ऋग्वेद में कुछ ऐसी अशुभ घटनाओं का उल्लेख मिलता है जिन्हें दूर करने के लिये यज्ञ द्वारा देवों को प्रसन्न या शांत करने की बात कही गयी है, यथा-
अर्थात् हे सविता देव ! आज संतति से युक्त कल्याण हमारे लिये उत्पन्न करो। हे सविता देव! सभी पापों को दूर करो तथा हमें वह दो जो शुभ हो।
वैदिक शांतिकर्मों के विषय में शांखायनगृह्यसूत्र में वर्णन है कि यदि कोई रोगग्रस्त हो जाये तो उसे ऋग्वेद के मंत्रों, जो रूद्र की स्तुति में कहे गये हैं, के साथ अन्न की आहुतियां देनी चाहिये। यदि घर में मधुमक्खियां छत्ता बना लें तो 108 उदुम्बर टुकड़ों को दही, मधु एवं घी से युक्त करके यज्ञ करना चाहिये। किसी भी प्रकार का दुःस्वप्न देखने पर उपवास करके खीर की आहुतियां अग्नि में देनी चाहिये, उसे रात्रिसूक्त का पाठ करके ब्राह्मण को भोजन, दक्षिणा आदि देनी चाहिये, ऐसा करने से स्वप्न का दुष्प्रभाव समाप्त हो जाता है।
अनेक ग्रंथों में इस तरह के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि शांतिकर्म का प्रयोग न केवल क्रुद्ध देवों या शक्तियों को शांत करने के लिये, वरन् दुःस्वप्नों, सूर्य-चन्द्र-ग्रहणों, पशु-पक्षियों की अशुभ बोलियां आदि की शांति के लिये भी किया जाता था।
वैदिक काल के बाद मध्य काल में भी शांति-कर्मों का बड़ा महत्व रहा। इस समय सूर्य आदि ग्रहों को प्रसन्न करने के लिये, शनैश्चर-व्रत एवं शांति, पांच या अधिक ग्रहों के अशुभ योगों, ग्रहस्नान, ज्वर या अन्य रोग, नक्षत्र-शांति, नवजात शिशु के जन्म के समय उग्र ग्रहों के लिये, अशुभ योग या करणादि होने पर की जाने वाली, गर्भिणी के भ्रूण की रक्षा हेतु, सरलता पूर्वक प्रसव हेतु, देव, पितरों, देवों आदि को प्रसन्न करने के लिये, दुष्ट आत्मा द्वारा पकड़े जाने पर, पक्षियों के मैथुनरत देखने पर, शरीर पर छिपकली या गिरगिट गिरने पर, भूचाल, संक्रांति एवं ग्रहण के समय किये जाने वाले शांति कर्मों का वर्णन प्राप्त होता है। इनके दुष्प्रभावों को कम करने तथा सुख-शांति के लिये विभिन्न पदार्थों को भिन्न-भिन्न मंत्रों के साथ अग्नि में अर्पित करने के विधान बताये गये हैं। रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में भी ऐसे उत्पातों का वर्णन है जो अशुभ घटनाओं के सूचक होते थे।
मत्स्य पुराण, वराह पुराण, विष्णु पुराण आदि में विभिन्न नामों वाली शांतियों का उल्लेख है। मत्स्य पुराण में वर्णित प्रमुख 18 शांतियां इस प्रकार हैं- अभय शांति तब की जाती है जब राजा शत्रुओं से घिरा हो और वह विजयी होना चाहता हो। सौम्य शांति तब की जाती है जब राजरोग हो जाता है। वैष्णवी शांति की व्यवस्था भूकंप, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि आदि के समय की जाती है। रौद्री का प्रयोग महामारी या भूत-प्रेत द्वारा बाधा उपस्थित होने पर किया जाता है। ब्राह्मी शांति का प्रयोग तब किया जाता है जब नास्तिकता फैलने का भय होता है या जब कुपात्रों को सम्मान मिलने लगता है। जब तीव्र अंधड़-तूफान चलते हैं तब वायवी शांति की जाती है। वारूणी शांति असामान्य वर्षा होने पर की जाती है। प्रजापत्य शांति असामान्य जनन होने पर की जाती है। त्वाष्टी शांति हथियारों की असामान्य दशाओं पर तथा कौमारी बच्चों की कुशलता के लिये की जाती है। आग्रेयी शांति अग्नि के लिये तथा गान्धर्वी पत्नी या भृत्यों के नाश होने पर अथवा अश्वों के लिये की जाती है। आंगिरसी शांति हाथियों के विकृत होने पर तथा नैर्ऋती पिशाचों का भय होने पर की जाती है। याम्या मृत्यु या दुःस्वप्न होने पर तथा कौबेरी धन की हानि में की जाती है। वृक्षों की असामान्य दशा पायी जाने पर पार्थिवी शांति और ज्येष्ठा एवं अनुराधा नक्षत्र में होने वाले उत्पातों के लिये ऐन्द्री शांति की जाती है।
वेदों में वर्णित अधिकांश शांति-कर्म वर्तमान में देखने में नहीं आते, परंतु कुछ शांतियां आज भी प्रचलित है, जैसे- गणपति-पूजन या विनायक शांति, वस्तु शांति, नवग्रह शांति, रूद्राभिषेक या लघुरूद्र, मूल शांति, शतचण्डी या लखचण्डी पाठ आदि। आज भी गांव-देहातों में भाद्रपद में गाय, माघ में भैंस, वैशाख में ऊंटनी, मार्गशीर्ष में हथिनी, ज्येष्ठ में बिल्ली तथा श्रावण में घोड़ी के बच्चा होने पर अशुभ समझा जाता है और इसकी शांति की जाती है। साथ ही, शरीर के किसी अंग पर छिपकली या गिरगिट के गिरने या स्पर्श होने पर स्नान किया जाता है। प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख है कि ऐसा होने पर स्नान करके पंचगव्य पीना चाहिये तथा छिपकली या गिरगिट की प्रतिमा लाल वस्त्र में लपेट कर दक्षिणा सहित दान करनी चाहिये।
गणपति-पूजा तो आज भी विवाह एवं उपनयन-संस्कार सहित लगभग सभी कार्यों के प्रारंभ में की जाती है। ब्रह्माण्ड पुराण में वर्णन है कि गर्भाधान से लेकर जातकर्म आदि संस्कारों, यात्रा, व्यापार, युद्धकाल, देव-पूजा, संकट तथा इच्छाओं की सिद्धि में गणपति की पूजा अवश्य की जानी चाहिये। इसी प्रकार, किसी ग्रह के दोषयुक्त होने पर उस ग्रह से संबंधित मंत्रों आदि से भी शांति की जाती है। ग्रंथों में नवग्रहों से संबंधित मंत्र, समिधा तथा पूजन में काम आने वाली भिन्न-भिन्न वस्तुओं का उल्लेख प्राप्त होता है जिनके प्रयोग से उस ग्रह की अनुकूलता प्राप्त होती है।
इसके अतिरिक्त किसी के असाध्य रोगग्रसित होने पर रूद्राभिषेक या महामृत्युंजय जप कराया जाता है। इसी तरह किसी विशेष कामना की पूर्ति के लिये दुर्गा सप्तशती का एक लाख बार पाठ किया जाता है। आज भी कहीं वर्षा न होने अथवा कोई प्राकृतिक आपदा आने पर कुछ लोग जनहितार्थ यज्ञादि करते हैं। इस प्रकार, मूल रूप से इन शांतियों का उद्देश्य समस्त दुःख-कष्ट का निवारण करके सुख-शांति प्राप्त करना ही है।
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