प्रभु की तरफ पहुँचने के लिये प्यास तो गहरी चाहिये, लेकिन अधैर्य नहीं। अभीप्सा तो पूर्ण चाहिये लेकिन जल्दबाजी नहीं। जितनी बड़ी चीज को हम खोजने निकले हों, उतना ही मार्ग देखने की तैयारी चाहिये और कभी भी घटना घटे, जल्द ही है, क्योंकि जो मिलता है उसे समय से नहीं तोला जा सकता। अनंत-अनंत जन्मों के बाद भी प्रभु का मिलन हो, तो बहुत जल्दी हो गया। कभी भी देर नहीं है। क्योंकि जो मिलता है, अगर उस पर ध्यान दें, तो अनंत-अनंत जन्मों की यात्रा भी कुछ नहीं है।
जितना बड़ा धैर्य, उतनी ही जल्दी होती है घटना, जितना ओछा धैर्य, उतनी ही देर लग जाती है। धैर्य का अर्थ है- अनंत प्रतीक्षा की क्षमता और जो सत्य की खोज पर निकला हो, जो प्रभु की खोज पर निकला हो, उनके लिये तो धैर्य के अतिरिक्त और कोई सहारा भी नहीं है।
परन्तु धैर्य तो हमारे भीतर जरा भी नहीं है और यही हमारी न्यूनता है, हम जीवन में असफल इसी कारण वश होते हैं। क्योंकि हम क्षुद्र के लिये तो प्रतीक्षा कर लेते हैं, परन्तु सत्य के लिये, उस विराट के लिये हम जरा भी प्रतीक्षा नहीं करना चाहते हैं। इससे एक ही बात पता चलती है कि शायद हमें खयाल ही नहीं है कि वह विराट सत्ता क्या है। और हमारी चाह इतनी कम है कि हम प्रतीक्षा करने को तैयार ही नहीं। क्षुद्र की हमारी चाह बहुत है, इसलिये हम प्रतीक्षा करने को राजी नहीं हैं।
एक व्यक्ति थोड़े से रूपये कमाने के लिये जिंदगीभर दांव पर लगा सकता है और प्रतीक्षा करता रहता है कि आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। चाह गहरी है धन को पाने की, इसलिये प्रतीक्षा कर लेता है। परमात्मा के लिये वह सोचता है कि एकाध बैठक में ही उपलब्ध हो जाये और वह बैठक भी वह तब निकालता है जब उसके पास अतिरिक्त समय हो, जो धन की खोज से बच जाता हो। छुट्टी का दिन हो, अवकाश का समय हो, तब वह बैठक करता है। और फिर वह चाहता है, बस जल्दी निपट जाये। वह जल्दी निपट जाने की बात ही यह बताती है कि ऐसी कोई चाह नहीं है कि हम पूरा जीवन दांव पर लगा दें।
विराट तब तक उपलब्ध नहीं होता, जब तक कोई अपना सब कुछ समर्पित करने को तैयार नहीं होता और सब कुछ समर्पित करना भी कोई सौदा नहीं है। नहीं तो कोई कहे कि मैंने सब कुछ समर्पित कर दिया, अभी नहीं मिला। अगर इतना भी सौदा मन में है कि मैंने सब समर्पित कर दिया तो मुझे प्रभु मिलना चाहिये, तो भी नहीं मिल सकेगा। क्योंकि हमारे पास है क्या जिससे हम प्रभु को खरीद सकें? क्या छोड़ेंगे आप? छोड़ने को है क्या आपके पास? आपका कुछ है ही नहीं, जिसे आप छोड़ दें। सभी कुछ उसी का है। उसी का उसी को देकर सौदा करेंगे?
है क्या हमारे पास? शरीर हमारा है, ज्ञान हमारा है, क्या है हमारे पास? और हो सकता है, धन भी हमारा हो, जमीन भी हमारी हो, लेकिन आप अपने बिल्कुल नहीं है। क्योंकि यह जो भीतर दीया जल रहा है चेतना का, यह तो प्रभु का ही दिया हुआ है। आपका इसमें कुछ भी नहीं है। आप अपने बिल्कुल नहीं है, इसलिये आप प्रभु को देंगे क्या?
धैर्य का अर्थ है, हमारे पास न दांव पर लगाने को कुछ है, न परमात्मा को प्रत्युत्तर देने के लिये कुछ है, न सौदा करने के लिये कुछ है, हमारे पास कुछ भी नहीं है। और मांग हमारी है कि परमात्मा मिले। प्रतीक्षा तो करनी पड़ेगी। धैर्य तो रखना पड़ेगा अनंत रखना पड़ेगा।
जमीन में बीज को बोकर भूल जाना चाहिये, प्रतीक्षा करनी चाहिये। पानी डालें जरूर, पर अब बीज को उखाड़-उखाड़कर मत देखते रहें- अभी तक बीज फूटा नहीं । नहीं तो फिर कभी नहीं फूटेगा, बीज खराब ही हो जायेगा। इसीलिये जल्दी नहीं करें और बार-बार उखाड़कर नहीं देखें। जब अंकुर निकलेगा तो पता चल जायेगा।
आतुरता से कुछ भी प्राप्त नहीं होने वाला। आतुरता विचार ला देती है। जल्दबाजी विचार पैदा करवा देती है। अगर प्रतीक्षा हो, तो विचार शांत हो जाते हैं। जल्दी कुछ हो जाये, इसी से मन में तूफान उठते हैं। कभी भी हो जाये, जब होना हो और न भी हो, तो भी परमात्मा पर छोड़ देने का नाम प्रतीक्षा है।
विचार एक बात है और विचारों की भीड़ बिलकुल दूसरी बात है। अगर एक विचार हो तो हाथ की लकड़ी बन सकता है, और अगर बहुत विचार हों, तो हाथ की लकड़ी नहीं बनता, फिर सिर पर लकड़ी का गट्ठर बन जाता है। फिर वह सहारा नहीं रहता, बोझ हो जाता है। जब विचार अधिक हो जाते हैं तो विवेक क्षीण हो जाता है।
जो व्यक्ति समर्पित होकर विराट की खोज करता है वह अपनी चेतना के समक्ष एक विचार से ज्यादा को एक साथ नहीं आने देता है। क्योंकि एक आये तो ही उसकी परीक्षा हो सकती है। एक विचार को ही चेतना निर्णय कर सकती है।
विचार एक शक्ति है- सोचने की, देखने की, निष्पक्ष होने की, अपने ही विचार के प्रति तटस्थ होने की। विचार व्यक्ति के लिये दंड का कार्य करते हैं, उस विराट की खोज में सहारा बनते हैं। विचारों की शक्ति ही व्यक्ति को सत्य को प्राप्त करने में सहायक होती है। जब व्यक्ति अपने विचारों के प्रति तटस्थ हो जाता है, फिर उसमें आतुरता नहीं रहती, वह प्रतीक्षा करने में सक्षम होता है। धैर्य धारण करना उसके लिये सरल बात होती है।
धैर्य से बड़ी कोई क्षमता नहीं है और जो सत्य की खोज में निकले हों, उनके लिये तो धैर्य के अतिरिक्त और कोई सहारा भी नहीं है। जिसके पास धैर्य है, उसके पास सत्य का धन तत्क्षण उपलब्ध हो जाता है। वह उस विराट सत्ता तक पहुँच जाता है, परन्तु उसे पहचान नहीं पाता, क्योंकि पहले वह कभी मिला नहीं था। इस अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने पर ब्रह्म के दर्शन करने के लिये हमें गुरू की जरूरत होती है। असल में गुरू की जरूरत हमें तभी पड़ती है, जिस दिन घटना घटती है।
क्योंकि उस व्यक्ति के लिये वह अपरिचित, अनजान, पहले तो कभी जाना हुआ नहीं है, उस लोक में प्रवेश हो जाता है। उसे पहचान नहीं होती कि जो हो गया है, वह क्या है। तो गुरू की जरूरत पड़ती है प्राथमिक चरणों मे, वह बहुत साधारण है। अंतिम क्षण में गुरू की जरूरत बहुत असाधारण है कि वह कह दे कि हां, हो गई वह बात जिसकी तलाश थी, उस ब्रह्म दर्शन से साक्षात्कार होने पर। जिसके साक्षी गुरू होते हैं।
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