पूज्यपाद सद्गुरूदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली अपनी बात को ठोस डंके की चोट पर कहते थे इसीलिये उनके द्वारा उच्चरित प्रत्येक वचन सीधा शिष्य के हृदय में उतरता था, क्रिया योग जैसे गूढ़ विषय को सरल रूप में समझाना केवल उनके ही बस की बात है, क्रिया योग के रहस्यों को स्पष्ट करता हुआ उनके महान् प्रवचन उनकी ही चिर परिचित शैली में-
क्रम ग्रंथियों और ज्ञान ग्रंथियां जो हम जानते है, वे दस है …….. और जिनका हमें पता नहीं वे 98 ज्ञान ग्रंथियां है।
नौ द्वार तो हमें मालूम है और दसवां-एक व्यक्ति, ये दस जन प्रचलित इंद्रिया है। इन्हीं इन्द्रियों के माध्यम से शरीर चलता है, ये इन्द्रिया केवल भोग के रास्ते पर बढ़ा सकती है। ज्ञान के रास्ते पर बढ़ाने के लिये उन 98 ग्रंथियों को जागना पड़ेगा, इसलिये अभी हम ज्ञान में बिल्कुल कोरे है। अनुभव हमें अवश्य हो सकता है, यदि आग के पास जाकर हाथ जल जाये, तो इस जलने का अनुभव हो सकता है, परन्तु ज्ञान के लिये तो उन ग्रंथियों का जाग्रत करना पड़ेगा, और इन ग्रंथियों को जाग्रत करने के लिये इस क्रिया योग के मूल तीन आधार है। इन तीन आधारों के माध्यम से क्रिया योग द्वारा उन ग्रंथियों को जाग्रत किया जा सकता है।
हम क्रिया योग को कैसे प्राप्त करें?
एक गुरू यदि क्रिया योग को समझायें, तो कैसे?
इसके तीन चरण है-धारणा, ध्यान और समाधि।
सबसे पहले- धारणा।
दूसरी स्टेज है-ध्यान।
और तीसरी स्टेज है-समाधि।
तीनों क्षेत्रों को पार करने पर स्वतः ही क्रिया योग पूर्ण हो जाता है।
यहां प्रश्न उठता है, कि धारणा क्या चीज है?
अर्थात् ‘‘जिसको हम धारणा करते है, वही धारणा है।’’ किसको धारण करें? धारण करने योग्य चीज क्या है? सापेक्षता में धारणा हो, हम तेल में तेल मिला सकते है, पानी में पानी मिला सकते है, दूध में दूध मिला सकते है, पर पानी में तेल नहीं मिला सकते, वे तो अलग-अलग ही रहेंगे। कबीर ने कहा है-
घड़े को नदी के अन्दर डुबोया गया है, उस घडे़ में भी पानी है, घड़े के बाहर नदी में भी पानी है। नदी का पानी अलग है, जो बह रहा है, और घड़े का पानी अलग है। जब घड़े को फोड़ेगे, तो उस घड़े का पानी नदी में मिलेगा…… और मिलना ही ज्ञान की चेतना है।
शिष्य भी घड़ा है, और गुरू नदी है, जो प्रवाहशील है, पर दोनों के बीच में एक मिट्टी की दीवार है। घड़े को पहले फोड़ना पड़ेगा उसमें जो रूका हुआ जल है, बासी पानी है उसे उस प्रवाह में लीन करना पड़ेगा। अब घड़ा नदी के अन्दर तो है और उस पानी की भी इच्छा हो रही है, कि मैं नदी में मिल जाऊं मगर बीच में एक रेखा है, बीच में पूरा परदा है, जिसको माया कहते है।
और जब हम माया को समाप्त कर दें, तब अपने आप ही पूर्ण क्रिया की ओर अग्रसर हो जायेंगे। उस माया के आवरण को तोड़ने के लिये जिस क्रिया को धारण किया जाता है, उसको ‘धारणा’ कहते है……. और जब तक माया का परदा टूटेगा नहीं तब तक हम उस जल में, जो प्रवाहमान है, मिलेंगे नहीं। गुरू कहते है- मैं नदी हूं, जो बह रही है पिछले दस हजार वर्षो से बीच हजार वर्षो से, और इस नदी का प्रवाह पूर्णता की ओर है, मेरा ही जल तुम में भरा हुआ है, परन्तु वह बासी हो गया है, उस जल में अपने- आप में पूर्णता नहीं है, और इस घड़े का जल मुझ में मिलना जरूरी है।
इसलिये शंकराचार्य जी ने उल्लेख किया, कि किस सापेक्षता में वह जल और नदी का जल मिल सकता है, इसीलिये धारण करने की क्रिया को इतना महत्त्व दिया गया है। देवता को शरीर में धारण नहीं कर सकते, वह इसलिये कि जब बगलामुखी का दर्शन ही नहीं किया तो प्रामाणिकता के साथ बगलामुखी का चित्र नहीं बना सकते, जो चित्र उपलब्ध है, वे प्रामाणिक है कि नहीं, कह नहीं सकते, क्योंकि जिसने देखा ही नहीं, वह चित्र नहीं बना सकता, और यदि बनाता भी है, तो मात्र कल्पना से।
इसलिये राम का चित्र है, कृष्ण का चित्र है, जो प्रामाणिक है कि नहीं कह नहीं सकते। हमने देखा नहीं, हमने सुना है, और सुना है वह सत्य हो, यह आवश्यक नहीं। एक धारणा के आधार पर हम इन देवताओं के प्रति नमन होते है, लेकिन जिसको हमने देखा नहीं, उसको शरीर में हम धारण नहीं कर सकते। धारण तो उसको कर सकते है, जिसको देखा हो। इग्लैण्ड में एक लड़की एलिस रहती है, आप उसको प्यार कर सकते है, अगर जानते है तो, और जब उसको देखा ही नहीं, तो आप उसको प्यार कैसे करेंगे।
इसलिये जो कुछ देखा है, वह धारण किया जा सकता है। गुरू को देखा है, इसलिये गुरू को धारण किया जा सकता है। हमें मालूम है, वह बिल्कुल हमारे जैसा ही है, एक जैसा ही पानी है, समानधर्मी, उसका भी हमारे जैसा ही शरीर है, अतः उसको धारण किया जा सकता है। इस प्रकार गुरू को धारण करने की क्रिया को धारणा कहते है।
उस ध्यान तक पहुंचने के लिये, समाधि तक पहुंचने के लिये, उस सहस्त्रार तक पहुंचने के लिये गुरू को धारण करना आवश्यक है, और धारण संसार में केवल गुरू को ही किया जा सकता है………. अन्य सभी को प्यार किया जा सकता है, उसके सुख-दुःख में भाग लिया जा सकता है, पर धारण नहीं किया जा सकता………. और जब शिष्य, गुरू को धारण कर लेता है, तो उसके बीच की माया की दीवार टूट जाती है, क्योंकि गुरू बता देते है, कि यह माया है, तुम्हें चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। माया अपना काम करेगी, तुम अपना काम करों, मैं तुम्हारे पास हूं। नदी प्रवाहशील है और नदी का उद्गम कहां है, यह मुझे मालूम है। अब तुम इस नदी की एक धारा बन गये हो, तुम्हें कहां पहुंचना है, गुरू जानते है। अब गुरू तुम्हारे साथ है, तुम चिन्ता मत करों।
गुरू को धारण कर लिया, तो धारण करते ही शिष्य गुरू प्रवाह के साथ हो जाता है। वे आपको पूरी बात समझा सकते है, एक माया को रखते हुये भी एक माया के बीच में रहते हुये भी। गुरू ही बताएगे- नदी की दो धारायें है, और तुम्हें उनके बीच में बहना है। यदि नहीं आता, तो मैं बता दूंगा, कि कैसे बहा जाता है, क्योंकि मैं पिछले पच्चीस हजार वर्षो से बहता हुआ आया हूं।
मगर वह क्षमता, वह शान, वह चिन्तन तब आ सकता है, जब गुरू को धारण किया जाये।
-आंखों में तो कर नहीं सकते और हाथ – पैरों में भी नहीं कर सकते। एक मात्र स्थान है ‘तीसरा नेत्र’ ‘थर्ड आई’ जिसको हमारे ऋषियों ने आज्ञा चक्र कहा है, दोनों भौहों के मध्य में …….. भगवान शिव का चित्र देखेंगे, तो पूरे नेत्र का चित्र बना हुआ है……….. इसी के ऊपर सिर में चोटी के पास छठी इंद्रिय है। दोनों भौतिक आंखों के बीच में जो स्थान है, उस स्थान पर गुरू को धारण करते है। यह क्रिया योग का पहला चिन्तन है, पहला चरण है।
और गुरू को धारण किया जाता है, गुरू के प्रति अटैचमेन्ट पैदा करके। जो घड़े का जल है, वह प्रयास करे, नदी तो प्रयास कर रही है, घड़े का जल भी उसमें प्रयत्न करें, बीच की दीवार को तोड़ दे, ओर यदि नहीं टूटता तो पांच सौ वर्ष भी घड़ा, घड़ा ही रहेगा, और तुम एक ही कला में रहोगे।
इस पहली कला से सीधा सोलहवी कला में छलांग लगाने के लिये यह जरूरी है, सबसे पहले पूरा शरीर बने, क्रिया योगमय बने, और उसकी पहली शर्त धारण करना है, और धारण उनको करना है, जो तुम्हारे गुरू है। वे जो तुम्हें डांट भी सकते है, पुचकार भी सकते है, तुम्हें गाली दे भी सकते है…… और क्रोध से लात भी मार सकते है, पर किसी दूसरे को लात मारने नहीं देंगे-वे ही गुरू कहलाते है…….तुम अगर मेरे शिष्य हो, तो मैं तुम्हें डांट सकता हूं, भला-बुरा कह सकता हूं, पर कोई दूसरा तुम्हें भला बुरा कहेगा, तो मैं उसकी आंख नोच लूंगा।
धारण हम उसको कर सकते है, जिससे हम परिचित है, जो हमारे सामने आदर्श, जो हमसे महान है, हमारे मन मैं जिनके प्रति सादर है और जिनसे हम एकीकृत हो गये है और यह स्थिति बनती है दो तत्वों से ……….एक तथ्य स्पष्ट कर रहा हूं, कि गुरू कोई ‘सद्गुरू नारायण दत्त श्रीमाली’ ही नहीं है, गुरू अपने आप में उस परम्परा का एक सूत्र है- जो आज से चालीस पीढ़ियां पहले थी-आज मैं हूँ कल कोई और होगा….. गुरू तो एक प्रतीक है, पर गुरू और शिष्य अपने आप में समाप्त नहीं हो सकते। काल कभी समाप्त नहीं होता और व्यक्ति भी कभी समाप्त नहीं होता, केवल शरीर और देह समाप्त होते है, और फिर यदि आप में ताकत है, तो इस देह को भी आप अक्षुण्ण रख सकते है। इस देह को भी अत्यधिक सामर्थ्यवान बना दें, तो यह देह समाप्त नहीं होगी।
यह देह भी एक नवीन रूप धारण कर सकती है, यह कठिन कार्य नहीं है। आवश्यकता इस बात की है, कि उस अमृत तत्व को प्राप्त करने के लिये हम गुरू को धारण करें……… और गुरू को धारण किया जा सकता है वो तरीके से, उस तरीके को कहते है ‘सेवा’ और समर्पण’। केवल होठों से बोलने से या गुरू को मिठाई खिलाने से उन्हें धारण नहीं कर सकते और गुरू पांच करोड़ रूपये देने से भी नहीं आ सकते, इसके माध्यम से गुरू धारण नहीं हो सकते।
गुरू स्वयं धारण होते ही नहीं है, गुरू को तो शिष्य धारण करता है-सेवा के द्वारा। जिस चीज की गुरू को आवश्यकता है, उसकी पूर्ति की जायें, वह सेवा कहलाती है। गुरू को प्यास लगी है और गुलाब जामुन की प्लेट रख दें-गुरूजी लीजिए खाइए। बेशक वे कीमती चीज है, पर इसकी उनको जरूरत नहीं है, यदि उनको पानी की जरूरत है तो, आप उनको पानी ही दे। गुरू को किस बात की आवश्यकता है, एक शिष्य का यही मूल चिंतन होना चाहिये।
यदि गुरू में स्वार्थी तत्व है, तो वे गुरू कहे ही नहीं जा सकते। अगर गुरू है, तो आप इस बात को ध्यान रखें, कि उनकी आँख के नर्तन को आप समझे और सीखे, कि गुरू को किस चीज की जरूरत है। गुरू नहीं बोले…… हो सकता है संकोच-वश नहीं बोलें।
एक गूढ तथ्य है-पैर दबाना और यह अपने आप में सामान्य प्रक्रिया नहीं है। ऐसे सैकड़ों साधु-संन्यासी है, जो अपने पैरो को स्पर्श नहीं करने देते।
क्योंकि गुरू के पैरों को स्पर्श करने का तात्पर्य है, कि गुरू के पास जो भी शक्ति है, जो भी तपस्या का अंश है, उसे प्राप्त करना। इसलिये वे अपनी तपस्या को अपने आप में पूंजीभूत रखने की वजह से अपने पैरों को छूने नहीं देते……..और अगर शक्ति है, पर विस्तृत न करे, तो वे गुरू हो ही नहीं सकते।
गुरू का अर्थ है-देना, सेवा ले और अपनी सामर्थ्य और शक्ति को दे। यदि गुरू आप से पानी का गिलास मंगाकर पीते है, तो निश्चय ही कुछ तपस्या का अंश आपको प्राप्त होता ही है, और इसलिये गुरू संकोचवश काम नहीं सौपते शिष्य को। परन्तु शिष्य उनकी आंख का नर्तन देख यदि समझ ले, कि गुरू को किस बात की आवश्यकता है-उसकी पूर्ति करने को सेवा कहते है।
मैं बिल्कुल सरल और सामान्य सी भाषा में उस क्रिया योग को समझा रहा हूँ। ब्रह्मा, माया, चिन्तन जैसे जटिल प्रश्नों में आपको नहीं उलझा रहा हूँ, क्योंकि क्रिया योग को समझना अपने आप में अत्यन्त जटिल है, बिना क्रिया के उतरे उसे कोई समझा भी नहीं सकता और इस प्रक्रियेा में उतार सकते है केवल गुरू।
इसलिये पहले आवश्यक है-गुरू सेवा………..और सेवा ही आगे चलकर समर्पण बन जाती है जब सेवा करते-करते व्यक्ति की स्टेज ऐसी आ जाती है, कि उसको अपना भान नहीं रहता, तो वही अपने आप में, गुरू को समर्पित हो जाता है, उसका शरीर, उसका चिंतन, उसका विचार, उसका धन, उसका मकान सभी कुछ अपने आप में गुरूमय हो जाता है।
मैं भी उसी रास्ते से बढ़ा हूं, जिसको मैं उल्लेख कर रहा हूं। यदि मैं यह सलाह दे रहा हूं, तो मैने भी उस सेवा और समर्पण के मार्ग पर पांव रखा होगा। उस सेवा में मैंने भी पच्चीस कदम भरे होंगे, और फिर समर्पण में पचास कदम भर के ही धारणा तक पहुंचा होऊंगा। रास्ता तो एक ही है और उस रास्ते पर चलकर यदि मैंने धारण किया है, तो वह बिल्कुल प्रामाणिक रास्ता है, क्योंकि वह बिल्कुल अनुभव गम्य है और केवल इसी के माध्यम से, जिसको हम सिद्धाश्रम कहते है, वहां पहुंचा जा सकता है।
सेवा और समर्पण के माध्यम से ही गुरू को धारण किया जा सकता है। हां! समय अवश्य लग सकता है- केवल पांच घंटे या फिर पांच सौ वर्ष। यह तो निर्भर है इस पर, कि आपकी सेवा किस स्तर की है-स्वार्थमय सेवा है या पूर्ण निःस्वार्थ सेवा है और जब गुरू धारण हो जाता है तब व्यक्ति अपने-आप में गुरूमय हो जाता है। जिस प्रकार से शादी का तरीका अलग है, संतान पैदा करने का तरीका एकदम अलग है, इस रास्ते को अपनाना ही पड़ेगा, और यह इतना आसान है, कि इसके लिये यह भी कोई जरूरी नहीं है कि गुरू आपके निकट हो, यदि आप अपनी जगह पर है और गुरू के प्रति चिंतन है, तो यह भी सेवा है। गुरू के पांव दबाने से ही सेवा होती है, यह कोई जरूरी नहीं। आप गुरू का चिंतन करें, आपको जो गुरू ने काम सौंपा है उसको करें, आप गुरू का स्मरण करें, आप गुरू की पूजा करें, ध्यान करें-यह सब कुछ गुरू सेवा ही है। आप यदि किसी कार्य को गुरू कार्य समझ कर करते है, तो अपने आप में गुरू की ही सेवा है, और यही सेवा अपने आप में समर्पण में बदल जाती है।
यदि तुम पूर्ण निष्ठा, समपर्ण से मेरे पास दो दिन भी रहते हो, तो दो दिन सौ वर्षो के बराबर हो सकते है। यदि देने वाला सही हो और लेने वाला सही हो, तो दो दिन भी बहुत बड़ी बात है।
वैज्ञानिकों ने बहुत मेहनत और मंथन करने के बाद में यह निश्चय किया, कि एक व्यक्ति सही ढंग से आठ घंटे काम कर सकता है, शरीर की एक लिमिटेसन है, इसलिये सरकार ने आठ घंटे की नौकरी रखी…….. और यदि वह आठ घंटे काम करेगा, तो साठ साल तक बुढ़ा नहीं होगा।
मेरा उद्देश्य सदा यही रहा है, कि अधिक से अधिक शिष्यों को चेतना प्रदान कर सकूं। इसलिये समय की कभी परवाह नहीं की और लगातार वर्षो से बीस-बीस घंटे काम किया है, तो इस समय मैं हिसाब लगाउं, कि बीस घंटे काम करके, घंटो के हिसाब से सौ वर्ष का हो चुका हूं मैं। अब सौ साल का व्यक्ति कैसा होगा, आप कल्पना कर सकते है। उसमें तकलीफ भी होगी, बैचेनी भी होगी, समस्याएं भी होगी। साधारणतः जब एक शरीर को बीस घंटे काम करवाएंगे, तो ऐसी स्थिति में एक क्षण ऐसा आता है जब शरीर खुद खड़ा हो जाता है, सामने विद्रोह करने के लिये-यह क्या है, ये कोई तरीका है। क्या? मैं आज तक तुम्हारी हर बात मानता आया हूं।
-मगर मेरे साथ ऐसी कोई बात नहीं। इसमें तो कोई दो राय नहीं, कि जीवन के अन्तिम क्षण तक यह शरीर मेरे सामने विद्रोह तो कर ही नहीं सकता, यह तो गारण्टी है। मैं खुद निष्क्रिय नहीं हूं, तो आपको भी निष्क्रिय नहीं रख सकता। मैं पूर्ण चेतना में हूं तो मेरे शरीर को भी चेतनावस्था में रहना ही पड़ेगा……… ओर चाहे इसके लिये मुझे रात-दिन जागना पड़े, पर मैं अपने शिष्यों में इस चेतना को प्रवाहित करता ही रहुंगा।
-और अगर आप मेरे साथ रह सकें, कुछ पा सकें, तो इस पंक्ति को आप याद रखें-
‘‘आने वाली पीढ़ियां इस बात का विश्वास नहीं करेगी, कि आप कभी निखिलेश्वरानन्द के साथ रहे है।’’
-मैं आप लोगों को बहुत आशीर्वाद दे रहा हूं, बता रहा हूं, कि शरीर की दृष्टि से बेशक निखिलेश्वरानन्द का व्यक्तित्व छोटा सा हो, मगर एक गुरूत्व की दृष्टि से वे महान पुण्यदायक है। इसलिये कि वे उस प्रथम कला से सोहलवी कला तक धक्का देने में समर्थ व्यक्तित्व है। बस केवल उस व्यक्तित्व से स्पर्श प्राप्त करने की जरूरत है। यह जरूरत नहीं है, कि हम उनके साथ रहे……. यह बहुत बड़ा चिंतन है, यह मामूली चिंतन नहीं है। आप अगर शिष्य है तो आप भी एहसास करेंगे और कहेंगे – यह मेरी पूंजी है, कि मैं निखिलेश्वरानन्द जी के साथ रहा, दो साल रहा, दो महीना रहा, उनसे कुछ सीखा।
-और घड़ा तो आपका है, उस घड़े को फोड़ने की आवश्यकता है। मैं भी प्रवाह दे रहा हूं, प्रवाह तुम्हें भी देना पड़ेगा। एक गुरू की दृष्टि से वास्तव में ही मैं सौभाग्यशाली हूं इसलिये कि मैं अपने आप में ही सैकडों हजारो रूपों में बिखरा हुआ हूं। इस शरीर का इतना मोह नहीं है, जो शरीर मेरे सामने है, वे सब मेरे हाथ है, पांव है, कान है, आंख है, नाक है, शरीर की धड़कन है, चिन्तन है। तुम सभी शिष्य समूह को मिलाकर जो पिण्ड बनाया जाता है, उसी को निखिलेश्वरानन्द कहते है।
-और जब तक यह पिण्ड स्वस्थ है, तब तक मेरा शरीर तो अस्वस्थ हो ही नहीं सकता, और जब तक यह पिण्ड सक्रिय है निखिलेश्वरानन्द निष्क्रिय हो ही नहीं सकते।
मैं क्रिया योग जैसे गूढ़, दुष्कर और अपने आप में अत्यधिक कठिन साधना को समझा रहा हूं, क्योंकि तभी मेरी मेहनत सार्थक होगी……. और मैं आपकों समझा सकूंगा, साधक के माध्यम से मंत्र के माध्यम से, तंत्र के माध्यम से और योग के माध्यम से भी। यह अपने आप में अत्यन्त विशाल और जटिल विषय है, पर मैंने आपको संक्षेप में इस बात को समझाया, कि क्रिया योग चीज क्या है? और क्रिया योग को प्राप्त करने के लिये करना क्या है?
-कोई कठिन कार्य नहीं है, आवश्यकता इस बात की है, कि हम उस व्यक्तित्व के साथ जुड़ सके, एक हो सकें, मिक्स हो सके, जो इसका पूर्ण ज्ञान रखता हो। अगर मिक्स हो जायेंगे, तो आप फिर घड़े का जल नहीं रहेंगे, नदी का जल हो जायेंगे…….. और जब नदी का जल हो जायेंगे, तो नदी का एक सिरा ठेठ वहां तक है, जहां पच्चीस हजार वर्ष पहले हमारे पीढ़ियां अवस्थित थी-ज्ञान के क्षेत्र में…. और अगला सिरा ठेठ सोलहवीं कला तक है। फिर कही आपको कोई व्यवधान, कोई परेशानी, कोई चिन्ता व्याप्त नहीं होगी, लेकिन आवश्यकता है- उसमें मिलने की, और इसके लिए माया के आवरण को तोड़ना ही पड़ेगा। निश्चित रूप से एकाकार होकर अपने आप में उन्हें धारण करना पडे़गा, क्योंकि क्रियाशील आपको होना है, यह क्रिया पक्ष आपको करना ही है।
क्रिया योग आपको सीखना है, क्रियात्मक पक्ष आपका है, तो आपको धारण करना पड़ेगा। गुरू जबरदस्ती आपके नेत्र में धारण नहीं हो सकते। आपको खुद ही इस बात के लिए बढ़ना पड़ेगा। समुद्र अपनी जगह पर ही है, नदी खुद गंगोत्री से तरंगित होती हुई दौड़ती हुई समुद्र से जाकर मिलती है। समुद्र जाकर नहीं मिलता, उस नदी को जाकर मिलना होता है, समुद्र में एकाकार होना है उसे। अपने चिन्तन में अपने विचार में धारण करना है……… और गुरू शिष्य का यह जो सम्बन्ध है, वह एक पिता और पुत्र का सम्बन्ध है, एक हृदय और एक शरीर का सम्बन्ध है।
शंकराचार्य को बहुत परिश्रम करना पड़ा था, अत्यधिक तनाव उनको भोगना पड़ा था। उसके सामने सिद्धाश्रम का एक मार्ग, एक रास्ता, एक मार्गदर्शन था। काम सौंपा गया था, शंकराचार्य को, शिष्यों को तैयार करने का ……. और मुझे भी उसी प्रकार शिष्यों को तैयार करना पड़ रहा है और एक पिता के नाते मुझे अधिकार है अपने पुत्रों को आज्ञा देने का, क्योंकि मुझे आपकी पूंजी मांगने की आवश्यकता है नहीं, इसकी जरूरत नहीं है, कि आप मुझे कुछ दें। मेरा अधिकार है………. मैने कहा, कि मैं आपको डांट सकता हूं, भला बुरा कह सकता हूं, मगर यह सब दूसरों को नहीं करने दे सकता। इतनी हिम्मत तो मुझ में है, मैं वज्र की तरह आपके आगे खड़ा हूं, और मेरे होते हुये कोई आपका नुकसान नहीं कर सकता।
-और यदि गुरू हर क्षण आपके साथ है, तो आपको पूर्ण क्रियात्मक बनने से कोई प्रकृति, माया रोक नहीं सकती है।
भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा मैं महानिर्वाण ले रहा हूं, तुम्हें पूरे भारत में फैल जाना है, तो यह एक आदेश था।
-और मैं भी कह रहा हूं- यह एक संक्रमण काल है, वर्तमान सभ्यता बहुत ही हल्की है और हम पर हावी है, हमारे परिवार पर हावी है, हमारे दिल दिमाग पर हावी है, उसको धोना पड़ेगा और उसे धोने के लिये तुम्हें पूरे भारतवर्ष में फैलना पड़ेगा, चुनौती के साथ खड़ा होना पड़ेगा, चुनौती के साथ खड़ा होना पड़ेगा, उस सभ्यता के साथ में।
जो तुम्हें यह कहते है- मंत्र क्या होता है ? तंत्र क्या होता है? योग क्या होता है? उनके बीच में दम ठोक के खड़ा होना पड़ेगा, कि मैं बताता हूं…… और मेरे शिष्य जवाब देने के लिये सक्षम है। इतनी क्षमता आप में होनी चाहिये और यह क्षमता आप मैं है, क्योंकि यदि उनको आप जवाब नहीं दे सकेंगे, तो वे आप पर हावी होंगे, और कायरता के साथ जिन्दा रहना गीदड़ की जिन्दगी से ज्यादा घटिया है। कायरता के साथ जिन्दा नहीं रहना है…………..जिन्दा रहना है दमखम के साथ, आंखों में चुनौती के साथ, आंख में अंगारे भरकर जिन्दा रहना है…….. और आंखो में वे अंगारे, आंखों में वह चेतना, आंखों में सक्रियता केवल गुरू ही प्रदान कर सकते है।
पूर्ण शरीर की एक सौ आठ इंद्रियों को जाग्रत कर सकें, यही जीवन की श्रेष्ठता है…. और वे जाग्रत हो सकती है-ज्ञान के माध्यम से, वे जाग्रत हो सकती है-विचारों के माध्यम से, वे जाग्रत हो सकती है- विशिष्ट प्रक्रिया के माध्यम से, यह इस विशिष्ट प्रक्रिया ……………..क्रिया योग का पहला चरण है-धारण।
मैंने तो आपको केवल एक ग्रंथि के बारे में ही बताया है, जो बहुत हल्की सी है और ग्रंथियां तो एक सौ आठ है और एक सौ आठ ग्रंथियों से क्या-क्या प्राप्त हो सकता है, उसको तो एहसास किया जा सकता है, चिन्तन किया जा सकता है। मरूस्थल में भयंकर गर्मी होती है, परन्तु उससे भी ज्यादा गर्मी सोने को दी जाती है, अत्यधिक आंच के अन्दर उसे डाल दिया जाता है, जिससे कि वह खरा बन सके। गुरू उस विशिष्ट आंच तक पहुंचाने के लिये अभ्यास करवाते है…. इससे भी ज्यादा तेज आंच, गर्मी, दुःख को मैंने एहसास किया है।
-‘‘मेरा सारा जीवन जड़ता से भरा हुआ है। एक ऐसा जीवन जो अपने-आप में सक्रिय और जीवन्त है- उमंग, जोश, उल्लास और आनन्द नहीं है। यह तो एक ऐसा जीवन है- जिसको केवल मैं ढो रहा हूं, खींच रहा हूं……. और किसी न किसी प्रकार से इस शरीर को अपने पांवो पर ढोता हुआ मृत्यु की तरफ निरन्तर अग्रसर हो रहा हूं, और इस तथ्य को मुझे ज्ञान है, इसलिये मैं इससे विचलित हूं, परन्तु मुझे कोई रास्ता नहीं मिल रहा है।’’
-‘‘मुझे इस बात का ज्ञान नहीं है, कि मैं इस जड़ शरीर को जीवन कैसे बनाऊं? मुझे इस बात का भी ज्ञान नहीं है, कि मैं निरन्तर मृत्यु की ओर कैसे पहुंचू, मुझे इस बात का भी ज्ञान नहीं है।’’
-‘‘इसलिये हे जगदम्बा! हे भगवती! अब मैं तुम्हारी शरण में हूं। आप मुझे उस गुरूत्व से मिलाकर क्रियमाण करिये, जिससे कि मैं अपने जीवन के सारे उद्देश्य को प्राप्त कर सकूं।
भगवतपाद शंकराचार्य का यह श्लोक, अनूठा श्लोक है, जिसमें सारे अक्षर ‘प’ से ही शुरू होते है। उन्होंने बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथ्य इस श्लोक द्वारा सामने रखे है। यह संसार केवल एकत्र होने के लिये कोई स्थान नहीं है, यह जीवन केवल इस बात के लिये भी नहीं है, कि तनावों में ही घिरे रहे और यह जीवन इस बात के लिये भी नहीं है, कि हम न्यून बने रहें। यह जीवन तो अपने आप में निरन्तर चैतन्य होने का, निरन्तर नर्तन करने का, ऐसा नृत्य, जिससे सारा शरीर थिरकने लग जाये, हमारे शरीर के बाहृ अंग तो थिरके, हमारा अन्तर भी नृत्यमय हो जाये, साथ ही हमारी आंखे मुस्कराने लग जाये, होंठ गुनगुनाने लग जायें, हमारी आवाज मुखरित हो जाये, हमारा चेहरा सौन्दर्यतम लगने लग जाये, हमारा सारा अंग-प्रत्यंग नाचने लग जाये।
-और ऐसा तब हो सकता है, जब गुरू धारण हों।
शंकराचार्य नें कहा है-‘‘मेरे पास अपने जीवन को परखने की कोई कसौटी ही नहीं है, कोई ज्ञान ही नहीं है, बस गुरू को सही ढंग से ढूंढ सकूं, उस गुरू को पहिचान सकूं।’’
यदि शिष्य गुरू को पहिचानने की क्षमता उत्पन्न कर सकेगा, तो ही वह पूर्ण बन सकेगा…… किन्तु शिष्य में यह सामर्थ्य होता ही नहीं है, क्योंकि केवल ज्ञान के स्तर से ही उस दिव्यता को पहिचाना जा सकता है।
-उस शिष्य ने…………. शंकराचार्य ने अपनी व्यथा व्यक्त की है।
जब ‘‘स्वामी गोविन्दापादाचार्य जी के सामने शंकराचार्य पहुंचे, तब वे ठीक उसी प्रकार से थे, जिस प्रकार से आप है, ऐसा ही उनका व्यक्तित्व था। कोई प्रारम्भ से ही तो महान व्यक्तित्व नहीं बन जाता।
यह बात अलग है, कि उनके पिछले जीवन की कुछ कलायें अपने आप में जीवन्त रही होगी और उन कलाओं की पूंजी उस दिन स्वतः प्रस्फुट हो सकीं।
-क्योंकि जब कलायें जाग्रत होने की अवस्था में आती है, तो सही गुरू मिल जाते है।
-पिछले जीवन की कलायें जब अपने-आप में चैतन्य होने लग जाती है, तो गुरू का सानिध्य मिल जाता है, गुरू का ज्ञान मिल जाता है, गुरू के ज्ञान को क्रियमाण करने का अवसर मिल जाता है…….ये सब कुछ पुरानी पूंजी का ब्याज प्राप्त करने की क्रिया है। आप एकदम से नये सिरे से सब कुछ प्राप्त नहीं कर सकते है, क्योंकि आप नये सिरे से गुरू के पास नहीं आ सकते। आज अगर आप गुरू के पास बैठे है, तो इसका मतलब यह नहीं है, कि आज आपने पहली बार कोई प्रयत्न किया है, जरूर पिछली पूंजी आपके पास है, और उसके ब्याज से ही आज आप गुरू के पास तक पहुंच सके है।
-और गुरू का द्वारा कोई नृत्यशाला या रंगशाला नहीं है, आमोद-प्रमोद का स्थान नहीं है। वहां पर आपको कोई ज्यादा स्वागत सत्कार या सुख-सुविधाये दी जाये, केवड़ा और गुलाब जल छिड़का जाये- ऐसा कुछ नहीं है ऐसा करने के लिये तो जीवन में सैकड़ों स्थान है, जहां हम अपने ऊपर गुलाब जल और केवड़े छिड़कवा सकते है।
-ऐसे बहुत से स्थान है……… मगर वे जीवन की ऐसी पूंजी है, जो अगले जीवन में आपको तकलीफ देंगी। आप जो कमा रह है, उसका ब्याज तो देना ही पड़ेगा आपको अगले जीवन मे। वह ब्याज ‘‘भोग रोग भयं’’ भोग अपने -आप में रोग में ही परिवर्तित होता है…… यदि मैं बहुत ज्यादा खाऊंगा, तो अजीर्ण होगा ही…… बहुत ज्यादा चलूंगा, तो पैरों में गांठे पड़ेंगी ही….. उसमें कोई बहुत कहने की जरूरत नहीं है। इसलिये अगर आप भोग में लिप्त है, तो भोग के माध्यम से आप जो कुछ भी प्राप्त करेंगे, उसका फल आप जीवन में भोंगेगे ही, और इस जीवन में नहीं, तो अगले जीवन में, वह फल तो भोगना ही पड़ेगा।
जैसा कि मैंने बताया काल के टुकड़े नहीं हो सकते, जिस समय के स्थान पर आपने दस्तक दी, जो कार्य किया उसका प्रभाव प्लस या माइनस तो होगी ही, आपकी छोटी सी छोटी घटना भी रिऐक्शन करेगी ही।
एक छोटी सी गोली इतने बड़े शरीर में जाकर अपना प्रभाव दिखाती है- ‘‘यदि मैं एक गोली लूं, और सिर का दर्द समाप्त हो जायेगा, और यदि चार छः गोली एक साथ ले लूं, तो सिर का दर्द और बढ़ जायेगा, वह रिऐक्शन एक घंटा तकलीफ दे सकता है, और चार घंटा भी तकलीफ दे सकता है, और नींद की गोलियां चालीस एक साथ ले लूं, तो मैं मर भी सकता हूं। वे गोलियां एक बटन जितनी बड़ी होती है, कोई बहुत बड़ी नहीं होती, परन्तु प्रभाव अचूक होता है।’’
इसलिये यह शास्त्र सम्मत तथ्य है, यह व्यावहारिक तथ्य है कि हम जीवन में जो कुछ भी कर रहे है, हमारी वैसी ही संतान पैदा हो जायेगी। संतान हमने पैदा की, हमारे ही पुत्र और पुत्रियां है, और वे हमारा ही कहना नहीं मानते। हमारे विपरीत रास्ते पर चलने लग जाते है। हमारा ही आदर सम्मान नहीं करते। हमारे स्वयं का शरीर जिसको हमने खूब साबुन लगा लगा करके खिला-पिला करके तैयार किया है और वह ही हमारा कहना नहीं मानता, थक जाता है, कमजोर हो जाता है, चल नहीं सकता, खा नहीं सकता, पी नहीं सकता।
-इसलिये कि हमने जो कुछ किया है, उसका परिणाम हम सब भोग रहे है। पिछले जीवन में आपने जो कुछ भी किया होगा, उसका फल आपके सामने बिल्कुल प्रत्यक्ष होगा ही परन्तु पिछला जीवन तो आपको ज्ञात नहीं है, इसलिये सोचेंगे-आखिर मेरे जीवन में इतनी विडम्बनायें इतनी बेचैनी इतनी परेशानियां, इतनी बाधाये क्यों है?
चहरे पर आनन्द नहीं है, चेहरे पर उमंग नहीं है, आंखे जो एकदम से नृत्यमय होनी चाहिये, मुस्कराती हुई आंखे होनी चाहिये, आखिर वह क्यों नहीं है? चेहरे पर जो ओज होना चाहिये, जो दमक होनी चाहिये…….. वह क्यों नहीं है?
आप घी खाते है, बिस्कुट खाते है, उसके बावजूद भी आपका चहरा मुर्दे की तरह क्यो है? इसमें किसी प्रकार की कोई हलचल क्यों नहीं है? प्रभु ने तो चेहरा ऐसा नहीं दिया। आप जब पैदा हुये, तो खिलखिला रहे थे, मुस्करा रहे थे, बहुत नृत्य कर रहे थे और आपकी आंखों का नृत्य देखकर आपके माँ बाप बहुत खुश हो रहे थे-रोते हुये चेहरे को देखकर नहीं, रोते हुये चेहरे को देखकर वे उदास हो जाते है। उस समय आपके चेहरे में जरूर कुछ विशेषता रही होगी, जिससे आपके मां-बाप, आस-पड़ौसी खुश थे- वह खिला हुआ चेहरा दिया था, तो फिर आज वह क्या हो गया!
-आपने जो कुछ कमाया, उसी का फल आपके सामने है और ये सब आपके पिछले जीवन की कमाई है…………. यदि पिछले जन्म के कुछ पुण्य शेष होंगे, तो व्यक्ति को गुरू अवश्य मिलेंगे ही।
शंकराचार्य ने कहा,-‘‘हे अम्बे! मैं, जीवन में यही चाहता हूं, कि कोई ऐसे गुरू मिल जाये, जो यह समझा सकें, कि जीवन क्या है?’’
और यह वही समझा सकते है, जो खुद समझे हुये हो, जो खुद पूरे उपनिषदों का ज्ञान रखते है, वे ही गुरू है।
पढ़ना लिखना नहीं, पढ़ने लिखने से ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। उपनिषद को पढ़कर स्वयं मंथन करें, तो आप भ्रमित हो जायेंगे, क्योंकि यदि तैतिरियोपनिषद में एक बात कही गयी है तो आरण्यक उपनिषद में विरोधी बात क्यों कही?
इन उपनिषदों में एक ही बात को विरोधी भाव से क्यों कहा गया?
आखिर इन दोनों में सत्य कहा है?
जिस उपनिषदकार ने यह बात कही, इसके पीछे उनका मन्तव्य क्या था?
इन सभी प्रश्नों का उचित निष्कर्ष निकाल कर, उसके अनुसार ज्ञान के पुष्ठज को लेकर, जो खड़े होते है, उनको गुरू कहते है। भगवे कपड़े पहिनने से तो गुरू नहीं बना जा सकता। गुरू का अपने आप में कपड़ो से कोई सम्बन्ध नहीं है। हमारे पिछले जीवन के तो कोई गुरू ऐसे थे ही नहीं, जो भड़कीले कपड़े पहिनते थे कुरता था, वह भी खोल दिया, धोती भी खोल दी, उस लोक-लाज वश एक लंगोट अवश्य लगा कर रखी, ऐसे थे वे त्याग वृतिमय।
शंकराचार्य ने कहा-मैं जीवन का उद्देश्य चाहता हूं, मैं जीवन में आध्यात्मिकता के साथ ही साथ सभी भौतिक दृष्टियों से भी पूर्णता चाहता हूं।
संन्यासी जीवन में यदि कोई भौतिक दृष्टि से पूर्णता चाहे, तो कोई दोष नहीं है। कोई गुरू यदि मिठाई खाये, तो कोई पाप नहीं है। यदि गुरू सिनेमा देख ले, तो कोई अधर्म नहीं है। मैं तो सिनेमा रोज देखता हूं-एक व्यक्ति खड़ा होता है, अपनी पत्नी को गालियां देता है, लातें मारता है, थप्पड़ मारता है। देखता हूं विलेन और हीरो के लड़ाई-झगड़े हो रहे है, और फिर हीरों उसको बहकाता है और उसकी लड़की के साथ भाग जाता है।
-ऐसे केस तो रोज मेरे पास आते है। मैं उनके चेहरे को देखता हूं, तो सोचता हूं, यह तो फिल्म का ही एक पार्ट है, उनका जीवन एक फिल्म की भांति मेरे मन-चक्षुओं के सामने स्पष्ट हो जाता है-दिन रात ऐसी फिल्म देखता हूं, तो फिर यदि तीन घंटे की एक फिल्म देख भी लूंगा, उसमें क्या दोष आ जायेगा।
मगर हमारी आंखे इतनी स्थूल हो गई है, कि हम कहते है-अरे!गुरू जी बेकार है, गुरू जी को सिनेमाघर में देखा था आज। अरे!कमाल हो गया आज, मैंने उन्हें टिकट लेकर फिल्म देखते हुऐ देखा….. अब गुरू जी में ज्ञान खत्म हो गया, अब तक तो उपनिषद का ज्ञान गुरू जी में था, वह समाप्त हो गया। गुरू जी ने वेद पढे़ थे, वे खत्म हो गये, क्योंकि गुरू जी ने सिनेमा देख लिया।
यह हमारी न्यूनता है, कि हम नहीं समझ पा रहे है। गुरू अपने आप में सिनेमा में देखने से, भगवे कपड़े पहिनने या नहीं पहिनने से, करोड़पति होने से या भिखारी बनने से गुरू नहीं बन सकते-ये गुरू की परिभाषायें हमने गलत बना दी है। वास्तव में ही हम गुरू को पहिचान नहीं पा रहे, इसीलिये ढोंगी और पाखण्डी गुरू बन गये और जब वे ढोंगी और पाखण्ड गुरू अट्ठानवे प्रतिशत बढ़ गये, तो दो परसेंट जो गुरू थे-वे भी दब गये, गुरू घंटाल पूरी तरह छा गये, जिनके छाने से हमारे मन में यह संदेह पैदा हो गया, कि मंत्र बेकार होते है।
शंकराचार्य ने कहा-मैं अपने शरीर को अत्यन्त भार स्वरूप लिये ढोते हुये जी रहा हूं ऐसा लगता है, जैसे मुर्दे को उठा कर श्मशान की ओर जा रहा हूं। मेरे जीवन में कुछ भी नवीनता नहीं है। मैंने गृहस्थ जीवन भी जी करके देख लिया, वह कुछ अलग से नहीं है।
उससे पहले तो व्यक्ति सोच रहा था, कि यों होगा, और ऐसा होगा, परन्तु देखने के बाद मैंने एहसास कर लिया। शादी करने के बाद भी जीवन में जो चेहरे पर उमंग, चैतन्यता और ओज होना चाहिये था वह नहीं है। पैसा कमा कर भी देख लिया, मकान बनाकर भी देख लिया, शहर में रहकर भी देख लिया, और संसार में घूम कर भी देख लिया, परन्तु जीवन का जो वास्तविक आनन्द है वह मुझे भोग में मिला ही नहीं। संन्यासी बनकर भी देख लिया, भगवे कपड़े पहिन करके, और नर्मदा नदी में खड़े होकर भी देख लिया, आनन्द उसमें भी प्राप्त नहीं हो सका-दोनों ही अवस्थाओं में मैं अपने शरीर को, अपने कंधो पर लेकर निरन्तर मृत्यु की ओर जा रहा हूं।
-और मैं चाहता हूं, कि मेरा जीवन नर्तनयुक्त बने, थिरकता हुआ बने, हंसता खिलखिलाता और अपने आप में पूर्ण आनन्द में पूर्ण आनन्द व उमंग लिए हुये हो, रोग रहित हो।
और तीसरी बात उन्होंने यह कहा है, कि मैंने जीवन में जो अधूरापन है, उसको पूर्णता की ओर जाना चाहता हूं।
जैसा कि मैंने बताया, कि प्रत्येक व्यक्ति अणु है, और वह अणु अपने आप में महान हो सकता है और महान होता ही है, यदि अणु पूर्णता तक पहुंचने की क्षमता रखता हो-
खुद को कर बुलन्द इतना कि हर आगाज से पहले।
खुदा बन्दे से खुद पूछे कि बता तेरी रजा क्या है?
ऐसा व्यक्तित्व ही सफल हो सकता है, जो जमीन पर खड़ा तो हो, मगर उसमें आसमान को छूने की ताकत हो, आगे बढ़ने का संकल्प हो, क्षमता हो।
-और शंकराचार्य के प्रश्नों का उत्तर देते हुयें उनके गुरू जो अपने-आप में ज्ञान के विराट पुष्ठज है, उन्होंने कहा-
पूर्ण मदै पूर्ण मदैव सिन्धुं ज्ञानेव रूपं परिमं प्रदेवं।
सः शकरं सहित रूप मदैव तुल्यं, क्रियायोग रूपं क्रिया योग रूपं।।
-और कोई दूसरा तरीका नहीं है तुम्हारे पास और किसी दूसरे तरीके से तुम जीवन की पूर्णता को प्राप्त भी नहीं कर सकते-तुम भौतिक जीवन का भी आनन्द चाहते हो-तुम संन्यास जीवन का भी आनन्द चाहते हो।
-तुम अपने जीवन को अणु रूप में भी देखना चाहते हो-तुम अपने जीवन को उस महान पूर्णता के रूप में भी देखना चाहते हो-तुम इस जड़ शरीर को चैतन्य भी करना चाहते हो-और तुम नर्तनयुक्त और थिरकन युक्त भी बनना चाहते हो तो केवल क्रिया योग के माध्यम से ही जीवन की ये सभी स्थितियां प्राप्त हो सकती है, परन्तु साथ ही साथ उन्होंने कहा-यह दुर्लभ है, बहुत कठिन है, यह बहुत पेचीदा है।
पेचीदा इसलिये, क्योंकि इसको समझाना पेचीदा है……. समझना पेचीदा नहीं है, परन्तु यदि समझाने वाला सही चिन्तनयुक्त नहीं है, तो नहीं समझा सकता, क्योंकि वह केवल यह कहे, कि ‘‘काल पुरूष स्वरूपी अणु को महान में जोड़कर के ब्रह्मत्व में लीन कर देने की क्रिया, जिस प्रक्रिया से अपने आप-में अणु महान’विराटयुक्त बन जाता है, उसको ‘‘ क्रिया योग’’ कहते है।’’
परम पूज्य सद्गुरू
कैलाश श्रीमाली जी
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