छठ पूजा में मूल रूप से उत्तर भारत में भगवान आदित्य और छठी माता की आराधना, व्रत, पूजा अपने पुत्र के दीर्घायु जीवन, पुत्र प्राप्ति, मनोकामना पूर्ति, सुख-समृद्धि हेतु स्त्री-पुरूष दोनों समान रूप से सम्पन्न करते हैं।
यह पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से प्रारम्भ होकर कार्तिक शुक्ल सप्तमी को प्रातः काल सूर्य अर्घ्य देकर पूर्ण होता है। यह चार दिवसीय पर्व बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश में पूर्ण उल्लास, उमंग के साथ ही भारत वर्ष के कई प्रदेशों में मनाया जाता है। इस पर्व के प्रथम दिवस नहाय खाय पर उपासक अपने पूरे घर की सफाई कर उसे शुद्ध बना लेता है। पश्चात् छठ व्रती चने की दाल, कद्दू दाल और चावल ग्रहण कर व्रत प्रारंभ करते हैं। द्वितीय दिवस लौहंडा और खरना पर खरना का प्रसाद आस-पास में वितरण किया जाता है। जो गन्ने के रस में बनी हुई खीर, चावल का पिट्टा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक और शक्कर का उपयोग नहीं होता। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल सूर्य षष्ठी संध्या अर्घ्य को प्रसाद में टिकरी, चावल के लड्डू बनाते हैं और सायं कालीन बांस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और उपासक के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने पवित्र सरोवर के तट की ओर चल पड़ते हैं। सामूहिक रूप से भगवान आदित्य नारायण को दूध और जल का अर्घ्य देते हैं तथा छठी मईया की प्रसाद भरे सूप से पूजा, आराधना सम्पन्न करते हैं। चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी ऊषा अर्घ्य को ब्रह्म मुहुर्त में उदित सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। अन्त में कच्चे दूध का शरबत ग्रहण कर व्रत पूर्ण होता है।
छठ पर्व मूल रूप से सूर्य उपासना का पर्व है। भगवान सूर्य ही तेजस्विता, प्रखरता, उच्चता, श्रेष्ठता के अधिपति देव हैं। जिनकी साधना कर साधक स्वयं इन गुणों से युक्त होकर सूर्य के समान दैदीप्यमान होता है। सूर्य की शक्ति मूल रूप से उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं। सूर्य षष्ठी के दिवस पर प्रातः काल की पहली किरण ऊषा और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण प्रत्यूषा की साधना सम्पन्न कर सूर्य की तेजस्विता, शीतलता और लालिमा दोनों शक्तियों को आत्मसात किया जा सकता है। जिससे जीवन में तेज, ओज, श्रेष्ठ प्रगति के साथ ही साथ निर्मलता, कोमलता, शीतलता बनी रहे।
नवग्रहों में सूर्य ही प्रधान ग्रह देवता हैं, सूर्य के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, सूर्य ही जीवन तत्व को अग्रसर करने वाला, उसे चैतन्य बनाने वाला, प्रकाश देने वाला मूल तत्व है।
सूर्य षष्ठी का महत्व इस कारण सबसे अधिक बढ़ जाता है, जब सूर्य अपनी सम्पूर्ण रश्मियां मानव पर उतारता है, इनको ग्रहण किस प्रकार किया जाये, इसके लिये चैतन्य होना आवश्यक है, तभी ये रश्मियां भीतर की रश्मियों के साथ मिलकर शरीर के कण-कण को जाग्रत कर पायेंगी। सूर्य तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की शक्तियों का स्वरूप है, इस कारण सूर्य षष्ठी छठ पर्व पर तीव्र तांत्रोक्त साधनायें करने से शीघ्र सफलता प्राप्त होती ही है।
मनुष्य का शरीर अपने आप में सृष्टि के सारे क्रम को समेटे हुये है और जब यह क्रम बिगड़ जाता है, तो शरीर में दोष उत्पन्न होते हैं, जिसके कारण व्याधि, पीड़ा, बीमारी का आगमन होता है, इसके अतिरिक्त शरीर का आन्तरिक व्यवस्था के दोष के कारण मन के भीतर दोष उत्पन्न होते हैं, जो कि मानसिक शक्ति, इच्छा को हानि पहुँचाते हैं, व्यक्ति की सोचने-समझने की शक्ति, बुद्धि क्षीण होती है, इन सब दोषों का नाश सूर्य तत्व को जाग्रत कर किया जा सकता है, क्या कारण है कि एक मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुँच जाता है और एक व्यक्ति पूरे जीवन बहुत ही न्यून स्थिति में होता है। दोनों में भेद शरीर के भीतर जाग्रत सूर्य तत्व का है, नाभि चक्र, सूर्य चक्र का उद्गम स्थल है और यह अचेतन मन के संस्कार तथा चेतना का प्रधान केन्द्र है, शक्ति स्रोत बिन्दु है, साधारण मनुष्यों में यह तत्व सुप्त होता है, न तो इनकी शक्ति का सामान्य व्यक्ति को ज्ञान होता है और ना ही वह इसका लाभ उठा पाता है, भीतर के मणिपुर सूर्य चक्र को जाग्रत करने के लिये बाहर के सूर्य तत्व की साधना आवश्यक है, बाहर का सूर्य अनन्त शक्ति का स्रोत है और इसका जब भीतर के सूर्य चक्र से जुड़ाव होता है, तो साधारण मनुष्य भी अनन्त शक्तियों का अधिकारी बन जाता है और जब यह तत्व जाग्रत हो जाता है, तो बीमारी, पीड़ा, बाधायें मनुष्य के पास आ ही नहीं सकती है।
इस साधना को सम्पन्न करने एवं सूर्य की तेजस्विता को अपने प्राणों में समाहित कर सर्वांगीण रूप से उन्नति प्राप्त करने के इच्छुक साधकों को चाहिये कि वे 19 नवम्बर विनायक चतुर्थी पर्व पर सूर्य शक्ति को प्रातः करने के लिये शुद्ध पीले वस्त्र धारण कर पूर्व की ओर मुख करके बैठ जायें। अपने समक्ष किसी ताम्रपात्र में सूर्य नारायण यंत्र स्थापित कर उसके चारों ओर पंच शक्ति आदित्य हकीक को स्थापित करें तथा यंत्र व आदित्यों का पूजन, कुकुंम, अक्षत, पुष्प (यथा सम्भव लाल पुष्प) धूप व दीप से करें, सम्पूर्ण दुःख देत्य के नाश, पुत्र प्राप्ति व पुत्र रक्षा, दीर्घायु जीवन, तेजस्विता प्राप्ति हेतु प्रार्थना कर निम्न मंत्र का सूर्य छठी माला से प्रातः और सूर्यास्त के समय 2-2 माला नित्य 4 दिवस तक जप करें।
साधना समापन पर गुरू आरती सम्पन्न करें और प्रातः व सायं काल दुग्ध से सूर्य अर्घ्य अर्पित करें। पश्चात् दूध से बना प्रसाद परिवार के सदस्यों के साथ स्वयं भी ग्रहण करें। यह चार दिवसीय साधना है जिसे 22 नवम्बर अर्थात् कार्तिक शुक्ल सप्तमी तक इसी क्रम में पूर्ण करें।
साधना पूर्ण होने पर सूर्योदय के समय ही सम्पूर्ण सामग्री को इसी मंत्र का 21 बार जप करते हुये पवित्र नदी, तालाब में विसर्जित कर दें। केवल व्रत उपवास से जीवन में पूर्णता सम्भव नहीं है। साधना से ही जीवन में साध्यों की प्राप्ति हो पाती है। साधना सम्पन्न कर ही जीवन में सामान्य से अधिक सफलता अर्जित होती ही है।
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