यह निश्चित है कि कर्म से बड़ा संसार में कोई तथ्य नहीं है। बार-बार साधनायें सम्पन्न कर हम अपने पूर्व जन्म के अशुद्ध कर्मों को ही तो शुद्ध करने का प्रयास करते हैं। यदि भाग्य ही सब कुछ होता तो मनुष्य को जीवन में साधना, पूजा, सद्कर्म, सद्विचार, पुण्य कर्म, मित्रता आदि की आवश्यकता ही क्यों पड़ती? जब जो भाग्य में लिखा है वही होना है तो मनुष्य किसी भी प्रकार का कोई प्रयास क्यों करे? वह परिश्रम ही क्यों करे?
कर्म सिद्धि में सत्कर्म, पुण्यकर्म को जाग्रत करने के लिये शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों कर्मों की आवश्यकता पड़ती है। मानसिक और आध्यात्मिक कर्म के सम्बन्ध में मनुष्य को एक उच्च स्तर की भावभूमि लानी पड़ती है और जब वह भाव आ जाता है तो मनुष्य सत्कर्म की ओर प्रवृत्त होता है। साथ ही निरन्तर श्रेष्ठ कर्मों से जीवन की अमूल्य कर्मराशि, भाग्यराशि में परिवर्तित होती है, जिससे हमारे जीवन में सुमंगलमय सुस्थितियों का विस्तार होता है।
पूर्व जन्मों के दोष को, पूर्व जन्म के कर्मों के प्रभाव को, भाग्य के दोष को वर्तमान जीवन में किये गये कर्मों द्वारा सुधार सकते हैं। जीवन में लगे हुए कांटों को भी कर्म द्वारा ही निकाला जा सकता है। इसलिये हमें जीवन में निरन्तर कर्मरत रहना चाहिये और सद्गुरूदेव जी सदैव कहते हैं कि कर्म जीवन्त है तो आपका भाग्य सो नहीं सकता और सोये हुये भाग्य को भी कर्म के द्वारा जाग्रत किया जा सकता है। कर्म के द्वारा ही दुर्भाग्य को सौभाग्य में परिवर्तित किया जा सकता है।
अतः मोक्षदा एकादशी युक्त गीता जयंती के सुयोगों पर सद्गुरूदेव जी कर्म सिद्धि वर्चस्व प्राप्ति दीक्षा प्रदान करेंगे। जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन में जो भी कर्म करता है उसमें सफलता प्राप्त होती है और वह अपने परिश्रम से अपनी इच्छाओं को पूर्ण कर पाता है साथ ही उसे अपने कर्मों का उचित फल प्राप्त होता है। यह कर्म सिद्धि केवल गुरू कृपा, आशीर्वाद से, श्रेष्ठ क्रिया, श्रेष्ठ विचार और श्रेष्ठ वचन द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
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