
पत्नी ने कहा- मैं तो पाप में भागीदार नहीं हूं, मैं तो हूं ही नहीं, एक पति का कर्तव्य है, धर्म है, कि वह पत्नी का भरण पोषण करे, तुम मेरा भरण – पोषण करो …… कैसे करते हो, यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, यह तुम्हारा धर्म है, पाप का फल तुम्हें भोगना पड़ेगा।
वाल्मिकी वापस आ गये, नारद को पेड़ से खोला और छोड़ दिया, उसी क्षण उन्होंने डाकू का कार्य छोड़ कर के, छीना झपटी का कार्य छोड़ साधु जीवन प्रारम्भ कर दिया ………. क्या तुम भी वाल्मिकी डाकू से कुछ कम हो?…….. क्या तुम छीना – झपटी नहीं कर रहे?….. छल नहीं कर रहे?…. झूठ , कपट और असत्य नहीं कर रहे?……..और यह सब तुम परिवार वालो के लिए कर रहे हो, और तुम्हें यह गलतफहमी है, कि ऐसा करने पर परिवार वाले तुम्हारा साथ देंगे, पाप में भागीदार होंगे। पाप में भागीदार तो वे नहीं होंगे, असत्य और अधर्म के वे भागीदार नहीं बनेंगे। तुम्हें अकेले ही यह पाप भोगना पड़ेगा, तुम खुद ही इसके जिम्मेदार हो –
फिर तुम कब इस चेतना को, इस जीवन को समझ सकोगे?
कब तुम्हें नारद मिलेंगे?
कब तुम्हें वे ऋषि मिलेंगे?
कब तुम्हें समझा सकेंगे कि यह जीवन नहीं है, जो तुम कर रहो हो?
तुम अपने लिये क्या कर रहे हो?
और जब तक तुम ऐसा करोगे तब तक जीवन में तुम्हें कुछ मिलेगा ही नहीं, तब तक जीवन का तुम अर्थ समझोगे ही नहीं, जरूरत तो तुम्हें यह है कि कोई ऋषि मिले,कोई नारद मिले, कोई गुरू मिले जो तुम्हें समझा सके, जो तुम्हें चेतना दे सके, जो तुम्हारे हृदय पर प्रहार कर सके, जो तुम्हें ज्ञान दे सके ……. यह सब बेकार है, जिस रास्ते पर तुम चल रहे हो उस रास्ते से तो श्मशान की यात्रा ही सम्भव हो सकेगी, यह तो कफन ओढ़ कर श्मशान में सोने की साधना है, प्रयोग है, जीवन है, इसमें कुछ पाना है ही नहीं, खोना ही खोना है, और तुम प्राप्त नहीं कर रहे हो ……… जो कुछ तुम प्राप्त कर रहे हो यह मकान, यह धन, ये चांदी के चंद टुकड़े, ये कागज के चंद नोट, यह पत्नी, यह पुत्र……. यह तो म़त्यु के साथ पीछे खड़े रहे जायेंगे , यह तुम्हारे साथ- साथ चलेगा ही नहीं, तुम्हारे साथ उनकी यात्रा नहीं है और जो तुम्हारे साथ नहीं है, वे तुम्हारे सहयोगी नहीं है।
साथ तो तुम्हारे जीवन चलेगा, तुम्हारी प्राणश्चेतना चलेगी, तुम्हारी भावनाये चलेगी। यदि तुम ऐसा चिन्तन करते हो, यदि तुम्हारे मन में ऐसा विचार है, तो तुम जीवन का पहला सबक सीख सकते हो, पहला अध्याय पढ़ सकते हो, मगर उसके लिये जरूरत है, दमखम के साथ कहने वाले गुरू की, जो तुम्हें समझा सके, कि तुम जो कुछ कर रहो हो वह तुम खुद कर रहे हो, उसके लिये कोई सहयोगी नहीं है। तुम्हारे पाप कार्य में कोई भागीदार नहीं है, तुम जो झूठ और छल कर रहे हो उसका फल भी तुम्हें ही भोगना पड़ेगा ………और जिन्होंने भी अपने जीवन में झूठ, छल, कपट और असत्य का आचरण किया, उनका बुढ़ापा अत्यन्त दु:खदायी अवस्था में व्यतीत हुआ……. रोगों से जर्जर, अभावों से पीडि़त, असत्य, परेशान, दु:खी, अतृप्त। जब बेटे उनको पूछते ही नही, जब बहुये उनका साथ देती ही नहीं और समाज उन्हें धिक्कारता है कि इसने जीवन भर छल- कपट किया है।
क्या तुम ऐसा जीवन चाहते हो?
क्या तुम ऐसा बुढ़ापा चाहते हो?
क्या तुम ऐसा चाहते हो कि मृत्यु तुम्हारा गला पकड़ ले और तुम छटपटाओं?
क्या तुम ऐसा चाहते हो कि मरते समय तुम्हारी आंखों में से आंसू ढुलके, और कोई हमदर्दी दिखाने वाला न हो?
क्या तुम ऐसा जीवन चाहते हो कि मृत्यु के बाद सब लोग धिक्कारे, और कोई तुम्हारे प्रति कृतज्ञता ज्ञापित नहीं करे?
किसी की आंख नही भीगे, किसी के मन में रूलाई नहीं फूटे, क्या तुम ऐसा जीवन चाहते हो?
ऐसा तुम्हारा जीवन किस काम आयेगा, क्या प्रयोजन है इस जीवन का? क्योंकि इस जीवन को लाश की तरह उठा कर के तो तुम इस जीवन में कुछ प्राप्त है नहीं कर सकते, और इसीलिये नहीं कर सकते कि यह सब जीवन है ही नहीं। जो जीवन है, वह तो पत्थरों के ढ़ेर को उठाकर चलने की क्रिया है जो झूठ के पत्थर है, कपट के पत्थर है, असत्य और व्यभिचार के पत्थर है और उन्हें प्राप्त होता है दु:ख, परेशानियां, अड़चने, बाधाये, रोग, जर्जरता, बुढ़ापा और मृत्यु …….. यही तुम्हारे सामने है। दो-चार कदम चलने पर ही इनका सामना करना पड़ेगा, फिर तुम चाहे कितनी कुछ भी करो, बेकार है…….. फिर कोई तुम्हारा साथ नहीं देगा, घर वाले भी नहीं, पत्नी भी नहीं, पुत्र भी नहीं, बन्धु-बान्धव भी नहीं, समाज भी नहीं।
क्योंकि तुमने अपने जीवन में ऐसा दर्शक ढूंढा ही नहीं जो तुम्हे ज्ञान दे सके, झकझोर सके, चेतना दे सके, दमखम के साथ तुम्हारे साथ खड़ा हो सके, तुम्हें कह सके कि यह सब गलत है, तुम्हें कह सके कि तुम गलत रास्ते पर हो, तुम्हें कह सके कि यह रास्ता श्मशान की ओर जाता है………. अमृत की ओर नहीं, सुख और सौभाग्य की ओर नहीं, आनन्द की ओर नहीं ।
– यदि आनन्द की यात्रा नहीं है, सौभाग्य की यात्रा नहीं है तो वह जीवन नहीं है। ऐसे तो तुम्हारे बाप-दादा, परदादा हजारों लोग जाकर श्मशान में मृत्यु को प्राप्त हो गये, और आज उनका नाम लने वाला भी कोई नहीं है। तुम भी उसी तरीके से मृत्यु को प्राप्त हो जाओगें ………..और तुम्हें कोई पूछने वाला नहीं होगा, कोई तुम्हारे लिये विचार करने वाला भी नहीं होगा, कोई अहसास करने वाला भी नहीं होगा, कि तुमने कितना प्रेम किया है।
-और इसीलिये जीवन में गुरू की जरूरत होती है…………. जीवन के मध्य में। उस गुरू को प्राप्त करने की क्रिया भी तुम्हें ही करनी पड़ेगी, गुरू स्वयं तुम्हारे पास आकर के खड़ा नहीं होगा, तुम्हें ढूंढना पड़ेगा । नदी को खुद गंगोत्री से चलकर समुद्र की ओर जाना होगा, समुद्र उठकर गंगोत्री के पास नहीं पहुँचेगा । तुम्हें खुद उठ कर उन पतों के पास, पुष्पों के पास पहुंचना पड़ेगा,जहां सुगंधित हवा है, जहां आनन्द की हिलोर है ……………. वे खिलखिताते, झूमते पुष्प तुम्हारे पास आकर के खड़े नहीं हो जायेंगे।
यात्रा तो तुम्हें स्वयं को करनी होगी, तुम्हें स्वयं को खोजना होगा। जिस प्रकार से तुम धन खोजते हो, पुत्र खोजते हो, उसी प्रकार से गुरू की खोज करना भी तुम्हारे लिये अनिवार्य है, आवश्यक है- ऐसा गुरू, जो सशक्त हो- जो समर्थ- हो जो योग्य हो- जो प्रहार करने वाला हो- जो हाथ पकड़ के समझाने वाला हो- जो तुम्हें चेतना देने वाला हो।
इस यात्रा में तुम्हारे अन्दर कई प्रकार की भ्रांतिया आयेगी, क्योंकि तुमने इन भ्रांतियों को ही पाल रखा हैा तुमने अपने अंदर शक, संदेह, कपट और व्याभिचार पाल रखा है, और वे सब तुम्हारे सामने तन के खड़े हो जायेंगे, तुम्हारे मार्ग को पथ भ्रष्ट करेंगे तुम्हें कुमार्ग पर गतिशील करेंगे, वे कहेंगे- गुरू की खोज व्यर्थ है, तुम्हें यह कहेंगे- यह समय बर्बाद करना है। तुमने अपने जीवन में छल को प्रश्रय दिया है। तुमने अपने जीवन में कपट का साथ दिया है, तो वे इस समय तुम्हारें सामने खड़े रहेंगे, क्योंकि इससे उनका स्वार्थ समाप्त होता है।
कायर और बुजदिल हताश हो जाते है, निराश हो जाते है, खोज बंद कर देते है, मगर जो हिम्मती है, दृढ़ निश्चयी है, जो एक क्षण में जल उठने वाले है, जो निश्चय कर लेते है कि मुझे कुछ करना है, खोज करनी है, मुझे घिसा- पिटा जीवन नहीं जीना है, मुझे अपने जीवन में वह सब कुछ प्राप्त कर लेना है, जो जीवन का आनन्द है, जो जीवन का ऐश्वर्य है, जो मृत्यु से अमृत्यु की ओर जाने वाला है, जो आनन्द प्रदान करने वाला है, ऐश्वर्य प्रदान करने वाला है, जो सही अर्थो में पूंजी देने वाला है, धनवान बनाने वाला है, और उसकी खोज में जो पहला कदम बढ़ा देता है, वह साधक है, वह शिष्य है।
जो निश्चय करके यह प्रयत्न करता है कि मुझे गुरू को प्राप्त करना ही है, वह सन्यासी है, वह योगी है। दूसरा, जो इस रास्ते पर गतिशील होने की क्रिया करता है, वह योगी है। दूसरा, जो इस रास्ते पर गतिशील होने की क्रिया करता है, वह सही अर्थो में तपस्वी है। जंगलों में खाक छानने वाले को तपस्वी नहीं कहते, चारों तरफ आग लगा कर बीच में बैठने वाले को योगी नहीं कहते, जो जीवन के मर्म को समझने की कोशिश करते है, वे योगी और सन्यासी है, जो गुरू की खोज में आगे बढ़ते है, वे साधु है, जो गुरू को प्राप्त करके ही रहते है वे शिष्य है …………..और जो प्राप्त कर लेता है उसे जीवन में एक रास्ता मिल जाता है, उसे जीवन में एक चेतना मिल जाती है, वह निश्चय ही उस जीवन- पथ पर तेजी के साथ अग्रसर हो जाता है।
शिष्य किसी हाड़ मांस के पिण्ड को नहीं कहते।
-शिष्य तो भाव है।
-शिष्य तो चेतना है।
-शिष्य तो समर्पण का एक प्रकार है।
– जिसमें समर्पण नहीं, वह शिष्य हो ही नहीं सकता।
किसी आँख, नाक, कान, हाथ, पैर वाले को शिष्य नहीं कहते। चलने फिरने वाले व्यक्ति को शिष्य नहीं कहते, शिष्य तो उसे कहते है, जिसमें श्रद्धा और समर्पण है, जो इन दोनों से निर्मित होता है वह शिष्य कहलाता है………………..और अगर वह शिष्य बनता है, तो उसे रास्ते का ज्ञान होता है, भान होता है वह जीवन के रास्ते पर गतिशील हो सकता है।
मात्र दीक्षा लेने वाले को शिष्य नहीं कहते, सिर मुंड़ाने वाले को भी शिष्य नहीं कहते, हरिद्वार में स्नान करने वाले को भी शिष्य नहीं कहते, और गुरू के पैर दबाने वाले को भी शिष्य नहीं कहते, यह तो सब उसके प्रकार है।
शिष्य का तात्पर्य है कि- नजदीक होना। गुरू के बहुत अधिक नजदीक हो जाना और इतना अधिक नजदीक हो जाना कि गुरू और शिष्य में कोई अंतर ही नहीं रहे अगर अन्तर रह गया तो वह शिष्य बना ही नहीं, फिर वह अपने – आप को शिष्य नहीं कह सकता। गुरू और शिष्य में इतना भी गैप नहीं रहना चाहिये, इतना भी अन्तर नहीं रहना चाहिये कि बीच में से हवा भी निकल सके………. उसके जीवन का सारा चिन्तन, सारा क्रियाकलाप गुरूमय ही हो जाता है…………… गुरू ही उसका ओढ़ना ………. गुरू ही उसका बिछौना ……………………… गुरू ही उसका भोजन …………….और गुरू ही उसका खाना ………………. गुरू की ही वाणी बोलना …………………. और गुरू के शब्दों का श्रवण करना ………… और गुरू की सेवा करना ………….. गुरूमय हो जाना ……………. और उसकी आंखों में गुरू का भाव तैरने लगता है।
इस जीवन मार्ग पर केवल शिष्य चल सकता है, साधक तो बहुत छोटी सी चीज है, शिष्य के सामने साधक की कोई औकात नहीं होती योगी, तपस्वी उसके सामने कहीं ठहर नहीं पातें, उसके सामने यक्ष , गन्धर्व, किन्नर और देवता अपने आप में कोई मूल्य नहीं रखते, क्योंकि शिष्य एक चेतना पूंज होता है, एक दीपक होता है, वह अपने आप में श्रद्धा का एक पूर्ण स्वरूप होता है। समर्पण की साकार प्रतिमा होता है जो गुरू के जागने से पहले जागता है, गुरू के सोने के बाद सोता है।
जो केवल इस बात का ही चिन्तन करता है कि गुरू की कैसे सेवा की जाये? हम गुरू के किस प्रकार से हाथ पैर बने, नाक बने, आंख बने, सिर बने, विचार बने, भावना बने, धारण बने, किस प्रकार से बने? किस युक्ति से बने ? जो केवल इतना और केवल इतना ही चिन्तन करता है, वही सही अर्थो में शिष्य कहलाता है ……………… और सच्चा शिष्य सही अर्थो में बना हुआ सच्चा शिष्य ही अपने आप उस रास्ते पर खड़ा हो जाता है, जो पूर्णता का रास्ता है। इसीलिये शिष्य की समान्ता तो देवता, यक्ष , गन्धर्व कर ही नहीं सकतें, तपस्वी और साधु तो बहुत छोटी सी बात है।
शिष्य में कोई अलग तथ्य होता ही नहीं, वह गुरू का ही एक भाग होता है । गुरू की आंख को गुरू से अलग करके नहीं देखा जा सकता गुरू के हाथ को गुरू से अलग करके देखा नहीं जा सकता, ठीक उसी प्रकार से शिष्य को गुरू से अलग करके नहीं देखा जा सकता जो केवल सम्पूर्ण दृष्टि से गुरूमय हो जाता है वह शिष्य बन जाता है, ओर वही शिष्य बहुत बड़ा कार्य करता है, संसार का अद्वितीय कार्य। ऐसा ही शिष्य अपनी सेवा द्वारा गुरू को एक अवसर प्रदान करता है कि वह अपने ज्ञान को संसार के सामने रख सके।
यदि गुरू छोटे- छोटें कार्यो में ही व्यस्त हो जायेंगे तो ज्ञान किस समय देंगे ? चेतना किस समय देंगे ? जीवन के मूल्यवान कार्य किस समय करेंगे ? इन छोटी – छोटी चीजों को शिष्य अपने उपर लेकर गुरू को अवसर प्रदान करता है, कि वह ज्ञान की नदी प्रवाहित करे, उनके कार्यो और तनावों को वह अपने ऊपर लेकर के, उनको यह अवसर प्रदान करता है कि वह ज्ञान का मानसरोवर विश्व के सामने जाग्रत करे, चैतन्य करे जिसमें हजारों- लाखों लोग स्नान कर पवित्र हो सकें, जिसमें शिष्य अवगाहन कर सकें यह गुरू की सबसे बड़ी सेवा है, यही शिष्य का सबसे बड़ा कर्तव्य है।
धन देकर गुरू की सेवा नहीं की जा सकती, मिठाई खिलाकर भी गुरू की सेवा नहीं की जा सकती। वह तो गुरू को एक अवसर प्रदान करता है, उनकी व्यस्तता को वह अपने ऊपर झेल लेता है ……. और गुरू को मुक्त कर देता है, जिससे कि अन्य अत्यन्त महत्पूर्ण कार्य सम्पन्न किया जा सके। एक नए ग्रन्थ की रचना की जा सके। एक उपासना का मार्ग खोजा जा सके।
प्राचीन ऋषियों के उन मूर्त वाक्यों को नये सिरे से जाग्रत और चैतन्य किया जा सके। एक नए सिरे से समुद्र का अवगाहन किया जा सके और एक नई गंगा बनाई जा सके………… एक नया गंगोत्री का स्थान बनाया जा सके………….और यदि ऐसा होता है तो शिष्य सामान्य नहीं रहता, फिर उसका कद अपने – आप में बहुत ऊँचाई पर उठ जाता है ……….. फिर विश्व उसे श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से दिखाने लग जाता है।
आप यदि शिष्य बनें तो जनक ओर राम , कृष्ण और महावीर जैसे, बुद्ध और चेतना पुरूष जैसे योग्तम शिष्य बने, जिन्होंने शिष्यता के उन मापदण्डों को छुआ, जो अपने आप में भारतीय संस्कृति के लिये एक चेतना पुंज है। यदि शिष्य इस श्रद्धा और सम्मान को लेकर के, इस समर्पण को लेकर के आगे बढ़ता है, तो फिर उसे ध्यान करने की जरूरत होती ही नहीं, क्योंकि वह तो हर क्षण खोया रहता है, तो अपने गुरू चरणों में। उसे गुरू के चरण दिखाई नहीं देते, वहां हरिद्वार दिखाई देता है। वह उन चरणों को स्पर्श करता है तो उसे ऐसा लगता है, कि जैसे उसने काशी का चरण स्पर्श किया। जब गुरू- चरणामृत का पान किया तो ऐसा लगता है, कि जैसे उसने गंगा, यमुना सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु, कावेरी में अवगाहन कर लिया। वह उन चरणों में काबा देखता है, काशी देखता है, वह उन चरणों में मक्का देखता है। वह इन चरणों में अपने सम्पूर्ण देवताओं के दर्शन करता है, फिर उसे अन्य साधनाये तो अपने- आप में गौण हो जाती है।
गुरू का शरीर अपने आप- में ही एक जीवत- जाग्रत मंदिर है, चलता- फिरता मंदिर, ज्ञान का साकार पुंज …… जब उस साकार पुंज को अपने में समेटे हुये शिष्य आगे बढ़ता है तब शिष्य की आंख बदल जाती है। वह उन सामान्य गृहस्थ लोगो की तरह से गुरू को देखता ही नहीं, उसे गुरू के रूप में ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, इन्द्र, वरूण, यम, कुबेर, दिग्पाल अपने सामने साकार दिखाई देते है। जब वह भक्ति भाव से गुरू को प्रणाम करता है तो उसे लगता है कि सामने चारों वेद खड़े है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद। गुरू का प्रत्येक शब्द अपने आप’ में मंत्रमय हो जाता है, वेद वाक्य बन जाता है, ब्रह्म की दृष्टि होती है, जिसे पाकर वह अपने- आप को धन्य और गौरवशाली अनुभव करने लगता है। ध्यान- प्रक्रिया, तो अपने आप में खो जाने की प्रक्रिया है, अपने- आप को अतल गहराइयों में डूबा देने की प्रक्रिया है। ध्यान का तात्पर्य तो इतना ही है कि उसे अपने शरीर का ध्यान नहीं, ध्यान की प्रक्रिया का तात्पर्य यह है कि मानसरोवर में बहुत गहराई में डुबकी लगाई हो। ध्यान की प्रक्रिया का तात्पर्य तो यह है कि बाहर संसार, बाहरी क्रिया – कलापों का कोई अस्तित्व कोई भान उसे जीवन पर नहीं है …… ओर जब वह शिष्य बनता है, तब वह उच्चकोटि के ध्यान में संलग्न हो जाता है जो गतिशील ध्यान है, जड़ ध्यान है। जड़ ध्यान तो आंखों बंद करके पालथी मार कर अपने अन्दर उतरने की क्रिया है। वह तो बहुत सामान्य है, और आंख खोलकर ध्यान करने की प्रकिया तो अपने आप में ब्रह्म की प्रक्रिया है। यह ब्रह्म साधना है, गतिशील होते हुये ध्यान करते रहने की पूर्णतया की साधना माना गया है।
‘पूर्णमद: पूर्णमिद पूर्णात् दमुच्येते’ गतिशील है और पूर्ण बनता जा रहा है…………………….. गतिशील है और पूर्ण बनता जा रहा है……………. गतिशील है और पूर्ण बनता जा रहा है……………………….. गतिशील है और ध्यान करता जा रहा है, क्योंकि गतिशील होते हुये भी उसकी आंख में गुरू का ही बिम्ब रहता है…………. हर क्षण …. हर पल… प्रतिपल।
उसके जीवन का कण-कण, रोम- रोम गुरूमय होता जा रहा है, लीन होता जा रहा है, उसका खुद का कोई अस्तित्व होता ही नहीं, उसको अपने शरीर का कुछ भान ही नहीं होता, उसे सुख-दु:ख व्याप्त होता ही नहीं, उसे थकावट लगती ही नहीं। वह अहसास ही नहीं करता कि मुझे विश्राम की जरूरत है, उसे तो एक ही चिन्तन रहता है कि मैं गुरू के चरणों में किस प्रकार से रहुं ? किस प्रकार से ज्यादा से ज्यादा उनके कार्यो में सहयोग बनूं ? किस प्रकार से उनके ध्यान में डूबा रहूं ? रात्रि को वह अगर सोता भी है तो उसके मुंह से ही नहीं, उसके रोम-रोम से गुरू शब्द उच्चारित होता रहता है, गुरू मंत्र उच्चारित होता रहता है। उसका प्रारंभ, उसका सूर्योदय गुरू मंत्र से ही होता है, और उसकी निद्रा अवस्था, उसका सूर्यादय गुरू मंत्र से ही होता है, और उसकी निद्रा अवस्था गुरू से ही सम्पन्न होती है। यह गतिशील ध्यान है, यह अपने आप में ‘समाधिद’ की क्रिया है।
जमीन में गड़ने को समाधि नहीं कहते, वहां तो मुर्दे समाधिगत होते है, गड़ जाते है। जिसे अपने – आप का भान रहता ही नहीं, जो सम्पूर्ण चेतना के साथ गुरू के ज्ञान को, गुरू के कार्य को, गुरू की भावनाओं को, गुरू के आदर को, उनके सम्मान को, उनके शरीर को, उनके सौष्ठव को, अपने आप में पूर्णता देने का प्रयास करता है……… वह समाधि है। जब उसमें कोई दूसरा बिम्ब होता ही नहीं, जब कोई दूसरी चेतना ही नहीं होती, जब कोई दूसरा कार्य होता ही नहीं तब वह समाधि है और यह गतिशील समाधि है, और इसको ‘पूर्णत्व समाधि’ कहा गया है। जीवन के सम्पूर्ण आयामों में पूर्णता प्राप्त करने हेतु, ब्रह्म्य होने में दो ही तो मुख्य प्रकार है, दो ही तो आधारभूत सत्य है- ‘ध्यान’ और ‘समाधि’ ।
जहां अपना भान नहीं रहता है वह ‘ध्यान’ है………….. और शिष्य को अपना भान होता ही नहीं, उसका खुद का कोई विचार ही नहीं होता उसकी खुद की कोई क्रिया ही नहीं होती, वह तो खो जाता है, वह अपने- आप में डूब जाता है, निमग्न हो जाता है। गुरू उसे मानसरोवर में छलांग लगाने को कहते है। वह कहते है कि- इस किनारे पर खड़े मत रहो, किनारे पर पड़े घोंघे और पत्थरों को मत उठाओं इन घोंघो से, इन पत्थरों से जीवन का मूल्य नहीं बन सकता।
इन छोटी- मोटी साधनाओं से तुम्हारे जीवन में पूर्णता नहीं आ सकती तुम दो- चार साधनाये कर लोगे तो ठीक वैसा ही होगा, जैसे तुम ने दो चार कंकर, दो- चार कंकर पत्थरों से जीवन का सत्य, जीवन की पूर्णता का आभास नहीं हो सकता। यदि तुम्हें वास्तविक पूर्णतव के दर्शन करने है, यदि तुम्हें ब्रह्मय बनना है, तो तुम्हें किनारे का मोह छोड़ना पड़ेगा, फिर तुम्हें बीच मानसरोवर में छलांग लगानी पड़ेगी , बिना किसी के साथ उस खतरे को उठाते हुये अपने आप को चैलेंज देते हुये, अपने आप को फना करते हुये।
और जो बीच धार में छलांग लगा लेता है, उसके हाथ मोतियों से भरे होते है। बाहर निकलते समय उसके सारे शरीर पर, हाथों में मोती ही मोती होते है, उसकी आंखों में चमक होती है, उसके ललाट में एक प्रशस्तता होती है, उसका भाल हिमालय से भी ऊंचा होता है, उसका सारा शरीर दैदीप्यमान हो उठता है……और यह जीवन का सत्य है, डूब जाना अपने- आप में जीवन की पूर्णता है, क्योंकि वह सही अर्थो में पहली बार अपने समान के बंधन को तोड़ कर पंख फड़फड़ाने लगता है, पंख फड़फड़ाना सीखता है।
तुम पिंजरे में बंधे हुये राजहंस पक्षी हो, मगर तुम्हें अपने कुल और गौत्र का ज्ञान ही नहीं रहा, तुम्हें भान ही नहीं रहा कि पिंजरे के बाहर भी मेरा जीवन है। तुम हर समय भयभीत रहे कि कोई भी झपट्टा मार सकता है, कोई भी तुम्हारे पंख नोच सकता है। हर समय तुम भय से आकांत रहे कि कभी भी, कोई भी हमला कर देगा, और तुम्हारे जीवन को समाप्त कर देगा…………. यह जीवन तो पिंजरे में पड़े- पड़े भी समाप्त हो जायेगा…… मृत्यु तो पिंजरे के अन्दर भी तुम पर झपट्टा मार देगी………………उस समय तुम्हारे पास कोई चेतना नहीं होगी….. कोई सहायक नहीं होगा….. मृत्यु को धकेलने की तुम्हारे पास कोई क्रिया नहीं होगी।
गुरू तुम्हें पहली बार पिंजरे से बाहर निकालता है, समाज के बन्धनों से बाहर निकालता है, एक चेतना है, एक विस्तार देता है, तुम्हारे पंखों में ताकत देता है। जब तुम शिष्य बनते हो, जब तुम्हारी आंखों में गुरू भाव होता है, तो गुरू तुम्हें सही अर्थो में राजहंसो की पंक्ति में खड़ा करता है। तुम्हें अहसास करवाता है कि तुम बगुले नहीं हो, तुम्हें अहसास करवाता है कि तुम मामूली पक्षी नहीं हो, राजहंस बनाकर आकाश में उड़ने की क्रिया सिखाता है ……….और तुम निभर्य आकाश में अपनी पूर्ण क्षमता और गति के साथ उड़ते ही चले जाते हो, अनन्त की ओर ब्रह्म तत्व की ओर, पूर्णत्व की ओर…. और तुम सही अर्थो में उस आनन्द की प्राप्त कर लेते हो, जिसे ब्रह्मानन्द कहा है। यही तो जीवन है, और इसके लिये अपने- आप को खो देने की क्रिया होनी चाहिये। मैं खो गया हूं। तुम्हें भी खो जाना है। क्योंकि गुरू भी पहले खोया है।
गुरू भी पहले अपने आप में बीज रूप में था, एक छोटा सा बीज, एक चुटकी में आने लायक बीज, यदि उस बीज रूपी गुरू ने अपने आप- आप को मिट्टी में मिलाया, तो कुछ समय बाद वही बीज अत्यन्त विशाल बरगद का पेड़ बना, विशाल वृक्ष बना, छायादार वृक्ष, जिसके नीचे हजारों- लाखों लोगों ने विश्राम किया, आनन्द लिया, क्योंकि उन्होंने खो देने की प्रक्रिया का ज्ञान प्राप्त किया, चैलेंज लिया कि मुझे खो देना है अपने आप को, अपने आपको समाप्त कर देना है।
जो अपने- आप में समाप्त होने की क्रिया जानता है, वह अपने-आप में पूर्णता प्राप्त करने की क्रिया भी जानता है। जो डूब सकता है, वह निकल सकता है। भयभीत, कायर, बुजदिल और नामर्द अपने जीवन में कुछ भी नहीं सकते। जो जीवन में चैलेंज लेते है, वे मृत्यु के गाल पर थप्पड़ ली लगा सकते है। जो जीवन में शिष्य बनने का भाव पैदा करते है, वे काल के भाल पर अपना नाम अंकित कर लेते है। आने वाली पीढि़या उनका नाम गौरव और मर्यादा के साथ लेती है, उनके जीवन में एक चेतना होती है, उनके जीवन में एक पूर्णता होती है। जो आज मिटते है, आज खो जाते है, जैसे बीज खो गया और गुरू के रूप में विशाल वटवृक्ष बना। यदि शिष्य भी अपने बीज को समाप्त कर लेता है, मिटा देता है खो जाता है, चेतना युक्त बना जाता है, तो कल वह भी हजार- हजार बीजों के रूप में, हजार- हजार पौधों और पेड़ो के रूप में, विशाल वटवृक्षों के रूप में अवतरित होता है ………. और लाखों – करोड़ो लोगों को संताप से मुक्त कर सकता है, सांत्वना दे सकता है। यह खो लेने का भाव, यह अपने- आप में चेतना शून्य बना लेने का भाव शिष्यता है।
दीक्षा लेने की क्रिया को भी शिष्यता नहीं कहा जाता है।
हाथ जोड़ लेने की क्रिया को भी शिष्यतता नहीं कहा जाता।
केवल होठों से गुरू मंत्र उच्चारण करने को भी शिष्यता नहीं कहा जाता।
शिष्यता तो इससे बहुत ऊंची वस्तु है, तथ्य है। शिष्य वही बन सकता है जो खो सकता है, अपने आप को मिटा सकता है,
जो बीच समुद्र में कूदने की क्रिया को कर सकता है, जो सुगन्धित पवन बनकर पुरे विश्व में फैल सकता है, जो सेवा का साकार पूंज होता है, जो श्रद्धा का आधार होता है, जो समर्पण का मूर्तिमान स्वरूप होता है।
शिष्य के माध्यम से ही समझा जा सकता है कि समपर्ण क्या है ? उसके द्वारा ही जाना जा सकता है कि सेवा क्या कही जा सकती है ? किसे कहते है ? यह देवी- देवताओं की सेवा, पूजा और घंटे-घडि़याल बजाना अपने- आप में ढ़ोग है, पाखण्ड है, यह तो अपने आप में भुलाने की एक क्रिया है।
यदि चैतन्य देवता, तुम्हें लाभ नहीं प्रदान कर सकते, तो फिर वे मूर्तिया तुम्हें क्या लाभ पहुंचा सकती है ? वह तुम्हें क्या लाभ दें पायेंगे ? जो प्राणवान शिष्य है, चेतना युक्त शिष्य है, जो मूर्तियों के पीछे भटकने की उपेक्षा उस जीवत जाग्रत देवता की, उस चैतन्य स्वरूप की पूजा, अर्चना, साधना, आराधना करता है। उसके लिये कोई गंगा नहीं होती, कोई यमुना नहीं होती, उसके लिये गुरू के चरणों का जल ही गंगा होती है, उसमें स्नान कर वह अपने आप को धन्य महसूस करने लगता है। उसके लिये किसी प्रकार के तीर्थ और पाठ नहीं होते है, गुरू के शब्द उसके लिये वेद होते है, गुरू की कृपा दृष्टि उसके लिये अम़त वर्षा होती है, जिसमें भीग कर वह अपने आप को पूर्णता की ओर अग्रसर कर सकता है।
गुरू के शब्द ही वेद, शास्त्र , उपनिषद और मीमांसाये होती है, जो शिष्य में सीधे उतर जाती है। पुस्तकों के अध्ययन के माध्यम से और पठन के माध्यम से ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता चिल्लाने और सीखने से वेद सामने प्रत्यक्ष नहीं हो सकते है। गुरू-कृपा से वह शिष्य तो स्वयं वेदमय बन जाता है, शास्त्रमय बन जाता है, क्योंकि वह अपने’ आप में सही अर्थो में श्रद्धा का एक स्वरूप होता है, समर्पण का एक भाव होता है। इसके माध्यम से ही वह अपनी सितार को, गुरू की सितार से जोड़ देता है, अपने प्राणों को गुरू के प्राणों से जोड़ देता है, अपनी चेतना को गुरू की चेतना से जोड़ देता है और सही अर्थो में वह गुरूमय बन जाता है।
जब गुरूमय बन जाता है, तो अपने आप ध्यान की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है, फिर उसे पालथी मारकर ध्यान लगाने की जरूरत नहीं होती है। फिर उसे भूमि में गड़कर समाधि लेने की क्रिया की आवश्यकता नहीं होती, फिर उसे किसी देवी- देवताओं के सामने मिनती नहीं मांगनी पड़ती, फिर उसे हाथ जोड़ने नहीं पड़ते, गिड़गिड़ाना नहीं पड़ता , देवताओं के सामने खड़ा नहीं होना पड़ता, क्योंकि वह स्वयं अपने अन्दर गुरू को समाहित कर पूरी तरह से खो जाता है, गुरूमय बन जाता है …………….. और फिर वह दूसरों को खोने की भावना दे सकता है।
ऐसा ही भाव तुम्हारें जीवन में बने, मैं आशीर्वाद दे रहा हूं-यदि चैतन्य देवता, तुम्हें लाभ नहीं प्रदान कर सकते, तो फिर वे मूर्तिया तुम्हें क्या लाभ पहुंचा सकती है ? वह तुम्हें क्या लाभ दें पायेंगे ? जो प्राणवान शिष्य है, चेतना युक्त शिष्य है, जो मूर्तियों के पीछे भटकने की उपेक्षा उस जीवत जाग्रत देवता की, उस चैतन्य स्वरूप की पूजा, अर्चना, साधना, आराधना करता है। उसके लिये कोई गंगा नहीं होती, कोई यमुना नहीं होती, उसके लिये गुरू के चरणों का जल ही गंगा होती है, उसमें स्नान कर वह अपने आप को धन्य महसूस करने लगता है। उसके लिये किसी प्रकार के तीर्थ और पाठ नहीं होते है, गुरू के शब्द उसके लिये वेद होते है, गुरू की कृपा दृष्टि उसके लिये अम़त वर्षा होती है, जिसमें भीग कर वह अपने आप को पूर्णता की ओर अग्रसर कर सकता है।
ऐसा ही भाव तुम्हारें जीवन में बने, मैं आशीर्वाद दे रहा हूं-
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