जहां जीवन में आध्यात्मिक पक्ष महत्वपूर्ण है वहीं भौतिक पक्ष की प्रधानता को नकारा नहीं जा सकता। विश्वामित्र कहते हैं, भौतिक जीवन की परिपूर्णता से ही आध्यात्मिक ज्ञान जगत का मार्ग निकलता है। गृहस्थ जीवन के भौतिक जीवन की सभी मनोकामनाओं, रस-विलास, आनन्द तत्व का भोग करना समस्त मनुष्य का अधिकार है।
इस जीवन में आकांक्षा, इच्छा के बिना कोई कर्म नहीं होता और किसी भी कर्म का परिणाम निश्चित रूप से प्राप्त होता ही है। कर्म करने से ही फल की प्राप्ति होती है तथा कर्म से पूर्व मन में फल के प्रति आसक्ति भाव भी रहता है। मनुष्य जीवन में सबसे बड़ी बाधा यह है कि वह कर्म के परिणाम से किस प्रकार से मुक्त रहें।
वर्तमान जीवन में जो नित्य प्रति की नवीन इच्छाओं एवं भावनाओं के फलस्वरूप मनुष्य कई कर्मों को सम्पादित करता है। इनका फल तत्काल कुछ समय बाद या अगले जन्मों में प्राप्त होता है। वर्तमान जीवन में इन कर्मों को क्रियमाण कर्म कहते हैं।
व्यक्ति कर्म करता है और उसके तत्काल फल की आशा करने लगता है, परन्तु पूर्व कर्मों के रहते हुये उसके क्रियमाण कर्म उतने फलप्रद नहीं हो पाते जितने की होने चाहिये, इस कारण वह चिंतित हो जाता है, संशयग्रस्त हो जाता है और अपने भाग्य को कोसता है। अतः इन सब का कारण हमारे पूर्व जन्म के संचित एवं अर्जित कर्म हैं।
संचित एवं अर्जित कर्मों को जिस राशि से जीवन के ऊर्ध्वगामी होने की क्रिया और व्यक्ति का उन्नति मार्ग अवरूद्ध हो जाता है, उन्हीं कर्म राशियों को समाप्त करने का नाम है सुमंगलमय भाग्योदय दीक्षा। इस दीक्षा के परिणाम स्वरूप सद्गुरूदेव शिष्य के जीवन में भाग्योदय की क्रिया सम्पन्न करते हैं। जिससे साधक के वर्तमान सुकर्म पूर्ण प्रभावी होकर उसे सफलता के राजपथ पर त्वरित गति से अग्रसर कर देते हैं। यह दीक्षा साधक में एक नवीन ऊर्जा का प्रस्फुटन करती है, उसके अन्दर उत्साह, चेतना, उमंग, जोश, कार्यक्षमता, परिश्रम और सफलता की संयुक्त विद्युत रश्मियां प्रवाहित कर देती हैं। जिससे आने वाला नूतन वर्ष हर स्वरूप में श्रेष्ठमय बन सकेगा।
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