भगवान बुद्ध ने कहा था- ‘अप्प दीपो भवः’ अर्थात स्वयं अपने ही दीपक को जलाओ। इस हृदय के दीपक को ज्ञान के दीपक को जलाना ही जीवन की दीपावली है, इस अंतः दीपक को सद्गुरू ही प्रज्ज्वलित कर सकते हैं गुरू साधना के इस नवीन पक्ष द्वारा जिसे योगियों और संन्यासियों की भाषा में कहा जाता है…
मनुष्य शब्द मन से बना है, मन को धारण करने वाला अर्थात मनुष्य। परन्तु प्रत्येक मनुष्य में दो मनुष्य छिपे होते हैं- एक मनुष्य जिसका नाम होता है, समाज में स्थान होता है, जिसकी चल-अचल सम्पत्ति होती है, भवन होता है, वाहन होता है, जिसके पुत्र-पुत्री, बन्धु-बान्धव होते हैं, जिसके कारोबार होते हैं, जो किसी का भाई होता है और किसी का पति होता है और यह होता है- ‘बाहर का मनुष्य’। इस मनुष्य के साथ ही एक और मनुष्य भी जुड़ा होता है और वह होता है- ‘अन्दर का मनुष्य’। इस भीतर के आदमी को या तो वह स्वयं जानता है, या फिर उसे ईश्वर जानता है और यदि कोई तीसरा जान सकता है, तो वह सद्गुरू जान सकता है, वह सद्गुरू जिसके प्राण उस भीतर के आदमी से जुड़े हों।
बाहर के मनुष्य को तो सबने खूब जाना समझा, परन्तु अन्दर का आदमी हमेशा उपेक्षित होता रहा। मनुष्य के मस्तिष्क को मनोवैज्ञानिकों ने दो भागों में विभक्त माना है- दाहिना भाग एवं बायां भाग, इस बाये भाग का सम्बन्ध व्यक्ति की तर्क शक्ति, विवेचनात्मक शक्ति, चतुराई, बुद्धिमत्ता, कुटिलता, काम तृप्ति, लिप्सा, संचय, अहं भावना आदि से होता है। या दूसरे शब्दों में कहा जाये तो मस्तिष्क का बायां भाग व्यक्ति के भौतिक पक्ष से सम्बन्धित होता है। जो दायां भाग होता है, वह हृदय पक्ष, भाव पक्ष या अध्यात्म पक्ष होता है, उसका सम्बन्ध होता है, भावना से, प्रेम से, करूणा से, सौन्दर्य से, शान्ति से, संगीत से, आनन्द से, भक्ति से, वैराग्य से, विसर्जन से, ईश्वरानुराग से। जब दोनों पक्षों में असंतुलन हो जाता है, तब कष्ट, तनाव और व्याधियां व्याप्त होती हैं।
हुआ यह कि हम दीपावली तो मनाते आये, बाहरी आदमी को तो पुष्ट करते रहे, भौतिक जीवन की उन्नति के लिये हर प्रकार की चेष्टा तो करते रहे- चाहे वह साधनाओं द्वारा हो या लौकिक प्रयास हो, और इन प्रयासों में सफल भी होते रहे, जीवन चलता रहा परन्तु फिर भी जिस सुख की, जिस तृप्ति की मनुष्य खोज कर रहा था, वह उसे मिल नहीं सका। मिल इसलिये नहीं सका क्योंकि बाहर का मनुष्य बहुत अधिक बलशाली हो गया और अन्दर का मनुष्य बिल्कुल क्षीण हो गया। बाहर से उसको समाज में स्थान तो मिला, धन तो मिला, सुख-ऐश्वर्य के साधन तो मिले, सम्मान तो मिला परन्तु ये सब क्षणिक ही रहे, इन सबसे भी वह आनन्दित न हो सका। कारण यही था, कि अन्दर के आदमी की उपेक्षा। अन्दर के आदमी का बाहर के आदमी से सामंजस्य जो नहीं रह गया था। संन्यासियों का फक्कड़पन, उनकी मस्ती के पीछे उनके अंदर के मनुष्य का विकास ही छिपा होता है, कुछ न होते हुये भी वे पूरी धरती को अपना ही साम्राज्य मानते हैं।
परन्तु इस भीतर के आदमी की अपेक्षा क्यों होती आई है, अन्दर प्रवेश करने से व्यक्ति क्यों डरता है?
जब बालक छोटा होता है, तो अंधेरे से उसे भय लगता है, अंधेरे कमरे में जाने की कल्पना भी उसे भयभीत करती है, अंधकार से भय होना मनुष्य की मूल प्रकृति में निहित है, वह अंधकार में रहना पसन्द नहीं करता। सामान्य तौर पर मनुष्य के भीतर भी अंधकार ही होता है और अंधकार होता है अज्ञान का, यह अंधकार होता है संशय का, अविश्वास का, यह अंधकार होता है क्रोध का, काम का, अहं का और जब अन्दर अंधकार ही होता है, तो व्यक्ति अपनी मूल प्रकृति के कारण भीतर झांकने से घबराता है, वह भीतर की अपेक्षा बाहर ही देखना पसन्द करता है। अन्दर के मनुष्य का दम उसी अन्धकार में घुटता रहता है। अन्दर कुछ भी दिखाई नहीं देता।
और प्रयास करने पर यदि व्यक्ति को कुछ दिखाई भी दे जाता है, तो वह होता है मात्र बाहर का ही प्रतिबिम्ब, वही समस्यायें, उन्हीं मित्रों-शत्रुओं, रिश्तेदारों, परिचितों के बिम्ब और उनसे जुड़े क्षण। वही दृश्य पुनः-पुनः उभर कर अन्दर भी आ जाते हैं और वही समस्यायें अन्दर झांकने पर भी उसे सामने खड़ी मिलती है। उसकी वही इच्छायें और वासनाये अन्दर भी रूप धारण कर उसे दिखाई देती हैं और व्यक्ति घबराकर आँख खोल देता है। भीतर से अच्छा तो उसे बाहर ही लगता है, क्योंकि अन्दर सच्चाई ही दिखती है और उस सच्चाई में छिपा होता है, उसका असन्तोष, उसकी विवशता, उसकी पीड़ा।
अन्दर झांकने पर जहाँ उसे शांति की आशा थी, वहीं मिल जाती है, उसे वही सब कुछ जिससे भाग कर वह अन्तःमुख होने का प्रयास कर रहा था। ऐसा इसलिये होता है, क्योंकि भीतर निर्मल प्रकाश नहीं है, चन्द्रमा की धवल किरणों के समान कोई शान्तिदायक प्रकाश नहीं है, परन्तु यह प्रकाश हो सकता है और यह प्रकाश गुरू साधना के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। नियमित रूप से गुरू मंत्र जप जहां प्राथमिक रूप से आवश्यक है और नियमित गुरू साधना मानी गई है, जो कि प्रत्येक शिष्य और साधक के लिये अनिवार्य है, वहीं गुरू साधनाओं के विशेष आयामों को सम्पन्न करना भी साधक के लिये विशेष रूप से कल्याणकारी होता है। आत्म दीप प्रज्ज्वलन साधना गुरू साधना का ही एक प्रकार है।
व्यक्ति बाहर के अंधकार से उतना भयभीत नहीं होता, जितना कि वह इस भीतर के अंधकार से होता है। तभी तो वह अकेले रहना नहीं चाहता, अकेला होता है तो घबराने लगता है, क्योंकि तब उसका सामना उसके भीतर के मनुष्य से होता है, जो अंधकार में घुट रहा होता है। वह अपने अंधकार से घबरा जाता है, परन्तु ऋषि तो कह रहे हैं, कि मनुष्य के भीतर ही सहस्त्र कोटि सूर्यों का प्रकाश विद्यमान है, जिसके प्रकाश से आलोकित होकर व्यक्ति आत्मलीन हो जाता है, उसके ज्ञान नेत्र खुल जाते हैं, परन्तु यदि भीतर इतने अधिक दिव्य प्रकाश की सम्भावना है, तो उसे कैसे प्राप्त किया जाये?
जब तक अन्दर का अंधकार समाप्त नहीं होगा, तब तक व्यक्ति कितना भी प्रयास कर ले, खोज ले उसे शांति प्राप्त नहीं हो सकती, आन्नद प्राप्त नहीं हो सकती। बाहर कितना भी प्रकाश हो, आकर्षण हो, सुख-सुविधाओं के साधन हो पर वही ‘चिराग तले अंधेरा’ वाली बात। चिराग के चारों ओर प्रकाश होता है, परन्तु उसके आधार में, ठीक नीचे ही अंधकार होता है, वह अंधकार तो तभी समाप्त हो सकता है, जब अन्दर का दीपक प्रज्ज्वलित हो जाये। जब व्यक्ति के अन्दर ही दीपक जल उठेगा, तो अन्दर तो प्रकाश होगा ही बाहर भी उसका प्रकाश पहुंचेगा। इस दीपक को सद्गुरू ही जला सकते हैं शिष्य को इस साधना के माध्यम से प्रकाशवान बनाकर।
‘आत्म दीप प्रज्ज्वलन साधना’ इसी साधना का नाम है, जिसमें सद्गुरू स्वयं एक विशाल दीप बनकर साधक के ज्ञान नेत्रों में अवस्थित हो जाते हैं। इसी साधना से साधक के ज्ञान नेत्र खुलते हैं, तथा उसे अपने भीतर के दिव्य प्रकाश का साक्षात्कार होता है। योगियों की भाषा में भीतर के इस अन्तः तिमिर का विच्छेदन करने वाले आत्मदीप को प्रज्ज्वलित करना ही दीपावली या दीपोत्सव कहा गया है।
कार्तिक मास की पूर्णिमा की तिथि को पूज्यपाद सद्गुरूदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी ने अपने संन्यास जीवन में पदार्पण किया था। कार्तिक पूर्णिमा का दिवस संन्यासियों के मध्य ‘संन्यास दिवस’ के रूप में विशेष रूप से प्रचलित है। कार्तिक अमावस्या अर्थात दीपावली के बाद पड़ने वाली कार्तिक पूर्णिमा ही वस्तुतः संन्यासियों के लिये दीपावली का पर्व होता है, क्योंकि इस पर्व पर अंधकार शेष नहीं रह जाता, प्रकाश ही प्रकाश होता है और पूर्णिमा का अर्थ भी यही होता है, जहां अंधकार न हो। दीप प्रज्ज्वलन की यह साधना अमावस्या को सम्पन्न हो भी नहीं सकती, इसे तो पूर्णिमा के दिन ही किया जा सकता है। परन्तु इसमें कोई तेल का दीपक लगाकर रखना नहीं होता है। यह तो अन्दर के दीपक के प्रज्ज्वलन का पर्व है, भीतर के ज्ञान दीपक को प्रकाशित करने का क्षण है। योगीजन तो इसी को दीपावली कहते हैं।
यह 21 दिवसीय साधना है, जिसे कार्तिक मास की पूर्णिमा अथवा किसी भी मास की पूर्णिमा को ही प्रारम्भ किया जा सकता है। यह रात्रिकालीन साधना है, तथा इसे खुले आकाश के नीचे सम्पन्न करना चाहिये अथवा ऐसे कक्ष में बैठ कर सम्पन्न करना चाहिये जहां चन्द्रमा की रोशनी आ रही हो। इससे साधना में सफलता की सम्भावनाये बढ़ जाती है।
स्नान आदि कर श्वेत धोती एवं गुरू चादर धारण कर लें। अष्टगंध या चन्दन का अपनी अनामिका से ललाट पर तिलक करें, तत्पश्चात आसन पर सफेद वस्त्र बिछा कर चन्द्रमा की दिशा अर्थात पश्चिम दिशा की ओर मुख कर बैठें। सामने किसी पात्र से कुंकुंम से ‘गुं’ बीज मंत्र का अंकन कर उस पर ‘आत्म दीप प्रज्ज्वलन यंत्र’ को स्थापित करें। यंत्र के आगे धूप, अगरबत्ती तथा पांच दीपक जलायें। ये पांच दीपक पाँच ज्ञानेन्द्रियों के प्रतीक है, जिनके प्रकाश को प्रस्फुटित कर अज्ञान रूपी अंधकार को समाप्त करने के लिये यह साधना की जा रही है।
संकल्प
ऊँ विष्णुर्विर्ष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो नारायणस्य आज्ञया प्रवर्तमानस्य संवत्सरस्य ब्रह्मणो ह्रीं द्वितीयपरार्धे श्वेत वाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तैक देशान्तरगते अष्टविंशति तमे कलियुगे अमुक वासरे(दिन बोलें) अमुक गोत्रीयः(गोत्र बोले) अमुक शर्माऽहं( अपना नाम बोलें) अस्मिन् पुण्य समये गुरू कृपा प्राप्ति निमित्तं सकल मनोकामना पूर्ति निमित्तं आत्म दीप प्रज्ज्वलन प्रयोगं करिष्ये।
(जल को भूमि पर छोड़ दें)
ऋष्यादिन्यास
(निम्न मंत्र बोलकर निर्दिष्ट अंगों का स्पर्श करें)
ऊँ गं निखिलेश्वरानन्द ऋषये नमः। (सिर)
ऊँ गां अनुष्टुप् छन्दसे नमः। (मुख)
ऊँ गुं सच्चिदानन्द देवतायै नमः। (हृदय)
ऊँ गूं बीजाय नमः। (गुदा स्थान)
ऊँ गें शक्तये नमः। (दोनों पैर)
ऊँ गैं कीलकाय नमः। (नाभि)
ऊँ गौं विनियोगाय नमः। (सभी अंग)
यंत्र के मध्य में ‘गुरू गुटिका’ को स्थापित करें। गुरू के द्वारा ही भीतर का प्रकाश प्रस्फुटित हो सकता है। इसलिये दोनों हाथ जोड़कर गुरू ध्यान करें-
ब्रह्मानन्दं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगन सदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यं।
एकं नित्यं विमल मचलं सर्वधीसाक्षिभूतं, भावातीतं त्रिगुण रहितं सद्गुरूं तं नमामि।।
गुरू गुटिका पर कुंकुंम, अक्षत, पुष्प अर्पित करें। फिर निम्न मंत्र बोलते हुये यंत्र व गुटिका पर अक्षत चढ़ाये-
ऊँ नमस्ते गुरूदेवाय नमः। ऊँ शिवात्मने नमः। ऊँ त्रैलोक्य वन्द्याय नमः। ऊँ दिव्य माल्य विभूषणाय नमः। ऊँ दिव्य मूर्तये नमः। ऊँ अजितायै नमः। ऊँ घोरघोराय नमः। ऊँ कामराजाय नमः। ऊँ दीर्घकामाय नमः। ऊँ महापुण्याय नमः। ऊँ अनन्ताय नमः।
‘तैजस माला’ से निम्न मंत्र की 11 माला जप करें-
जप करते समय पांचों दीपक जलते रहने चाहिये। 11 दिन की इस साधना के बाद समस्त सामग्री को अगली पूर्णिमा तक पूजा स्थान में ही स्थापित रहने दें तथा नित्य धूप, दीप दिखाते रहें। अगली पूर्णिमा पर पुनः इसी मंत्र की एक माला जप करें, फिर बाद में जब समय मिले जाकर समस्त सामग्री को किसी नदी अथवा सरोवर में विसर्जित कर दें। इस साधना द्वारा जो उपलब्धि होती है, उसी को योगिजनों की भाषा में कहते हैं- ‘आतम घट अब हुआ प्रकासा’। यह साधना आध्यात्मिक पिपासुओं के लिये कल्प वृक्ष ही है।
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