मेरे जीवन का उद्देश्य, मेरे जीवन का लक्ष्य है कि मैं उन रहस्यों को ज्ञात करूं, जिन रहस्यों को विज्ञान नहीं। मालूम कर सकता, नहीं जान सकता। पिछले पांच सौ वर्षों में विज्ञान तो बराबर प्रयत्नशील बना हुआ है मगर वह उस ज्ञान को समझ नहीं पाया कि एक गाय घास खाती है और घास दूध में कन्वर्ट कैसे हो जाता है? आज तक विज्ञान घास को दूध में कन्वर्ट नहीं कर पाया। एक मां गेहूं की रोटी खाती है और दूध बन जाता है। यह विधान क्या है, यह विज्ञान नहीं समझ पाया, यह जरूरी नहीं कि प्रत्येक वस्तु विज्ञान समझ पाये उसकी एक लिमिटेशन है, उसकी एक सीमा है।
मगर अपने व्यक्तित्व की कोई सीमा नहीं है। वह अनंत है और उतना अनंत है कि हम एक स्थान से पूरी दुनिया को देख सकते हैं और हम साधनाओं के द्वारा उन सिद्धियों को प्राप्त कर सकते हैं जिसके द्वारा जान सकते हैं कि जगदम्बा क्या है, लक्ष्मी क्या है, सिद्धाश्रम क्या है और ऋषि, मुनि, योगी यति ये सब क्या है, क्या जीवतता है, चेतन्यता क्या है, आखिर यह जीवन क्या है और मेरे जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य क्या है? जैसा कि गुरुदेव कहते हैं कि अपने जीवन को बहुत ऊंचाई पर उठा देना है तो किस प्रकार से ऊँचा उठाये, क्या करे? सीढ़ियों पर खड़े होने से तो ऊँचा नहीं हो पायेगा और गृहस्थ में रहते हुये बाल बच्चे पैदा करते हुये, घिसते, घसीटते हुये भी नहीं प्राप्त कर सकते। उसके लिये कहीं कुछ छोड़ना पड़ेगा, बहुत कुछ छोड़ना पड़ेगा। दस परसेंट भी छोड़ेंगे तो नब्बे परसेंट आप प्राप्त कर लेंगे और छोड़ेंगे ही नहीं तो कुछ प्राप्त नहीं कर पायेंगे और उसके बाद जब आपको लगेगा कि आपने हीरे ही गंवा दिये थे, केवल आप कोयले और कंकड़ पत्थर एकत्रित कर रहे थे तब आपको एहसास हो पायेगा।
आज यदि मुझसे पूछा जाये कि आप गृहस्थ में भी रहे, संन्यास में भी रहे, आप अब क्या कर रहे हैं और यदि मैं जो साधकों और शिष्यों को दे रहा हूँ उससे परे हट कर देखूं तो केवल घोचे, पत्थर इक्कट्ठे कर रहा हूँ। बच्चों को रोटियां खिला रहा हूँ, पत्नी को रोटी खिला रहा हूँ। घर में मेरी पत्नी है, बच्चे है और वैसा ही है जैसे समुद्र के किनारे बैठे कंकड़ पत्थर, अपनी झोली में इकट्ठा करते रहे। परंतु वह जो मैंने साधना का ज्ञान प्राप्त किया था। वे हीरे मोती थे और आज भी मुझे उसके ऊपर गर्व है। आज भी गर्व है अपने योगियों पर संन्यासियों पर अपने ज्ञान पर, अपनी चेतन्यता पर।
वह सब कुछ आप प्राप्त कर सके और उन आयामों को देख सकें, उस पक्ष को देख सकें। देखेंगे तो जीवन अपने आप में उज्ज्वल बन जायेगा। और आप मुझसे पूछें तो वृद्धावस्था जीवन में आती ही नहीं, होती भी नहीं। वह बस एक शब्द है। मानसिक न्यूनता जैसी कोई चीज होती नहीं, मृत्यु जैसा कोई शब्द है ही नहीं। देह समाप्त हो सकती है, मगर देह को खुद ही जीवंत बना दें तो फिर आत्मा तो समाप्त होती ही नहीं, उस आत्मा के ऊपर फिर से देह का आवरण कर लेंगे, फिर कायाकल्प कर लेंगे। अगर हमारे ऋषि मुनि दो हजार साल जीवित रह पाते थे तो हम क्यों नहीं रह पाते, हममें फिर क्या कमी है?
कमी है, हमारी साधना की कमी है, जीवन में गुरु वह ज्ञान नहीं दे पा रहा है आपको, आप साधनाओं में वह सिद्धि प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। आप साधनाओं मैं प्रयत्न नहीं कर पा रहे हैं। पूर्ण मनोयोग से उनमें जुट नहीं पा रहे हैं। पूरी तरह से जुटने की जरूरत है आपको, टुकड़े-टुकड़े हो जीवंत होना और सांस लेना, वह कोई बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। आप पर ऑक्सीजन मास्क चढ़ा दिया जाये और अस्पताल में लिटा दिया जाये, वह जीवन नहीं है। आप ऑक्सीजन ले रहे हैं और मर रहे हैं। ऑक्सीजन ले रहे हैं और जी रहे हैं वह जीवन कहलाता ही नहीं। जीवन वह कहलाता है जहां वक्षस्थल आपका पूर्ण पौरुषवान हो, शरीर ताकतवान और क्षमतावान हो और आप सब कुछ बैठे-बैठे देख सके कि क्या घटनाये, घट रही हैं। उन पहलुओं को देख सकें, जो ज्ञान को समेटे हुये हैं। उन पर्वतों को देख सकें, उस हिमालय को देख सके, उस मान सरोवर को देख सकें और उन उच्च कोटि की चीजों को देख सकें जो जीवन का मूल उत्सव हैं। वे घोचें, पत्थर नहीं है, वे हीरे हैं।
आप एक बार भी उन्हें अपने जीवन में देखेंगे तो आपको ये सब अपने जीवन की चीजें बहुत मामूली लगने लग जायेंगी। जीवन में एक ही क्षण दूसरी बार नहीं आ सकता। एक बार क्षण आ गया और उसे आपने नहीं पकड़ा तो आप चूक गये। मान लो इस क्षण में आपको साधना सिद्धि सफलता दीक्षा दे रहा हूँ तो यह जरूरी नहीं कि आपके जीवन में दूसरा ऐसा क्षण आये या मैं वापस आपको यह दीक्षा दूं यह जरूरी या संभव नहीं है। अगर चूक गये तो चूक गये आप चूक गये तो बहुत बड़ी चीज चूक गये आप छोटी मोटी चीज नहीं चूके। आज शायद आप इस बात को एहसास न करें, मगर एक दिन अवश्य करेंगे।
मैं आपको समुद्र के बीचों बीच कूदने की तैयारी करा रहा हूं। मैं नहीं चाहता कि आप समुद्र के किनारे बैठे रहें, आप डरपोक बने रहें, भीरु बने रहे। आप घबरायें नहीं कि अंदर कूदूंगा तो मर जाऊंगा, मर जाएँगे तो मर जाएँगे , मगर यह गारंटी की बात है कि अगर निकलेंगे तो मोती लेकर निकलेंगे, घाँचे, पत्थर लेकर फिर बाहर नहीं निकलेंगे।
और मेरा तो बराबर यही चिंतन रहता है कि मैं उन दीक्षाओं को, प्रयोगों को, उस ज्ञान को, उन प्रवचनों को स्पष्ट करूं। जितने क्षण हमारे पास हैं, चाहे दो घंटे हैं, चार घंटे हैं तो इनमें जितना ज्यादा शिष्यों को दे सकूं दूं। मैंने निश्चय कर लिया था कि बिल्कुल शिविरों में नहीं जाऊंगा। मानस बना लिया था, सौ परसेंट सोच लिया था कि शिविरों में भाग नहीं लेना है। अगर साधक मेरे पास स्वयं आयेंगे तो सिखा दूंगा।
मगर प्रेम की डोर एक ऐसी मजबूत होती है जिससे मजबूत कोई डोर होती ही नहीं। फिर आप खींच लेते हैं उस डोरी को खींचते हैं तो मेरे पांव उठते हैं, फिर सोचता हूँ कि यह जान तो अंदर रह ही जायेगा फिर क्या फायदा होगा? फिर मेरे सांस लेने से फायदा भी क्या? जब एक-एक सांस इस बात के लिये गिरवी रख दी है कि शिष्यों के लिये ही हर क्षण समर्पित हो, प्रत्येक सांस शिष्यों के लिये हो तो फिर मैं सांस अकेला लूं उससे, फायदा भी क्या होगा?
मैं ऐसा जीवन नहीं जी सकता कि पलंग पर लेटा रहूं और ए.सी. चलता रहे और मैं नींद लूं। ऐसा संभव नहीं हो पाता। जो कुछ अंदर है वह मैं देना चाहता हूं और इतना अधिक हिलोर है, समुद्र है कि मैं देता ही रहूं, पुस्तकों के माध्यम से, प्रवचनों के माध्यम से, कैसेटों के माध्यम से और आपको जीवित जाग्रत चेतन्य व्यक्तित्व बनाकर के मैं चाहता हूं कि आपको कृष्ण और राम की तरह ऊंचा उठा सकूँ।
वे भी एक व्यक्तित्व थे, एक सामान्य व्यक्तित्व। यदि उन्हें आप एक इतिहास की दृष्टि से देखें, भगवान की दृष्टि से तो वे प्रणम्य है। मैं तो आपको भी प्रणाम करता हूं कि आप भी निश्चित ही उसी रूप में हैं। मगर आप उस जगह पहुंचेंगे तब पूरा संसार झुक जायेगा आपके सामने जगह-जगह आपकी स्तुति हो पायेगी, जगह-जगह एहसास हो पायेगा कि हमारे पूर्वज क्या थे क्योंकि आप उन सिद्धियों, उन सफलताओं को प्राप्त कर पायेंगे और यदि आप नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं, न ही आपका अभ्यास है तो गुरु खुद की तपस्या के अंश से उसे आपके भीतर प्रवाहित कर दें।
कोई साधना शिविर होता है तो पांच पांच दिन तक सोता ही नहीं, क्योंकि समय ही नहीं मिल पाता। रात्रि में नींद लेने का और दिन में सोने का सवाल ही नहीं होता, लेटता हूँ तो फिर यह कल्पना होती है कि कल यह दिवस है, शिष्यों को क्या दूं, किस प्रकार से दू? बीस चीजें मेरे मानस में होती हैं तो बीसो उतनी महत्वपूर्ण भी होती है। बीस में से क्या दूं, मगर ऐसा दे दूं कि फिर उनको कुछ लेने की जरूरत रहे ही नहीं।
मैं तो हर क्षण देने को तैयार हूं, आवश्यक है कि आप ग्रहण करें और ग्रहण करने के लिये कोई भी क्षण उपयुक्त हो सकता है। उसके लिये फिर कोई जरुरी नहीं कि सिद्ध मुहुर्त ही हो क्योंकि जगदम्बा तो अपने आप में प्रत्येक क्षण चैतन्य हैं, गुरु तो हर क्षण देने के लिये तत्पर हैं।
शास्त्रों में कहा गया है कि आषाढ़ महीने में देव शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ला एकादशी को देवोत्थान होगा या देव उठेंगे। अगर उस समय उठेंगे तो फिर श्रावण के महीने में हम भगवान शिव की पूजा कैसे करते हैं। शिव तो सोये हुये हैं? फिर शारदीय नवरात्रि में हम जगदम्बा की पूजा कैसे करते हैं, जगदम्बा तो सोई हुई है?
देव सोये हुये नहीं हैं, वे तो सदैव चेतन्य है। वह तो हमारे अन्दर जो ज्ञान है वह सोया हुआ है। उसको जीवित जाग्रत चेतन्य करके एक एक देवता की तस्वीर को जिंदा, जाग्रत करके सामने खड़ा कर सके, वह ज्ञान, वह चेतना आप में आनी चाहिये, वह ताकत आपकी आंख में आनी चाहिये और वही ताकत आपको देना चाहता हूँ, मैं।
फिर आप देखेंगे कि उस आनंद का अलग ही मजा है, अपने आप में अलमस्त फकीरी है। गृहस्थी फिर भी चलाते रहेंगे आप। गृहस्थी आपकी चलनी भी चाहिये। मैं आपको संन्यासी होने की दीक्षा नहीं दे रहा हूँ। मैं आपको कह भी नहीं रहा हूँ कि आप अपनी पत्नी को छोड़ दें या पति को छोड़ दें। मैं कह भी नहीं रहा हूं कि व्यापार छोड़ दें या नौकरी छोड़ दें। मैं कह रहा हूँ कि वैसे घोंचे, पत्थर आप बटोरिये मत करते रहिये, मगर बीच समुद्र में कूदने की हिम्मत रखिये आप । और फिर जब मैंने आपको आश्वासन दे दिया तो आप मेरे ऊपर भरोसा करिये कि इस समुद्र में मैं आपको डूबने नहीं दूंगा, यह गारंटी है निश्चित रूप से।
अगर कोई समझदार आदमी है तो इशारा ही समझ जाता है, मूर्ख आदमी है तो डंडे मारने से भी नहीं समझता। हम दो आँख कान वाले तो हैं, मगर हम कितने ज्ञानी है या अज्ञानी है, यह आप द्वारा खुद निर्णय करने वाली बात है। आपको समझना होगा कि क्या यह आदमी जो इतना कह रहा है बार-बार, क्या यह मूर्ख है, क्या इसको कोई स्वार्थ है, क्या इसमें कोई कमी है, क्या इसको रोटी नहीं मिल रही है, क्या इसके सोने के लिए पलंग नहीं है, क्या इसकी पत्नी नहीं है, कमी क्या है इनके जीवन में?
और कमी नहीं है तो हमारे सामने आकर के इतना फोर्स क्यों कर रहा है यह हमें? क्यों बार-बार प्रत्येक को तैयार कर रहा है? प्रत्येक को क्यों प्रोत्साहित कर रहा है? प्रत्येक को क्यों छाती में लात मार रहा है? … और मैं कह रहा हूं कि मैं ऐसा यदि नहीं करूं तो फिर मेरे जीवन का मतलब रहेगा ही नहीं। यदि आप में से प्रत्येक साधना में सिद्धि नहीं प्राप्त कर पाये, तो मैं समझुंगा कि मैं स्वयं निराश हो गया, असफल हो गया और असफलता से मैं मरना ही नहीं चाहता, रहना ही नहीं चाहता हूँ, सांस भी नहीं लेना चाहता हूं।
और साधना में सफलता के लिये आपको एक सहारे की जरूरत है, एक गुरु की। ऐसा गुरु जो आपसे तीस साल से जुड़ा है, पंचास साल से जुड़ा है, पिछले कई जन्मों से जुड़ा है और मैं संन्यास में था तो एक भी संन्यासी शिष्य हिला नहीं, विचलित नहीं हुआ, मैं चार-चार साल भी उनसे नहीं मिला तो भी उनके मन में कोई फर्क आया ही नहीं, अंतर आया ही नहीं। उन्हें भरोसा था कि हो सकता है किसी वजह से गुरुजी नहीं मिल पाये हो मगर मिलेंगे जरूर मिलेंगें तो एक साथ सब कुछ दे देंगे और बराबर उनका इंतजार बना रहता था और मुझे भी बराबर मेरे माइंड में क्लिक करता रहा कि उनका ऋण मेरे ऊपर हैं क्योंकि बराबर जुड़े हुये हैं वे, उनको मुझे देना है।
आप इतने साल से मुझसे जुड़े हैं और प्रत्येक बात मेरी मानी है। तो मेरा धर्म, मेरा कर्तव्य है कि मेरा ऋण तब उतर पायेगा। जब मैं आपको वह सब कुछ दूंगा जो देना मेरा धर्म, मेरा फर्ज मेरा कर्तव्य है। उसमें पीछे नहीं हट सकता आपसे ।
.. और नवरात्रि हो, होली हो या दीपावली हो, जहां गृहस्थ शिष्यों को संभालना पड़ता है वहां संन्यासी शिष्यों को भी संभालना पड़ता है। वे भी इंतजार करते हैं कि पंद्रह मिनट के लिये ही सही, गुरुदेव आये और दीक्षा दें, प्रवचन दें और कुछ ऐसी क्रिया करें जो हमारे जीवन में अभीष्ट लक्ष्य दायक हो। यो तो साल का प्रत्येक दिन महत्वपूर्ण है, 365 दिन ही महत्वपूर्ण है मगर कुछ क्षण ऐसे होते हैं जो अपने आप में बहुमूल्य बन जाते हैं। उन क्षणों की कोई तुलना नहीं हो सकती। उन क्षण विशेष में कुछ ऐसा कार्य हो जो अपने आप में दुर्लभ हो, अद्वितीय हो, श्रेष्ठ हो और यहीं चिंतन लेकर के मैंने उस श्लोक से अपनी बात प्रारम्भ की।
इसी श्लोक, इसी चिंतन, इसी विचार, इन्हीं पंक्तियों के माध्यम से शंकराचार्य अपने गुरु के पास जाकर खड़े हुये और उन्होंने कहा कि ”मैं एक सामान्य व्यक्तित्व हूं, एक सामान्य बालक हूं, एक ऐसा बालक हूं कि कोई ज्ञान नहीं है मुझे, एक सड़क पर पड़ा हुआ कंकड़ पत्थर हूँ, जिसको कोई भी ठोकर मार देता है और मैं केरल से रवाना होकर नर्मदा के किनारे तक इसलिये पहुंचा हूं कि मैं आप जैसा गुरू प्राप्त कर सकूँ। मगर आपसे पहले मैने शिव साधना की है, इसलिये कि मैं शिव से कुछ चाहता ही नहीं था, मैं तो केवल यही चाहता था कि इस जीवन में ऐसा गुरु हो जो मेरा अभीष्ट लक्ष्य मुझे दे सके, जो मेरे मन की इच्छा पूरी कर सके, मेरे जीवन को पूर्णता दे सके, मेरे जीवन को अद्वितीयता दे सके।”
गोविंदपादाचार्य चुपचाप सुनते रहे। उन्हें ज्ञात था कि शिव साधना की है इस बालक ने और उस शंकराचार्य ने एक पूरी तरह संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत किया। इतना संघर्षपूर्ण कि एक आठ साल का बालक, तब उसने संन्यास लिया तो घर वालों ने उसे अलग कर दिया, समाज ने अलग कर दिया क्योंकि समाज के बंधन उस समय बहुत मजबूत थे। समाज ने कहा, तुम जाति से बाहर हो।
और उन्हीं दिनों उनकी मां की मृत्यु हो गयी जो कि जन्म देने वाली थीं। उन्होंने अपने परिवार वालों को, कुटुंब वालों को कहा कि मेरा धर्म है कि मैं अपनी मां का दाह संस्कार करूं। मगर सबने कहा कि तुम समाज से बाहर हो, हम तुम्हारी माता के दाह संस्कार में भाग नहीं लेंगे तो शंकराचार्य ने सोचा यह कैसा समाज हुआ? और इस समाज को मैं तब मजबूत कर पाऊंगा जब मैं कुछ बनूंगा और अपनी मां की लाश को कंधे पर अकेला ढोकर, श्मशान में जाकर अकेले उसे मुखाग्नि दी।
कल्पना करे कितना दुःख, कितनी वेदना हुई होगी, कितनी तकलीफ हुई होगी उस आठ साल के बालक को। जब उस बालक ने भगवान शिव की साधना की तो स्वयं भगवान शिव ने कहा तेरा नाम आज से शंकर रहेगा मगर पूर्णता प्राप्त करने के लिये तुम्हें नर्मदा के किनारे जाना पड़ेगा। वहीं पर तुम्हें गुरु मिलेंगे गोविंदपादाचार्य, और जब तक तुम्हारे अंदर का एक एक अणु नहीं खुलेगा, नहीं जाग्रत होगा, जब तक अंदर की चेतना जाग्रत नहीं होगी, तब तक तुम्हारी सारी साधनाये व्यर्थ है और तुम्हें और कोई साधना करनी ही नहीं है। ऐसा कह कर भगवान शिव अर्न्तध्यान हो गये।
शंकर आठ नौ साल का बालक, कहां केरल, कहां पर मध्य प्रदेश! नर्मदा के किनारे ओंकारेश्वर के पास में आज भी शंकराचार्य की गुफा है। गोविंदपादाचार्य के पास जाकर उन्होंने कहा कि मैंने भगवान शिव की साधना की है और उन्होंने कहा है कि तुम्हें जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त होनी ही चाहिये और ऐसी होनी चाहिये कि उसके बाद जीवन में कोई साधना करने की जरूरत नहीं रहे।
शंकर ने कहा- मंत्र प्रमाणिक हैं या नहीं, सामने खड़े होकर मंत्र बोलते हैं या नहीं, यह मैं देखना चाहता हूँ। मैं देखना चाहता हूँ कि किसी भी गृहस्थ को मैं पूर्णता तक कैसे पहुंचा सकता हूं, उनके जीवन के अभावों को कैसे दूर कर सकता हूं और उससे भी बड़ी बात यह कि भगवान शिव ने कहा कि मेरी उम्र केवल 32 वर्ष है, इन 32 वर्षों में मैं उस जगह पहुंचना चाहता हूँ जहां अपने आप में संपूर्णता प्राप्त हो। बस केवल यही इच्छा है। मगर गोविन्दपादाचार्य ने कहा कि जब तक तुम्हारे अंदर के सारे अणु, परमाणु विखंडित नहीं होंगे, जाग्रत नहीं होंगे, चेतन्य नहीं होंगे, तब तक तुम्हें अद्वितीयता प्राप्त नहीं हो पायेगी। तुम्हारे जैसे साधना करने वाले और पच्चीस मिल जायेंगे और सैकड़ों लोग मिल जायेंगे, मगर संसार में तुम अकेले ही बनो, तुम्हारे जैसा कोई अद्वितीय बने ही नहीं, अगर तुम्हारी यह अभिलाषा, यह लक्ष्य है और अगर इस बात के लिये मेरे पास आये हो तो बहुत कठोर साधना करनी पड़ेगी और साधना करनी पड़ेगी एक शिष्य बन करके केवल गुरु सेवा के अलावा तुम कुछ करो ही नहीं मैं देखना चाहता हूँ कि तुमसे कितनी क्षमता है?
शंकर ने कहा- यह तो बहुत छोटी बात है, अगर आप कहे तो अपना जीवन ही गुरुदेव आपके चरणों में समर्पित कर दूं मैं चाहता हूं कि मेरे अंदर के सारे चक्र जाग्रत हो जाये एक बार में ही और आप ही कर सकते हैं अपने पाद प्रहार से क्योंकि आपका नाम इस समय विश्व में विख्यात है। सारा विश्व इस बात को स्वीकार करता है कि आप उस ज्ञान को भी दे सकते हैं कुण्डलिनी जागरण होने के माध्यम से, चक्र जागरण के माध्यम से।
और आप लोगों की एक गलतफहमी दूर कर दूं कि कुण्डलिनी के सात चक्र नहीं होते, कुण्डलिनी के एक सौ आठ चक्र होते हैं और उनमें से भी 64 चक्र केवल आपके मस्तिष्क में हैं। और जब वे पूरे चक्र जाग्रत होते हैं तभी पूर्णता प्राप्त होती है। पहले यह ज्ञान था मगर बाद में यह ज्ञान अधूरा बना रहा, एक शॉर्ट कट बना रहा कि ये सात मेन पॉइंट हैं इन्हें स्पर्श कर लीजिये।
शंकराचार्य ने कहा- मैंने तो सुना था कि मूलाधार से सहस्त्रार तक केवल सात ही चक्र हैं। तो गोविंदपादाचार्य ने कहा – इसीलिये अद्वितीय नहीं बन सकते क्योंकि ज्ञान अधूरा है। तुमने शब्द प्रयोग किया अद्वितीय और मैंने कहा कि तुम्हें अद्वितीय बनाऊंगा। मगर अद्वितीय बनना है तो पूरे 108 चक्रों को जाग्रत करना पड़ेगा तुम्हारे। केवल सात चक्रों को जाग्रत करने से काम चलेगा ही नहीं और उसके लिये वह विधि तुम्हें देनी होगी, एक एक चक्र को पूर्णता के साथ जाग्रत करना पड़ेगा एक ही क्षण में, एक ही झटके में, और अगर ऐसा नहीं होता तो तुम जीवन में वह नहीं प्राप्त कर सकते जो तुम चाहते हो। इसलिये मैं यह जानना चाहता हूं कि तुम चाहते क्या हो? शंकराचार्य ने कहा- मैं छः चीजें चाहता हूं, यदि मुझे बोलने की अनुमति हो तो मैं छः तथ्यों की ओर आपका ध्यान, आकर्षित करना चाहता हूं। मैं केरल प्रदेश का एक ब्राह्मण बालक हूं। बचपन में पिता की मृत्यु हो गई। मां का दाह संस्कार मैंने अपने कंधे पर डाल कर किया और आपको ज्ञात है कि भगवान शिव की साधना इसलिये की कि मैं उस गुरु को प्राप्त कर लूं, जो गुरु मुझे उस पूर्ण ज्ञान को दे सके और पहली बार आपने यह बताया कि सप्त चक्र नहीं होते 108 चक्र होते हैं। यह पहली बार सुन रहा हूं। छः तथ्य मेरे सामने है और मैं चाहता हूँ कि मैं कायाकल्प कर सकूं, जिस समय भी मैं चाहूं, मैं पूर्ण शरीर को परिवर्तित कर सकूं। मैं यह जान लेना चाहता हूँ कि किस प्रकार एक सर्प पूर्ण कायाकल्प कर लेता है। भगवान शिव भी सर्प से प्यार करते हैं और भगवान विष्णु के ऊपर भी सर्प की छाया रहती है। उस कायाकल्प विधि को समझ लेना चाहता हूँ, मैं समझ लेना चाहता हूं कि किस प्रकार से वृद्धावस्था को यौवनावस्था में परिवर्तित किया जाये किसी का भी, मात्र मेरा ही नहीं और मनुष्य के ही रूप में नहीं, मैं जिस रूप में चाहू वैसा बन सकूं, क्या ऐसा संभव है?
शंकराचार्य ने दूसरी बात कही कि मुझे 32 साल उम्र मिली है। 32 में से दस साल तो व्यतीत हो गये और 22 वर्षों में क्या में पूरे भारत वर्ष में अपने व्यक्तित्व को, अपने ज्ञान को, अपनी चेतना को हजारों हजारों शिष्यों तक पहुंचा सकता हूं? क्या इतनी विद्वता और सारे शास्त्र एक साथ कंठस्य हो सकते हैं? कब तक में पढ़ता रहूंगा, यजुर्वेद, अथर्ववेद, सामवेद, ऋग्वेद? उन शास्त्रों का तो कहीं अंत ही नहीं है। उन उपनिषदों को मैं कब तक पढ़ता रहूंगा? क्या कोई ऐसी साधना नहीं है, जिसके माध्यम से समस्त मंत्र ही मेरे शरीर में अपने आप में प्राणमय बन जाये? एक एक रोम से मंत्र निकलने लग जायें। क्या कोई ऐसी क्रिया है? क्या मैं ऐसा कर सकता हूँ,
शंकर को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा मुझे तो सही ढंग से केरल की भाषा ही नहीं बोलनी आती, क्या में इतना अद्वितीय वक्ता बन सकता हूं कि मैं बोलूं और सामने वाला सम्मोहित हो जाये। मुग्ध हो जाये, बात सुनने में अपने आप में तन्मय हो जाये, लीन हो जाये? कोई कहे और पूर्ण शास्त्र मेरे अंदर से प्रवाहित हो, कोई कहे उपनिषद् का श्लोक और मेरे अंदर से उपनिषद् का श्लोक प्रवाहित हो उस प्रवाह में मुझे वेद मंत्र बोलना पड़े तो मैं बोल सकूँ, मुझे सोचना नहीं पड़े कि यह यजुर्वेद का कहां मंत्र है, कैसे बोलूं? ऐसा मैं चाहता हूँ। क्या मेरा पूरा शरीर मंत्र मय बन सकता है?
गोविंदपादाचार्य ने कहा- ऐसा बन सकता है क्योंकि प्रत्येक रोम अपने आप में एक मुख होता है, लाखों मुख हैं।
मनुष्य के तो लाखों मुंह हैं, लाखों हाथ हैं, लाखों चेतनायें हैं और आप यह सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं।
शंकर ने कहा- चौथा एक और बिंदु, इस कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से क्या मैं अपने पिछले सैकड़ो जन्मों को और अगले सैकड़ों जन्मों को एक साथ देख सकता हूं? और देखूं ही नहीं, क्या मैं इस जीवन को उन आने वाली बाधाओं से परे हटा करके, सफलता प्राप्त कर सकता हू? बाधायें मेरे सामने आये ही नहीं, कठिनाइयां नहीं आये। जो कुछ मैंने चाहा है वह प्राप्त हो जाये। अगर मैंने सम्मोहन चाहा है, वशीकरण चाहा है तो सामने वाला पूर्ण वशीभूत हो देखूं और वह सम्मोहित हो जाये। क्या कोई ऐसी विधि है? क्या इसके लिये मुझे कोई दूसरा मंत्र जप करना पड़ेगा? कोई दूसरी विधि है?
गोविंदपादाचार्य ने कहा। एक ही विधि है। दूसरी विधि की जरूरत ही नहीं है, और तुम क्या पूछना चाहते हो?
तो शंकर ने कहा कि मेरी अंतिम इच्छा यह है कि आचार्य पद प्राप्त कर सकूं। उच्चकोटि का गृहस्थ बन सकूं, उच्च कोटि का कवि बन संकू, उच्च कोटि का लेखक बन सकूं और मैं उस वशीकरण के माध्यम से पूरे ब्रह्माण्ड को जाग्रत करता हुआ चेतनायुक्त बना सकूं। गोविंदपदाचार्य ने कहा- यह अंतिम बात नहीं पांचवी बात कही है तुमने, छठी और कुछ है बात तुम्हारी ?
शंकर ने कहा मैं संकोच के मारे बोल नहीं पाया था। गोविंदपादाचार्य ने कहा जब गुरु और शिष्य के बीच में हवा भी नहीं होती कोई पर्दा होता ही नहीं तो फिर संकोच तुम्हें रखने की जरूरत ही नहीं।
तो शंकर ने कहा- क्या आज के युग में…..
अभी केवल 700 साल हुये हैं शंकराचार्य को उत्पन्न हुये, कोई दस हजार, पच्चीस हजार वर्ष नहीं हुये हैं।
तो शंकर ने कहा- क्या ऐसा संभव है कि एक अंगुष्ठ मात्र में मनुष्य इस पूरे शरीर को, कन्वर्ट करके, इतना छोटा सा बनाकर के अन्नमय कोष से प्राणमय कोष में परिवर्तित करके, किसी भी स्थान पर जा सकता है? अगर मैं सिद्धाश्रम जाना चाहूं तो क्या जा सकता हूँ? क्या मैं इंद्रलोक मैं जा सकता हूँ? क्या मैं भगवान शिव के कैलाश जाकर वैसे साक्षात् दर्शन कर सकता हूं जैसे आपके कर रहा हूं ? क्या में ब्रह्म लोक में जाकर के जो उनके चारों मुख से वेद उच्चरित हो रहे हैं, उनको सुन सकता हूँ? क्या आज के युग में ऐसा संभव है?
गोविंदपादाचार्य ने कहा ये प्रश्न सारे, तुम्हारे नहीं हैं, ये प्रश्न भगवान शिव के हैं जो तुम्हें दिये गये हैं। तुम्हें रास्ता बताया है और यह बताया है कि तुम यह ज्ञान कहां से प्राप्त कर सकते हो ? और ये छः की छः अपने आप में ऐसी विधियां है कि एक एक विधि में बीस साल लगते हैं। कोई छोटी चीज तुमने पूछी ही नहीं। ऐसा कैसे संभव है कि एक ही बार में सब कुछ संभव हो जाये। पूरा आकाशगमन, एक लोक से दूसरे लोक में जाने की क्रिया, संपूर्ण वेद वेदांत ज्ञान, चेतना, मंत्र अपने आप में प्रत्येक रोम-रोम से निकलते हों। एक व्यक्तित्व इतना सम्मोहित कर सके चेहरे को आपके कि कोई देखे और उसकी हिम्मत न रहे कि आपके सामने खड़ा रह सके और आचार्य बन सको कि विद्वता के क्षेत्र में तुम्हारे सामने खड़ा नहीं हो सके और तुम गृहस्थ जीवन को भी 4 पूर्णता के साथ देखना चाहते हो और संन्यास जीवन की भी अंतिम पराकाष्ठा तक पहुंचना चाहते हो, और तुम चाहते हो कि तुम भगवान शिव को साक्षात् देख सको कि वे कैलाश पर मां पार्वती से बात कर रहे हैं, और तुमने प्रश्न किया कि क्या तुम विष्णु लोक, इंद्रलोक में विचरण कर सकते हो; क्या पूरा शरीर अंगूठे के आकार का हो सकता है? तो शास्त्रों में तो इसके बारे में कहा गया है कि प्रत्येक विधि अपने आप मैं इतनी महान है कि एक ही विधि प्राप्त कर लें तब भी व्यक्ति अद्वितीय बन जाता है और उसमें भी बीस साल लगते हैं। तुम्हारे सामने जो ये संन्यासी शिष्य बैठे हैं, उनमें से किसी को, कोई मंत्र सिखा रहा हूं, किसी को कोई और मंत्र सिखा रहा हूं, पंद्रह बीस साल से और तुमने आकर के एक साथ छः की छः चीजों को मांग लिया, मेरे सामने रख दिया। यह असंभव है। कोई गुरु यह ज्ञान दे ही नहीं सकता क्योंकि उनको मालूम ही नहीं है।
और गोविदपादचार्य ने कहा आने वाली पीढ़ियां फिर सात चक्रों में उलझ जायेगी, उनको मालूम ही नहीं होगा कि 108 चक्र कहां होते हैं और जब ज्ञात ही नहीं तो कोई गुरु चक्रों को जागृत करेगा कैसे और जायज नहीं करेगा, तो फिर रोम-रोम से मंत्र ध्वनि होगी कैसे और देह को प्राणों में परिवर्तित करेगा कैसे, जिससे देह सुरक्षित रहे।
शंकर ने यहाँ चाहा कि उसे यह सब प्राप्त हो कि यह प्रत्येक लोक में यात्रा कर सके एक सेकेण्ड में। यह कितना आनंददायक तथ्य, कितने आनंददायक प्रश्न है। क्या आपको अपने जीवन में कोई ऐसा गुरु मिला जो यह सब दे सके? शंकर को मिला, मगर गुरु मिलने से पहले उसने भगवान शिव की पूर्ण साधना की, एक पैर पर खड़े होकर के पत्ते खाकर के। वह चाहता था कि उसे एक ही साधना करनी है। उतनी उम्र उसके पास थी ही नहीं, उम्र केवल 21 या 22 साल बची थी और उसने सोचा कि पूरे आर्यावर्त को अपनी मुठ्ठी में कस लेना है। मंत्रमय बन जाना है, चेतनामय बन जाना है, पूरे ब्रह्माण्ड में यात्रा कर लेनी है और यह दिखा देना है कि मैं आचार्य हूं मैं दिखा देना चाहता हूं कि मेरे चेहरे में अपूर्व ओज है, मैं दिखा देना चाहता हूं कि इतनी चुंबकीय शक्ति है कि जिसको चाहूँ अपने अनुकूल बना सकता हूं, चाहे वह कोई भी व्यक्तित्व हो, मेरे सामने खड़ा नहीं रह सके।
शंकर ने कहा – सबसे बड़ी बात तो यह कि मैं सारे 108 चक्रों को एक साथ जाग्रत करना चाहता हूं और मैं सीखूंगा तो आपसे ही। क्योंकि इस विधि का और कोई गुरु ज्ञाता है ही नहीं। मृत देह को वापस जाग्रत करने का संजीवनी ज्ञान और किसी के पास है ही नहीं। वृद्धावस्था में बिल्कुल मृत्यु के सन्निकट आये व्यक्ति को पूरा जीवन दे दिया जाये, उसको ठीक कर दिया जाये वह विद्या किसी के पास नहीं है, उन लोकों में विचरण कर लिया जाये जो अद्भुत हैं, वह विद्या किसी के पास नहीं है। क्या मैं एक मरे हुये व्यक्ति को वापस जीवित कर सकता हूं ?
तो गोविंदपादाचार्य ने कहा तुम तब ऐसा कर सकते हो जब एक पूर्ण गुरु तुम्हें मिले, जब उस गुरु के प्रति पूर्ण तुम्हारी भावना हो और वह पूर्ण प्रसन्न होकर तुम्हारे चक्रों को जाग्रत करे दे।
शंकर ने कहा मैं तैयार हूं।
गोविंदपादाचार्य ने कहा नहीं। यह आज संभव नहीं है और यह भी जरुरी नहीं कि तुम मंत्र जप करो। मगर यह नवरात्रि में सिद्धिदात्री के दिन ही संभव है। उस विशेष मुहूर्त के न पहले न बाद में सिद्धि तभी प्राप्त हो सकती है, इतनी उच्चकोटि की दीक्षा तभी मिल सकती है, इससे पहले नहीं मिल सकती। तुमने सारे शास्त्रों को एक साथ इकठ्ठा करके रख दिया है, यह एक मनुष्य के दिमाग का विचार नहीं हो सकता। इतने उच्चकोटि के प्रश्न तुम्हारे मानस में नहीं आ सकते, किसी के मानस में आज तक आये ही नहीं एक साथ। न ऋगवेद में आया, न यजुर्वेद में आया, न अथर्ववेद में आया, न सामवेद में आया, न उपनिषद में आया, न पुराण में आया। यह किसी और के मस्तिष्क के प्रश्न है और भगवान शिव के अलावा कोई और इस ज्ञान को बता ही नहीं सकता जिससे एक मृत व्यक्ति को जीवित कर सकें, चेतना दे सकें, रोग रहित कर सके, अपने आप को चुंबकीय कर सके और कुण्डलिनी के 108 चक्रजाग्रत कर सके।
मैंने स्वयं जब गोविंदपादाचार्य और शंकराचार्य के इस भाष्य को पढ़ा तो आश्चर्यचकित रह गया कि क्या हम सब अभी तक अंधेरे में भटक रहे हैं, क्या मैं अपने शिष्यों को समझ नहीं पा रहा हूं। अपने शिष्यों को एकबार में ही वह सब दे दिया जाये कि उनका चेहरा अपने आप में बहुत सम्मोहक बन जाये, इतनी ताकत आ जाये, क्षमता आ जाये कि सारा वेद पुराण का ज्ञान प्राप्त हो जाये, फिर यह जरूरत रहे ही नहीं कि यह मंत्र जप करें, या वो साधना करें।
शंकराचार्य ने कहा मुझे कोई साधना करनी ही नहीं, क्योंकि उम्र ही मेरे पास कम है। मुझे और कोई साधना चाहिये ही नहीं क्योंकि भगवान शिव ने कहा है कि इन छः तथ्यों से मिलकर ही सर्वांगपूर्ण व्यक्तित्व बन सकता है और यह साधना चूक गये शंकर तो तुम जीवन चूक जाओगे, पूरा जीवन खोखला और निरर्थक हो जायेगा और भगवान शिव ने यह भी कहा कि यह ध्यान रखना कि वरदान मांगना गुरु से तो एक ही मांगना, कि मेरे पूरे 108 चक्र जाग्रत हों केवल सात चक्र नहीं। वे तुम्हें बहलाये, भटकाये कुछ भी करें। तुमने मेरी साधना की है मैं तुम्हें उसी जगह पहुंचा रहा हूं जहां तुम्हें यह सब प्राप्त हो सकता है। वहीं गुरु तुम्हें संजीवनी विद्या दे सकता है, वे गुरु मृत व्यक्ति को जीवित करके, प्रत्येक रोम-रोम में किस प्रकार से अग्नि ज्वाला पैदा की जा सकती है, वे जानते हैं कि वरदान देने की क्रिया कहां से आ सकती है, शाप देने की क्रिया कहां से आ सकती है यदि कुण्डलिनी पूरी जाग्रत है तो जो आप बोलें वह सत्य ही हो। उसको वरदान कहते हैं और यदि आपने क्रोध में किसी को कह दिया तो वह भस्म होगा ही, समाप्त होगा ही, चाहे वह आपका कैसा भी प्रबल शत्रु हो, यह वरदान देने का और शाप देने का ज्ञान तभी आ सकता है, चेतना तभी आ सकती है जब आपका पूरा शरीर एवं कुण्डलिनी जाग्रत हो ।
गोविंदपादाचार्य ने कहा – ऐसा हो पाने के लिये आवश्यक है कि तुम पूर्ण तन्मयता से गुरु सेवा एवं समर्पण करो। क्या तुम ऐसा कर सकोगे ?
शंकराचार्य ने कहा अगर मेरे जीवन के 21 साल बचे हैं तो आप कहें तो मैं 20 साल भी आपकी सेवा करने को तैयार हूं। एक साल भी फिर मेरे लिये सब कुछ प्राप्त करने के लिये बहुत होगा। मगर मैं यह अवसर नहीं चूकना चाहता क्योंकि फिर गोविंदपादाचार्य जैसे, आप जैसे गुरु मुझे नहीं मिलेंगे, फिर भगवान शिव की मेरी वह आराधना बेकार जायेगी, फिर जो इस जीवन में चाहता हूं कि सारे रहस्य देखूं वह नहीं हो सकेगा। मैं चाहता हूँ सारे विज्ञान मुझसे परास्त हो, गेरे सामने खड़े ही नहीं सह सके और शंकराचार्य ऐसे ही बने, उनके सामने कोई विज्ञान ठिक नहीं पाया, चाहे वे काशी में रहे, भोज रहे, उज्जैन में रहे। इसीलिये वे आचार्य कहलाये। मंडन मिश्र को भी उनके सामने हारना पड़ा, उनके चरणों में झुकना पड़ा, जो कि उस समय का, संसार का श्रेष्ठ विद्वान था और शंकर एक स्थान से कायाकल्प करके दूसरे स्थान में जा सके। जब मंडन मिश्र और शंकर का शास्त्रार्थ हुआ तो मंडन मिश्र ने कहा, मैं तुम्हें बहुत उच्च कोटि का विद्वान नहीं मानता हूँ क्योंकि मैं संसार का श्रेष्ठ विद्वान हूं मुझे सारे वेद कंठस्थ हैं, पुराण कंठस्थ हैं, शास्त्र कंठस्य हैं। आप जो भी कहें वह श्लोक मैं उच्चारित कर सकता हूं, आप मुझसे शास्त्रार्थ करें।
शंकराचार्य ने कहा मैं आया ही इसलिये हूं क्योंकि जो कुछ मैंने प्राप्त किया है, वह तुम प्राप्त कर ही नहीं पाये हो, इसलिये मैं तुमसे जीत जाऊंगा।
मंडन मिश्र की पत्नी भी विदुषी थी तो शंकराचार्य ने जब मंडन मिश्र को पराजित किया तो मंडन मिश्र की पत्नी ने प्रश्न किया और कहा कि पत्नी, पति की अर्द्धांगिनी होती है, मुझे आप हरायेंगे, तभी मंडन मिश्र पराजित माने जायेंगे। मंडन मिश्र की पत्नी ने गृहस्थ जीवन से संबंधित प्रश्न पूछा तो एक राजा के शरीर में कायाकल्प द्वारा प्रवेश करके शंकराचार्य ने गृहस्थ को भी देखा कि गृहस्थ क्या होता है और मंडन मिश्र और उसकी पत्नी को पराजित होकर उनका शिष्य बनना पड़ा।
और शंकर ने गृहस्थ भी देखा, संन्यास जीवन को भी देखा, ब्रह्म लोक और रूद्र लोक को भी देखा, अपने ऊपर एक चुंबकीय आकर्षण भी पैदा किया और सारे शरीर को मंत्र मय भी बनाया और पूरे भारतवर्ष में, पूरे आर्यावर्त में शंकर जैसा एक व्यक्त्वि ही बना और हम आज भी कहते हैं कि शंकर भाष्य जैसा ग्रंथ बन ही नहीं सकता, अगले दस हजार साल तक भी वैसा ग्रंथ बन ही नहीं सकता और शंकर जैसा व्यक्तित्व भी वापस पैदा नहीं हो सकता।
यह क्या चीज है? हम कब तक घिसटते हुये जीवन व्यतीत करते रहेंगे? आपने अपने जीवन में पोथियां पढ़ी कि सात चक्र हैं मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा चक्र और सहस्रार चक्र और जाग्रत एक भी हुआ नहीं और पोथियां पढ़-पढ़ के हजारों लोगों ने कुण्डलिनी जागरण करने की क्रिया शुरू कर दी। मगर क्या गोविंदपादाचार्य गलत थे? क्या शंकर भाष्य गलत है?
गोविंदपादाचार्य ने शंकर से कहा मैं तुम्हें अद्वितीय बनाऊंगा,मैं बताऊंगा कि तुम कैसे अपने शरीर को दूसरे शरीर में परिवर्तित कर सकते हो, मैं बताऊंगा कैसे किसी रोगी को वापस जीवन दे सकते हो। मैं तुम्हें बता सकता हूँ पूर्ण संजीवनी विद्या किसे कहते हैं, मैं तुम्हें सिखाऊंगा। मैं तुम्हें बता सकता हूँ कैसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर एक क्षण में जा सकते हैं। मैं सिखा सकता हूं कि कैसे उस काल को देख सकते हैं कि एक जीवन पहले या दो जीवन पहले तुम क्या थे आगे दो जीवन में क्या है और दो घंटे बाद क्या घटना घटित होने वाली है और सारा वेद, सारे उपनिषद्, सारे शास्त्र अपने आप तुम्हारे शरीर में समाहित कर सकता हूं। मगर यह हो सकता है केवल सिद्धिदात्री के दिवस ।
और मैं भी इस दिवस पर जब संन्यासी शिष्यों के पास जाता हूं तो वे कहते हैं कि आज तो आप केवल 108 कुण्डलिनी जागरण की दीक्षा दीजिये। इसके अलावा हमें कुछ चाहिये ही नहीं आज, क्योंकि ऐसा दिन फिर वापस जीवन में आ ही नहीं सकता और आज के दिन हम वह प्राप्त ही नहीं कर पाये तो सब व्यर्थ है। हम बीस साल से तीस साल से केवल आपके नाम का स्मरण कर रहे हैं कोई साधना नहीं कर रहे हैं, आप दीजिये तो यह उच्च कोटि की दीक्षा दीजिये।
और अगर मैं उनको दे सकता हूं वह दीक्षा तो मेरे गृहस्थ शिष्यों में क्या कमी है, उनको क्यों नहीं दू? उन संन्यासी शिष्यों में क्या विशेषता है और गृहस्थ शिष्यों में क्या न्यूनता है ?
ये छः की छः साधनाये, जो शंकराचार्य ने एक ही दीक्षा के द्वारा अपने गुरु गोविदपादाचार्य से प्राप्त की, ये अपने आप में अद्वितीय है, देव दुर्लभ है। श्रेष्ठतम है और प्रत्येक संन्यासी के लिये अगर आवश्यक है तो प्रत्येक गृहस्थ के लिये तो और भी आवश्यक हैं जिससे कि पहले से उन्हें पता लग जाये कि कहां समस्याये आने वाली हैं, पल-पल जो हमारे सामने मां, बाप, भाई, बहिन मरते जा रहे हैं उनको हम संजीवनी विद्या दे सकें। रोज अर्थी जाती है, हम कुछ नहीं कर पाते। हम जानना चाहते हैं कि भगवान शिव का साक्षात् स्वरूप क्या है? उन्हें देख नहीं पाते और केवल ॐ नमः शिवाय का जप करते रहते हैं।
शंकराचार्य ने पूछा- क्या मैं अपनी आंखों से कैलाश पर्वत देख सकता हूं, क्या ब्रह्मलोक देख सकता हूं, क्या इंद्र लोक देख सकता हूं, क्या उन अप्सराओं को देख सकता हूं, क्या सिद्धाश्रम को देख सकता हूँ? और गोविदपादाचार्य ने कहा अवश्य तुमको वह दीक्षा दूंगा। अवश्य देख सकते हैं। सिद्धिदात्रि के अवसर पर आप मेरे पास आना, मैं अवश्य तुमको वह दीक्षा दूंगा।
और संन्यासियों के लिये यह दीक्षा महत्वपूर्ण है तो गृहस्थ के लिये भी महत्वपूर्ण है। गृहस्थ भी अपने आप में उतना ही कठिन जीवन है जितना संन्यास है, संन्यास से ज्यादा कठिन गृहस्थ है तो मैं अपने गृहस्थ शिष्यों को उस जगह क्यों नहीं पहुंचाऊं जहां सन्यासी शिष्यों को पहुंचा रहा हूं। उनके लिये भी मेरा वही धर्म वही कर्तव्य है।
संन्यासियों के लिये यह दिवस महत्वपूर्ण है तो गृहस्थों के लिये भी अद्वितीय है। मगर अद्वितीय तब है जब आप गुरु से इस दिन, सिद्धिदात्री के दिन वह दीक्षा प्राप्त कर सकें।
…और ये साधनाये, यह दीक्षा आपको कहीं और मिल नहीं सकती बार-बार ऐसा गुरु मिल नहीं सकता जो एक साथ छ: की छः क्रियाओं को प्रदान कर सके, बार-बार ऐसी जीवन में स्थिति बन नहीं सकती, बार-बार ऐसी चेतना मिल नहीं सकती, बार-बार ऐसा कोहिनूर मिल नहीं सकता और यह दीक्षा मैंने पिछले पचास साल में दी ही नहीं देना संभव ही नहीं था, क्योंकि शिष्य उस स्थिति तक पहुंचे नहीं। मगर मैं कोई ज्ञान दबा कर रखना नहीं चाहता और क्रोधऔर जिद्द मुझे इस बात पर आई कि संन्यासियों ने कहा ऐसी दीक्षा हम ही प्राप्त कर सकते हैं। मैंने कहा- अगर तुम प्राप्त कर सकते हो तो मेरे गृहस्थ शिष्य भी प्राप्त कर सकते हैं। उनको भी मैं यह दीक्षा दूंगा, हर हाल में दूंगा। उन्होंने कहा- ये तो मल-मूत्र से भरे शरीर हैं।
मैंने कहा मैं इन्हें प्राणमय बना दूंगा। अगर यह देह, मल-मूत्र से भरी है तो मैं इसे प्राणमय बना दूंगा जहां अन्नमय कोष की जरूरत ही नहीं रहे, खाने की जरूरत ही नहीं रहे, पीने की जरूरत ही नहीं रहे। अन्नमय कोष को प्राणमय कोष में परिवर्तित ही तो करना है, परिवर्तित करने से ये उस जगह पहुंच जायेगे जहां तुम पहुंचे हुये हो, उसके बाद वे छः की छः साधनाये उन्हें एक साथ दे दूंगा।
यही कशमकश मेरी उन संन्यासियों के साथ चली। वे सब उत्सुक होकर सोचते हैं कि यह तो बिल्कुल एक नयी पगडंडी, नया रास्ता बना रहे हैं, जिनको देना ही नहीं चाहिये, उनको दे रहे हैं एक दुर्लभ ज्ञान, कि वे गृहस्थ कल को कुछ भी कर लेंगे।
और मैं उनको कहना चाहता हूं कि मेरे गृहस्थ शिष्य इतने सक्षम बनें कि कुछ भी कर सकें और संसार में उन जैसा किसी का व्यक्तित्व ही न हो, यही चाहता हूँ मैं।
वे कहते हैं, यह जिद्द है आपकी और मैं कहता हूं कि अगर जिद्द नहीं है, हठ नहीं है तो पौरुष भी क्या है आपका? कोई संन्यासियों ने ठेका थोड़े ही ले रखा है कि वे ही सब कुछ करेंगे। गृहस्थ शिष्यों से भी मेरा उतना ही प्रेम है जितना संन्यासी शिष्यों से है, शायद उनसे भी ज्यादा है क्योंकि गृहस्थ शिष्य पैरों से आकर लिपट जाते हैं, एक क्षण भी आंखों से आंसू निकलने छूटते नहीं हैं, इतना आप शिष्य प्यार करते हैं।
जब मैंने उन संन्यासी शिष्यों से कहा कि मैं यह दीक्षा तुम्हें दे रहा हूं तो उन गृहस्थों को भी दूंगा।
तो वे बोले क्या सारे गृहस्थ शिष्यों को देंगे?
मैंने कहा एक-एक गृहस्थ शिष्य को दूंगा, मां के पेट में एक-एक बच्चा जो होगा, उसको भी दूंगा। बाहर ही नहीं, जो अंदर पेट में होगा, उसे भी दूंगा।
तो ऐसी दीक्षा मैं दे सकता हूं। आवश्यकता है आपके समर्पण की, प्रेम की, दृढ़ता की आप इन साधनाओं को चाहे चमत्कार कहिये, चाहे विश्वास करिये, चाहे विश्वास न करिये। आप विश्वास नहीं करेंगे तो ये आपके जीवन के पाप हैं जो आपके सामने आकर खड़े होंगे। जीवन में कई रूपों में पाप सामने आकर खड़े होते हैं, कभी बेटे के रूप में पाप आते हैं, कभी अविश्वास के रूप में, कभी पत्नी के रूप में आते हैं जो आपको साधना करने से रोकते हैं, कभी संशय के रूप में पाप सामने आकर खड़े हो जाते हैं।
ये जीवन की न्यूनता है क्योंकि आप गृहस्थ जीवन में है। मगर मैं भी गृहस्थ हूँ। यदि मैं इन सिद्धियों को प्राप्त करके सफलता प्राप्त कर सकता हूं तो आप भी कर सकते हैं और आपको मैं करवाऊंगा ही,हर हालत में करवाऊंगा।
जो आपके अंदर अंधकार है उसे दूर करने की आवश्यकता है। संशय आपके जीवन का अंग है कि मैं जिंदा हूँ या मरा हुआ हूं। जिसको संशय है वह जीवन में कुछ कर नहीं सकता। सियार जीवन में शेर बन नहीं सकते और शेर बनना है तो हुकार करनी ही पड़ेगी, उछल कर हाथी पर प्रहार करना ही पड़ेगा, उसके मस्तिष्क को फाड़ना ही पड़ेगा, तभी शेर बन सकते हैं।
और आपको में शूकर या सियार बनाना नहीं चाहता हूं, आपको मैं शेर बनाना चाहता हूं कि आप दहाड़े तो शत्रु सामने टिक ही नहीं सके और यह मेरी जिद्द है, हठ है तो है कि यह दीक्षा दूंगा, पूर्णता और चेतन्यता के साथ दूंगा, केवल पुरुषों और स्त्रियों को ही नहीं अगर पेट में बालक है तो उन्हें भी यह दीक्षा दूंगा।
आप आगे बढ़ कर गुरु से यह दीक्षा प्राप्त कर सकें, श्रेष्ठतम बन सकें। अद्वितीय बन सकें और जीवन में वे छः की छः स्थितियां प्राप्त कर सकें जो शंकराचार्य ने प्राप्त की, ऐसी ही कामना करता हूं, हृदय से आशीर्वाद देता हूँ।
समस्त 108 कुण्डलिनी जागरण दीक्षा पूरे जीवन का सौभाग्य है। सिद्धाश्रम में बैठे योगियों, संन्यासियों के लिये भी यह दुर्लभ है और गृहस्थ शिष्यों के लिये तो संभव ही नहीं है कि प्रत्येक रोम से मंत्र उच्चरित हों और जो संभव नहीं है, वही मैं संभव करके दिखाऊंगा।
जो संभव नहीं है, वही जीवन में करके दिखाना है। मेरा पूरा जीवन एक जिद् द पर जिंदा रहा है, एक संघर्ष पर जिंदा रहा है, एक निश्चय पर जिंदा रहा है कि जो और मना करेंगे, वह काम करूंगा ही मैं, क्योंकि मेरा पूरा जीवन विद्रोही रहा है और अंतिम क्षण तक विद्रोही रहेगा।
आप मुझसे कुछ लेकर जाये तो एक अद्वितीय चीज लेकर जाये, ऐसी दुर्लभ चीज लेकर जाये कि किसी योगी को, यति को, तांत्रिक को, गुरु को बताये तो वह टुकुर टुकुर ताकता रहे कि ऐसा कैसे संभव हुआ? यह ज्ञान कहीं मिल नहीं पायेगा, किसी ग्रंथ में नहीं मिल पायेगा। यह केवल इस जीवित ग्रंथ में मिल पायेगा और कहीं नहीं मिल पायेगा। संभव ही नहीं है।
और यह मेरी जिद् द है कि आपको अद्वितीय बनाना है। अद्वितीय का अर्थ है कि आपके समान दूसरा कोई न हो ऐसे ही आप 1 अद्वितीय बन सके इस दीक्षा के माध्यम से, ऐसा मैं आशीर्वाद देता हूँ, कल्याण-कामना करता हूं।
परम् पूज्य सद्गुरू
कैलाश श्रीमाली जी
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