जब तक मनुष्य में जीवन है वह कर्म और क्रिया से बच नहीं सकता, उसे निरन्तर कार्य करते ही रहना पड़ता है लेकिन कार्य से फल प्राप्त हो और कार्य से जीवन की इच्छायें पूर्ण हों, प्रसन्नता प्राप्त हो इसके लिये कार्य की प्रकृति को विस्तार में समझना आवश्यक है जिससे हम अपने कार्यों द्वारा इच्छित फल प्राप्त कर सकें।
केवल भाग्य के भरोसे बैठा रहने वाला व्यक्ति भी मूर्ख ही कहा जा सकता है, भाग्य भी उसी व्यक्ति का साथ देता है जो जीवन में क्रियाशील होता है, परमात्मा ने मनुष्य जीवन इसलिये नहीं बनाया कि व्यक्ति चुपचाप भाग्य भरोसे बैठा रहे, उसे मन, बुद्धि और मस्तिष्क के साथ देह इसलिये दी है कि वह इन चारों के सहयोग से निरन्तर क्रियाशील होकर कार्य करता ही रहे, क्रियाशील व्यक्ति ही अपने बिगड़े भाग्य को संवार सकता है, भाग्यलेखन को बदल सकता है और जो उसके भाग्य में प्राप्त हुआ है उसे पूरी तरह से उपभोग भी कर सकता है, क्रिया के पश्चात जो फल प्राप्त होता है उससे उपभोग का आनन्द सहस्रगुणा बढ़ जाता है।
मोटे तौर पर कार्यों को तीन भागों में बांटा जा सकता है-
वास्तविकता में ऐसा कोई कार्य नहीं है जो कोई न कोई फल नहीं देता हो, लेकिन दैनिक जीवन में अधिकतर कार्य सकारात्मक, ठोस और दूरगामी परिणाम नहीं देते और न ही उन कार्यों को करने से एक लक्ष्य सिद्धि की भावना आती है जैसे टेलिविजन देखना, पार्टियों में जाना, फोन पर गपशप करना, छोटी-छोटी बातों पर गपशप करना ये सारी क्रियायें उस समय के लिये तो आनन्द अवश्य देती हैं लेकिन इनका प्रभाव स्थायी नहीं होता है। और यह मानना ही पड़ेगा कि हमारी ज्यादातर क्रियाये बिना किसी विशेष उद्देश्य के अथवा बिना किसी लक्ष्य सिद्धि के ही होती है। वास्तव में ज्यादातर क्रियाये जीवन की बोरियत दूर करने के लिये ही करते हैं।
जो क्रिया किसी विशेष उद्देश्य अथवा लक्ष्य को ध्यान में रखकर योजनाबद्ध तरीके से, बुद्धि के साथ सम्पन्न की जाती है जिससे इच्छित फल प्राप्त होता है वह क्रिया ‘कार्य’ कहलाती है। हमारे दैनिक कार्य चाहे वे घर के कार्य हों, कार्यालय के कार्य हों अथवा सामाजिक कार्य हों सब क्रियाये कार्य बनती हैं। कार्य सदैव परिणाम देता है और इसी के आधार पर हम अपना जीवन निर्माण करते हैं। इस प्रकार क्रिया करने से ऐसा लगता है कि हमने कुछ हासिल किया है। और इस प्रकार हम अपनी इच्छाओं को पूर्ण कर सकते हैं, लेकिन जब कार्य एक दिनचर्या बन जाता है, नीरस हो जाता है तो व्यक्ति परिवर्तन चाहता है और इस परिवर्तन की क्रिया में वह ऐसे कार्यों को करने लग जाता है जिनसे कोई फल प्राप्ति नहीं होती है।
जो कार्य बिना प्रेरणा के किया जाता है वह कार्य ‘श्रम’ कहलाता है, श्रम सदैव थकान देने वाला और पीड़ा देने वाला होता है, श्रम का परिणाम कभी भी पूरा नहीं होता, एक मजदूर हमेशा यह शिकायत करता रहता है कि उसे अपने श्रम का परिणाम पूरा प्राप्त नहीं हो रहा है, स्वार्थ के वशीभूत किये गये सभी अन्ततः श्रम बन जाते हैं जो कि कम काम करो और ज्यादा प्राप्त करो के सिद्धांत पर आधारित है, वर्तमान में हमारे ज्यादातर कार्य केवल श्रम बन कर रह गये हैं, बालक स्कूल जाने में श्रम अनुभव करते हैं, स्त्रियां घर के कार्यों को श्रम अथवा भार समझती है, इसी प्रकार व्यक्ति कार्यालय इत्यादि में कार्य करने को भार समझते हैं तथा अपने कार्य क्षेत्र में सतुष्ट नहीं रहते तथा भागमभाग की चूहा दौड़ में सम्मलित हो जाते हैं, जिसके कारण उन्हें निरन्तर तनाव, दुःख और चिंताये बनी रहती है।
कार्य के प्रति प्रेम उसे प्रेरणा प्रदान करता है और उसमें कार्य करने की योग्यता भी बढ़ जाती है, योग्यता पूर्ण तरीके से किये गये कार्य से सफलता प्राप्त होती है चाहे वह कोई भी कार्य क्षेत्र हो। इस प्रकार प्रेम के साथ किये हुये कार्य से लक्ष्य प्राप्ति, संतुष्टि के साथ प्रसन्नता का भी अनुभव होता है परंतु दूसरी प्रकार की क्रियाओं द्वारा जिनमें केवल परिणाम से ही प्रसन्नता प्राप्त होती है प्रेरणा से की हुई क्रिया में ही एक आत्म सन्तुष्टि का भाव प्राप्त होता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो इस प्रकार का निश्चित आनन्द क्रिया की पूर्णता, क्रिया के बाद अथवा भविष्य में नहीं अपितु क्रिया के समय ही प्राप्त होता रहता है। यही सिद्धान्त गीता में कर्मण्येवाधिका रसते के माध्यम से कहा गया है कि पहले प्रेरणा भाव से कार्य करो और निरन्तर मन बुद्धि से युक्त होकर क्रियाशील बनो, फल तो प्राप्त होना ही है, उसकी आशा निराशा में हर समय मत पड़े रहो।
स्वार्थ परता कार्य का स्तर तो गिराती ही है, स्वार्थ परता ही इसे केवल एक श्रम बना देती है, दूसरी ओर निःस्वार्थ भाव से की गई क्रियाये कार्य के स्तर को ऊर्ध्वगामी बनाकर कार्य में प्रेरणा प्रदान करती है। स्वार्थ केवल प्रेम द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है, जब हृदय में प्रेम भाव होता है तो हम अपना स्वार्थ त्यागने के लिये तैयार हो जाते हैं जिससे दूसरों को आनन्द और प्रसन्नता प्राप्त हो। जब क्रिया किसी महान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये की जाती है तो ‘इगो’ पूर्ण रूप से समाप्त हो जाती है। श्रेष्ठ, उत्तम और पवित्र उद्देश्य, पवित्र प्रेम कार्य के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रेरणा प्रसन्नता लाते हैं। अतः प्रेरणा और समर्पण से किया हुआ कार्य जिसमें प्रेम का भाव निहित हो, जिसमें प्रेम के साथ क्रिया हो वही क्रिया सेवा कहलाती है।
प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है, यदि प्रारम्भ से ही असफलता की भावना है अथवा कार्य के प्रति उत्साह की कमी है तो फल प्राप्ति नहीं होने पर जो विषाद मन में आता है उसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति गलत तरीकों से क्रिया करने को अग्रसर हो जाता है। ऐसी क्रियाये जिनमें झूठ, छल, कपट सम्मलित होता हो वे सभी क्रियाये आत्म सन्तुष्टि नहीं दे सकती है, इसीलिये बाह्य रूप से सम्पन्न दिखाई देने वाले व्यक्ति आत्मिक रूप से अत्यन्त कमजोर, असन्तुलित और डर भाव से युक्त रहते हैं, हर समय अनिश्चितता उनकी बुद्धि पर हावी रहती है।
हममें से प्रत्येक परिश्रम करता है, मेहनत करता है, लेकिन बहुत कम व्यक्ति ही जीवन में सफल हो पाते हैं, वे यह भूल जाते है कि क्रिया का प्रधान पक्ष तो मन-मस्तिष्क है और शरीर तो केवल एक औजार है, दोनों को अलग करके अर्थात बेमन से की गई क्रिया निष्फल ही जाती है। मन को वहां लगाइये जहां हाथ कार्य कर रहे हैं और फिर परिणाम देखें, क्रिया उच्चतम हो जायेगी और जीवन में सफलता भी उच्च स्तर की प्राप्त होगी। इस प्रकार की सेवा व्यक्ति को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से उन्नत करती है, साथ ही जीवन भी धन्य होता है। ये पूरा ब्रह्माण्ड देने की क्रिया का ही रूप है और अपने आनन्द को दूसरों के साथ उपभोग करना ही प्रेम है- यही तो यज्ञ भावना कहलाती है। सूर्य निःस्वार्थ भाव से प्रकाश और ऊष्मता देता रहता है, समुद्र निःस्वार्थ भाव से वाष्प बनते रहते हैं और यही वाष्प बादल बन कर पृथ्वी पर वर्षा करते हैं तथा भूमि को हरित एवं आनन्ददायक बना देते हैं, इस प्रकार पूरा ब्रह्माण्ड एक भावनात्मक क्रिया से जुडा हुआ है। जहां देने की भावना है, वहीं अपने आप फल प्राप्ति हो जाते है।
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