इस सूत्र में ऋषि कहते है, त्रयगुणों से रहित स्वरूप के अनुसंधान में तथा भ्रांति के भंजन में समय व्यतीत करता है।
गृहस्थ से ठीक उलटी यात्रा है संन्यासी की। गृहस्थ, तीन गुणों का जो फैलाव है, उसमें ही डुबा रहता है। कभी रज में, कभी तम में, कभी सत्व में। कभी अच्छे में, कभी बुरे में, कभी आलस्य में। संन्यासी उन तीनों के पार चौथ में चलने की चेष्टा में संलग्न होता है।
यहां एक बात समझ लेनी जरूरी है। सत्व, शुभ जिसे हम कहें, संन्यासी उसके भी पार चलने में लगा रहता है। अशुभ जिसे हम कहते हैं, उसके पार तो वह जाता ही है, लेकिन जिसे हम शुभ कहते है, संन्यासी उसके भी पार जाने में लगा रहता है, यह थोड़ा समझना कठिन मालुम पड़ेगा।
यह तो ठीक है कि अशुभ के हम पार जायें, यह तो ठीक है कि बुराई का त्याग हो, लेकिन संन्यासी भलाई का भी त्याग करता है। क्योंकि ऋषि की दृष्टि यह है कि जब तक भला भी न छूट जाये, तब तक बुरा पूरी तरह नहीं छुटता, क्योंकि बुरा और भला एक ही चीज के दो पहलु हैं, ऋषि की यह दृष्टि है कि अगर भले आदमी को यह भी याद रह जाये कि मैं भला आदमी हूँ, तो उसके भीतर बुराई दबी पड़ी रह जाती है। वस्तुतः भला आदमी वह है, जिसे यह भी पता नहीं रह जाता कि मैं भला आदमी हूँ। भलाई भी छूट जाती है। भलाई छूट जाती है, इसका यह अर्थ नहीं है कि वह भला करना बंद कर देता है। भलाई छूट जाती है, इसका अर्थ यह है कि भलाई वह अपनी तरफ से नहीं करता, उससे जो भी होता है, वह भला है। सत्व के भी पार चला जाना संन्यास है।
यह बहुत मौलिक क्रांति की बात है। जगत में बहुत तरह के विचार पैदा हुये, लेकिन सत्व के पार ले जाने वाला विचार सिर्फ इस भूमि पर पैदा हुआ है। जगत में जो भी विचार पैदा हुये हैं, वे सब सत्व तक ले जाने की आकांक्षा रखते हैं कि आदमी अच्छा हो जाये। लेकिन भारतीयों की यह समझ है कि आदमी अच्छा हो जाये, यह अंत नहीं है। आदमी अच्छे के भी पार हो जाये, यही अंत है। क्योंकि इस बात की स्मृति भी है कि मैं अच्छा हूँ, अच्छा कर रहा हूँ, अस्मिता है, अहंकार है, इगो है।
और ध्यान रहे, जहर कितना ही शुद्ध हो जाये; इससे जहर नहीं रह जाता, ऐसा समझने की कोई भी जरूरत नहीं है। सच तो यह है- सच उलटा है- कि शुद्ध होकर जहर और जहरीला हो जाता है।
बुरे आदमी का भी अहंकार होता है, अशुद्ध होता है। बुरा आदमी अपने अहंकार से परेशान भी होता है, बुरा आदमी अपने अहंकार को बुरा भी समझता है। किन्हीं क्षणों में पश्चात्ताप भी करता है। किन्हीं क्षणों में उसके पार जाने की चेष्टा भी करता है। लेकिन भला आदमी अपने अहंकार को बुरा भी नहीं समझता। पश्चात्ताप का तो सवाल ही नहीं है। अहंकार उसका भला है।
लेकिन ध्यान रखें, अहंकार पवित्र होकर शुद्ध जहर हो जाता है-प्योर पायजन। बुरा आदमी तो थोड़ी सी पीड़ा भी पाता है, कांटे की तरह चुभता भी है कि मैं बुरा आदमी हूँ। इसलिये बुरा आदमी अपने अहंकार को उसकी पूरी शुद्धता में खड़ा नहीं कर सकता। उसकी अकड़ में एक कमी रह ही जाती है, भीतर ही उसके कोई कहे चला जाता है कि तुम बुरे आदमी हो। तो बुराई के आधार पर अहंकार का पूरा विस्तार नहीं हो सकता। आधारशिला में ही कमी रह जाती है। लेकिन मैं भला आदमी हूँ, तब तो अहंकार के फैलाव की पूरी सुविधा और गुंजाइश है। तब अहंकार छतरी की तरह छा जाता है। बड़े सुदृढ़ आधार पर खड़ा होता है।
भले आदमी का जो अहंकार है, संन्यासी के लिये वह भी नहीं है। लेकिन समाज इसका उपयोग करता है, क्योंकि समाज को पता है कि आदमी को अहंकार के पार ले जाना अति कठिन है। इसलिये समाज के पास एक ही उपाय है कि वह भलाई के लिये प्रेरित करने को आदमी के अहंकार का उपयोग करे। इसलिये हम आदमी से कहते हैं कि ऐसा मत करो, लोग क्या कहेंगे! काम बुरा है, यह नहीं कहते। बाप अपने बेटे को समझाता है कि झूठ मत बोलना; पकड़े जाओगे, तो बड़ी बदनामी होगी। झूठ मत बोलना, लोग क्या कहेंगे! झूठ मत बोलना, चोरी मत करना। हमारे कुल में कभी किसी ने चोरी नहीं की।
यह सब अहंकार को उकसाया जा रहा है। एक बीमारी को दबाने के लिये दूसरी बीमारी को उठाया जा रहा है। लेकिन समाज की अपनी कठिनाई है। समाज अब तक ऐसे सूत्र नहीं खोज पाया है कि आदमी में भलाई का जन्म हो सके बिना अहंकार के। इसलिये हम अहंकार का उपयोग करते हैं और अहंकार को भलाई के साथ जोड़ते हैं। इससे जो घटना घटती है, वह यह नहीं है कि अहंकार भलाई के साथ जुड़कर भला हो जाता है। घटना यह घटती है कि अहंकार के साथ भलाई जुड़कर बुरी हो जाती है। जहर की एक खूबी है कि वह एक बूंद भी काफी है, सब जहरीला हो जायेगा।
जब हम अहंकार को जोड़ देते हैं भलाई से, क्योंकि हमें दिखता ही नहीं कि और कोई उपाय है…। अगर किसी आदमी से मंदिर बनवाना है, तो पत्थर पर उसका नाम खोदना ही पड़ेगा। कोई आदमी ऐसा मंदिर बनाने को राजी नहीं है, जिस पर उसका नाम ही न लगे। वह कहेगा, फिर प्रयोजन ही क्या रहा! मंदिर में किसी को रस नहीं है। वह जो मंदिर के भीतर की प्रतिमा है, उसमें किसी को रस नहीं है, वह जो मंदिर के बाहर पत्थर लगता है नाम का, उसमें रस है। ऐसा नहीं है कि मंदिर बनाये जाते हैं और फिर पत्थर लगाये जाते हों। पत्थर के लिये मंदिर बनाये जाते हैं। पत्थर पहले बन जाता है। लेकिन मंदिर बनवाना हो, तो वह पत्थर लगवाना पड़ता है, नही तो मंदिर बन नहीं सकता।
मनोवैज्ञानिक एक बहुत अनुठी बात कहते हैं। वे कहते हैं कि जिनको हम अपराधी कहते हैं और जिनको हम तथाकथित अच्छे आदमी कहते हैं, सज्जन कहते हैं, इनमें बुनियादी फर्क नहीं होता। दोनों ही अटेंशन चाहते हैं। समाज का ध्यान उन पर जाये, इसकी आकांक्षा में जीते हैं। एक आदमी भला होकर सड़क पर चलने लगता है, लोगों का ध्यान उस पर जाये। एक आदमी को कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता भला होने का, वह बुरा हो जाता है।
मर जाये आदमी, तो फिर अच्छा हो जाता है। सही तो दुःख है दुनिया का कि मरा हुआ आदमी अच्छा होता है और जिंदा आदमी बुरा होता है। यह जो हम भलाई का जाल खड़ा किये हुये हैं, उसके भीतर हम अहंकार को ही पोषण करके खड़ा कर पाते हैं। अगर बच्चे को शिक्षित करना है, तो उसे प्रथम लाना पड़ता है, गोल्ड मेडल देना पड़ता है। अगर शिक्षित करना है, तो उसके अहंकार को तृप्त करना पड़ता है, उसे विशेषता देनी पड़ती है। फिर उपद्रव होते हैं। लेकिन समाज अब तक इससे बेहतर कोई रास्ता नहीं खोज पाया है और यह बहुत बदतर रास्ता है।
ऋषि कहते हैं कि संन्यासी तो शुभ के भी पार चला जाता है। अशुभ के पार तो चला ही जाता है, शुभ के भी पार चला जाता है। अंग्रेजी में तीन शब्द हैं- एक शब्द है इम्मारल, अनैतिक; एक शब्द है मारल, नैतिक; एक शब्द है एमारल, नीति-मुक्त या अतिनैतिक। संन्यासी इम्मारल तो होता ही नहीं, मारल भी नहीं होता; एमारल होता है। वह न तो नैतिक होता है, न अनैतिक होता है; वह नीति-मुक्त होता है। लेकिन इस तीसरी सीढ़ी तक पहुँचने के लिये अनीति को छोड़कर नीति में और नीति को छोड़कर अतिनीति में प्रवेश करना होता है।