पूरे वर्ष में सबसे महत्वपूर्ण एकादशियों में से एक श्रावण पुत्रदा एकादशी है जो भगवान शिव को समर्पित है। किसी भी एकादशी व्रत का प्राथमिक उद्देश्य जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करना है। इस व्रत को धारण करने वाले व्यक्ति को वाजपेय यज्ञ के समान पुण्यफल की प्राप्ति होती है।
श्रीकृष्ण ने कहा- हे धनुर्धर! श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी की कथा को सुनने से अनन्त यज्ञ का फल प्राप्त होता है। हे पार्थ! द्वापर युग के आरम्भ में ही महिष्मती नामक राज्य में महिजीत नामक राजा शासन करता था। महिजीत एक दयालु, जिम्मेदार और उदार शासक था। उनके नेतृत्व में, उनकी प्रजा स्वयं को सुरक्षित महसूस करती थी। एक ओर जहां राजा की प्रजा उनसे प्रसन्न थी वहीं राजा आये दिन उदास रहता था। उनकी उदासी का कारण था उनका निःसंतान होना। जब उनकी प्रजा को उनकी उदासी का कारण पता चला तो वह किसी सन्यासी के मार्गदर्शन के लिये निकले। वहां लोमश ऋषि से प्रजा के सज्जनों की भेंट हुई।
लोगों ने ऋषि से अपने राजा की समस्या का समाधान खोजने में उनकी सहायता मांगी। ऋषि ने बताया कि राजा ने पूर्व जन्म में पाप किया था। उन्होंने बताया कि महिजीत अपने पूर्वजन्म में एक गरीब व्यापारी था। उन्होंने बताया कि एक बार व्यापारी ने तालाब से पानी पीते समय एक गाय को दूर धकेल दिया था। हालांकि वह पानी से व्यापारी ने प्यास बुझाने के लिये ऐसा किया। स्वार्थ के लिये गाय को पानी से वंचित करके, उसने अपने कर्म के क्रोध को आमंत्रित किया।
ऋषि लोमश ने इसका समाधान बताते हुये कहा कि श्रावण शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि पर व्रत करने और रात्रि जागरण कर, उस व्रत का फल राजा के ग्रहण करने से, उनके पापों का शमन होगा और राजा को पुत्र की प्राप्ति होगी। लोमश ऋषि का धन्यवाद कर सज्जनों ने राजा को ऋषि का संदेश दिया।
राजा महिजीत ने ऋषि का आज्ञा पालन करते हुये श्रावण मास की एकादशी के दिन पर उपवास रखा और द्वादशी को उसका फल राजा को दे दिया। इस पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण किया और उन्हें अत्यन्त तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया।
पुत्रदा एकादशी व्रत कथा सुनने या पढ़ने के बाद ही पूजा पूर्ण मानी जाती है। साथ ही इस एकादशी की व्रत कथा सुनने से व्यक्ति द्वारा किये गये जाने-अंजाने सभी प्रकार के पापों का नाश होता है। इसलिये इस एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी पड़ा। पुत्र की इच्छा रखने वाले मनुष्य को विधानपूर्वक श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करना चाहिये। इस व्रत के प्रभाव से इहलोक में सुख और परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
जिस कुल में या वंश में संतान का अभाव है वहां गृहस्थ सुख संभव नहीं है, इसलिये गृहस्थ व्यक्ति के लिये संतान प्राप्ति की प्रबल इच्छा बनती है, क्योंकि वंश वृद्धि के साथ कुल की परम्परा को और समाज की मर्यादा का पालन करने के लिये तथा पितृ मुक्ति के लिये वंश में पुत्र का होना आवश्यक है। इसलिये यह प्रयोग सम्पन्न करना सर्वश्रेष्ठ है-
साधक प्रातः ब्रह्म मुहुर्त में स्नान आदि से निवृत होकर शुद्ध वस्त्र धारण करें, उत्तर दिशा की ओर मुख करके पवित्र आसन पर बैठें। तांबे या स्टील की प्लेट में संतान गोपाल यंत्र को स्थापित करें, यंत्र के सामने एक छोटे पात्र में गोल सुपारी रखें। किसी पात्र में पंचामृत बना लें, इस प्रथम प्रयोग में पत्नी अपने पति के दाहिने ओर बैठे फिर पति स्फटिक माला से निम्न मंत्र का 1 माला मंत्र जप करे, पत्नी सुपारी के ऊपर मंत्र जप होने तक पंचामृत चढ़ाती रहे, 1 माला मंत्र जप होने तक यंत्र पर रखी सुपारी पंचामृत से डूब जानी चाहिये।
इसके बाद पत्नी अपने पति के बायीं ओर बैठे, इसके बाद अपने सामने संतान गोपाल यंत्र रखकर उसका पूजन कर स्फटिक माला से मंत्र जप करें, मंत्र जप करने तक घी का दीपक और अगरबत्ती जलते रहने चाहिये, पति-पत्नी दोनों निम्न मंत्र का तीन-तीन माला मंत्र जप करें-
मंत्र जप की समाप्ति के बाद दोनों ही भक्ति भाव से गुरू चित्र एवं श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप चित्र के सामने आरती करें।
साधना काल के दूसरे दिन सभी सामग्रियों को किसी लाल या पीले वस्त्र में बांधकर विसर्जित कर दें, माला को अपने गले में धारण कर लें तथा प्रतिदिन एक या दो घंटे तक माला को अवश्य धारण करें। एक माह तक प्रतिदिन मंत्र जप अवश्य ही करें, यदि पति-पत्नी दोनों ही मंत्र जप करते हैं तो ज्यादा श्रेष्ठ है, अगली पूर्णिमा के दिन इस माला को जल में विसर्जित कर दें।
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