सभी गणों के अधिपति, बुद्धि के अधिष्ठाता देव, देवताओं और मुनियों के हित चिन्तक, अपने बुद्धि वैभव से सर्वत्र सम्मानित, नवनिधियों के दाता, मंगलमूर्ति साधक के जीवन के सभी विघ्नों को दूर करने वाले सर्वत्र विजय प्रदाता, अपने भक्त को ब्रह्मत्व प्रदान करने वाले देव को नवनिधि स्वरूप में आत्मसात करने से सर्व स्वरूप में जीवन सुमंगलमय बनता है।
भगवान गणपति का नाम एक ऐसा पावन उच्चारण है। जिससे स्वतः ही सर्वत्र मंगलता प्रतीत होने लग जाती है। उनका स्वरूप इतना तेजस्वी है, कि उनके स्मरण मात्र से जीवन के विविध अंधकार समाप्त होने लग जाते है तथा उनकी साधना से तो किसी अशुभ का स्थिर रहना असंभव ही है, किन्तु यदि किसी भी व्यक्ति से पूछा जाये, तो वह दो कथाओं के अतिरिक्त शायद ही तीसरी कथा उनके विषय में बता सके। प्रथम तो वह कथा, जिसमें उनकी उत्पति एवं उनके गजानन होने का रहस्य निहित है तथा द्वितीय वह, जिसमें उन्हें माता-पिता की परिक्रमा करने वाला वर्णित किया गया है।
मंगल मूर्ति श्री गणेश का केवल इतना ही परिचय नहीं है, वरन् इससे कहीं अधिक विस्तार से उनका पावन चरित्र विद्यमान है। उनके लीला स्वरूपों का वर्णन तो यद्यपि विस्तार से प्राप्त नहीं होता है, किन्तु साधकों के मध्य उनके अनेक रूपों की साधना पद्धतियों से ज्ञात होता है, कि किस प्रकार से वे साक्षात ज्ञान स्वरूप होने के साथ ही प्रचंड तांत्रोक्त रूप में विद्यमान है। बाह्य स्वरूप से सर्वथा शांत होने के साथ ही साथ उनके भीतर जिस प्रकार का अग्नि प्रकाश छिपा है, उसका साक्षात् तो केवल साधक ही साधना के माध्यम से कर सकता है।
यदि लोक परंपराओं में विद्यमान कथाओं को एक बार हम विस्मृत कर दें, तब ज्ञात होता है, कि प्राचीन साहितय में उन्हें केवल शिव -पार्वती का पुत्र ही नहीं, साक्षात् ब्रह्म स्वरूप ही माना गया है। जिस प्रकार शक्ति में सत, रज एवं तम तीनों गुणों की धारणा की गई है, ठीक उसी प्रकार से मात्र प्रथम स्मरणीय देव के रूप में भी तीनों ही गुणों की धारणा की गई है और जनमानस में प्रथम स्मरणीय देव के रूप में विद्यमान है।
भगवान श्री गणपति की साधना, साधना जगत में अत्यन्त सौम्य, श्रेष्ठ एवं सर्वोच्च मानी गई है, यद्यपि ऐसे साधकों की संख्या अधिक है, जिन्होंने गणपति साधना को ही अपने जीवन का आधार बनाया हो। विशेषकर पश्चिम भारत में भगवान श्री गणपति की उपासना सर्वाधिक प्रबल रूप से होती है, लेकिन उपासना एवं साधना में पर्याप्त भेद होता है, इस तथ्य से कोई भी विद्वान असहमत नहीं हो सकता।
उपासना का सीधा सा अर्थ- देव विशेष को अपने सुख-दुःख का साक्षी स्वीकार कर लेना एवं उसके समक्ष सब कुछ निवेदित कर देना, उसे अपने जीवन का आधार बना लेना।
जबकि, साधना में अंतर यह होता है, कि साधना उस देव-विशेष के गुणों, तत्वों से परिचय प्राप्त कर तदनुकूल अपने आप में ही पात्रता बनाने की क्रिया होती है। इस प्रकार से उसे अधिकृत किया जाता है, कि वह साधक को इच्छानुसार स्वरूप में आकर उसके शरीर में समाहित हो जाये तथा उसे उसका अभीष्ट प्रदान करें।
भगवान गणपति का स्वरूप सर्व प्रकारेण विघ्नहर्ता ही है, इससे किसी को भी असहमति नहीं हो सकती, किन्तु उनके किस स्वरूप का किस अवसर पर ध्यान करें, इसमें मतभेद है। उदाहरण के लिये उनके जिस स्वरूप का ध्यान विवाह आदि मंगल कार्यो में किया जाता है, कोई आवश्यक नहीं, कि उसी स्वरूप का ध्यान शत्रु संहार एवं अनिष्ठ निवारण में भी किया जाये, क्योंकि विवाह आदि मंगल कार्यो में वे देवत्व की गरिमा से अपूरित स्वरूप में एक प्रकार से अत्यन्त आह्लाद एवं अभिभावकत्व के भावों से भरे हुये उपस्थित होते है, जबकि शत्रु संहार में वे अत्यन्त विकट एवं भयानक स्वरूप में प्रकट होते है। उच्चकोटि के गणपति साधक जानते है, कि किस प्रकार से भगवान गणपति का तीव्र स्वरूप भी होता है। वस्तुतः उच्चकोटि के साधक भगवान गणपति के उसी तीव्र एवं उन्मस स्वरूप का ही आह्लाद अपने जीवन में करते है। जो विघ्न विनाशक हो। जिससे सभी प्रकार की विपत्तियों का शमन हो जाये।
साधक जब नव निधि शक्ति को प्राप्त करने का मानस बनाता है, तब कुछ ऐसी बाधायें आती है, जिनसे धैर्य समाप्त होने लगता है तथा साधना से मन उच्चाट् होने लगता है। किसी भी साधक के लिये यह स्थिति अत्यन्त शोकदायक होती है, किन्तु ऐसी परिस्थितियों से संभल कर साधना में प्रवृत होना ही सफलता की ओर अग्रसर करता है। इसलिये इस साधना को सम्पन्न करने से पूर्व दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है ही। क्योंकि जो साधक नव निधियों में से किसी भी एक की सिद्धि कर लेगा, तो वह जीवन के सभी सुखों से युक्त् हो जाता है और यह भी सत्य है कि जो साधक इन सिद्धियों में से किसी भी एक सिद्धि को भी प्राप्त कर लेता है, वह अत्यन्त शीघ्र शेष सभी सिद्धियों को भी प्राप्त कर लेता है।
इस महत्त्वपूर्ण साधना को पूर्ण विधि-विधान से सम्पन्न करना होता है। यह साधना लम्बोदर संकष्टी चतुर्थी अथवा किसी भी बुधवार को सम्पन्न की जा सकती है।
भगवान गणपति का सीधा सा तात्पर्य है, कि वे समस्त ‘गणों’ के स्वामी है। उनके इसी स्वरूप में उनकी चारों भुजाओं में क्रमश: परशु , त्रिशुल, गजदन्त एवं चक्र की धारणा की गई है अर्थात् वे पूर्णतया संहार मुद्रा में है। यही रहस्य उनके पीत वर्णीय नेत्रों का भी है। पीत वर्ण का सम्बन्ध साधनाओं में विष से माना गया है और यह पीत वर्ण उज्जवल आभायुक्त नहीं, वरन् मलिनता से युक्त रक्ताभ पीत वर्ण है, जिसका तात्पर्य है, कि भगवान श्री गणपति ने उन समस्त अशुभ वस्तुओं को अपने में समाहित कर लिया है, जो कि अन्यथ साधक के जीवन में अनिष्ट घटित करती है।
भगवान गणपति अपने साधक के लिये कल्पवृक्ष के समान फलप्रदायक है, उसे समस्त भौतिक सुख, सम्पति समस्त नौ निधियां प्राप्त होती है। गणपति विद्या के आगार है, अतः वे अपने साधक को कुशाग्र बुद्धि प्रदान करते है और इसके साथ ओंकारवत् होने के कारण अपने साधक को अष्टपाषों से मुक्त कर आध्यात्मिक रूप से परिपूर्ण करते है।
गणपति उपनिषद् के अनुसार गणपति का सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रिय मंत्र निम्न है-
साधक या गृहस्थ व्यक्ति को चाहिये कि वह इस मंत्र का जप निरन्तर करता रहे, सोते समय भी इस मंत्र का सतत् जप किया जा सकता है, यह मंत्र अपूर्व सिद्धि एवं फलदायक है।
साधना विधान
साधक पीले वस्त्र धारण कर पीले आसन पर पूर्व की ओर मुंह कर बैठ जायें तथा अपने सामने किसी बाजोट पर ताम्रपात्र में स्वास्तिक बनाकर सर्व विघ्न विनाशक गणपति विग्रह को स्थापित करें तथा नवनिधि गुटिका को यंत्र के ऊपर रखें। दीपक प्रज्जवलित कर ततपश्चात् पूजन प्रारम्भ करें।
दोनों हाथ जोड़कर भगवान गणपति का स्मरण करें-
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः।।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजानन।।
द्वादशै तानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि।।
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।
संग्रामें संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते।।
शुक्लाम्बर धरं देवं शशिवर्ण चतुर्भुजं।
प्रसन्न वदनं ध्यायेत् सर्व विघ्नोपशान्तये।।
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः।
येषा मिन्दीवरष्यामों हृदयस्थो जनार्दनः।।
अभीप्सितार्थ सिद्धयर्थ पूजितो यः सुरासुरैः।।
सर्व विघ्न हरस्तमैं गणाधिपतये नमः।।
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थं साधिके।
शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणि नमोऽस्तुते।।
सर्वदा सर्व कार्येशु नास्ति तेषाममंगलम्।
येषां दिस्थो भगवान् मंगलायतनों हरिः।।
तदेव लग्नं सुदिनं तदैव तारा बलं चन्द्र बलं तदैव।
विद्या बलं दैव तदैव लक्ष्मीपतेस्तेध्रियुगस्मरामि।।
यत्र योगेश्वर कृष्णः यत्र पार्थो धनुर्धरः।।
यत्र योगेश्वर कृष्णः यत्र पार्थो धनुर्धरः।।
तत्र श्री विजयो मूर्तिः धुर्वानीति मतिर्मम्।
सर्वेष्वारंभ कार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः।
देवाः दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशान महेश्वराः।।
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि समप्रभः।
निर्विघ्नं कुरू में देव सर्वकार्येशु सिद्धिदा।।
ऋद्धि, सिद्धि नवनिधि सहितं महागणपतिं आवाहयामि
स्थापयामि नमः।
भगवान गणपति को जल से स्नान करायें-
ऊँ वरूणस्योस्तम्भनमसि वरूणस्यकुम्भ सर्जनीस्थो
वरूणस्य ऋत सदन्यसि वरूणस्य ऋत सदनमसि वरूणस्य ऋतसदनमासीत्।
तीन बार आचमनी से पुनः जल चढ़ायें-
तत्रादौ एतोऽस्मानं पंचामृत स्नानं कुर्यात्।
दूध, दही, घी, शक्कर, शहद मिलाकर पंचामृत बनायें तथा उससे स्नान करायें-
पयो दधि घृतं मधु च शर्करा युतं पंचामृत देव्यो स्नानार्थम् ऊँ पंचामृत सरस्वती घट वरो सरस्वती च
धारार्थ देवं च भव सहितं दुग्ध, दधि, धृतं, मधु शर्करां तां
पंचामृत रूपेण पंचामृत स्नानं समर्पयामि नमः।
तत्रादौ पुनः शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि नमः।
पुनः शुद्ध जल से स्नान करायें
ऊँ शुद्धवालः सर्वषुद्धवालो मणिवालस्तऽआश्विनः श्वेतः
श्वेताक्षोऽरूण रूद्राय पषुपतये कर्णयामा अवलिप्ता
रौद्रा नमोरूपा पार्जन्याः पुष्पेण प्रक्षालयामि नमः।
गणपति विग्रह को पुष्प से पौंछ कर उन्हें दूसरी प्लेट में स्वस्तिक बनाकर स्थापित करें तथा नवनिधि गुटिका को यंत्र के ऊपर स्थापित कर कुंकुंम, अक्षत व पुष्प एक साथ अर्पित करें।
प्रसाद व ऋतु फल अर्पित करें-
इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव।
तेन में सफलावाप्तिः भवेज्जन्मनि जन्मनि।।
फलानि समर्पयामि नमः।।
रिद्धि-सिद्धि माला से निम्न मंत्र का 3 माला मंत्र जप करें-
मंत्र
जप के पश्चात् गणपति विग्रह पूजा स्थान में स्थापित रहने दें, नवनिधि गुटिका को लाल कपड़े में बाँधकर तिजोरी में रख दें। और रिद्धि-सिद्धि माला को प्रतिदिन 20 मिनट तक धारण कर 21 बार मंत्र जप करते रहे। जिससे हर स्वरूप में नवनिधि की चेतना प्राप्ति होती रहेगी। अन्त में गणपति आरती सम्पन्न करें।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,