रोग, कष्ट, भय, दरिद्रता, शत्रु, तंत्र प्रयोग व बाधायें ही असफलता का मूल कारण होती हैं। सांसारिक व्यक्ति के जीवन में दो पक्ष होते हैं- भौतिक और आध्यात्मिक पक्ष, परन्तु आज मनुष्य केवल अपनी भौतिक पक्ष को सुदृढ़ करने में प्रयासरत है। वह भूल गया है की हमारा यह जीवन, हमारा यह शरीर ईश्वर की देन है। यह जीवन ग्रहों के अधीन है और ‘यथा पिण्डे तथ ब्रह्माण्डे’ अर्थात् जो कुछ शरीर में है वह ब्रह्माण्ड में है और जो ब्रह्माण्ड में है वह इस शरीर में अवश्य है। ग्रहों की गति मनुष्य जीवन की गति से जुड़ी हुई है। इसीलिये मनुष्य को अपने अध्यात्मिक पक्ष को भी सुदृढ़ करना परम आवश्यक है। तभी व्यक्ति अपने जीवन को पूर्णरूपेण सफल बना सकता है।
दैवीय उपासना व ग्रहों की अनुकूलता हेतु साधना, मंत्र जप, दीक्षा, आदि सुक्रियायें सम्पन्न करना आवश्यक होता है। साधनाओं का नाम आते ही दस महाविद्या का नाम सबसे ऊपर आता है। प्रत्येक महाविद्या का अपने आप में एक अलग ही महत्त्व है। अनेंकों में कोई एक ही ऐसा होता है जिसे सद्गुरू से महाविद्या दीक्षा प्राप्त होती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद सिद्धियों के द्वार एक के बाद एक कर साधक के लिये खुलते चले जाते हैं। सिद्धाश्रम प्राप्ति के लिये भी दो महाविद्याओं में दक्ष होना एक अनिवार्यता है और यदि साधक को योग्य गुरू से एक-एक कर ये दसों महाविद्याओं की दीक्षायें प्राप्त हो जायें, तो उसके सौभाग्य की तुलना ही नहीं की जा सकती है।
अतः सूर्यग्रहण युक्त शारदीय नवरात्रि का यह विशिष्ट अवसर इस साल अनेक सुयोगों से परिपूर्ण है। इस अवसर पर साधनात्मक क्रियायें करने व अपने इष्ट सद्गुरूदेव जी से दीक्षा ग्रहण कर आध्यात्मिक पक्ष को सुदृढ़ करने का सर्वश्रेष्ठ समय है। इन दीक्षाओं को ग्रहण करने से सभी महाविद्याओं की पूर्णरूपेण कृपा प्राप्त होती है, जिससे जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता व पूर्णता प्राप्त होनी प्रारम्भ हो जाती है।
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