कालचक्र के इस खण्ड में पुनः नया वर्ष आ रहा है और प्रत्येक मनुष्य को नववर्ष का प्रारम्भ आनन्द, हर्ष, उल्लास के साथ करना चाहिये, लेकिन यह विचार करने की आवश्यकता है कि क्या बीता हुआ वर्ष आनन्द पूर्वक व्यतीत हुआ? यदि बीते वर्ष में अनेक कमियां रह गई है तो इसका क्या कारण है? इन कमियों पर विचार कर, इन न्यूनताओं को कैसे समाप्त किया जाये?
जीवन का आधार ही नवीनता है। यह नवीनता देह के माध्यम से नहीं आ सकती क्योंकि मनुष्य जब पैदा होता है तो वह घड़ी देखकर इस संसार में नहीं आता और जब वह जाता है तब भी घड़ी देख कर अपने प्राण नहीं छोड़ता, जन्म और मृत्यु दो कीले हैं और इन्हीं कीलों के बीच मनुष्य के जीवन की डोर बंधी है। हर क्षण परिवर्तनशील है और जीवन का प्रत्येक क्षण बीते हुये क्षण से अलग है। ईश्वर ने हर क्षण की रचना मनुष्य के लिये इस प्रकार की है कि वह प्रत्येक क्षण का मूल्य समझे और प्रत्येक क्षण को किस प्रकार आनन्द क्षण में परिवर्तित कर सकते हैं यही क्रिया ‘गुरू शिष्य’ सम्बन्ध कहलाती है।
यह जो सृष्टि का रूप ब्रह्म का आदि स्वरूप है, इसी को आद्या शक्ति महामाया कहते हैं। इसी कारण वे जगत् जननी जगदम्बा हैं, ब्रह्मा, विष्णु और शिव इस आद्या पराशक्ति से उद्भुत हुये हैं। ऋग्वेद में शक्ति का उल्लेख है कि एक अजा से अनेक प्रजा की उत्पत्ति हुयी है, वह अजा यही आद्या शक्ति महामाया है। विश्व की अखिल सत्ता, चेतना, ज्ञान, प्रकाश, आनन्द, क्रिया, सामर्थ्य आदि इसी शक्ति के कार्य हैं।
केनोपनिषद् में स्वर्ण-वर्णा उमा के प्रकट होने पर देवताओं को ज्ञात हो गया कि उसी शक्ति के प्रभाव से उन्होंने असुरों पर विजय पायी है तथा उनकी समस्त शक्तियां उसी एक परम शक्ति से प्राप्त हुयी है, वेदों की माता गायत्री भी यही आद्या शक्ति है, जो भव-बन्धन से त्राण कर मुक्ति प्रदान करती है, वेदान्त और ज्ञान मार्ग की प्रतिपाद्य विद्या जिससे अविद्या का नाश और ब्रह्म की प्राप्ति होती है, वह भी यही आद्या शक्ति हैं। योग की मुख्य शक्ति कुण्डलिनी भी यही आद्या शक्ति हैं। उत्तर देश के बौद्ध जिस तारा देवी की उपासना करते हैं, वह भी आद्या शक्ति ही हैं।
परन्तु जहां प्रकाश है, वहां साथ ही तम भी होता है। प्रकाश (Light) और तम (Shade) के अस्तित्व को विज्ञान ने भी माना है। मानव के विकास के निमित्त इन दोनों विरूद्ध पदार्थों की आवश्यकता होती है। इसी नियम के अनुसार आद्या शक्ति जो चैतन्य है, उनकी दृष्टि से अपरा प्रकृति अर्थात् नाम रूपात्मक जड़ मूल-प्रकृति क्रिया रूप में दृश्य हुयी और इन दोनों शक्तियों के संयोग से सृष्टि की रचना हुयी।
मूल प्रकृति अज्ञान मूलक है और परा प्रकृति चेतना रूप में ज्ञान मूलक है। जीवात्मा तो ईश्वर का अंश है, उसकी प्रथम उपाधि शरीर है, जो आनन्दमय है। उसका परा प्रकृति से सम्बन्ध है, परन्तु इसके अलावा दो और उपलब्धियां हैं, जो त्रिगुणमयी अपरा प्रकृति के हैं, वे सूक्ष्म और स्थूल शरीर हैं, इन दोनों में तमो गुण और रजो गुण की प्रधानता है।
मनुष्य जीवन का उद्देश्य है विद्या शक्ति के गुणों के आश्रय से अविद्या के द्वन्द्व का नाश करना तथा रजो गुण और तमो गुण का निग्रह करके उनको शुद्ध सत्व में परिणत कर पुनः त्रिगुणातीत अवस्था को प्राप्त करना। इस प्रकार त्रिगुणमयी प्रकृति के कार्य के साथ विद्या शक्ति के आश्रय द्वारा जीवात्मा में जो ईश्वर के दिव्य गुण, सामर्थ्य आदि समाहित है, उन्हें जाग्रत कर स्वयं का तथा संसार कल्याण में क्रियारत रहना ही मानव का कर्तव्य है। इस क्रिया के बिना मानव का कल्याण नहीं हो सकता।
इसलिये त्रिगुणमयी महामाया के प्रकृति(स्वभाव) निद्रा, आलस्य, तृष्णा (वासना), भ्रान्ति (अज्ञान), मोह, क्रोध (महिषासुर), काम (रक्तबीज) आदि को परा शक्ति महामाया के गुण सद्बुद्धि, बोध, लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शांति, क्षान्ति, श्रद्धा, कान्ति, सद्वृत्ति, धृति, उत्तम स्मृत्ति, दया आदि के द्वारा विजय प्राप्त करना है, कहने का तात्पर्य यह है कि संसार की सभी वृत्तियां उसी महामाया परा शक्ति से ही उत्पन्न हुयी, जहां प्रकाश है, वहां तम का होना निश्चित है, अर्थात् अपने अवगुण, न्यूनता, अविद्या पर विजय प्राप्त कर ज्ञान, चेतना, शक्ति और सद्गुणों से युक्त होना है।
इसीलिये जीवन में निरन्तर महामाया शक्ति की उपासना करनी पड़ती है, जिससे जीवन के विकार, अभाव, अवगुण, दुःख, कष्ट, बाधा, धन हीनता का निराकरण हो सके और यह तभी संभव हो सकता है, जब मनुष्य स्वयं को रजोगुण और तमोगुण की चेतना को शुद्ध और सात्विक कर सके। यही कारण है कि हमें अनेक बार एक ही शक्ति की उपासना करनी पड़ती है या ऐसा कहें कि जीवन पर्यन्त एक ही शक्ति की उपासना करना हमारी आवश्यकता है। क्योंकि इसी एक ही शक्ति से ही संसार के सभी क्रिया-कलापों को पूर्ण किया जा सकता है।
यदि श्रेष्ठ मनोभाव से दैवीक आराधना की जाये, तो महालक्ष्मी की कृपा अवश्य ही प्राप्त होती है। पराशक्ति ही महालक्ष्मी की बोधक है, क्योंकि प्राधानिक रहस्य में, जहां त्रिमूर्ति के उद्भव का विचार किया जाता है, वहां सर्वस्य आद्या महालक्ष्मी विद्यमान होती हैं, महिषासुर का शमन करने के लिये देवों के तेजों से प्रकट अष्ट भुजा वाली महालक्ष्मी का ही वर्णन आता है। ये पराशक्ति महालक्ष्मी प्रकृति रूपा है। त्रिमूर्ति में परिणत महालक्ष्मी प्राधानिक रहस्य में कहे हुये श्री पद्मे इत्यादि पद में उपस्थापित हैं। इन्हीं का तामस रूपमय महाकाली है, तथा सात्विक रूपमय महासरस्वती है। वे त्रिगुणात्मक स्वरूप में र्स्वस्य व्यापक होकर स्थित हैं।
महामाया की त्रिगुणात्मक स्वरूप की चेतना पूर्णरूपेण आत्मसात करने की क्रिया 29-30-31 दिसम्बर को परम पूज्य सद्गुरूदेव कैलाश श्रीमाली जी के सानिध्य में महामाया की तपोभूमि बिलासपुर (छ.ग.) में नूतन वर्ष महामाया सर्व शिवत्व शक्ति कुबेर श्री लक्ष्मी साधना महोत्सव सम्पन्न होगा।
यही पराशक्ति महामाया का ही सृजन शक्ति स्वरूप महालक्ष्मी, शत्रुओं के दमन रूप में महाकाली, ज्ञान, चेतना, बुद्धि रूप में महासरस्वती है, इन्हीं शक्तियों के आधार पर ही गृहस्थ जीवन गतिशील होता है, इसी हेतु 31 दिसम्बर की रात्रि के बाद जिस क्षण नववर्ष का अभ्युदय होगा, उसी क्षण से ऐसी त्रिगुणात्मक शक्ति को आत्मसात करने की क्रिया सिद्धाश्रम तेज पुंज स्वरूप में सम्पन्न की जायेगी, ऐसे तेजमय शक्ति को नूतन वर्ष के प्रारम्भिक क्षणों में आत्मसात करने से साधक का जीवन पूर्णतः ऊर्जावान, चेतनावान, तेज पुंज स्वरूप सर्व मनोकामना, धन, यश, बल, बुद्धि, शत्रु संहार, अक्षय लक्ष्मी, पूर्ण दीर्घायुमय सौभाग्य शक्ति से युक्त होता है।
आपके आने से नारायण स्वरूप में सद्गुरूदेवजी की कृपा अवश्य प्राप्त होगी और आपका नववर्ष हर स्वरूप में सुमंगलमय सुख-सौभाग्य युक्त श्रेष्ठमय बन सकेगा।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,