कितनी श्रेष्ठ बात है कि जहां योग है, वहां श्री है। योग के अष्ट नियमों के बिना श्री की प्राप्ति नहीं हो सकती। श्री की प्राप्ति करने के लिये भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता में कर्म योग, ज्ञान योग और बुद्धि योग की पूर्ण व्याख्या स्पष्ट की। जीवन का लक्ष्य भी आत्म साक्षात्कार प्राप्त करना है। जीवन मार्ग की यात्रा में कष्ट, परेशानियां इत्यादि तो आयेंगे ही लेकिन यदि योग और श्री का मिलन है जिसे संयोग कहा गया है, जिसे भाग्य कहा गया है तो इसका सीधा तात्पर्य है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं बन सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि वह अपने जीवन में योग के अष्ट सूत्रों को अपनायें तथा श्री को अपने रक्त कण-कण में स्थापित कर दें। शिव को अयति पापम् कहा गया है अर्थात् जो हमारे पापों को हरते है शिव का दूसरा नाम महादेव भी है अर्थात वे सभी देवों में श्रेष्ठ है और उनकी भार्या पार्वती जो कि गौरी स्वरूपा है। नूतन वर्ष के प्रारम्भ से ही पूर्ण सटीक क्रिया सम्पन्न करनी चाहिये जिससे कि ऐसी योगमय स्थितियों को पूर्णरूपेण प्राप्त कर सकें।
कर्म सदैव सत्य एवं श्रेष्ठता की प्राप्ति के लिये ही करना चाहिये। कर्म को अंधविश्वास और अज्ञान वश नहीं करना चाहिये। कर्म को तो ज्ञान और विश्वास के साथ करना चाहिये। इसीलिये कर्म से विमुख व्यक्ति को मूढ़ अर्थात् मूर्ख कहा गया है। हर व्यक्ति को कर्म के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये लेकिन उसे कर्म के फल की चिंता नहीं करनी चाहिये। मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि वह कर्म के परिणामों के सम्बन्ध में सदैव चिन्तित रहता है और कर्म से अशुभ परिणाम पाने की आशंका रहती है तो उस कर्म का त्याग कर देता है। ऐसी स्थिति शक्ति की न्यूनता के भाव से उत्पन्न होती है। मनुष्य को कर्त्तव्य करते समय कर्त्तव्य के लिये तत्पर रहना चाहिये और कर्त्तव्य को पूरा करने के लिये शक्ति का भाव होना आवश्यक है। कर्त्तव्य करते समय फल की आशा का भाव छोड़ देना चाहिये। क्योंकि कर्म करने से निश्चित रूप से उसके फल की प्राप्ति होती ही है।
गुरू अपना प्रवाह देते हैं एक योग करने के लिये। इस क्रम में बहुत कुछ और भी संवरता चला जाता है। चाहे वह रोजमर्रा की जिन्दगी हो या बरसों से साथ चली आ रही मानसिक गुत्थी, शरीर की जड़ता, दबी-छुपी इच्छायें और भी बहुत कुछ, क्योंकि मानव जीवन जहां अनन्त कामनाओं को समेटे है-प्रेम की सम्भावनायें, दया, ममता, करूणा की भी सम्भावनायें जिनके माध्यम से किसी को छाँव मिले। गुरू ऐसे ही वृक्ष उपजाते हैं, अपने आकाश रूपी हृदय से लगाते हैं, उन्हें सघन बनाते हैं, जिनकी छांव के नीचे पूरी मानवता विश्राम करती है पर वृक्ष… वृक्ष तो उन्मुक्त, नृत्ययुक्त उठता ही जाता है, उड़ता ही जाता है, धरा से उठकर आकाश में समाने के लिये। यही इस युग का वास्तविक योग है। योग की अन्य पद्धतियां भी अपने स्थान पर अपने-अपने ढंग से महत्वपूर्ण हैं, किन्तु जिस पद्धति में अनन्त संभावनायें आ समाती है वही दीक्षा योग है।
ऐसे ही प्राण स्वरूप गुरू के प्राणों में समाहित होने की क्रिया रच-पच जाने की और घुल मिल जाने की क्रिया है ‘दीक्षा योग’। जिसमें बस किसी पल आकर किनारे खड़ा हो जाना है, वे खुद लहर बनकर आयेंगे और अपने भीतर तक ले जायेंगे, वहां आनन्द की स्थितियों में, जीवन के बीचों-बीच! सद्गुरूदेव अपने शक्तिपात द्वारा शिष्य में ज्ञान, कर्म और भक्ति का संचार करते हैं। यह शिष्य पर निर्भर है कि वह किस मार्ग को अपनाये और अपने गुरू को पूर्ण रूप से प्राप्त करें। गुरू को ज्ञान से भी अपनाया जा सकता है। गुरू में ही सत्चित और आनन्द है। जो गुरू को ज्ञान से प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिये वह प्रकाश है। जो गुरू को कर्म द्वारा अपनाना चाहते हैं, उनके लिये वह शुभ हैं और जो गुरू को प्रेम द्वारा अपनाना चाहते हैं, उनके लिये वह प्रेम हैं। इस प्रकार इन तीनों मार्गों से लक्ष्य, सत्चित आनन्द, गुरू से मिलन संभव है। यही नववर्ष के संकल्प का भाव होना चाहिये।
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