प्रिय गुरू भ्राताओं,
जीवन में सफलता प्राप्त करना प्रत्येक उस मनुष्य का अधिकार है जो पुरूषार्थ से जुड़ा है। यह सफलता भौतिक भी हो सकती है और आध्यात्मिक भी, मगर इसे पाने के लिये प्रयास तो हर पल, हर क्षण जारी ही रहते है। कभी-कभी काफी प्रयासों के बाद भी असफलता का मुंह देखना पड़ता है, ऐसे में मानव या तो स्वयं के भाग्य को दोषी ठहराता है अथवा ईश्वर को ही कोसने लगता है। अन्ततः ऐसा मानव अपनी इसी असफलता से खिन्न होकर स्वयं के द्वारा किये जाने वाले प्रयासों पर ही विराम लगाकर नीरस भरा जीवन व्यतीत करने लगता है।
यह बात तो हुई साधरण मानव के स्वभाव की, लेकिन जब कुछ इसी तरह की स्थिति पूज्य सद्गुरूदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी के शिष्यों में देखने को मिलती है तो स्वयं उस शिष्य अथवा साधक की न्यूनता उद्घटित होती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि सद्गुरूदेव हर पल, हर क्षण सूक्ष्म रूप से हमारे जीवन निर्माण में संलग्न रहते है और उनकी एक विशेष प्रकार की क्रिया में हमारी क्षमताओं की परीक्षा होना स्वाभाविक है। यूं तो मनुष्य योनि ही पिछले कई-कई जन्मों के पाप, संताप व दोषों को समाप्त करने के लिये निर्धारित की गई है, लेकिन इसमें भी यदि परमहंस स्वामी निखलेश्वरानंद जी सद्गुरू के रूप में मिल जाये तो दोषों को समाप्त करने की क्रिया की गति अधिक तेज हो जाती है। प्रायः जब इस प्रकार की क्रिया की गति अधिक तेज हो जाती है तो संबन्धित मनुष्य के समक्ष समस्याये आती ही है, मगर इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि हम बाधाओं व कष्टों की प्रताड़ना न सहकर उल्टे स्थिति तक पहुँचने से अवश्य वंचित रह जाते है, जहां हमें गुरूदेव पहुँचाना चाहते है। अतः ऐसी स्थिति को हम अपना दुर्भाग्य न माने क्योंकि दुर्भाग्य तो तब हो सकता था जब स्वामी निखिल जैसी उच्च सत्ता से हम न जुडे़ होते।
इसलिये चाणक्य सूत्र में लिखा है
अर्थात् दुर्भाग्य पर दुःख प्रकट नहीं करना चाहिये बल्कि सफलता न मिलने पर इसे सौभाग्य में परिवर्तित करने हेतु बहादुरी से इसका सामना करना चाहिये।
प्रायः जब सद्गुरूदेव से दीक्षित शिष्य किसी छोटी-मोटी परेशानी में घिरे तो वह इसे बड़ा संकट समझकर गुरूजी को मदद के लिये पुकारते देखे गये है लेकिन ऐसे लोगों को इस रहस्य का तनिक भी बोध नहीं होता कि उनके समक्ष उत्पन्न स्थिति जिसे वह भारी संकट समझते है कोई संकट नहीं वरन् उसी निर्माण क्रिया का एक हिस्सा है। मेरा अनुभव है कि कई बार तो कुछ लोग इस प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न होने पर सद्गुरूदेव पर ही संदेह व्यक्त करने लगते है। दुर्भाग्यवश जीवन में दो बार मेरे समक्ष भी कुछ इस प्रकार के कुविचारों ने जन्म लिया लेकिन बहुत कम समय में ही मुझे वास्तविक स्थिति का बोध स्वंय सद्गुरूदेव ने विभिन्न प्रकार की क्रियाओं के माध्यम से करा दिया। वास्तव में अपने चारों ओर माया का आवरण बनाये रखना कोई सहज कार्य नहीं होता है। दूसरी ओर सही अर्थो में उनकी इस ‘माया’ के पीछे शिष्य को निरन्तर तपाते रहने और गढ़ने रहने की प्रक्रिया ही छिपी होती है। इसलिये शास्त्रों में कहा गया है कि जब कोई सद्गुरू अपने किसी शिष्य से उच्च स्तर पर ले जाना चाहते है। इसके लिये तपाने की आवश्यकता भी पड़ती है। यदि हम अध्यात्म व भौतिक क्षेत्र में उच्चता प्राप्त करना चाहते है तो हमें थोड़े बहुत कष्ट को सहने ही पड़ेगे चाहे हम गृहस्थ है अथवा सन्यस्त, इस प्रक्रिया से गुजरकर ही हम उच्चता की स्थिति को अनुभव कर सकते हैं।
महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन हिम्मत हारकर धनुष-बाण भूमि पर रख देता है तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण उसे फटकारते है-
श्रीमद् भागवत गीता 2 , श्लोक 3
अर्थात् श्रीकृष्ण कहते है- हे अर्जुन! नपुसंकता को मत अपना, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती है। हे पार्थ ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा। सद्गुरूदेव भी तो अपने शिष्यों को प्रत्येक क्षण युद्ध करने की ही प्रेरणा देते है। जिन कुसंस्कारों व दोषों को हम अपना सम्बन्धी मान बैठे है सद्गुरूदेव उन्हीं को समाप्त करने को प्रेरित करते है। मगर हम भी अर्जुन की भांति इनसे युद्ध नहीं करना चाहते है। इस पर भी यदि हम परिस्थितियों के परिवर्तन की कल्पना करें तो बेमानी होगी। हमारी मानसिकता की तुच्छता तो उस समय उद्घटित हो जाती है जब हम सद्गुरूदेव के अस्तित्व को लेकर विभिन्न प्रकार की शंकाएं मन में लाते है। माना कि मन की चंचलता में ऐसा होना स्वाभाविक है लेकिन इस चंचलता को वश में करना एक श्रेष्ठ शिष्य की प्रथम अनिवार्यता है क्योंकि मन ही हमारी प्रगति में बाधक है। गीता के इस श्लोक में श्रीकृष्ण यही कहते है-
अध्याय 6, श्लोक 36
अर्थात् जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है ऐसे पुरूष के लिये ‘योग’ दुष्प्राप्य है। वहीं वश में किये हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरूष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है।
मन की विभिन्न अवस्थाओं पर हमारा नियन्त्रण होना परम आवश्यक है। हमे भली प्रकार से यह सत्य स्वीकारना होगा कि सद्गुरूदेव की ‘माया’ के आवरण का निश्चित अर्थ होता है। यह तो बोधपरक क्रिया है जिसका संकेत केवल शिष्य को आत्मचिंतन के लिये प्रेरित करना होता है। अतः निःस्वार्थ भाव से वस्तु स्थिति समझने व स्वयं को ओछेपन तथा घटियापन की प्रवृत्ति को समाप्त करने की क्षमता हमारे भीतर होनी चाहिये। संघर्ष तो सफल जीवन का प्रारम्भिक बिन्दु है, इससे घबराना कैसा? सभी प्रकार की परिस्थितियों से जूझने का केवल और केवल हल है सद्गुरूदेव के प्रति आस्था और विश्वास, साथ ही उनके स्वरूप को समझने की प्रबल इच्छा इस, सन्दर्भ में गीता का ही यह श्लोक पूरी तरह उचित है-
अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सभी के समक्ष प्रत्यक्ष नहीं होता इसलिये यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझे जन्म रहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता और मुझे भी जन्मने-मरने वाला समझता है।
गीता के इस चिंतन में सद्गुरूदेव स्वामी निखिलेश्वरानंद जी की वाणी अप्रत्यक्ष रूप से छिपी है। श्रीकृष्ण की ही भांति निखिल जी की योगमाया के चलते हम उन्हें केवल एक विद्वान व सक्षम मनुष्य भर समझ बैठे है, जो अपने विशेष उद्देश्य को पूर्ण कर ब्रह्मलीन हो गये। मगर भगवान निखिल आज भी सभी गुरू साधनाएं सम्पन्न कर इस रहस्य को भली-भांति समझ सकते हैं।
मैं तो एक अदना नादान साधारण शिष्य हूँ, मैं अपने गुरू भाइयों को कोई उपदेश नहीं देना चाहता, मैं तो अपने मन के भाव अभिव्यक्त कर रहा हूँ अपने सद्गुरूदेव निखिल को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुये। अपने संकल्प को दृढ़ कर रहा हूँ, आप सभी गुरू भाई मेरी भावनाओं को समझकर एक उच्च संगठन की ओर प्रेरित हो, यही मेरा निवेदन है-
आपका गुरू भाई
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