गुरू चरणों के अतिरिक्त शिष्य के लिये कोई तीर्थ नहीं होता, उसी भाव से वह गुरू चरणोदक को भी अभूत समझ कर पान करता है।
गुरू और गुरू कार्य को त्यागने वाले को कहीं शरण नहीं मिलती। इसलिये अपनी सामर्थ्य अनुसार गुरू कार्य में भी मनोभाव से सहयोगी बनें रहें।
शिष्यता का मतलब और एक मात्र अर्थ होता है तलवार की धार पर चलना।
यथा संभव व्यर्थ की चर्चाओं में न पड़कर गुरूदेव का ही ध्यान मनन करें। दूसरे की आलोचना अथवा निंदा करने से शिष्य का जो बहूमूल्य समय अपने कल्याण में लगाना चाहिये, वह व्यर्थ हो जाता है, उसका प्रभाव उसके द्वारा की गई साधनाओं पर भी पड़ता है।
शिष्य को नित्य एक नियमित समय पर नियमित संख्या में गुरू मंत्र का साधना रूप में जप अवश्य करना चाहिये, यदि वह ऐसा करता है, तो उसके जन्म, जन्मांतरीय दोषों और पापों का क्षय होता है तथा चिÙत्त निर्मल हो जाता है, जिससे ज्ञान और सिद्धि की भी प्राप्ति हो पाती है। शिष्य को यथासंभव अधिक से अधिक जब भी समय मिले, गुरू मंत्र का जप करते ही रहना चाहिये।
शिष्य के जीवन में चरित्र ही सफलता और असफलता का घोतक है। चरित्र सफल है तो जीवन सफलता की ओर बढेगा, किंतु चरित्र अगर असफलता की ओर अग्रसर है तो जीवन अवश्य पतन की ओर उन्मुख होगा।
शिष्य का महत्व इसमें नहीं कि वह कितने वर्ष जीवित रहता है। अपितु महत्व तो इसका है कि तुम किस प्रकार से जीवित रहे।
यदि तुम्हारी साधना करने की तीव्र उत्कण्ठा है तो भगवान उसके पास सद्गुरू भेज देते हैं। सद्गुरू के लिये साधकों को चिंता करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
सच्चा और वीर शिष्य तो इस संसार का बोझा उठाकर भी सद्गुरू की ओर प्रसन्न भाव से निहारता है।
जैसे दर्पण को स्वच्छ करने पर उसमें मुंह दिखलाई देने लगता है, उसी प्रकार हृदय के स्वच्छ होते ही उसमें सद्गुरू का रूप दिखलाई देने लगता है।
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