मानव जीवन का सार पुरुषार्थ है। बिना परिश्रम, प्रयत्न एवं पुरुषार्थ के कोई वस्तु लभ्य नहीं। अतः जो व्यक्ति कठिनाइयों, संघर्षों एवं बाधाओं से उलझकर अपने लक्ष्य की ओर साहस के साथ बढ़ता है, वही सफल हो सकता है।
नौकरी करने से या कुछ और करने से अथाह लक्ष्मी प्राप्त नहीं हो सकती। हां, जीवन निर्वाह हो सकता है, मगर लक्ष्मी को बांधा नहीं जा सकता… और तुम जीवन निर्वाह के अलावा कुछ कर ही नहीं सकते, कितना प्राप्त कर सकते हो? दो लाख, तीन लाख, चार लाख, पांच लाख और दस लाख की वैल्यू न आज है और न ही दस साल बाद होगी… लक्ष्मी का अर्थ ही यह है, कि लक्ष्मी को प्राप्त करें और सम्पूर्णता के साथ प्राप्त करने के बाद धन, ऐश्वर्य, प्रभुता, पूर्णता सब कुछ स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।
केवल मंत्र-जप करने से कुछ नहीं हो सकता, उसको हृदय में स्थापन करना जरूरी है… और हृदय में स्थापन तब होगा जब अष्टोत्तरशतम् महालक्ष्मी दीक्षा प्राप्त करेंगे। सैकड़ों लोग हैं, जो श्री सूक्त के हजारों-लाखों पाठ करते है, फिर भी लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती और सारी रात मंत्र-जप करने से भी लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती, क्योंकि उनको उस क्रिया का ज्ञान नहीं है, जिस क्रिया से वह अंकित हो सकती है। पूर्ण समृद्धि का मतलब है बिल्कुल निश्चिंतना, जब जीवन में ऐसी स्थिति आती है, तो पूर्णता होती है… और पूर्णता होती है धन से, पत्नी से, पुत्र से, वाहन से, आरोग्य से, शांति से, सौभाग्य से, ऐश्वर्य से ये सब कुछ मिलकर लक्ष्मी का अंकन होता है जो केवल अष्टोत्तरशतम् महालक्ष्मी दीक्षा के द्वारा ही सम्भव है।
यह दीक्षा तो जीवन का अनिवार्य भाव है, क्योंकि महालक्ष्मी दीक्षा के माध्यम से गुरू शिष्य के पूरे शरीर में ‘लक्ष्मी’ की स्थापना कर देता है और एक सौ आठ प्रकार की लक्ष्मी का आवाहन करता है। धन लक्ष्मी, धान्य लक्ष्मी, धरा लक्ष्मी, कीर्ति लक्ष्मी, आयु लक्ष्मी, वैभव लक्ष्मी, पुत्र-पौत्र लक्ष्मी, वाहन लक्ष्मी सैकड़ों प्रकार की लक्ष्मी के स्वरूप है, इन सभी स्वरूपों को उसके शरीर में स्थापित करने से ही दीक्षा का क्रम पूरा होता है… तभी साधक अष्टोत्तरशतम् महालक्ष्मी दीक्षा प्राप्त कर पूर्णता और निश्चिंतता प्राप्त करता है।
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