सत्-यह शब्द व्यापक है। असल में तो ‘सत्’ शब्द पर विचार करने से यही सूझता है कि यह परमात्मा का ही स्वरूप है, उन्हीं का नाम है। जो पुरूष सत् के तत्त्व को जानता है, वह परमात्मा को जानता है। जो सत् है, वही नित्य है- अमृत है। इसके तत्त्व का ज्ञाता मृत्यु को जीत लेता है। शोक और मोह को लांघ कर निर्भय होकर नित्य परम धाम को जा पहुँचता है। वह सदा के लिये अभय अमृत पद को प्राप्त कर लेता है। उसी को लोग संसार में जीवन्मुक्त, ज्ञानी, महात्मा आदि नामों से पुकारते हैं। उसकी सब में समबुद्धि हो जाती है, क्योंकि परमात्मा सब में सम है और वह सत् में स्थित है, इसलिये उसमें विषमता का दोष नहीं रह सकता। वह कभी असत्य नहीं बोलता। उसके मन, वाणी और शरीर से होने वाले सभी कर्म सत्य होते हैं। उसकी कोई भी क्रिया असत्य न होने से उसके द्वारा किया हुआ प्रत्येक आचरण सत्य समझा जाता है। वह जो आचरण करता या बतलाता है, वही लोक में प्रामाणिक माना जाता है-
ऐसे पुरूष का अन्तःकरण, शरीर और उसकी इन्द्रियां सत्य से पूर्ण हो जाती है। उसके आहार-व्यवहार और क्रियाओं में सत्य साक्षात् मूर्ति धारण करके विराजता है। ऐसे नर-रत्नों का जन्म संसार में धन्य है, अतः हम लोगों को यह तथ्य समझकर सत्य की शरण लेनी चाहिये अर्थात् उसे दृढ़ता पूर्वक भलीभांति धारण करना चाहिये।
सत्य भाषण-कपट, शब्द-चातुरी और कूटनीति को छोड़कर सरलता के साथ जैसा देखा, सुना और समझा हो, उसे वैसा-का-वैसा न कम, न ज्यादा कह देना सत्य-भाषण है। सत्य भाषण की इच्छा रखने वाले पुरूष को निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान रखना चाहिये-
1. न कभी स्वयं झूठ बोलना चाहिये और न किसी को प्रेरित करके बुलवाना चाहिये। दूसरों को प्रेरित करके अथवा उस पर दबाव डालकर जो उससे झूठ बुलवाता है, वह स्वयं झूठ बोलने की अपेक्षा गुरूतर मिथ्या भाषण करता है, क्योंकि इससे झूठ का प्रचार अधिक होता है। किसी झूठ बोलने वाले से सहमत भी नहीं होना चाहिये। उस समय मौन साधे रहना भी एक प्रकार से झूठ ही समझा जाता है। तात्पर्य यह कि कृत, कारित और अनुमोदित, इनमें से किसी प्रकार का मिथ्या भाषण नहीं होना चाहिये।
2 जहां तक बन पड़े किसी की निन्दा-स्तुति नहीं करनी चाहिये। निन्दा-स्तुति करने वाला व्यक्ति स्वार्थ, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय एवं उद्वेग आदि के वशीभूत होकर जोश में आकर कम या अधिक निन्दा-स्तुति करने लग जाता है। इन में निन्दा करना तो सर्वथा ही अनुचित है। विशेष योग्यता प्राप्त होने पर यदि कहीं स्तुति करनी पड़े तो वहां भी बड़ी सावधानी के साथ काम लेना चाहिये, क्योंकि जो अधिक स्तुति के योग्य हो और उसकी कम स्तुति की जाय अर्थानतर से वह स्तुति निन्दा के तुल्य ही हो जाती है तथा जो कम स्तुति के योग्य हो, उसकी अधिक स्तुति हो जाये तो उससे जनता में भ्रम फैलकर लाभ के बदले हानि होने की सम्भावना है। इस प्रकार की झूठी स्तुति से स्वयं अपनी और जिसकी स्तुति की जाय उसकी, लाभ के बदले हानि ही होती है, परन्तु किसी बात का निर्णय करने के लिये राज्य में पंचायत में जो यथार्थ बात कही जाय तो उसका नाम निन्दा-स्तुति नहीं है। उसमें यदि किसी की निन्दा-स्तुति के वाक्य कहने पड़े तो भी उसे वास्तव में वक्ता की नीयत के शुद्ध होने से उसे निन्दा-स्तुति में परिगणित नहीं करना चाहिये। कोई व्यक्ति यदि अपने दोष जानने के लिये पूछने का आग्रह करे तो प्रेम पूर्वक शांति से उसे उसका यथार्थ दोष बतला देना भी निन्दा नहीं है।
3 यथा साध्य भविष्य की क्रियाओं का प्रयोग नहीं करना चाहिये। ऐसी क्रियाओं का प्रयोग विशेष करने से उनका सर्वथा पालन होना कठिन है, अतः उनके मिथ्या होने की सम्भावना पद-पद पर बनी रहती है, जैसे किसी को कह दिया कि ‘मैं कल निश्चय ही आप से मिलूंगा’, किन्तु यदि किसी कारणवश वहां जाना न हो सका तो उसकी प्रतिज्ञा झूठी समझी जाती है। अतः ऐसे अवसरों पर यही कहना उचित है कि ‘ आपके घर पर कल मेरा आने का विचार है या प्रयत्न करूंगा।’
4 किसी को श्राप या वर नहीं देना चाहिये। इससे तप की हानि होती है। श्राप देने से तो पाप का भागी भी होना संभव है। इस प्रकार के बुरे अभ्यास से स्वभाव के बिगड़ जाने पर सत्य की हानि और आत्मा का पतन होता है।
5 किसी के साथ हंसी-मजाक नहीं करना चाहिये। इसमें बहुदा विनोद बुद्धि से असत्य शब्दों का प्रयोग हो ही जाया करता है। जिसकी हम हंसी उड़ाते हैं, वह बात उसके मन के प्रतिकूल पड़ जाने पर उसके चित्तपर आघात पहुँच सकता है, जिससे हिंसा आदि दोषों के आ जाने की भी आशंका है।
6 व्यंग्य और कटाक्ष के वचन भी नहीं बोलने चाहिये। इनमें भी झूठ-कपट और हिंसादि दोष आ सकते हैं।
7 शब्द-चातुरी के वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिये। जैसे शब्दों से तो कोई बात सत्य है, परन्तु उसका आन्तरिक अभिप्राय विपरीत है। राजा युधिष्ठिर ने अपने गुरू पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु के सम्बन्ध में अश्वत्थामा नामक हाथी का आश्रय लेकर शब्द चातुर्य का प्रयोग किया था। वह मिथ्या भाषण ही समझा गया। ऐसा असत्य ‘अनृत’ कहा जाता है और वह असत्य से बढ़कर पाप जनक होता है।
8 मितभाषी बनना अर्थात् गम्भीरता के साथ विचार कर यथासाध्य बहुत कम बोलना चाहिये, क्योंकि अधिक शब्दों का प्रयोग करने से विशेष विचार के लिये समय न मिलने के कारण भूल से असत्य शब्द का प्रयोग हो सकता है।
सत्य के पालन करने वाले मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, द्वेष, ईर्ष्या और स्नेहादि दोषों से बचकर बोलने की चेष्टा करनी चाहिये। जिस समय सत्य की प्रतिष्ठा हो जाती है, उस समय उपयुक्त दोष प्रायः नष्ट हो जाते हैं। जब कि इनमें से किसी एक दोष के कारण भी मनुष्य सत्य से विचलित हो जाता है तो फिर अधिक दोषों के वश में होकर असत्य-भाषण करे तो आश्चर्य ही क्या है?
सत्य बोलने वाले पुरूष को हिंसा और कपट से अधिक सावधानी रखनी चाहिये। जिस सत्य भाषण से किसी की हिंसा होती है, वह सत्य वस्तुतः नहीं है। ऐसे अवसर पर सत्य भाषण की अपेक्षा मौन रहना अथवा न बतलाना ही सत्य है। अगर अपनी या दूसरे की प्राण रक्षा के लिये झूठ बोलना पड़े तो यह सत्य तो नहीं समझा जाता, परन्तु उसमें पाप भी नहीं माना गया है।
जिस सत्य में कपट होता है, वह सत्य, सत्य नहीं समझा जाता। सत्य बोलने वाला मनुष्य जान बूझकर सत्य का जितना अंश शब्दों से या भाव से छिपाता है, वह उतनी अंश की चोरी करता है। हिंसा और कपट ये दोनों ही सत्य में कलंक लगाने वाले हैं। इसलिये जिस सत्य में हिंसा और कपट का थोड़ा भी अंश रहता है, वह सत्य शब्दों से सत्य होने पर भी झूठ ही समझा जाता है।
ऐसे में विवेक-बुद्धि के द्वारा स्वार्थ को छोड़कर जो सत्य के पालन की विशेष चेष्टा करते हैं, उनके लिये इसका पालन होना- इसकी प्रतिष्ठा होना सम्भव है- असाध्य नहीं। जो सत्य का अच्छी तरह अभ्यास कर लेता है अर्थात जिसकी सत्य में सर्वांग प्रतिष्ठा हो जाती है, उसकी वाणी सत्य हो जाती है अर्थात वह जो कुछ कहता है, वह सत्य हो जाता है।
सत्य बोलने वाला व्यक्ति निर्भय हो जाता है। जब तक भय रहता है, तब तक यथार्थ भाषण नहीं होता, भय के कारण कहीं-न-कहीं मिथ्या भाषण हो ही जाता है। जो सर्वथा सत्य को जीत लेता है, वही क्षमाशील होता है, वही क्रोध के वशीभूत नहीं होता।
जब सर्वथा सत्य की प्रतिष्ठा हो जाती है तो उस सत्यवादी में किसी प्रकार की इच्छा या कामना नहीं रहती। भोगों की इच्छा वाला मनुष्य भला क्या-क्या अनर्थ नहीं कर बैठता, क्योंकि काम ही पापों का मूल है। इसलिये काम के वशीभूत हुआ कामी पुरूष झूठ, कपट, छल आदि दोषों की खान बन जाता है। अतएव सत्य के सम्यक् पालन से काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या और अहंकार आदि दोषों का नाश हो जाता है और वह मनुष्य एक सत्य के ही पालन से दया, शांति, क्षमा, समता, निर्भयता आदि सम्पूर्ण गुणों का भण्डार बन जाता है। अतः मनुष्य को सत्य-भाषण पर कटि बद्ध होकर विशेष रूप से प्रयत्न करना चाहिये।
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