शिष्य वह है जो निरंतर गुरु चितंन में लीन रहकर अपने कार्य-कलाप करता रहता है। वह इसकी फिक्र नहीं करता कि वह सफल होगा कि असफल, वह तो मात्र कार्य करता है, वह भी पूर्णता के साथ।
शिष्य वह है, जो अगर गुरु को पीड़ा हो एक पल सो नहीं पाये, शिष्य वह है जो एक पल गुरु से अलग नहीं रह पाये। शिष्य वह है जो गुरु की ढाल बन जाता है और सारी परेशानियां और मुसीबतें अपने उपर झेलने को तत्पर रहता है।
शिष्य का एक ही लक्ष्य होता है कि वह किस प्रकार से गुरु को ज्यादा से ज्यादा भार मुक्त करे और वह यह तब कर पाता है जब गुरु के कार्यों को बढ़ाने में उनका सहायक होता है-
एको हि नामं, एको हि पूजां, एको हि ध्यानम्, एको हि ज्ञानम्,
आज्ञाम् सदैवं परिपालयन्यि गुरुत्वं शरण्यं गुरुत्वं शरण्यं
जिसने सब कुछ गुरु को ही मान लिया है, जिसकी पूजा, ध्यान, जप, तप सब गुरु ही बन गये हैं, जो सदैव गुरु आज्ञा का पालन करने को तत्पर रहता है उन्हीं की शरण को सर्वश्रेष्ठ मानता है, ऐसा शिष्य इस लोक को तो जीतता ही है, अपितु परलोक को भी जीतकर देवताओं द्वारा पूजित होता है…..
जो नित्य गुरु मंत्र का जाप करता है हर गुरुवार को गुरु मंत्रों से आहुति देता है, ऐसे शिष्य के लिये संसार में कुछ भी कठिन नहीं रह जाता।
तर्क जहां सारे जीवन को विशिष्ट कर देता है, वही श्रद्धा संपूर्ण जीवन का श्रृंगार है। शिष्य के लिये संसार में कुछ भी कठिन नहीं रह जाता।
शिष्यत्व बुद्धि पर आधारित नहीं है, वह तो हृदय से प्रेम का एक प्रस्फुटन है उस गुरु के लिये, जो कि उस शिष्य को नर से नारायण कर देता है।
वास्तव में ही शिष्य सौभाग्यशाली हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व गुरु चरणों में अर्पित कर दिया है एवं जिन्होंने अपनी सेवा के माध्यम से गुरु के होठों पर अपना नाम अंकित कर दिया है।
गुरु एक विशाल सागर के समान है, जिसमें उत्तर कर शिष्य अनमोल आध्यात्मिक मोती प्राप्त कर सकता है। यह शिष्य का धर्म है कि वह गुरु के अंदर पूर्ण रूप से समाहित हो जाये जिससे उसके मन, बुद्धि एवं आत्मा का रुपातंरण हो सके।
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