मन को समस्त प्रकार की दुश्चिन्ताओं से शुद्ध करने के लिये यह परम शक्तिशाली एवं दिव्य विधि है, क्योंकि भगवान जगन्नाथ जी की साधना कर मनुष्य उन सब वस्तुओं के प्रति अनासक्त हो जाता है, जो मन को भ्रमित करने वाली होती है। मन को उन सारे कार्यों से विरक्त कर लेने पर ही मनुष्य सुगमता पूर्वक वैराग्य प्राप्त कर सकता है। वैराग्य का अर्थ है- पदार्थ से विरक्ति और मन का आत्मा में प्रवृत्त होना… और यह ‘जगन्नाथ साधना’ से ही संभव है।
जग के नियन्ता, जग के पालनकर्ता अर्थात् ‘कृष्ण’, जिनका एक करूणामयी स्वरूप जगन्नाथ भी है, ‘जगन्नाथ’ अर्थात् जग के नाथ, जिन्हें ‘जगत गुरू’ भी कहा गया है और उसी प्रेममयी, करूणामयी प्रतिमूर्ति के साक्षात् दर्शन, पूजा-आराधना करना जीवन का परम सौभाग्य कहलाता है।
श्री जगन्नाथ जहां अपने इस स्वरूप में भक्तों के समक्ष विद्यमान हैं, उस स्थल को जगन्नाथ पुरी के नाम से जाना जाता है, जो सही अर्थों में अद्वैत भाव का आश्रय स्थल है। हजारों लाखों की संख्या में भक्तजन श्री जगन्नाथ भगवान के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से वहां आया करते हैं, क्योंकि ऐसा कहा जाता है, कि जो भी व्यक्ति वहां सच्चे मन से, श्रद्धा-भावना से कुछ मांगता है, उसकी वह इच्छा शीघ्र ही पूर्ण हो जाती है।
यहां के वातावरण में ऐसी विशेषता है, कि किसी भी व्यक्ति या साधक को यहां पहुंचते ही एक अजीब सी शांति महसूस होने लगती है और वह वहां के वातावरण की मोहक सुगन्ध में ही कहीं खोकर ध्यानावस्था में स्वत: ही चला जाता है, उसका मन शुद्ध, परिष्कृत व अद्वैतमय बन जाता है।
जीवन में मोक्ष-प्राप्ति के लिए अद्वैत अवस्था को प्राप्त करना अनिवार्य होता है, किन्तु व्यक्ति स्वयं इस स्थिति को प्राप्त करने में असमर्थ है। कहा जाता है, कि एक बार द्वारिका में रोहिणी, रूक्मिनी और सत्यभामा तथा अन्य पटरानियों के साथ विश्राम कक्ष में बैठी हुई थी, और यूं ही माता रोहिणी कृष्ण की लीलाओं से उन्हें अवगत कराते हुये हंसी-ठिठोली कर रही थी, तभी सुभद्रा ने हंसते हुये माता रोहिणी से कहा, कि ‘आप भाभियों को कृष्ण गोकुल में कैसे रहा करते थे, वह वृत्तांत सुनाइये’ यह सुनकर रोहिणी की स्मृतियां, जब उन्होंने कृष्ण को पालने में झुलाया था से लेकर उनके बड़े होने तक की सभी बातें पुन: उनके मानस-पटल पर अंकित हो गई, और उनकी आंखों से अश्रुकण छलकने लगे, तभी सुभद्रा ने कहा, कि ‘मेरे यह कहने से अगर आपको दु:ख पहुंचा हो तो मैं क्षमा चाहती हूं।’
रोहिणी बोली – ‘नहीं, मेरा मन तो उनके लीलामय स्वरूप को याद करके आनन्दित हो उठा था, इसीलिये ये आंसू निकल आये, किन्तु सुभद्रा मैं उनके स्वरूप का वर्णन अगर इन होठों से करूंगी, तो कृष्ण अपनी यादों में खो जायेंगे और दु:खी हो जायेंगे, इसलिये मैं नहीं चाहती, कि वे मेरी बातों को सुनकर व्यथित हो जाये’, तब सुभद्रा ने माता रोहिणी को आश्वासन देते हुये कहा, कि ‘आप चिन्ता न करें, आप निश्चिंत होकर उनके बारे में हमें बतायें, मैं कक्ष के दरवाजे पर खड़ी कृष्ण को देखती रहूंगी और उन्हें अन्दर न आने दूंगी।’
माता रोहिणी तब रूक्मिनी, सत्यभाषा सभी को कृष्ण की अनंत कथा, जो उनके गोकुल में बिताये सुन्दर व आनन्ददायक क्षण थे, सुनाने लगीं और सुनाते-सुनाते खुद भी इतना डूब गई, कि मानो वह समय ही लौट आया हो, तभी कृष्ण और बलराम भी कक्ष के बाहर आ पहुंचे, और जैसे ही अनदर जाने लगे सुभद्रा ने उन्हें रोक दिया, और कहा- ‘मां रोहिणी के आज्ञा के बिना आप भीतर प्रवेश नहीं कर सकते और जब तक माता की अनुमति नहीं होगी, तब तक मैं आपको अन्दर नहीं जाने दूंगी’ कृष्ण और बलराम दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा और वापिस मुड़कर जाने लगे, तभी कृष्ण को कुछ आवाजें कक्ष से बाहर जाती हुई सुनाई दीं, उन आवाजों को सुनकर कृष्ण के पांव वहीं ठहर गए, अपनी ही जीवन लीला को सुनकर वे इतना अधिक खो गये, कि उनके अनत:करण से, उनके रोम-रोम में करूणा का सागर बहने लगा।
दूर खड़े नारद मुनि इस दृश्य को बड़े आनन्द के साथ आत्मसात कर रहे थे, और गदगद कण्ठ से कृष्ण के निकट आकर बोले, ‘हे प्रभु! आप तो करूणा निधान है, दया के सागर है, प्रेम स्वरूप है, आप अपने भक्तों पर कृपा कर तथा जन-कल्याण हेतु अपने इसी दिव्य स्वरूप को यहां स्थापित कर दीजिये, जिससे आपके इस प्रेममयी, करूणामयी स्वरूप को देख सभी मनुष्य मेरी तरह ही धन्य-धन्य हो सकें, और अपने जीवन के समस्त सुखों को प्राप्त कर सकें, जो भी यहां आपके दर्शन हेतु आये, वह आपकी कृपा-वर्षा से आप्लावित हो सके, और एक अपूर्व शांति प्राप्त कर सके, लीन हो सकें आप में’, तभी से वहां श्री कृष्ण अपने एक अंश स्वरूप में ‘जगन्नाथ पुरी’ के नाम से विख्यात हो गये।
जगन्नाथ पुरी एक दिव्य तीर्थ स्थल है, जहां पहुंच कर प्रभु-चिन्तन में मग्न हो साधक की समाधि भी लग जाती है, क्योंकि कृष्ण अपने प्रेममयी स्वरूप में ही वहां हर क्षण विराजमान रहते हैं और उन्हीं कृष्ण की आराधना-साधना करना ही जीवन का अखण्ड सौभाग्य है।
जगन्नाथ साधना के माध्यम से साधक उस दिव्य तीर्थ स्थल के पुण्य को घर बैठे ही प्राप्त कर सकता है और साथ ही इस साधना में सिद्धि प्राप्त कर, वह उनके साक्षात् दर्शन भी प्राप्त कर सकता है।
जीवन में पूर्ण आध्यात्मिकता एवं अपने इष्ट के दर्शन हेतु ‘जगन्नाथ साधना’ ही श्रेयस्कर है। योगियों और ऋषियों आदि की बात तो अलग है, किन्तु गृहस्थ व्यक्ति के लिये अद्वैत स्थिति को प्राप्त करना अत्यंत कठिन है, परन्तु इस सिद्धि को प्राप्त कर, वह जीवन के समस्त सुखोपभोग को प्राप्त कर, सुखमय जीवन व्यतीत करते हुये अद्वैत स्थिति को प्राप्त कर सकता है और यही जीवन की श्रेष्ठता है, पूर्णता है, सर्वोच्चता है, जो इस सिद्धि द्वारा साधक को प्राप्त हो जाती है, क्योंकि भगवान श्री जगन्नाथ करूणा के सागर है, दयानिधि हैं, दु:खों को दूर कर शत्रुओं का नाश करने वाले हैं।
यह एक गुह्य साधना है, जिसका ज्ञान बहुत ही सीमित लोगों के पास है, उसी का संक्षिप्त विवरण पहली बार ही इस पत्रिका में आपके सम्मुख प्रकशित किया जा रहा है।
साधना सामग्री- त्रिमुखी शंख, माधव प्रिया गुटिका, रोहिणी माला।
साधना समय- 20 जून, प्रात: 5 बजे से सायं 07:37 बजे तक
यह तीन दिन की साधना है। साधकों को चाहिये की वे प्रात: 4 बजे उठे, स्नान आदि से निवृत्त होकर, सभी साधना सामग्रियों के साथ, शांत मन से पीले आसन पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ जायें, फिर अपने सामने एक छोटी चौकी पर पीला कपड़ा बिछाये और एक थाली, उसमें कुंकुम या केसर से ‘ऊँ’ बनाये एवं उसमें चावल की ढेरी बनाकर उस पर ‘त्रिमुखी शंख’ स्थापित कर दें, फिर शंख में पीले रंग का चावल भर दें।
इसके ऊपर मनोवांछित ‘माधव प्रिया गुटिका’ स्थापित कर दें तथा ‘रोहिणी माला’ को शंख के ऊपर पहना दें, और फिर कुंकुम, धूप व दीप से गुटिका एवं शंख का पूजन करते हुये बांये हाथ में कुछ चावल लेकर दाहिने हाथ से उन्हें कृष्ण के 21 नामों का उच्चारण करते हुये, उस शंख व गुटिका पर चढ़ाये-
ऊँ कृष्णाय नम:
ऊँ गोपालाय नम:
ऊँ गोविन्दाय नम:
ऊँ जगन्नाथाय नम:
ऊँ गोवर्धनाय नम:
ऊँ माधवाय नम:
ऊँ अच्युताय नम:
ऊँ केशवाय नम:
ऊँ दामोदराय नम:
ऊँ श्रीधराय नम:
ऊँ द्वारिकानाथाय नम:
ऊँ द्रौपती रक्षकाय नम:
ऊँ नारोत्तमाय नम:
ऊँ ब्रजेश्वराय नम:
ऊँ यशोदा नन्दनाय नम:
ऊँ नंद-नंदनाय नम:
ऊँ गोपीजन वल्लभाय नम:
ऊँ अर्जुन प्रियाय नम:
ऊँ योगेश्वराय नम:
ऊँ श्रेष्ठाय नम:
ऊँ मनोहराय नम:
यह पूजन सम्पन्न करने के पश्चात् निम्न मंत्र का तीन दिन तक रोहिणी माला से दो माला जप करें, जप के पश्चात् माला को शंख पर पहिनाये।
तीसरे दिन सभी पूजा सामग्रियों को (शंख और गुटिका को छोड़ कर) शेष जल में प्रवाहित कर दें।
यह साधना अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है, यथासंभव प्रत्येक साधक को इसे पूर्ण मनोयोग से सम्पन्न करना ही चाहिये, इस साधना से साधक को अध्यात्म पथ पर बढ़ने के लिये अधिकाधिक प्रेरणा प्राप्त होती है, साथ ही इस स्वरूप की साधना से कृष्ण के प्रत्यक्षीकरण का दिशा-निर्देश भी होता है।
इस साधना से कृष्ण करूणामयी स्वरूप में मुक्ति प्रदान करते हैं, तथा जीवन के हर क्षेत्र में पूर्णता प्रदान कर साधक के जीवन को रसमय एवं प्रेममय बना देते हैं, क्योंकि शुष्कता जीवन का अभिशाप है, अत: यह साधना प्रत्येक साधक के लिये अपेक्षित है।
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