शायद नहीं। हां! इतना अवश्य है, कि वह विभिन्न धर्म गुरूओं के प्रवचनों से, महापुरूषों के संदेशों से और स्वयं के थोड़े-बहुत अनुभव से वह मात्र अनुमान लगा लेता है, कि यह जीवन क्या हो सकता है। जिन्होंने भी इन प्रश्नों के उत्तर जानने-समझने की कोशिश की, वे अपने आप में ही डूबते चले गये और अपनी ही गहराइयों में उन्होंने अनन्त को खोजा, अनेक सम्भावनाओं को जन्म दिया। परन्तु अन्ततः वे भी इस बात को ठीक से परिभाषित नहीं कर सके, कि यह जीवन वास्तव में है क्या?
मनुष्य की आन्तरिक खोज और बाह्य खोज अर्थात् आधुनिक विज्ञान की खोज, दोनों से यह तो सिद्ध हो ही चुका है, कि मृत्यु के पश्चात् भी मनुष्य का अस्तित्व होता है और यदि मृत्यु के बाद उसका अस्तित्व है, तो जन्म से पूर्व भी उसका अस्तित्व होना ही चाहिये।
इस बात के सैकड़ों प्रमाण मिलते भी है, कि अमुक स्त्री या पुरूष का पुनर्जन्म हुआ है या अमुक स्थान पर जन्मा बालक अपने पूर्व जन्म की जानकारी दे रहा है। अनेक उदाहरण ऐसे भी प्राप्त होते हैं, कि किसी स्त्री या पुरूष की मृत्यु हो गई और मृत्यु के कुछ समय बाद वह पुनर्जीवित हो उठा।
इन सब बातों से यह तो स्पष्ट है, कि जन्म और मृत्यु से जीवन का प्रारम्भ और अन्त नहीं है। इससे जीवन की अनेक सम्भावनाओं के द्वार खुलते हैं और व्यक्ति अपने में ही खो कर पूर्ण आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करता है। यों तो इस पृथ्वी पर सभी जीव जन्म लेते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। यह क्रम तो अनन्त से चल रहा है और चलता ही रहेगा। आज जिसने जन्म लिया है, वह कल समाप्त हो जायेगा। इस जन्म लेने और समाप्त हो जाने के बीच के अन्तराल में जीव भ्रमित रहता है, वह समस्त समाप्त हो जाने वाली वस्तुओं पर अपना अधिकार समझ कर उनमें अपने आपको उलझा देता है। परन्तु जो इस नश्वरता को समझ लेता है, वह फिर अमिट की खोज में चल देता है, वह अमृत्यु की ओर कदम बढ़ा देता है।
यह जीवन की बदली धारणा ही उसका अनन्त से परिचय करा कर उसे ब्रह्म से जोड़ देती है, वह ब्रह्म जो न कभी समाप्त हुआ है और न ही कभी समाप्त होगा, जो चिर शाश्वत है, जिसने समस्त चराचर को अपना अस्तित्व प्रदान किया है।
सामान्यतः व्यक्ति सांसारिक विषयों में ही फंस कर रह जाता है, इसे तो जीवन का दुर्भाग्य ही समझना चाहिये या जिस काल तक मनुष्य ऐसी नींद में रहता है, वह दुर्भाग्य काल है। दुर्भाग्य काल इसलिये, कि उस समय वह अपनी समस्त चेतना खो कर नश्वर वस्तुओं के प्रति आसक्त होता है और उन्हें ही प्राप्त करने के लिये सचेष्ट रहता है।
जबकि वास्तविकता यह है, कि समस्त सांसारिक कार्य स्वप्न मात्र हैं, जो यथार्थ सत्य न होते हुये भी सत्य होने का भ्रम पैदा करते हैं। किन्हीं पुण्यों के जाग्रत होने पर व्यक्ति को इसका बोध होने लगता है और यह बोध होना ही सौभाग्य प्राप्ति की पहली सीढ़ी है, जागृति है, जब जीवन अपनी गति को समझ कर सांसारिक चिन्तन से अलग हट कर चिन्तन करना प्रारम्भ करता है।
परिवर्तन तो इस सृष्टि का शाश्वत सत्य है, इसे बदलना किसी के भी सामर्थ्य की बात नहीं है। जो जन्म लेता है, उसे एक दिन समाप्त होना ही पड़ता है। लेकिन जो जाग्रत हो कर अमृत्यु के पथ पर गतिशील हो कर ब्रह्मत्व को प्राप्त करने की ओर अग्रसर होते हैं, वे उस परम पद को प्राप्त भी कर लेते हैं, फिर वह समाज में युग पुरूष के नाम से पहिचाना जाता है, उसे अवतार घोषित कर अन्य व्यक्ति उसके पदचिन्हों पर चलना अपना सौभाग्य समझते हैं।
जीवन के समस्त प्रकार के तनावों, खिन्नताओं और असफलताओं का एक ही मूल कारण दिखाई देता है और वह है प्रभु सत्ता को न स्वीकार करना। प्रत्येक व्यक्ति यही सोचता है, कि यहां प्रत्येक कार्य मेरे ही अनुसार हो और मुझे अधिक से अधिक लाभ पहुंचाने वाला हो। वह नित्य दौड़-धूप कर परछाइयों को पकड़ने की कोशिश करता रहता है और अपनी परछाई पर खड़ा हो कर विचार करने लगता है, कि मैंने इसे पकड़ लिया है।
मगर यह वास्तविकता नहीं है। परछाई के रहस्य को जानने के लिये प्रकाश को समझना आवश्यक है और प्रकाश ही मूल तत्त्व नहीं है, प्रकाश की उत्पत्ति का भी कोई स्त्रोत होगा, ऐसा मान कर जीवन में अपने आपको व्यवस्थित करना चाहिये। मानव जीवन में दिव्यत्व एवं ईश्वरत्व को उतार कर ही अमृत्यु के पथ पर अग्रसर होना सम्भव है। लेकिन इसके लिये आवश्यक है, कि देह बोध से परे हट कर अन्दर झांकने की कोशिश की जाये। शरीर से परे हटने के उपरान्त ही उस परम चेतना के अस्तित्व का बोध होना सम्भव है, उसकी निकटता का एहसास होना संभव है, उससे एकाकार होना संभव है, नर से नारायण बनने की प्रक्रिया सम्भव है।
जो एकमात्र परमात्मा को ही अपना सहारा मान कर उसके सहारे अपने को छोड़ देता है, समस्त सिद्धियां भी उसकी चाकरी करने के लिये प्रयत्नशील होती हैं और वह स्वयं दिव्यता के पथ पर अग्रसर होने लगता है।
अतः व्यक्ति को इस नश्वर संसार से परे हो कर ईश्वर को अपना एकमात्र सहारा मान कर स्वयं की अतल गहराईयों में उतरने का प्रयास करना चाहिये, तभी जीवन के वास्तविक रहस्यों का ज्ञान हो सकेगा, तभी जीवन में सुवास का अनुभव प्राप्त हो सकेगा, तभी जीवन अमृतमय बन कर अमृत्यु की ओर अग्रसर हो सकेगा।
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