ईश्वर तो सर्वव्यापी है। हर सतकर्म में है, हर त्याग में है, अच्छी भावना व अच्छे ज्ञान में है। वह तो संपूर्ण ब्रह्माण्ड में है। आवश्यकता है हम जहां भी हैं वहीं उन्हें प्राप्त करें।
पंचभूतों से बना हमारा यह शरीर हम नहीं और न ही हमारा आदि अर्थात् आरंभ इस जीवन का आरंभ है। हमारा आदि क्या है? और हम क्या हैं? सर्व प्रथम हम ये जानें कि हम हैं क्या? ‘मैं’ ‘हम’ को यूं जान सकते हैं- ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ हम हमारा शरीर नहीं ‘हम’ आत्मा है जो ईश्वर का अंश है। आत्मा के शरीर से पृथक होते ही शरीर का कोई महत्व नहीं रह जाता। आत्मा बोलती है, आत्मा देखती है, आत्मा ज्ञान अर्जित करती है। वह आत्मा जो ज्योति स्वरूप है हम उसी आत्मा की बात करते हैं। हम न जाने कितने जन्मों से जन्म-मृत्यु के भंवर में फंसे हैं और निकल नहीं सके, क्योंकि हमने निकलना चाहा ही नहीं। हर जन्म में इच्छाओं व आकांक्षाओं की पूर्ति में लगे हैं।
आज जीवन असाधारण रूप से उलझ गया है। यह जीवन को देखने के लिये किसी प्रकार की चेष्टा की जाती है तो वह सार्थक सिद्ध नहीं होती। जीवन बिखरा और फैला प्रतीत होता है। व्यक्ति तो अपने बाहरी जीवन में अंतर्विरोध पाता है। यह अंतर्विरोध प्र्रतिपल घटित हो रहा है।
हम जो होना चाहते हैं, उसके प्रतिकार और स्वीकार का निरंतर बने रहना अंतर्विरोध की स्थिति है। यह एक स्पष्ट तथ्य है। यह अंतर्विरोध ही एक महासंग्राम है जबकि द्वंद्वों का सैन्य दल घात-प्रतिघात करते हुये हमें विवशता की स्थिति में खड़ा कर देता है। जीवन इतना सहज नहीं है जितना हमने मान लिया है। निश्चय ही यह साधारण रूप से उलझी एक गुत्थी है।
वस्तुतः हममें एक जैसी स्थिति कभी नहीं रहती। हममें निरंतर कुछ होने, बनने और प्रकट करने की आकांक्षायें उदित होकर मूर्त रूप में परिणत होने के लिये छटपटाती रहती हैं। उसी काल खंड में हममें अंतर्विरोध उत्पन्न होता है। इसका अर्थ स्पष्टतः एक ऐसी अस्थायी अवस्था से है जिसका किसी अन्य अस्थायी अवस्था में प्रतिरोध किया जा रहा है। हम अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने, उपलब्धियों का प्रदर्शन करने और स्वयं की प्रधानता को प्रतिष्ठित करने में ही जिस असहाय अवस्था को प्राप्त होते हैं, उस अवस्था का जन्म अंतर्विरोध के कारण ही होता है। अतः आवश्यक है कि घटित होने वाली समस्त क्रियाओं के परिणाम को निष्पक्ष और निर्दोष दृष्टि से देखें।
हमें अपने स्वरूप का न तो भान ही रहा और न मान अर्थात् न तो ज्ञान ही रहा और न इस बात का भान (गर्व) कि हम आत्मा हैं, ईश्वर का ही अंश, हम भी और अन्य जीव भी। यह तो स्मरण रहा कि हम गुणवान हैं, धनवान हैं, रूपवान हैं, चरित्रवान हैं किंतु इस बात पर ध्यान नहीं गया कि हम सर्व शक्तिशाली, निर्विकार, परमपिता परमात्मा का अंश हैं। उनके द्वारा प्रदत्त आत्मा के सद्गुणों को बनाये रखें। यदि हम दुःख से छुटकारा पाना चाहते हैं तो सुख की आशंका के लिये। क्या बंधनों से छुटकारा पाने की चाह हमने कभी की? सत्संग या कभी कभार आत्मा में उपजे ज्ञान ने स्मरण दिलाया भी तो उस पर ध्यान ही नहीं दिया। जब हमने चाह ही नहीं बनाई तो राह कैसे मिलेगी? चाह की तो भौतिक सुख की। बचपन अज्ञानता में गुजरा तो युवावस्था भौतिक में। शेष बची वृद्धावस्था तो वह ईश्वर भजन में व्यतीत होनी चाहिये, उसमें भी जब-तब ही भगवान याद आये। बीता समय लौटकर आँखों के सामने आया, सुखद क्षणों में हंसाया तो दुःखद क्षणों के चलचित्र आँखों से हटाने के प्रयत्न में गये। बार-बार सुखद क्षणों को जुनून की तरह पकड़ने का प्रयास किया। मुख्य उद्देश्य से फिर भी भटक गये। ईश्वर तो सर्वव्यापी है। हर सत्कर्म में है, हर त्याग में है, अच्छी भावना व अच्छे ज्ञान में है। वह तो संपूर्ण ब्रह्माण्ड में है। आवश्यकता है हम जहां भी हैं वहीं उन्हें प्राप्त करें। सत्यकर्मी के लिये जीवन ही तपोभूमी है। एक सत्यगामी के लिये पल-पल पर अग्नि परीक्षाये हैं। हृदय में ईश्वर का भक्ति भाव और कर्म में सत् यही तप-मोक्ष का मार्ग है। गृहस्थ जीवन में रहकर भी ईश्वर प्राप्ति की भावना के साथ उस परमपिता परमेश्वर से मिलने की आशंका, मोक्ष की आकांक्षा तभी पूर्ण होगी जब हम सत्यवादी व सद्गामी बनकर सत्यकर्मों के माध्यम से अपने में पात्रता विकसित करें।
यहां इस बात को हमें नहीं भूलना चाहिये कि देखने-देखने में फर्क होता है। महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने वाला था। दोनों सेनायें आमने-सामने खड़ी थीं। तब प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि अलग-अलग स्थान पर केंद्रित थी। धृतराष्ट की रुचि सिर्फ इस बात में थी कि उसके पुत्रों ने क्या किया और वे क्या करने वाले हैं? दुर्योधन और भीम युद्ध को युद्ध के रूप में ले रहे थे। ये दोनों योद्धा थे जबकी अर्जुन वीर होने के साथ-साथ संवेदनशील तथा विचार प्रधान था। इसीलिये उसे युद्ध भूमि में अपने लोग ही दिखाई देते थे, सामने खड़े शत्रु नहीं। यह एक अच्छा लक्षण था। लेकिन वह गलती कर रहा था, इसलिये उसे श्रीकृष्ण ने समझाया। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो दिव्य दृष्टि दी, उसका प्रयोजन था कि वह निष्पक्ष भाव से परिस्थिति को देखे और बिना किसी पूर्वाग्रह के उसका सामना करे।
कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि इस स्थिति में संघर्ष से हमें प्रेरणा मिल जाये। जीवन के समस्त महत्त्व को समझने के लिये यह आवश्यक है कि हम संपूर्ण आंतरिक व्यवस्था और उसका क्रम समझे। अपनी स्थिति के लिये हम स्वयं उत्तरदायी हैं। अशांत और असाधारण रूप से उलझे जीवन का निर्माण भी हम ही कर रहे हैं। हम दूर जाने के लिये निकट से ही आरंभ करें। निकट की उपेक्षा करके दूर पहुंचना संभव नहीं है। साधक प्रायः दूरी में छलांग लगाता है जो सार्थक नहीं होता। यद्यपि दूर और निकट में कोई अंतर नहीं है-दूरी है ही नहीं, प्रारंभ तथा अंत एक ही है। प्रारंभ के मुखौटे अनेक होकर भी एक हैं परंतु अंत सदा एक ही होता है।
इसके अतिरिक्त हम स्वयं को जटिलता से मुक्त रखें। जटिलता अहं का विस्तार करती है और समस्त आध्यात्मिक आभा को क्षीण कर देती है। जटिलता का जन्म होते ही सहज-स्वाभाविक स्थिति विचलित हो जाती है। इस प्रकार अनेक द्वंद्व नूतन कुंठाओं को उत्पन्न करते हैं। अतएव आंतरिक प्रक्रिया के प्रति सचेत होना अंतर्विरोध को कम करना है। विचार-प्रक्रिया का स्त्रोत ‘स्व’ और ‘पर’ के बीच की पृष्ठभूमि है। क्या हम ‘स्व’ को जान सकते हैं? निः संदेह हां, परंतु उसका विश्लेषण करके नहीं वरन वस्तु को उसके मूल रूप में देखकर, तथ्य के रूप में उसके प्रति सचेत होकर और सतत कार्य रूप को समझकर। शांत अवस्था में ही हम स्वयं को उपलब्ध हो सकते हैं। यही है-परमात्मा की ओर जाने का परम मार्ग!
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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