साधारण लोग भगवान की खोज में निकलते हैं और चूंकि भगवान की खोज में निकलते हैं इसलिये ही भगवान को कभी उपलब्ध नहीं हो पाते। भगवान की खोज ऐसी ही है जैसे अंधा आदमी प्रकाश की खोज में निकले। अंधे को आंख खोजनी चाहिये, प्रकाश नहीं। आंख का उपचार खोजना चाहिये, प्रकाश नहीं। प्रकाश तो है, उसकी खोज की जरूरत भी नहीं है, आंख नहीं है। इसलिये जो व्यक्ति भगवान की खोज में निकला, वह भटका। जो व्यक्ति भक्ति की खोज में निकलता है, वह पहुंचता है।
भक्ति यानी आंख। भक्ति यानि कुछ अपने भीतर रूपांतरित करना है। भक्ति का अर्थ हुआ, एक क्रांति से गुजरना है।
साधारणतः कोई विचार करेगा तो लगेगा सूत्र शुरू होना चाहिये था- अब भगवान की जिज्ञासा। लेकिन सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। सूत्र भगवान की बात ही नहीं उठाता। भगवान से तुम्हारा संबंध ही कैसे होगा? भगवान से संबंधित होने वाला हृदय अभी नही, अभी वह तरंग नहीं उठती भीतर जो जोड़ दे तुम्हें। अभी आंखे अंधी है, अभी कान बहरे है। इसलिये भगवान को छोड़ो। उस चिंता में न पड़ों। भक्ति को जगा लो! इधर भक्ति जगी, उधर भगवान मिला। इधर आंख खुली, उधर सूरज के दर्शन हुये। इधर कानों का बहरापन मिटा कि नाद ही नाद है, ओंकार ही ओंकार छाया हुआ है। सारा जगत अनाहत की ही अभिव्यक्ति है। इधर हृदय में तरंगे उठीं कि जो नही दिखाई पड़ता, वह दिखाई पड़ा।
एक तो बुद्धि है, जो विचार करती है और एक हृदय है, जो अनुभव करता है। हमारे अनुभव की ग्रंथि बंद रह गई है। खुली नहीं, गांठ बनी रह गई। हमारे अनुभव करने की क्षमता फूल नहीं बनी। इसलिये प्रश्न उठता है-भगवान है या नही? लेकिन प्रश्न अगर जरा ही गलत हुआ तो उत्तर कभी सही नहीं हो पायेगा। भक्ति की जिज्ञासा करो!
लेकिन उनके प्रश्न की भी बात विचारणीय है। वे कहते है, जब तक हमें भगवान का पता न हो, तब तक भक्ति कैसे हो? किसकी भक्ति करें? कैसे करें? कहां जाये ? किसके चरणों में झुकें? भगवान का भरोसा तो पहले होना चाहिये। तभी तो हम झुक सकेंगे।
चूंकि भगवान की खोज की उन्होंने गलत जिज्ञासा उठा ली है, अब इस गलत जिज्ञासा के कारण बहुत से गलत समाधान उठते रहेंगे। भक्ति के लिये सिर्फ भगवान की कोई जरूरत ही नहीं है। आंख के उपचार के लिये सूरज की क्या जरूरत है? भक्ति के लिये सिर्फ तुम्हारे प्रेम के, भाव के बढ़ने की जरूरत है, भगवान की कोई जरूरत नहीं है। प्रेम को इतना बढ़ाओं कि अहंकार उसमें डूब जाये, लीन हो जाये। जहां प्रेम निर-अहंकार को उपलब्ध हो जाता है, वहीं भक्ति बन जाता है।
लुटाओं प्रेम। उसी लुटने में तुम भक्त हो जाओंगे और जहां तुम भक्त हुये, वहीं भगवान का दर्शन है।
तुमसे कहा गया है बार-बार कि भगवान पर भरोसा करों ताकि भक्ति हो सके। मैं तुमसे कहना चाहता हूं, भक्ति को जगाओं ताकि भगवान पर भरोसा हो सके।
इस जगत को पीने की कला है भक्ति। और जगत को जब तुम पीते हो तो कंठ में जो स्वाद आता है, उसी का नाम भगवान है। इस जगत को पचा लेने की कला है भक्ति और जब जगत पच जाता है तुम्हारे भीतर और उस पचे हुये जगत से रस का आविर्भाव होता है-
उस रस को जगा लेने की कमियां है भक्ति।
भगवान की जिज्ञासा दार्शनिक करते है। दार्शनिक कभी भगवान तक पहुंचते नहीं, विचार करते हैं भगवान का। जैसे अंधा विचार करे प्रकाश का। बस ऐसे ही उनके विचार है-अंधे की कल्पनायें, अनुमान। उन अनुमानों में कोई भी निष्कर्ष कभी नहीं। निष्कर्ष तो अनुभव से आता है।
इसके पहले कि मौत तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे- और मौत दस्तक देगी ही-तुम भक्ति की जिज्ञासा करो। मौत आये, उसके पहले भक्ति आ जाये, ऐसे जीवन का नियोजन करो। इसी को मैं सन्यास कहता हूं। जीवन का ऐसा नियोजन कि मौत के पहले भक्ति आ जाये, तो तुम कुशलता से जियों , तो तुम होशियार थे, तो तुम्हारे भीतर बुद्धिमत्ता थी।
जरा गौर से सुनो, मौत के कदम रोज-रोज करीब आते जा रहे है। मौत फासला कम कर रही है। जिस दिन से तुम पैदा हुये हो, उसी दिन से मौत फासला कम करने में लग गई है, तुम रोज मर रहे हो। सांसो में बहुत भटके मत रहना। इनका बहुत भरोसा नहीं। अभी आ रही सांस, अभी न आयेगी तो कुछ भी न कर सकोगे। अवश्य पड़े रहे जाओंगे। तब बहुत पछताओंगे।
रोओगे फिर, लेकिन तब बहुत देर हो चुकी। कहते है, सुबह का भुला सांझ भी घर आ जाये तो भूला नहीं कहते। लेकिन सांझ भी आ जाये तो! अगर मौत आ गई तो सांझ भी आई और गई। फिर लौटने का उपाय न रहा, समय न रहा।
मौत का अर्थ क्या होता है? इतना ही कि जितना समय तुम्हें दिया था, चूक गया। मौत का अर्थ होता है, जितना अवसर तुम्हें दिया था, तुमने गंवा दिया। मौत का अर्थ होता है, अब और समय नहीं बचा । अब करने का कोई उपाय नहीं। एक आह भी न भर सकोगे। एक प्रार्थना भी न कर सकोगे। राम का नाम भी न ले सकोगे। सांस ही न लौटी तो राम का नाम अब कैसे ले सकोगे? एक नाम लेने की भी सुविधा नहीं बचती है। और मौत रोज करीब आ रही है। और तुम जिंदगी की सांसो में उलझे पड़े रहते हो।
सूर्य को देखने के दो उपाय हो सकते है। एक तो सीधा सूरज को देखो और एक दर्पण में सूरज को देखो। हालांकि दर्पण में जो दिखाई पड़ता है वह प्रतिबिंब ही है, असली सूरज नही। प्रतिबिंब तो प्रतिबिंब ही है, असली कैसे होगा? वह असली का धोखा है। वह असली की छाया है। इसलिये सूरज को देखने के दो ढंग है, यह कहना भी शायद ठीक नहीं, ढंग तो एक ही है-सीधा देखो। दूसरा ढंग कमजोरों के लिये है, कायरों के लिये है।
जो लोग शास्त्र में सत्य को खोजते है, वे कायर है। वे दर्पण में सूरज को देखने की कोशिश कर रहे हैं। दर्पण में सूरज दिख भी जायेगा तो भी किसी काम का नहीं। छाया मात्र है। दर्पण के सूरज को तुम पकड़ न पाओगे। शास्त्र में जो सत्य की झलक मालूम होती है, झलक ही है। लेकिन लोगों ने शास्त्र सिर पर रख लिये है। कोई गीता, कोई कुरान, कोई बाइबिल। लोग शास्त्रों की पूजा में लगे है। यह दर्पण की पूजा चल रही है, सूरज को तो भूल ही गये और दर्पणों पर इतने फूल चढ़ा दिये है पूजा के कि अब उनमें प्रतिबिंब भी नहीं बनता। उन पर व्याख्याओं की इतनी धूल जमा दी है, सिद्धांतो का इतना जाल फैला दिया है कि अब शास्त्रों से कोई खबर नहीं आती सत्य की।
सत्य को देखना हो, सीधा ही देखा जा सकता है।
हम अपने हृदय को साफ करें। भगवान मिलेगा तो वहां मिलेगा। शब्दों में नहीं, परायों के शब्दों में नहीं, अपने अनुभव से मिलेगा।
अनुभूति पर यह जोर ठीक-ठाक पकड़ लेना।
परमात्मा की झलक तो सब तरफ मौजूद है और अगर तुम्हें वृक्षों में उसकी झलक नहीं दिखाई पड़ती तो तुम्हें शास्त्रों में उसकी झलक कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगी। क्योंकि शास्त्र में तो मुर्दा शब्द है। न बढ़ते, न घटते, न उनमें नये पत्ते लगते, न नई शाखें उगतीं, न पक्षी बसेरा लेते। शास्त्रों मे तो थोथे शब्द है। वहां फूल कहां खिलते है? वहां सुगंध कहां उठती है? शास्त्र तो कागज पर खींची गई लकीरे है। मगर खूब धोखा आदमी ने खाया है। उन्हीं लकीरों की पूजा करता रहता है। या तो यह धोखा है, या यह चालबाजी है। चालबाजी यह है कि इस तरह भगवान से बचता रहता है। कहता है, देखो तो तुम्हारे शास्त्रों को पूजते हैं।
धन की पूजा में लग जाते हो। जिसके पास धन है, वहां पूजा में लग जाते हो। या तो कुछ लोग शास्त्रों के मुर्दा शब्दों को पूजते रहते है, या मंदिरों में रखी हुई पत्थर की मूर्तियों को पूजते रहते है। मगर ये सब मुर्दा है खेल है। अगर परमात्मा को देखना हो तो सीधा देखो। परमात्मा सीधा उपलब्ध है- इन पक्षियों के गीत में, इन वृक्षों की हरियाली में, आकाश के चांद-तारों में, मनुष्यों की आंखो में और जहां भी तुम प्रेम की कुदाल से खोदोगे, वही तुम पाओगे कि परमात्मा का झरना मिलना शुरू हो गया। झलकों में मत भटको।
इसलिये पूर्व सूत्रों ने कहा कि विभूतियों में मत उलझ जाना। विभूतियां तो झलकें मात्र है प्रतिभा की। कोई आदमी बड़ा गणितज्ञ है, यह प्रतिभा है और कोई आदमी बड़ा संगीतज्ञ है, यह प्रतिभा है। और कोई आदमी बड़ा होशियार है और धन इकट्टा कर लिया है, कोई आदमी बड़ा चालबाज है और राजपद पर पहुंच गया है, ये सब प्रतिभायें है। इनका कोई धार्मिक मूल्य नहीं है। इनके होने से कोई धर्म का संबंध नहीं है। इसलिये पूर्व-सूत्रों में कहा गया कि प्रतिभा, विभूति, इनमें मत उलझ जाना।
इनका प्रभाव पड़ता है। कोई आदमी अच्छा बोलता है, इससे मत उलझ जाना, क्योंकि अच्छे बोलने से सत्य का कोई संबंध नहीं है। हो सकता है अच्छा बोलता हो, लेकिन झूठ ही बोलता हो। और इतने अच्छे ढंग से बोलता हो कि झूठ भी सच जैसा मालूम पड़ता हो। यह भी हो सकता है, कोई आदमी सुंदर गीत गा सकता है-ऐसे सुंदर कि आकाश की उड़ान लें, ऐसे सुंदर कि लगे सत्य के लोक से उतरा है यह आदमी। मगर इससे उलझ मत जाना। यह सिर्फ हो सकता है गीत की कला हो, यह मात्र बिठाने की कुशलता हो, यह आदमी कवि हो।
बहुत तरह की विभूतियां श्रम से अर्जित है, चाहे इस जन्म की हो, चाहे पिछलें जन्म की हों। विभूति श्रम से उत्पन्न होती है।
प्रतिभा को या विभूति को परमात्मा मत समझ लेना।
कृष्ण प्रतिभावन है, इतना ही नहीं, या राम प्रतिभावन है, इतना ही नहीं, राम या कृष्ण या बुद्ध या क्राइस्ट या महावीर या जरथुस्त्र, ये प्रतिभाएं ही नहीं है, ये अवतार है। क्या फर्क है अवतार और प्रतिभा का?
प्रतिभा मिलती है प्रयास से, श्रम से, अर्जित करनी होती है और अवतरण होता है प्रसाद से, तुम्हारे प्रयास से नहीं। तुम मिट जाते हो तो परमात्मा का अवतरण होता है। प्रतिभा तो अहंकार की ही खोज है। परमात्मा का अवतरण निर-अहंकार की दशा में फलता है। तुम जब शून्य मात्र हो जाते हो तब परमात्मा तुमसे उतरता है।
इसलिये तुम प्रतिभाशाली आदमी को बड़ा अहंकारी पाओगे। चित्रकार, मूर्तिकार, संगीतज्ञ, कवि, कलाकार अहंकारी होते है, अति अहंकारी होते है। कलह ही चलती रहती है उनमें। उनमें कभी तुम सामंजस्य न पाओंगे। एक दूसरे की गर्दन घोंटने में लगे रहते है। आमतौर से प्रतिभाशाली आदमी स्थूल या सूक्षम अर्थो में अहंकारी होता है। उसकी सारी प्रतिभा का खेल अस्मिता का खेल है। मैं महत्त्वपूर्ण हूं, यह सिद्ध करने की चेष्टा में लगा रहता है। मुझसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण कोई भी नहीं, यही उसके जीवन की पूरी तलाश है। मैं विशिष्ट हूं, यही उसकी दौड़ है, यही उसका लक्ष्य है।
अवतार का अर्थ होता है, जिसने अपने अहंकार को जाने दिया। जिसने कहा, मैं तो हूं ही नहीं प्रभू तू है। जो बांस की पोगरी बन गया। जिसने परमात्मा को पूरी जगह दे दी, सारा स्थान खाली कर दिया। जो इस तरह से मेजबान बन सकता है, इस तरह से आतिथ्य कर सकता है परमात्मा का, कि स्वयं को बिलकुल पोंछ डाले, मिटा डाले, जरा भी जगह न घेरे, बांस की पोंगरी हो जाये, परमात्मा के स्वर को पुकारे और प्रतिक्षा करे, यह फर्क सूक्ष्म है….. अगर तुम्हें अवतार के पास होने का मौका मिल जाये, तो तुम दर्पण में नहीं देख रहे हो परमात्मा को, तुम परमात्मा को ही देख रहे हो- झरोखे से।
फर्क समझ लेना। अवतार है-झरोखा, खिड़की। उससे तुम जो देख रहे हो वह परमात्मा ही है, झरोखे से देख रहे हो। शायद परमात्मा को सीधा देखने के योग्य तुम्हारी क्षमता भी न हो, शायद उतना बड़ा सत्य तुम सम्भाल भी न पाओं, सह भी न पाओं, शायद उतनी अग्नि से तुम गुजर भी न पाओं। सूरज को सीधा देखना कठिन भी तो है। थोड़ी आड़ हो तो सुविधा मिल जाती है। थोड़ा झीना सा पर्दा हो तो सुविधा मिल जाती है। आंख पर काला चश्मा हो तो थोड़ी सुविधा मिल जाती है, थोड़ी सुरक्षा हो जाती है, आंख कोमल है। अवतार परमात्मा में झरोखा है, छोटा सा झरोखा। विराट आकाश में खेलता है, लेकिन झरोखा छोटा है।
पंडित, ज्ञानी, विद्वान झरोखा नहीं है, दर्पण है और हो सकता है दर्पण में सीधा सूर्य का बिंब न ही बन रहा हो, यह दर्पण और दर्पणों का प्रतिबिंब बना रहा हो-दर्पण, दर्पण, दर्पण। पंडित और पंडितों की छाया बन जाते है। वे किसी और पंडित की छाया थे और ऐसे सदियों-सदियों तक छाया से छाया, छाया से छाया पैदा होती है। धीरे-धीरे सत्य तो खो ही जाता है, छाया ही रह जाती है।
प्रतिभा कितनी ही महत्त्वपूर्ण हो, चूंकि अहंकार से भरी होती है, इसलिये परमात्मा का दर्पण उसमें नहीं बन पाता। विभूतियों में परमात्मा को मत देखना, अन्यथा उलझ जाओंगे। या तो परमात्मा को सीधा देखना और सीधे देखने की आंख न हो, या आंख कमजोर हो, या भय लगता हो- जो बिल्कुल स्वाभाविक है-तो फिर किसी ऐसे आदमी के पास से देखना जिसने देखा हो, जो यह न कहता हो कि वेद कहते है इसलिये परमात्मा है, जो कहता हो, में कहता हूं, इसलिये परमात्मा है, जिसने देखा हो, जिसने पहचाना हो, जिसने अनुभव किया हो। उसके पास उठना , बैठना पास, उसका सत्संग करना, उसकी आंखों में झाकना, उसकी तरंगो में डूबना। क्योंकि बहुत बार तो कहने वाले लोग भी झूठे होते है। पहचान कैसे करोगे कि जो कह रहा है वह सच ही कह रहा है कि मैंने जाना है, मैनें देखा है?
पहचान इस तरह होगी कि उसके पास बैठ कर अगर तुम्हारा चित्त रूपांतरित होने लगे, तो समझना कि उसने जाना है। उसके पास बैठ कर अगर तुम्हारा मन शांत होने लगे, तुम्हारे बिन कुछ किये, शांत होने लगे, उसके पास बैठते-बैठते ही तुम्हारे भीतर कुछ धुन बजने लगे, कुछ नये द्वार खुलने लगे, कुछ नये संगीत का अनुभव होने लगे, कुछ नये तार छिड़ने लगे, कुछ नये रंग तुम्हारे भीतर बिखरने लगे, उसकी मौजूदगी तुम्हारे भीतर रूपांतरकारी होने लगे, तो समझना।
अवतार से संबंध जोड़ लेना और ऐसा मत सोचना कि अवतार कृष्ण और बुद्ध और राम में समाप्त हो गये है। जब भी कोई व्यक्ति परमात्मा के प्रति शून्य-भाव से खडा हो जाता है, परमात्मा अवतरित होता है। हालांकि हर व्यक्ति में अवतरण भिन्न तरह का होता है। होगा ही। कृष्ण में उतरेंगे तो एक ढंग से उतरना होगा। और बुद्ध में उतरना होगा तो दूसरे ढंग से उतरना होगा।
अवतार शब्द को समझ लेना। अवतार का अर्थ होता है, उतरना, अवतरण, ऊपर से आता है कोई। तुम जगह खाली करो, कोई रोशनी उतरती है, कोई बाढ़ आती है, सब कूड़ा-कर्कट बहा ले जाती है। फिर पीछे जो शेष रह जाता है वही भगवता की अनुभूति है।
तो अभी भक्ति की जिज्ञासा का क्या अर्थ होगा? अभी परमात्मा को तो जाना नहीं, इसलिये भक्ति परमात्मा का प्रेम तो अभी हो नहीं सकती।
चार प्रेम की सीड़ियां कही है एक है, स्नेह। अपने से छोटे के प्रति-बेटे के प्रति, बेटी के प्रति, शिष्य के प्रति, विद्यार्थी के प्रति-अपने से छोटे के प्रति। फिर दूसरे को प्रेम कहा है। अपने से समान के प्रति-मित्र के प्रति, पत्नी के प्रति, पति के प्रति। फिर तीसरे को श्रद्धा कहा है। अपने से श्रेष्ठ के प्रति-पिता के प्रति, मां के प्रति, गुरू के प्रति और चौथे को भक्ति कहा है। परम के प्रति।
तो उठो! स्नेह से उठो प्रेम में, प्रेम से उठो श्रद्धा में। श्रद्धा तक जाना बिलकुल सुगम है। अधिक लोग प्रेम पर ही अटक गये है, उनके जीवन में श्रद्धा का सूत्र नहीं है और जिनके जीवन में श्रद्धा का सूत्र नहीं है, उनके जीवन में भक्ति का जन्म न हो सकेगा। यह सब श्रृंखलाबद्ध प्रक्रिया है। श्रद्धा के बाद भक्ति है। इसलिये गुरू की इतनी महिमा शास्त्रों ने कही है। गुरू का अर्थ है, जिसके पास श्रद्धा जन्मे। गुरू का अर्थ है, जिसके पास जाकर झुकने का सहज मन हो। झुकना पड़े तो बात गलत हो गई। परंपरागत रूप से झुकना पड़े तो बात व्यर्थ हो गई। औपचारिक रूप से झुकना पड़े तो बात व्यर्थ हो गई। दूसरे लोग झुक रहे है इसलिये झुकना पड़े तो भी बात व्यर्थ हो गई। जब तुम्हारे भीतर सहज झुकाव आ जाये, किसी व्यक्ति के प्रति तुम्हारे मन में सहज ही झुकाव आ जाये, तुम अपने को रोक ही न पाओं और झुक जाओं, तब पाओं की अरे मैं झुक गया हूं, तो समझना कि गुरू मिला।
गुरू के पास बैठ कर श्रद्धा को उमगने देना। इसी श्रद्धा की सघनता में भक्ति का पहला अंकुर उठता है। इसलिये शास्त्रों ने, ज्ञानियों ने गुरू को परमात्मा का प्रतीक कहा है- सिर्फ इस अर्थ में कि उसके पास श्रद्धा उमगती है, श्रद्धा की सघनता ही भक्ति बनती है।
भक्ति की जिज्ञासा करें, तो इसका अर्थ हुआ, गुरू की तलाश करें। परमात्मा का तो पता नहीं है। सूरज का तो पता नहीं है। आंखे अंधी है। इसलिये वैध की तलाश करे, जो उपचार करेगा, जो आंख पर जमे जाले को काटेगा, जो औषधि देगा।
बुद्ध ने अपने को वैद्य कहा है। नानक ने भी अपने को वैद्य कहा है। ठीक कहा है, वे वैद्य ही है। गुरू उपचार करता है, उपदेश नहीं उपचार। अगर उपदेश भी करता है तो उपचार के निमित। बोलने में उसका रस नही है, जगाने में उसका रस है। बोलने में उसका रस नहीं है, खोलने में उसका रस है।
तो इस सूत्र को खयाल में रखना। प्रतिभा अर्जित की जाती है, प्रतिभा अहंकार का उपाय है। अवतरण निर-अहंकार समाधि में फलित होता है, जब मैं मिट जाता है, तब परमात्मा उतरता है।
शास्त्र तो कहते है, साधु की सेवा करो। सेवा का अर्थ है, उसके पास होने के बहाने खोजो, कभी पैर दबाने के बहाने उसके पास हो लिये। कभी भोजन कराने के बहाने उसके पास हो लिये। बहाने खोजो। क्योंकि जितनी देर तुम उसके पास हो लो, उतना तुम्हारा सौभाग्य है! जितनी वे किरणे तुम्हारे ऊपर पड़ जायें, उतनी ही तुम्हारी आंखों के खुलने की संभावना बढ़ती है, उतना ही तुम्हारा हृदय विकसित होगा।
लेकिन फिर सवाल उठता है, वासुदेव अर्थात् श्रीकृष्ण में विभूति की आशंका करनी चाहिये या नहीं करनी चाहिये? क्योंकि कई शास्त्र कहते है कि कृष्ण विभूति संपन्न है।
वासुदेव में विभूति की आशंका नहीं करनी चाहिये, वे आकार मात्र से ही मनुष्य है। यह सूत्र बहुमूल्य है।
विभूतियां तो अहंकार से भरे हुये लोग है। कुशल है, प्रतिभाशाली है, मेधावी है, कुछ करने की कला जानते है, लेकिन अहंकार से भरे हुये लोग है। कृष्ण को विभूति नहीं कहा जा सकता और अगर शास्त्रों ने कहा है तो उपचार मात्र से कहा है। कृष्ण तो अवतार है, विभूति नहीं। वे आकार मात्र से ही मनुष्य है।
तुममें और कृष्ण में फर्क क्या है? आकार तो दोनों का एक जैसा है। उसी हड्डी-मांस-मज्जा से तुम बने हो, जिससे कृष्ण बने है। भेद क्या है? भेद इतना ही है कि तुम हो और कृष्ण नहीं है। तुम आकार के भीतर अहंकार भी हो और कृष्ण सिर्फ आकार मात्र है, अहंकार नहीं। वहां भीतर कोई विराजमान नहीं है। वहां भीतर सन्नाटा है, शून्य है। उस शून्य के कारण ही परमात्मा उतर पाया है। उस शून्य में ही उतर पाता है। कृष्ण आकार से तो तुम्हारे जैसे है, लेकिन अगर आकार को छोड़ कर जरा भीतर जाओंगे तो निराकार को पाओंगे। और जहां, जिस प्रकार में निराकार मिल जाये, वही सद्गुरू है।
शास्त्रों में मत भटकना, सद्गुरू तलाशना। जहां मिल जाये। फिर इसकी फिकर न करना कि वह हिंदू है, कि मुसलमान है, ईसाई है, कि बौद्ध है। इसकी फिकर ही मत करना, क्योंकि ये सब आकार की दुनिया की बाते है। अगर तुम्हें कभी सौभाग्य से ऐसा आदमी मिल जाये जिसमें तुम्हें दिखे कि आकार के भीतर निराकार विराजमान है, जिसकी आंखों में तुम झांको और अहंकार न पाओं, तो छोड़ना मत संग-साथ, फिर सब दांव पर लगा देना, फिर मौका देना कि उसका शून्य तुम्हारा शून्य भी बन जाये। शून्य संक्रामक है।
ध्यान रखना, जिस तरह बीमारियां संक्रामक होती है, वैसे ही स्वास्थ्य भी संक्रामक होता है और जिस तरह दुःख संक्रामक होता है उसी तरह आनंद भी संक्रामक होता है। दुःखी आदमी के पास बैठ कर तुमने अनुभव किया ही होगा, अचानक तुम उदास हो जाते हो। चार लोग दुःखी बैठे है, तुम हंसते हुऐ आये थे और उनके पास बैठ कर तुम्हें अचानक लगता है तुम भी उनके दुःख में डुब गए। वहां दुःख की तरंग थी, उसने तुम्हारे भीतर भी दुःख का साज छेड़ दिया। वहां दुःख की हवा थी, उसमें तुमने श्वास ली, कि तुम भी दुःख पी गए। कभी तुमने यह भी अनुभव किया होगा कि तुम दुःखी थे और चार हंसते हुऐ लोगो में जा बैठे, और तुम भूल ही गये कि दुःख कहा था, कहा गया। तुम हंसने लगे। तुम उनके साथ गीत गुनगुनाने लगे। बाद में तुम्हें याद आयेगा कि अरे, मैं इतना दुःखी गया था, मेरे दुःख का क्या हुआ? तुम एक नई तरंग में पड़ गये।
प्रत्येक व्यक्ति की तरंग है और हम सब अनुभव से जानते है यह, कि किसी व्यक्ति के पास जाओं तो लौट कर ऐसा लगता है कि उसने चूस लिया है। और किसी व्यक्ति के पास जाओं तो लौट कर ऐसा लगता है कि उसने जीवन दिया। किसी व्यक्ति के पास बैठ कर ऐसा लगता है, और बैठे रहे, और बैठे रहे । और कोई व्यक्ति आ जाता है तो ऐसा लगता है कि महानुभाव कब जायें, कैसे इनसे छुटकारा हो! ये तुम्हारे सामान्य अनुभव है, लेकिन तुमने इन अनुभवों पर बहुत विचार नहीं किया है। अगर इन अनुभवों को तुम थोड़ा सजग होकर समझो तो तुम्हें सद्गुरू खोजना कठिन नहीं होगा। जिसके पास बैठ कर सुख-दुःख दोनों भूल जायें, शांति का अनुरूप हो, शांति का अर्थ होता है, जहां न सुख है न दुःख है।
ध्यान रखना इस भेद को। किसी के पास बैठ कर तुम उदास हो जाते हो, किसी के पास बैठ कर प्रसन्न हो जाते हो, ये दोनों ही संसार की अवस्थायें है। सद्गुरू कौन? जिसके पास बैठ कर तुम दुःख भी भूल जाते हो, सुख भी भूल जाते हो। तुम अपने को ही भूल जाते हो-कहां सुख, कहां दुःख, जिसके पास बैठ कर एक परम शांति की झंकार सुनाई पड़ने लगती है, एक सन्नाटा छा जाता है, जिसके पास बैठ कर शून्य होने लगते हो, जिसके पास बैठ कर निराकार फैलने लगता है तुम्हारे प्राणों में।
लोग शांति शब्द का प्रयोग करते है, लेकिन अर्थ भी नहीं जानते। लोग शांति से यही अर्थ लेते है-सुख। शांति का अर्थ सुख नहीं होता। सुख भी एक उपद्रव है, जैसे दुःख एक उपद्रव है। दुःख प्रीतिकर उपद्रव नहीं है, सुख प्रीतिकर उपद्रव है। दुःख का भी तनाव होता है, सुख का भी तनाव होता है। एक तनाव को तुम पसंद करते हो इसलिये सुख कहते हो, एक तनाव को तुम नापसंद करते हो इसलिये दुःख कहते हो, मगर दोनों तनाव है और दोनों विक्षुब्ध चित्त की अवस्थायें है। दोनों थकाते है।
तुमने ख्याल किया, सुख से भी तुम थक जाते हो। रोज ही रोज तमाशा चलता रहे। एकाध दिन मिल जाये तुम्हें लाटरी तो ठीक है, मगर रोज मिलने लगे तो तुम थक जाओगे और तुमने सोचा है कभी कि कभी -कभी दुःख भी इतना नहीं तोड़ता जितना सुख तोड़ देता है। कभी-कभी लोग सुख के कारण मर जाते है, इतने सुख में इतने उद्विग्न हो जाते है। राह चलते तुम्हें अचानक एक लाख रूपये की थैली मिल जाये, भले-चंगे चले जा रहे थे, कोई बीमारी न थी, कुछ न था, एकदम हार्ट अटैक हो जाये, वहीं गिर पड़ो थैली के साथ, इतना सुख एकदम से न झेल पाओ। कहते है, किसी को सुख की खबर भी देनी हो तो धीरे-धीरे देनी चाहिये।
मैंने सुना है, ऐसा हुआ, एक आदमी को पांच लाख लाटरी मिल गई। वह घर नहीं था। उसकी पत्नी बहुत घबराई। क्योंकि वह आदमी तीस साल से लाटरी की टिकटें खरीद रहा था। धीरे-धीरे तो भूल ही गया था कि लाटरी मिलेगी भी। लेकिन आदतवश हर महीने खरीद लेता था। पत्नी बहुत घबरा गई। घर में कभी पांच सौ रूपये भी इकट्टे नहीं आये थे। पांच लाख! पत्नी समझदार थी, उसने कहा, ये पांच लाख तो जान ले लेंगे मेरे पति की। वह भागी हुई पड़ोस में गई। एक पादरी पास में ही रहता था। उसने पादरी से कहा, आप ही कुछ उपाय करें। अब मैं क्या करूं? यह पांच लाख की लाटरी मिल गई है, वे दफ्तर से आते ही होंगे, पांच लाख की खबर मिल कर उन्हें क्या हो जाये !
पादरी ने कहा, घबराओं मत, मैं आता हूँ।
पादरी आया , उसने कहा, मैं धीरे-धीरे खबर दूंगा। पति लौटा। पादरी ने कहा, सुनते हो, तुम्हें एक लाख रूपया लाटरी में मिला। पांच हिस्से करके, उसने सोचा कि जब यह एक लाख सम्भाल लेगा, इसकी धकधक वापस सामान्य हो जायेगी, तो फिर कहूंगा कि एक लाख नहीं, दो लाख मिला है। लेकिन मामला बड़ा गड़बड़ हो गया। उस आदमी ने कहा, एक लाख! सच कह रहे हो?
उस पादरी ने कहा, बिलकुल सच कह रहा हूँ एक लाख।
तो उसने कहा, अगर एक लाख मिला होगा तो पचास हजार तुमको देता हूं।
वह पादरी वहीं मर गया। उसने सोचा ही नही था, पचास हजार एकदम से!वह तो सहायता करने आया था।
सुख की भी अपनी उत्तेजना है, जैसे दुःख की उत्तेजना है और शांति शब्द को लोग समझते नहीं। शांति का अर्थ है, जहां न सुख न दुःख।
मैने सुना है, एक पति महोदय चारों धाम की यात्रा पर निकल पड़े। जाते-जाते पत्नी से बोले, मैं शांति की खोज में जा रहा हूं। कर्कशा पत्नी ने छाती पीट ली और बोली, रूक! अब किस मरी शांति के पीछे जा रहे हो? दस शांतियां दफ्तर में बैठी है, एक मैं घर में पड़ी हूं।
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी समझ का तल है।
शांति का अर्थ होता है, एक निर्विकार चित्त की दशा, जहां कोई उत्तेजना नहीं है। सब चुप है। बिलकुल चुप है। न इस तरफ, न उस तरफ। सब मध्य में ठहर गया है। सब संतुलन है। संतुलन का नाम शांति।
जिस व्यक्ति के पास तुम्हें धीरे-धीरे शांति का स्वाद मिले, समझ लेना कि वह द्वार आ गया जहां झुक जाना है। श्रद्धा का मंदिर आ गया। झरोखा यहां से खुलेगा भक्ति का।
‘वासुदेव श्रीकृष्ण में विभूति की आशंका नहीं करनी चाहिये।’
वे केवल विभूतिसंपन्न ही नहीं है। ऐसा तुम सोचोगे तो गलती करोगे। फिर तुम चूक ही जाओगे।
‘वे आकार मात्र से ही तुम जैसे है, मनुष्य है।’
जो व्यक्ति आकार से तुम जैसा और आत्मा जैसा है, उसका नाम सद्गुरू। कृष्ण या बुद्ध, जरथुस्त्र या मोहम्मद, जीसस या महावीर, आकार से ही तुम जैसे है। उनके भीतर तो उतेरगा, जरा सीढ़ियां पार करेगा, महावीर के कुंये में जायेगा गहरा, अचानक पायेगा, आकार तो पीछे रह जाता है, निराकार खुल जाता है। द्वार में आकार होता है, लेकिन द्वार से तुम निकले कि आकाश, निराकार मिल जाता है। गुरू तो द्वार है। इसलिये नानक ने ठीक ही कहा, मंदिर को नाम दिया-गुरूद्वारा। वह द्वार ही मात्र है। और नानक का बहुत जोर था गुरू पर। समस्त ज्ञानियों का रहा है।
और मैं तुमसे इतना ही नहीं कहता कि ऐसा है, मैं तुमसे कहता हूं ऐसे अनुभव को तुम भी पा सकते हो। तुम भी ऐसे व्यक्ति को खोज सकते हो जो सिर्फ विभूति नहीं है वरन अवतार है। जो अपने प्रयास से, अपनी अस्मिता से, अपनी खोज से कुछ विशिष्ट नहीं हो गया है, बल्कि अपने को मिटा दिया है और विशिष्ट हो गया है। जिसने अपने को पोंछ डाला है और परमात्मा को जगह दी है।
सबसे बड़ी चीज यही है कि किसी तरह तुम अपनी बेड़ियों को तोड़ दो। लेकिन लोग बेड़ियों को पकड़ें बैठे है। लोगों ने बेड़ियों को आभूषण समझा है। हिन्दू हूं, मूसलमान हूं, ईसाई हूं, जैन हूं, बौद्ध हूं, बेडियां है। जब तक तुम्हें सद्गुरू नहीं मिला, तब तक तुम सिर्फ एक कैदी हो और कुछ भी नहीं। न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई, न बौद्ध, तब तक यह सब बातचीत है। सद्गुरू मिले तो कुछ हो। तो प्रत्यभिक्षा हो।
लेकिन तुम अपनी बेड़ियों को ही बजा कर स्वतंत्रता का गीत गा रहे हो। तुम बेड़ियों पर ताल बजा रहे हो, स्वतंत्रता का गीत गा रहे हो। स्वतंन्त्रता ऐसे नहीं फलती। मोक्ष ऐसे नहीं मिलता। भगवता ऐसे उपलब्ध नहीं होती। कुछ दांव पर लगाना पड़ेगा। और मजा यह है कि सिफ बेड़ियों के अतिरिक्त ओर तुम्हारे पास है भी क्या दांव पर लगाने को? लेकिन लोग बेड़ियां भी दाव पर नहीं लगाते। मैं तुमसे कहता हूं, इकट्ठे हो जाओ, एकजुट हो जाओ, आत्मकेंद्रित हो जाओं और एक बार दांव पर लगा ही दो!तुम्हारे पास है भी क्या दांव लगाने को, सिवाय तुम्हारी बेड़ियों के! और बेड़ियों को दांव पर लगाने से जो मिलती है, वह है आजादी।
यह पृथ्वी कभी भी अतवार से खाली नहीं है। लेकिन तुम्हें अवतार मिलता नहीं, उसका भी कारण है। तुम किसी पुराने अवतार को खोज रहे हो जो कि अब नहीं है। कोई कृष्ण को खोज रहा है, कृष्ण अब नहीं है। कोई क्राईस्ट को खोज रहा है, काईस्ट अब नहीं है। और मजा यह है कि जब क्राईस्ट थे तब किसी और को खोज रहे थे। जब बुद्ध थे, तब तुम राम को खोज रहे थे। तब राम जा चुके थे, किसी और प्राचीन पुरूष को, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तुम कुछ और खोज रहे थे।
तुम सदा अतीत को खोजते हो, इसलिये चूकते हो। अन्यथा पृथ्वी पर जैसे रोज सूरज आता है, ऐसे ही रोज परमात्मा भी आता है। लेकिन तुमने एक धारणा बना रखी है कि जब तक तुम मोरमुकुटधारी, हाथ में बांसुरी लेकर कृष्ण की तरह न आओगे, मैं तुम्हें स्वीकार करने वाला नहीं और परमात्मा तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करे, इसकी कोई जरूरत नहीं है। पुनरूक्ति होती ही नहीं इस जगत में। कृष्ण बस एक बार आते है, दुबारा नहीं। हालांकि कृष्ण ने कहा कि जब संकट होगा तब मैं आऊंगा। लेकिन ध्यान रखना, कृष्ण की शक्ल में नहीं, वहीं भूल हो रही है। नहीं तो संकट तो काफी है, कृष्ण को आ जाना चाहिये। अब और क्या संकट ज्यादा होगा? और क्या अधर्म ज्यादा होगा? और नास्तिकता क्या ज्यादा होगी? या तो कृष्ण ने झूठा वचन दिया था, कि अब आते नहीं, कि भूल-भाल गये, कि वचन ऐसे ही था जैसे राजनीतिज्ञ देते है, बहलावा था, भटकावा था, धोखा था, या फिर कुछ बात और है।
बात यह है कि जो एक दफा पैदा हुआ, दुबारा व्यक्ति पैदा नहीं होता। परमात्मा रोज नये व्यक्ति गढ़ता है। नये ढंग से गढ़ता है। जरूरतें बदल जाती है। तो वही अवतार काम नहीं आते। नई देहों में उतरता है, नये शब्दों में बोलता है, क्योंकि भाषा बदल जाती है, लोग बदल जाते है, रीति-रिवाज बदल जाते है। अब कृष्ण अगर अचानक प्रकट हो जाये एम.जी. रोड़ पर तो पुलिस उनको ले जायेगी पकड़ कर कि आप यहां क्या कर रहे है? मोरमुकुट क्यों बांधा? समझेंगे की कोई हिप्पी है। और बांसुरी किसलिये लटकाए हुए हो? जो कृष्ण की पूजा करते है वे भी नहीं पहचानेंगे। वे भी कहेंगे कि कोई चालबाज है। यह कोई बात है!यह कोई ढंग है एम.जी. रोड़ पर खड़े होने का!और अगर गोपियां भी नाच रही हों पास, तब तो तुम सभी खिलाफ हो जाओंगे। वह तो तुम कहानी में पढ़ते हो, एक बात है। स्त्रियां नहा रही हो और कृष्ण उनके कपड़े लेकर झाड़ पर चढ़ जायें, तो तुम क्या व्यवहार करोगे उनसे?
परिस्थिति बदल जाती है, संदर्भ बदल जाता है, अर्थ बदल जाता है। फिर वही कहानियां दोहराने का कोई अर्थ नहीं है। अब रामचंद्रजी आ जाये लिये धनुषबाण, तो लगेंगे कोई भील इत्यादि। शायद गणतंत्र-दिवस पर दिल्ली में जा रहे है, प्रदर्शन करेंगे वहा कुछ। तुम पहचान न पाओगे।
परमात्मा उस रूप में उतरता है जिस रूप में तुम हो। और तुम्हारी अड़चन यह है कि तुम्हारा अपने प्रति कोई सम्मान नहीं है। इसलिये अगर परमात्मा को तुम अपनी ही शक्ल में पाते हो तो तुम अंगीकार नहीं कर पाते। तुम कहते हो कि यह व्यक्ति तो हमारे जैसा ही है। और तुम्हारा अपने प्रति बड़ा अपमान है। तुम अपने को परमात्मा मान ही नहीं सकते और जब तक तुम यह न स्वीकार करों कि तुम्हारें भीतर भी परमात्मा की संभावना है, तब तक तुम अवतार को न पहचान पाओगे। कम से कम संभावना तो स्वीकार करो। संभावना से समझ का द्वार खुलता है।
प्रत्यभिज्ञा हो सकती है, पहचान हो सकती है, लेकिन तलाशो आस-पास, तलाशो यहां अभी, तलाशो इस जगत में जो वर्तमान है। जरूर तुम पा लोगे। पृथ्वी कभी खाली नहीं है। किसी न किसी घट में परमात्मा का अमृत भरता ही रहता है। क्योंकि कोई न कोई कहीं न कहीं शून्य होता ही रहता है।
और ध्यान रखना, व्यर्थ की बातों में मत पड़ना कि यह कलियुग है। व्यर्थ की चिंताओं में मत पड़ जाना कि कलियुग में कहां भगवान! कि भगवान सतयुग में होते थे! समय में कोई भेद नहीं है। परमात्मा के लिये समय एक जैसा है, एक ही वर्तुलाकार है। जो व्यक्ति भी सरल हो जाता है उसका सतयुग में प्रवेश हो जाता है। सतयुग और कलियुग समय के नाम नहीं है, व्यक्तियों की चित्तदशाओं के नाम है। तुम्हारे पड़ोस में बैठा हुआ आदमी सतयुग में हो सकता है, तुम कलियुग में हो सकते हो। सतयुग का अर्थ इतना ही होता है-श्रद्धावान सत्य की खोज में लगा, सत्य पर जिसका भरोसा है। सभी बच्चे सतयुगी होते है और बूढ़े कलियुगी हो जाते है। कलियुग बुढ़ापे का नाम है, वह चौथी अवस्था है। लेकिन जरूरी नहीं कि सभी बूढ़े कलियुगी हो जायें। अगर कोई चाहे तो बुढ़ापे तक सतयुगी रह सकता है, बच्चे जैसा निर्दोष रह सकता है। मत दो तर्क को जगह, मत दो संदेह को जगह, भरोसे पर भरोसा करो। तुम भी भरोसा करते हो, लेकिन तुम भरोसा कांटो पर करते हो, फूलों पर नहीं करते। इसलिये अगर फूल तुम्हारे लिये खो गये है तो कुछ आश्चर्य नहीं है। और अगर तुम्हें कांटे ही कांटे मिलते है तो कुछ आश्चर्य नहीं है, क्योंकि जिस पर तुम्हें भरोसा है, वहीं तुम्हें मिलेगा। तुम्हारा भरोसा ही तुम्हारा जीवन बन जाता है। तुम्हारा भरोसा ही तुम्हारी नियति हो जाती है। तुम्हारा भरोसा ही तुम्हारा भाग्य है। इसलिये सोच-समझकर भरोसा करना। गलत पर भरोसा किया, गलत हो जाओगे और अधिक लोग गलत पर भरोसा किये बैठे हैं।
मेरे पास एक व्यक्ति आया। उसने कहा, मैं तो नास्तिक हूं, मैं तो संदेह को मानता हूं। अगर आप कुछ प्रत्यक्ष प्रमाण दे सकें ईश्वर के तो मैं भरोसा कर सकता हूं।
मैंने उस व्यक्ति को पूछा, संदेह से कभी किसी को कुछ मिला है, इसका तुम प्रमाण दे सकते हो?
अगर प्रमाण नहीं दे सकते कि संदेह से कभी किसी को कुछ मिला है, तो तुम संदेह पर भरोसा क्यों करते हो? संदेह पर तुम्हारा भरोसा कहां से आया? तुमने जीवन में संदेह से कुछ पाया है?
उसने कहा, मिला तो कुछ भी नहीं।
तो फिर मैंने कहा, यह कैसा भरोसा?श्रद्धा पर भरोसा करने के लिये प्रमाण मांगते हो, संदेह पर भरोसा करने के लिये प्रमाण नहीं मांगते। यह तो बड़ी ज्यादती हो गई। गलत पर भरोसा के लिये इतनी तत्परता, सही पर भरोसे के लिये इतना विरोध! तुमने तय ही कर रखा है गलत में जीने के लिये ? अगर तुमने तय कर रखा है, तो तुम्हें कोई भी बदल सकता है।
परमात्मा मौजूद है, अनेक-अनेक रंगो, अनेक-अनेक रूपों में। हर पड़ौस में मौजूद है, देखने वाली आंख चाहिये और देखने वाली आंख श्रद्धा से उत्पन्न होती है, समर्पण से उत्पन्न होती है, थोड़ा अहंकार गलाने से उत्पन्न होती है।
तुम इधर मिटते हो कि उधर तुम परमात्मा के करीब पहुंचने लगते हो। उस आखिरी मित्र के करीब पहुंचने लगते हो। जितने मिटोगे, उतने उसके पास हो जाओंगे। जितने तुम रहोगे, उतना वह दूर रहेगा। परमात्मा और तुम्हारे बीच की दूरी तुम्हारे होने की सघनता पर निर्भर है। अगर कोई व्यक्ति कहता है कि मुझे परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता, तो उसका केवल इतना ही मतलब है कि वह इतना सघन हो गया है कि बिलकुल पत्थर हो गया है। परमात्मा तरलता में मिलता है। बिखरो, पिघलो, मिटो।
वृष्णिषु श्रेष्ठत्वम् एतत्।
यह विष्णु वंश की मर्यादा बढ़ाने के अर्थ में कहा है। यह साहित्यिक उक्ति है, अस्तित्वगत नहीं। अस्तित्व को ध्यान में रखे तो कृष्ण परमात्मा है। उनके निराकार को ध्यान में रखें तो कृष्ण परमात्मा है। अगर उनके आकार को ध्यान में रखे तो विभूति है। अपूर्व है। जिन्होंने उनकी देह भी देखी, जिन्होनें उन्हें ऊपर-ऊपर से देखा, जो उनके भीतर नहीं भी गये, उन्हें भी तो उनका थोड़ा सौन्दर्य अनुभव हुआ, उन्होंने उन्हें विभूति कहा। जिन्होंने बुद्ध को बाहर से देखा, कभी बुद्ध के शिष्य नहीं बने और ध्यान रखना, शिष्य बने बिना भीतर से देखने का कोई उपाय नहीं है, सिर्फ शिष्य ही अंतरंग में प्रवेश करता है- जो बुद्ध के पास बाहर से देख कर लौट गये, उन्हें भी लगा कि अपूर्व विभूति है। वह शांति, वह शून्य, वह प्रसाद, वे प्यारे वचन, उनका उठना-बैठना, वह सब अपूर्व है। जो बाहर से आये, वे सोच कर गये विभूति है। जिन्होंने भीतर झांका, उन्होंने जाना कि भगवान है।
यह कृष्ण के संबंध में ही सच नहीं है, जितने भी अवतार हुये है, और जितने भी अवतार पहचाने गये है, उन सबमें ऐसा ही है, बहुत से अवतार पहचाने नहीं गये। जो नहीं पहचाने गये, उन्हें लोगों ने केवल विभूति जाना। जो पहचाने गये, जो प्रसिद्ध हो गये, जिनके अंतरंग में कुछ लोग उतर गये, उन्होंने ये दोनो बातें देखी।
इस देश में हजारों साल की बहुमूल्य परंपरा है कि हमने आकार में निराकार देखा है और जो एक बार हुआ है, वह बार-बार हो सकता है। जो एक व्यक्त्ति में हुआ है, वह सभी में हो सकता है। जो एक में घटा है, वह सभी की नियति है। जो एक बीज खिला है और फूल बना है, तो सभी बीज खिल सकते है और फूल बन सकते है। इस स्वीकृति से ही तो बीज की हिम्मत बढ़ेगी।
फिर वे अवतार कोई भी हो, किसी भी परम्परा के हो। हर मनुष्य की यह स्वभावसिद्ध क्षमता है कि वह अपने आकार के भीतर निराकार को आमंत्रित कर सकता है। तुम आतिथेय बन सकते हो, अतिथि को बुला सकते हो। इस अतिथेय बनने और अतिथि को बुलाने का नाम भक्ति है। अथातो भक्ति जिज्ञासा।
ध्यान रखना, परमात्मा तो मौजूद है, दर्पण चाहिये। तुम कोरे होओ तो झलक बने। तुम झील की तरह शांत होओं तो प्रतिबिंब बने चंद्रमा का।
पाप-पुण्य क्या, निर्णय का अधिकार किसे
जब कि बात अपने-अपने दर्पण की है
बीती बाढ़ वक्त की रेत बची केवल
मिट जाते माटी में कल के विंध्याचल
काहे की खिड़की फिर कैंसे दरवाजे
सिर्फ जरूरत मुक्त खुले आंगन की है
चाहे पाहन की हो, चाहे पनघट की
असली पूजा तो विश्वासी मन की है।
श्रद्धायुक्त, भाव से भरा हुआ हृदय-बस सब पूरा हो जाता है। भगवान को मत खोजो, भक्ति को खोजो। भक्ति मिले, भगवान अपने से मिल जाता है। जो भगवान को खोजने निकला बिना भक्ति को खोजे, खोजे कितना ही, पहुचेगा कभी नहीं, पायेगा कभी नहीं। प्रेम हो तो प्रेमी मिल जाता है। भक्ति हो तो भगवान मिल जाता है। आंख हो तो सूरज सदा मौजूद है।
परम् पूज्य सद्गुरू
कैलाश श्रीमाली जी
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