मन यानी नींद। मन यानी मूर्च्छा। चूंकि हम मन में खोए है, इसलिये उसे नहीं देख पाते जो मौजूद है। जो सामने खड़ा है, उससे वंचित रह जाते है। नहीं तो ऐसा कैसे हो सकता था कि कुछ लोग-कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई कबीर, कोई शांडिल्य, कोई नारद-यही रहते हुए स्वर्ग को उपलब्ध हो गये। ऐसा तो नहीं हो सकता कि एक टुकड़ा स्वर्ग का बुद्ध के लिये उतरा होगा पृथ्वी पर। बुद्ध के लिये उतरता तो कम जो बुद्ध के पास थे उनको भी दिखाई पड़ता। नहीं, ऐसा हुआ कि और सब सोए रहे, कोई एक व्यक्ति जाग गया। जो जाग गया, वह स्वर्ग में प्रविष्ट हो गया।
जागो तो तुम पाओगे कि स्वर्ग में ही थे। सदा से स्वर्ग में थे और यह अनुभव तुम्हें रोज भी होता है। रात सो जाते हो, याद भी नहीं रह जाती कि कहां सोए हो, किस घर में सोए हो, कौन पिता है, कौन मां है, कौन भाई, कौन बहन, क्या धंधा, क्या व्यवसाय, शिक्षित, अशिक्षित , अमीर, गरीब, सब खो जाता है। सो गए तो बिलकुल भूल गये। सुबह जाग कर फिर सब याद आ जाता है। स्वर्ग पुनर्स्मरण है।
हर बच्चा स्वर्ग में पैदा होता है। उसे कुछ पता नहीं होता कि क्या बुरा, क्या भला। जल्दी उसे सिखाओं कि उसे बुरे-भले का पता हो जाये। उसे कुछ पता नहीं है-भविष्य का, अतीत का। जल्दी उसे सिखाओं। उसे अतीत की याददाश्ते सिखाओं, उसे भविष्य का, अतीत का। उसे समय की भाषा सिखाओं! उसे अतीत की याददाश्तें सिखाओं, उसे भविष्य की आकांक्षाएं दो। उसे कुछ पता नहीं है कि महत्त्वाकांक्षी होना चाहिये। उसे दौड़ में लगाओं, उससे कहो-तुझे प्रथम आना है। उसे सिखाओं कि दूसरों की गर्दन काटनी है। उसे सिखाओं कि अपने जीने के लिये यह बिलकुल जरूरी है कि दूसरों की गर्दने काटी जाये। उसे सिखाओं कि दूसरों के सिरों की सीढ़ियां बनाओ और चढ़ते जाओ। उसे सीढ़ी चढ़ना सिखाओ। कहां पहुंचेगा, यह कुछ पता नहीं है। कोई कभी उस सीढ़ी से कहीं पहुंचा है, इसका भी पता नहीं है। मगर चढ़ते जाओ, और चढ़ते जाओ। धन तो और धन, पद तो और पद। जितना है, उससे तृप्त मत होना। जो पास हो, उसकी फिकर मत करना, जो दूर हो, उसकी फिकर करना। जो मिले, उसको भूल जाना, जो न मिले उसके सपने देखना और क्या नरक है? असंतोष नरक है।
संतोष स्वर्ग है। जो है, बहुत है, जो है बहुत खूब है, जो है बहुत से ज्यादा है, जरूरत से ज्यादा है और की जहां आकांक्षा नहीं है, जो मिला है उससे जो अनुगृहीत है, वह स्वर्ग में है। हर बच्चा स्वर्ग में है। इसलिये तुम देखते हो, कोई बच्चा कुरूप नहीं होता। सब बच्चे सुंदर होते है। स्वर्ग में कोई कुरूप कैसे हो सकता है। सब बच्चे सुंदर पैदा हो जाते है। सुंदर ही पैदा होते है।
तो पहली बात तो तुम्हें याद दिला दूं कि स्वर्ग कहीं से लाना नहीं है, स्वर्ग आया हुआ है। हम स्वर्ग में पैदा हुये है। यह सारा अस्तित्व स्वर्ग है। नरक कहीं है ही नहीं। सिवाय आदमी की भ्रांति के नरक कहीं भी नहीं है। दुःख आदमी का सृजन है। परमात्मा से केवल सुख की धारा ही बह रही है। हम बड़े कुशल है, हम सुख को दुःख बना लेने में कुशल है। हम फूलों से कांटे ढाल लेते है। जहां अहोभाव होना चाहिये, वहां हम शिकायतें खड़ी कर लेते है। जहां झूकने की धारा बहनी चाहिये, वहां हम अकड़ कर खड़े हो जाते है और सूख जाते है। गलती हमारी है, पृथ्वी है, पृथ्वी की कोई गलती नहीं है। पृथ्वी सर्वांग सुंदर है।
इसीलिये यह हो सका कि जो जाग गया, वह स्वर्ग में प्रविष्ट हो गया। बुद्ध यहीं स्वर्ग में रहे। मैं यही स्वर्ग में हूं। तुम भी उसी दुनिया में हो, मैं भी उसी दुनिया में हूं। हम कहीं अलग-अलग दुनियाओं में नहीं है। पर मेरे देखने का ढंग और, तुम्हारे देखने का ढंग और। तो स्वर्ग देखने के ढंग की बात है। नरक भी देखने के ढंग की बात है। हमारी दृष्टि बदलनी चाहिये। दृष्टि ही सृष्टि है। उससे ही हम सृजन करते है।
जागो! और तुम स्वर्ग में प्रविष्ट हो जाओगे और स्वर्ग तुममें प्रविष्ट हो जायेगा।
दूसरी बात, समाज कभी स्वर्ग में हो पायेगा या नहीं, कहना मुश्किल है। होना चाहिये। मगर हो पायेगा या नहीं, कहना मुश्किल है।
क्यो? क्योंकि मनुष्य स्वतंत्र है। स्वर्ग जबरदस्ती थोपा नहीं जा सकता। यह ऐसी बात नहीं है कि एक आज्ञा दे दी कि बस अब स्वर्ग हो जाये। यह प्रत्येक व्यक्ति को निर्णय लेना पड़ता है कि मैं दुःखी जीना चाहता हूं या सुखी जीना चाहता हूं। यह आत्म-निर्णय है। ऐसी कोई बचकानी बात नहीं है कि एक दिन हमने तय कर लिया कि फलां सन एक जनवरी को घोषणा हो जायेगी कि अब हम स्वर्ग में प्रवेश कर गये। इस तरह घोषणाओं से नहीं होने वाला है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने निजी अस्तित्व में निर्णय लेना पड़ता है कि मैं क्या चुनूं-स्वर्ग या नरक? यह प्रत्येक व्यक्ति की आंतरिक स्वतंत्रता है। इस स्वतंत्रता में गिरना है। और खतरा भी है।
इसे थोड़ा समझो। अगर स्वर्ग अनिवार्य हो, तो स्वतंत्रता नष्ट हो जायेगी। अगर स्वर्ग ऐसा हो कि उससे अलग होने का उपाय ही न हो, कि तुम्हें स्वर्ग में होना ही पड़े, तुम लाख उपाय करो तुम दुःखी न हो सको, तो वह सुख भी सुख नहीं रह जायेगा। उसमें स्वतंत्रता खो गई। और स्वतंत्रता सुख की एक अनिवार्य आधारशिला है। जो स्वर्ग जबर्दस्ती मिल जायेगा, वह कैसा स्वर्ग होगा?
इसलिये स्वर्ग की संभावना में ही नरक भी छिपा है। समझ लेना बात को। स्वतंत्रता का अर्थ ही यह होता है। अगर तुमसे कहे कि तुम्हें अच्छे काम करने की स्वतंत्रता है, तो इसका क्या मतलब होगा। इसका कोई मतलब नहीं होगा। अच्छे काम की स्वतंत्रता में बुरे काम की स्वतंत्रता सम्मिलित है। कोई कहे कि तुम्हें राम होने की स्वतंत्रता है। लेकिन राम होने की स्वतंत्रता में रावण होने की स्वतंत्रता सम्मिलित है। अगर तुम रावण हो ही न सको, तो फिर राम होने की स्वतंत्रता का अर्थ क्या है? रावण भी हो सकते हो, इसलिए राम होने का मजा है। नरक में हो सकते हो, इसलिये स्वर्ग में होने का मजा है। बीमार हो सकते हो, इसलिये स्वास्थ्य में रस है। मर सकते हो, इसलिये जीवन प्यारा है। घृणा घेर सकती है, इसलिये प्रेम में आनंद है। स्वतंत्रता विपरीत की स्वतंत्रता है। प्रत्येक व्यक्ति को हर बार निर्णय लेना पड़ता है। यह व्यक्ति की निर्णायकता पर निर्भर है।
इसलिये समाज की भाषा में पूछो ही मत- कि समाज कभी स्वर्ग में होगा या नहीं होगा? हां इतना मैं जरूर कह सकता हूं कि लोग अब ज्यादा स्वर्ग में होंगे। संख्या बढ़ती जायेगी।
क्यों? उसके कुछ कारण है। पहले क्यों नहीं हो सका? उसके भी कारण हैं।
बुद्ध जैसा व्यक्ति स्वर्ग में प्रवेश कर सका। बड़ी प्रतिभा की जरूरत थी। क्योंकि पूरा समाज बड़ा संकीर्ण था, बड़ा क्षुद्र था। उस क्षुद्रता और संकीर्णता से मुक्त होना करीब-करीब असंभव कृत्य जैसा कृत्य था। चमत्कार था! अब समाज उतना संकीर्ण नहीं है।
मैं जो कह रहा हूं वह बुद्ध भी तुमसे कहना चाहते थे, लेकिन कहा नहीं। तो तुम यह मत सोचना कि जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह बुद्ध नहीं कहना चाहते थे। बुद्ध भी कहना चाहते थे। बुद्धत्व का स्वाद लेकर तुमसे कह रहा हूं कि कहना ही चाहा होगा उन्होंने भी। क्योंकि उस घड़ी में जो मुझे दिखाई पड़ रहा है, उन्हें भी दिखाई पड़ा होगा। लेकिन नहीं कहा। तुम्हारे कान उसे झेल न पाते। तुम्हारी आत्माएं उसे अंगीकार न कर पातीं। मनुष्य का हृदय थोड़ा विस्तीर्ण हुआ है।
ऐसा समझो कि हर चीज के पीछे एक क्रमबद्ध श्रृंखला होती है। जैसे समझो, हम चांद पर पहुंच गये। चांद पर पहुंचने की आकांक्षा सदियों पुरानी है। जितना मनुष्य पुराना है, उतनी आकांक्षा पुरानी है। हर बच्चा पैदा होकर चांद की तरफ हाथ बढ़ाता है। चंदामामा को पकड़ लाना चाहता है। रोता है कि चंदा को पकडूंगा। पुरानी कथा है कि कृष्ण रो रहे है चांद को पकड़ने के लिये। और यशोदा ने एक थाली में पानी भर कर रख दिया और चांद का प्रतिबिंब थाली में पड़ने लगा और कृष्ण ने थाली में बने चांद के प्रतिबिंब को हाथ डाल कर पकड़ने की कोशिश की है।
आज हम एक अनूठी घड़ी में है। सारे उपकरण मौजूद है। पृथ्वी चाहे तो अब स्वर्ग की घोषणा कर सकती है। बहुत बड़ी संख्या में लोग आंखे खोल सकते है, ध्यान में उतर सकते है, प्रार्थनापूर्ण हो सकते है। अब बाधा उपकरण की दृष्टि से नहीं है, अब तो बाधा सिर्फ पुरानी आदतें तोड़ने की है।
मैं तुमसे जो कह रहा हूं, लेकिन उसको तुम सुनने को राजी नहीं। सुन भी लो तो करने को राजी नहीं। तुम्हारी पुरानी आदतें, तुम्हारे पुराने विश्वास, तुम्हारी पुरानी श्रद्धाएं बाधा बन रही है। उपकरण तो मौजूद है।
मेरी कोशिश और तरह की है। वैसी कोशिश कभी की नहीं गई है। मैं सारी दुनिया में सत्य के जितने दर्शन हुए है, जिन-जिन झरोखों से सत्य की झलक देखी गई है, उन सारी झलकों को तुम्हारे सामने इकट्ठा कर देना चाहता हूं। क्योंकि उनके इकट्ठे हो जाने पर ही भविष्य निर्भर है। उनके इकट्ठे होते ही मनुष्यता के इकट्ठे होने का आधार बन जायेगा।
मनुष्य-जाति अब ज्यादा सुगमता से इस पृथ्वी पर स्वर्ग बसा सकती है। स्वर्ग का मतलब स्वर्ग है, उसका आविष्कार कर लेना। उसको देख लेना। हमने जरूरत से ज्यादा आत्मा की बात कर दी- और करने का कारण था। क्योंकि हमने देखे महावीर, हमने देखे कृष्ण, हमने देखे बुद्ध, हमने वह अपूर्व ज्योति देखी आत्मा की हम एकदम विमोहित हो गये, सम्मोहित हो गये और हमने कहा कि छोड़ो फिकर पदार्थ की, बस आत्मा ही सब कुछ है- जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य! बस हमने कहा कि अब सब छोड़ो, अब तो बस आत्मा की ही खोज कर लेनी है। लेकिन महावीर को भी भोजन की जरूरत पड़ती है, बुद्ध को भी भिक्षा मांगने जाना पड़ता है, यह हम भूल ही गये। यह हम भूल ही गये है कि बुद्ध को भी रोटी की उतनी ही जरूरत है जितनी तुम्हें है। उन्हें भी वस्त्र की जरूरत पड़ती है जितनी तुम्हें है। उन्हें भी रात छप्पर की जरूरत पड़ती है जितनी तुम्हें है। आत्मा से हम ऐसे ज्यादा प्रलोभित हो गये- और हो जाने का स्वाभाविक कारण था, हमने इतनी जगमगाती आत्माएं देखीं, ऐसे रोशन लोग देखे, ऐसे चमकते दीये देखे, कि ज्योति से हमारी आंखे बंध गई, हम भूल ही गए कि ज्योति दीये में है। मिट्टी का दीया, उसमें भरा हुआ तेल और फिर ज्योति है।
हम ज्योति से ऐसे सम्मोहित हुये कि हम दीये की बात भी भूल गये, तेल की बात भी भूल गये, और बिना दीये और बिना तेल के ज्योति बुझ जायेगी। यह हमें स्मरण न रहा। और ज्योति बुझ गई। यह देश गरीब से गरीब होता चला गया है, दीन से दीन होता चला गया है, रूग्ण से रूग्ण होता चला गया है। इसमें वहीं, ज्योति के साथ जो अति आग्रह पैदा हो गया, कारण है,हमने इनकार ही कर दिया देह का। और देह के बिना आदमी कहां? भूमि के बिना वृक्ष कहा? देह के बिना आदमी कहां? इस संसार के बिना परमात्मा कहां? तुम्हारे भीतर छिपे हुए परमात्मा का मंदिर है।
एक तरफ देह मर गई, आत्मा बची और जब देह मर जाये तो दिन आत्मा नहीं बच सकती। दूसरी आत्मा मर गई, देह बची। और जब आत्मा मर जाये तो देह कितने दिन बच सकती है? देह सड़ जायेगी, लाश हो जायेगी।
तुमने देखा नहीं, जब तक आत्मा है देह में तब तक सब सुंदर है, सब सुवासित है। इधर आत्मा उड़ी, इधर पक्षी उड़ा, कि देह सड़ी। फिर घर में घर के ही लोग, जो तुम्हें जरा सा कांटा गड़ जाता था तो रोते थे, तड़फते थे, वे ही तुम्हें ले चले मरघट जलाने! कितनी जल्दी पड़ती है, तुमने देखा, कोई मर जाता है तो कितनी जल्दी होती है! रोकना ही नहीं चाहते लोग एक घड़ी घर में मुर्दे को। अब सिवाय दुर्गंध के और कुछ नहीं है। अगर घर के लोग रोने-धोने में लगे होते है तो पास-पड़ोस के लोग सहायता करते है, वे जल्दी से अरथी बनाने लगते है। मगर चलो, ले चलो, अब जल्दी करों! सारा गांव बस एक ही बात में उत्सुक होता है-जल्दी जलाओ, निपटाओं, खतम करो मामला! अब इसको घर में नहीं रखना है। यह तुम्हारी प्यारी माँ थी, तुम्हारी प्यारी पत्नी थी, तुम्हारे प्यारे पिता थे, तुम्हारा बेटा था, एक क्षण रोकने को राजी नहीं हो तुम। क्या हो गया? दीया बचा, ज्योति नहीं है अब। दीये का क्या मूल्य है?
इसलिये मैं तुमसे कहता हूँ, अब संभव है। और मैं तुम्हें जो जीवन-दृष्टि दे रहा हूं, वह न तो आध्यात्मिक है और न भौतिक है। मैं तुम्हें एक ऐसी जीवन-दृष्टि दे रहा हूं जिसमें भौतिकता और आध्यात्म, दोनों का समन्वय है। जिसमें दीया भी है और ज्योति भी है।
मेरी अड़चन तुम समझना। मुझसे सब नाराज है। भौतिकवादी नाराज है, क्योंकि मैं अध्याय की बात करता हूं। अध्यात्मवादी नाराज है, क्योंकि मैं भौतिकवाद की बात करता हूं। लेकिन मैं दोनों की बात कर रहा हूं और मैं चाहता हूं कि तुम दोनों की बात समझ लो, क्योंकि तुम दोनों के जोड़ हो और यह पृथ्वी आकाश और पृथ्वी का जोड़ है। और पृथ्वी पर स्वर्ग का आविर्भाव हो सकता है तभी, जब हम दोनों को सम्भाल पायें। इसकी संभालने की संभावनायें बड़ी हो गई है अब। इतनी बड़ी कभी भी नहीं थी। इसलिये बहुत लोग प्रवेश पा सकते हैं।
मगर फिर भी मैं यह नहीं कह सकता कि समाज सामूहिक रूप से प्रवेश पा जायेगा। समाज के पास कोई आत्मा नहीं होती। प्रवेश तो व्यक्ति पाता है। सुख और दुःख व्यक्ति में घटते है, समाज में नहीं घटते। समाज के पास संवेदना को कोई आधार ही नहीं है। समाज तो केवल संज्ञा मात्र है, नाम मात्र है। जैसे तुम यहां बैठे हो, पांच सौ लोग मेरे सामने बैठे है, यह पांच सौ लोगों का समाज है। इसमें से एक-एक आदमी उठ कर चला जायेगा, जब सब चले जाओंगे तो यहां पीछे कुछ भी नहीं बचेगा, कोई समाज नहीं बचेगा। तो समाज तो केवल एक नाम मात्र था, पांच सौ लोगों के इकट्ठे मौजूद होने का नाम था। असलियत तो व्यक्ति थे। वे पांच सौ व्यक्ति थे, पांच सौ आत्माएं थी।
अब तुम मुझे सुन रहे हो। यहां कोई समाज नहीं सुन रहा है मुझे, पांच सौ व्यक्ति सुन रहे है, प्रत्येक व्यक्ति सीधा मुझे सुन रहा है, मेरे और व्यक्ति के बीच में कोई समाज नहीं है। समाज कामचलाऊ शब्द है। उसका उपयोग करो, मगर ध्यान रखना, समाज की कोई सत्ता नहीं है। समाज का कोई अस्तित्व नहीं है संज्ञामात्र है।
ऐसे ही जैसे हम कहते है- जंगल। जंगल का कोई अस्तित्व थोड़े ही होता है, अस्तित्व तो वृक्षों का होता है। जंगल का तो इतना ही मतलब है-बहुत वृक्ष खड़े है। जंगल का और कोई अर्थ नहीं होता। एक-एक वृक्ष को अलग कर लो, जंगल सफाचट हो जायेगा, कहीं खोजे से न मिलेगा।
तो मैं यह नहीं कह सकता कि समाज की तरह जीवन में क्रांति आ जायेगी। मगर अधिक से अधिक लोग बड़ी से बड़ी संख्याओं में स्वर्ग में प्रवेश कर सकते है। ऐसा इसके पहले कभी भी समायोजन न था, जैसा आज है।
एकाध दिन होली खेलने के पीछे भी मनोविज्ञान है।
यह जो एक दिन की होली है, इस तरह के उत्सव सारी दुनिया में हैं-अलग-अलग ढंग से, मगर इस तरह के उत्सव है। यह सिर्फ इतना बताता है कि मनुष्यता कितनी दुःखी न होगी। एक दिन उत्सव मनाती है और तीन सौ पैंसठ दिन शेष -दुःखी और उदास। यह एक दिन थोडे़ मुक्त-भाव से नाच कूद लेती है। गीत गा लेती है।
मगर यह एक दिन सच्चा नहीं हो सकता। क्योंकि बाकी पूरा वर्ष तो तुम्हारा और ही ढंग का होता है। न उसमें रंग होता है, न गुलाल होती है। तुम पूरे वर्ष तो मुर्दे की तरह जीते हो और एक दिन अचानक नाचने को खड़े हो जाते हो! तुम्हारे नाच में बेतुकापन होता है। तुम्हारे नाच में जीवंतता नहीं होती। जैसे लंगड़े-लूले नाच रहे हो, बस वैसा तुम्हारा नाच होता है। या जिनको पक्षाघात लग गया है, वे अपनी-अपनी बैसाखी लेकर नाच रहे है, ऐसा तुम्हारा नाच होता है। तुम्हारा नाच जब मैं देखता हूं, होली इत्यादि के दिन, तो मुझे शंकर जी की बारात याद आती है। तुम्हें नाच भूल ही गया है। तुम्हें उत्सव का अर्थ ही नहीं मालूम है। इसलिये तुम्हारा उत्सव का दिन गाली-गलौच का हो जाता है।
जरा देखो, तुम्हारे गैर-उत्सव के दिन औपचारिकता के दिन होते है, शिष्टाचार-सभ्यता के दिन होते है और तुम्हारे उत्सव का दिन गाली-गलोच का दिन हो जाता है! यह गाली-गलौज तुम भीतर लिये रहते होओगे, नहीं तो यह निकल कैसे पड़ती है? यह होली के दिन अचानक तुम गाली-गलोच क्यों बकने लगते हो? और रंग फेंकना तो ठीक है, लेकिन तुम नालियों की कीचड़ भी फेंकने लगते हो। तुम कोलतार से भी लोगों के चेहरे पोतने लगते हो। तुम्हारे भीतर बड़ा नरक है। तुम उत्सव में भी नरक को ले आते हो। और तुम्हारा उत्सव जल्दी ही गाली-गलौच में बदल जाता है। देर नहीं लगती! तुम्हारी असलियत प्रकट हो जाती है। तुम्हारा शिष्टाचार, तुम्हारी औपचारिकताएं सब थोथी है, ऊपर-ऊपर है। गाली ज्यादा असली मालूम होती है। क्योंकि जैसे ही तुम्हें मौका मिलता है, जैसे ही तुम्हें सुविधा मिलती है, तुम्हारे भीतर से गाली निकल आती है। कांटे निकलते है जब तुम्हें सुविधा मिलती है। वैसे तुम बड़े भले मालूम पड़ते हो। वह भलापन तुम्हारा पुलिस के डर से है। वह भलापन तुम्हारा स्वर्ग-मोक्ष-नरक इत्यादि के भय और लाभ से है। तुम्हारा परमात्मा भी एक बड़े पुलिसवाले से ज्यादा और कुछ भी नहीं है तुम्हारी आँखों में। वह तुम्हें डरा रहा है, डंडा लिये खड़ा है, कि सताऊँगा।
लेकिन फिर भी इन सभी रूग्ण समाजों ने एकाध दिन छोड़ रखा है, क्योंकि नहीं तो आदमी पागल हो जायेगा। विकास के लिये ये दिन छोड़े गए है। नहीं तो गंदगी इतनी इकट्ठी हो जायेगी कि आदमी बर्दाश्त न कर सकेगा और एक सीमा आ जायेगी जहां गंदगी अपने से ही बहने लगेगी। एक सीमा है, उसके बाद वह ऊपर से बहने लगेगी। ये असली उत्सव नहीं है। रंग वगैरह फेंकना ऊपर है, भीतर हिंसा है।
मेरी दृष्टि में, जीवन पूरा उत्सव होना चाहिये। फिर होली इत्यादि की जरूरत न रहेगी। दीवाली एक दिन क्या? साल भर दिवाला, एक दिन दीवाली, यह कोई ढंग है जीने का? साल भर अंधेरा, एकाध दिन जला दिये! साल भर मुहर्रम, एकाध दिन मना लिया जश्न, पहन लिये नये कपड़े, चले मस्जिद की तरफ! मगर तुम्हारी शक्ल मुहर्रमी हो गई है। तुम लाख उपाय करो, तुम्हारी शक्ल पर मुहर्रम छा गया है। तुम्हारे सब उत्सव इत्यादि थोथे मालूम पड़ते है, ऊपर से मालूम पड़ते है। उत्सव का आधार नहीं है, बुनियाद नहीं है। उत्सवपूर्ण जीवन होना चाहिये।
तुम्हारा जीवन दमित जीवन है। एकाध दिन के लिये तुम्हें छुट्टी मिलती है। जैसे साल भर तो काराग्रह में बंद रहते हो, एकाध दिन के लिये छुट्टी मिलती है, सड़कों पर आकर शोरगुल मचा कर फिर अपने कारागृहों में वापस लौट जाते हो।
अब जो आदमी कभी-कभी सड़क पर आता है साल में एकाध बार, अपनी काल-कोठरी से छूटता है, वह उपद्रव तो करेगा ही। उसके लिये स्वतंत्रता उच्छृंखलता बन जायेगी। लेकिन जो आदमी सदा ही रास्तों पर है, खुले आकाश के नीचे, वह उपद्रव नहीं करेगा।
मैं चाहता हूँ, तुम्हारा पूरा जीवन उत्सव की गंध से भरे, तुम्हारे पूरे जीवन पर उत्सव का रंग हो, इसलिये तुम्हें रंग रहा हूँ। यह मेरा गैरिक रंग तुम्हारे जीवन को उत्सव में रंगने के लिये प्रयास है। यह गैरिक रंग सुबह ऊगते सूरज का रंग है। यह गैरिक रंग खिले हुये फूलों का रंग है। यह गैरिक रंग अग्नि का रंग है- जिससे गुजर कर कचरा जल जाता है और सोना कुंदन बनता है। यह गैरिक रंग रक्त का रंग है-जीवन का, उल्लास का, नृत्य का, नाच का। इस रंग में बड़ी कहानी है। इस रंग के बड़े अर्थ है।
कुछ चीजें है जो बांटने से बढ़ती है और रोकने से घटती है। परमात्मा तुम्हारे साधारण अर्थशास्त्र को नहीं मानता।
ऐसा समझो कि एक कुआं है, उसमें से तुम रोज पानी भर लेते हो ताजा-ताजा, तो नया ताजा पानी आ जाता है, झरनों से नया पानी आ रहा है। तुम अगर कुंएं से पानी न भरोगे, तो तुम यह मत समझना कि कुंए में पानी के झरने बहते रहेंगे और कुंआ भरता जायेगा, भरता जायेगा और एक दिन पूरा भर जायेगा। कुंए में उतना ही पानी रहेगा। फर्क इतना ही रहेगा-अगर तुम भरते रहे तो ताजा पानी आता रहेगा, कुएं का पानी जीवंत रहेगा। और अगर तुमने न भरा, तो कुएं का पानी सड़ जायेगा, मर जायेगा, जहरीला हो जायेगा। और जो झरने कुएं को पानी दे सकते थे, तुमने भरा ही नहीं, उन झरनों की कोई जरूरत नहीं रही,वे झरने भी धीरे-धीरे अवरूद्ध हो जायेंगे। उन पर पत्थर जम जायेंगे, कीचड़ जम जायेंगे, मिट्टी जम जायेंगी, उनका बहाव बंद हो जायेगा। तुमने हत्या कर दी कुएं की।
मनुष्य एक कुआं है। जैसे हर कुआं सागर से जुड़ा है, नीचे झरनों से, दूर विराट सागर से जुड़ा है, जहां से सब झर-झर कर आ रहा है, ऐसे ही मनुष्य भी कुआं है और परमात्मा के सागर से जुड़ा है। कंजूसी की यहां जरूरत ही नहीं है। लेकिन प्रेम में आदमी डरता है कि कहीं खर्चा न हो जाये!
तुम जितना ज्यादा प्रेम करोगे, उतना ज्यादा प्रेम पाओगे। उतना प्रेम करने की क्षमता बढ़ेगी। उतनी प्रेम की कुशलता बढे़गी। और जितना तुम प्रेम लुटाते रहोगे, उतना तुम पाओगे परमात्मा से नये-नये झरने फूट रहे है और प्रेम आता जाता है। दो, और तुम्हारे पास ज्यादा होगा। रोको, और तुम कृपण हो जाओगे और कंजूस हो जाओगे और सब मर जायेगा, सब सड़ जायेगा। और ध्यान रखना, जो चीज बड़ी आनंदपूर्ण है बांटने में, अगर रूक जाये, सड़ जाये, तो वही तुम्हारे लिये रोग का कारण बन जाती है। जिन लोगों ने प्रेम को रोक लिया है, उनका प्रेम ही रोग बन जाता है, कैंसर बन जाता है।
अब तुम आ गये हो यहां- भूल से आ गये। तुम गलत जगह आ गये। यहां मैं उलीचना सिखाता हूं। यहां मैं बांटना सिखाता हूं। यहां मैं खर्च करने का आनन्द तुम्हें सिखाना चाहता हूं।
अब तुम ऐसा समझो कि गंगा अपने पानी को रोक ले, कि ऐसे सागर में गिर जाऊंगी तो मारी गई। सब पानी खत्म हो जायेगा, ऐसे रोज-रोज गिरती रही सागर में। ये जो करोड़ो-करोड़ो गैलन पानी रोज सागर में डाल रही हूं, खत्म हो जायेगा तो बस सूख जाऊंगी बिलकुल। रोक ले अपने पानी को। तो क्या परिणाम होगा? सड़ जायेगी। सागर में देने से सड़ती नहीं। सागर में पानी उतर जाता है, फिर मेघ बन जाते है, फिर हिमालय पर बरस जाते है, फिर गंगोत्री में बह आते है, एक वर्तुल है। गंगा सागर को देती है, सागर गंगा को दे देता है।
यहां तुम जितना दोगे उतना पाओगे। यहां देना पाने की कला है। नाचो, गाओ, सृजनात्मक होओ।
और तुमने एक मजे की बात देखी? जितना सक्रिय आदमी होता है, उसके पास उतना ही समय होता है और जितने काहिल और सुस्त होते है, उनके पास बिलकुल समय नहीं होता। सुस्त और आलसी से पूछो, वह कहता है, भई, समय नहीं है और सक्रिय आदमी से पूछो, जो बहुत कामों में लगा है, वह हमेशा समय निकाल लेता है।
सुस्त और काहिल, जो बिस्तरों में पड़े रहते है, उनसे अगर तुम कहो कि भई, जरा कर देना यह काम। वे कहेंगे, भई, समय कहां है? वे अपनी शक्ति बचाये पड़े है बिस्तर में, अपनी रजाई ओढ़े- कि कहीं शक्ति खर्च न हो जाये। वही रजाई में मर जायेंगे।
बुद्ध एक गांव में आये। उस गांव के वजीर ने अपने राजा से कहा कि बुद्ध का आगमन हो रहा है- वजीर बूढ़ा था, सत्तर साल की उम्र का था, राजा अभी जवान था, अपनी अकड़ में था, अभी-अभी उसने कुछ जीत भी की थी और राज्य को बढ़ा लिया था-वजीर ने कहा कि बुद्ध आ रहे है, आप स्वागत को चले। उस राजा ने कहा, मैं क्यों जाऊं स्वागत को? आखिर बुद्ध एक भिखारी ही है! एक संन्सायी ही है न! आना होगा मिलने तो मुझसे मिलने आ जायेंगे, मैं क्यों जाऊं मिलने को? उस वजीर ने यह सुना, इस्तीफा लिखने लगा। राजा ने पूछा, क्या लिख रहे हो? उसने कहा, यह मेरा इस्तीफा। अब तुम्हारे पास बैठना उचित नहीं। अब मैं इस महल में नहीं रूक सकता। क्यो? राजा ने पूछा। उस वजीर ने कहा, जिस राजा को यह ख्याल आ जाये कि वह बुद्धों को भिखारी कह सके, उसकी छाया में भी बैठना पाप है, गुनाह है। क्षमा करे मुझे मुक्ति चाहिये।
राजा को बोध आया, बात तो ठीक थी। उसने पूछा, लेकिन तुम मुझे समझाओं तो।
उस वजीर ने कहा, समझना क्या है? बुद्ध भी राजा थे, तुमसे बड़ी उनकी हैसियत थी, तुमसे बड़ा उनका राज्य था और चाहते बढ़ाना तो बहुत बढ़ा सकते थे। उस सबको छोड़ दिया, लात मार दी। तुम अभी पदलोलुप हो, तुम अभी धन के पीछे पागल हो। यह आदमी उस पागलपन के बाहर हो गया। यह तुमसे बहुत आगे है। इसका सम्मान तुम्हें करना ही चाहिये।
तब ऋषियों का एक सम्मान था। क्योंकि लोग ऋषि ही होना चाहते थे। ध्यान रखना, तुम जो होना चाहते हो, उसी का सम्मान तुम्हारे मन में होता है। तब सन्यासियों का सम्मान था। अब नेताओं का और अभिनेताओं का सम्मान है। या तो नेता आए तो भीड़ इकट्ठी होती है, या अभिनेता आये तो भीड़ इकट्ठी होती है। बुद्ध आये तो तुम और अगर उस रास्ते जाते होते तो दूसरे रास्ते निकल जाते हो। कौन झंझट में पड़े? वहा क्यों जाना? अभी तो जिंदगी बहुत पड़ी है। अभी प्रार्थना नहीं करनी है, अभी ध्यान नहीं करना है। अभी ये और ऊँची बातें हमें सुननी नहीं है। अभी तो नीची बातों का पूरा भोग कर लेना है। अभी तुम बुद्ध के पास नहीं जाते। अभी तुम नेता , राजनेता के पास जाते हो।
यह मनुष्य की बड़ी विकृत स्थिति हुई। क्यों जाते हो तुम अभिनेता के पास, तुम फर्क देख लेना। अभिनेता के पास तुम्हें युवक और युवतियों की भीड़ मिलेगी। क्यो? क्योंकि वे सब अभिनेता होना चाहते है और राजनेताओं के पास तुम्हें उन लोगो की भीड़ मिलेगी जो राजनेता होना चाहते है। छोटे-मोटे सही!सरपंच हो जाये, कि मेयर बन जाये, कि मिनिस्टर हो जाये, कि कुछ भी हो जाये। चार आदमियों की गर्दन पर हाथ आ जाये अपना। कब्जे में आ जायें।
राजनेता तो आखिरी है। उसके कारण तो मनुष्य-जाति बड़े कष्टों में पड़ी है। सारे युद्ध, सारी हिंसाएं, सारी जालसाजियां, सारी चालबाजियां। पद का आकांक्षी और साधु? लेकिन खुशामद करनी है। मैं किसी स्तुति नहीं कर रहा हूँ। आलोचना भी नहीं कर रहा हूँ। मैं तो जैसा है वैसा कह रहा हूँ।
मनुष्य के भीतर सात केन्द्र है और जब भी एक केन्द्र से ऊर्जा दूसरे केंद्र पर जाती है तो ऐसा है। फिर दूसरे से तीसरे पर जाती है तो फिर ऐसा होता है। हर केंद्र पर यह विस्फोट घटित होगा। घबराना मत और हर विस्फोट के बाद शांति बहुत गहरी हो जायेगी। फिर और विस्फोट होगा और भी शांति गहरी हो जायेगी और अंतिम विस्फोट के बाद शांति ही रह जाती है, कोई व्यक्ति भीतर शांत है, ऐसा नहीं बचता, सिर्फ शांति बचती है। मुक्त कोई नहीं बचता, मुक्ति बचती है। कोई व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, ऐसा नहीं, बस ज्ञान ही शेष रह जाता है। रोशनी रह जाती है। शुद्ध प्रकाश रह जाता है।
शुभ घटना घटी थी और घटेगी। लेकिन घटाने की अपनी तरफ से चेष्ठा मत करना, अन्यथा नकली होगी। प्रतीक्षा करना धैर्यपूर्वक। ध्यान जारी रखो और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करो और जब भी ऐसा घटे तो रूकावट मत डालना, उसे घट जाने देना। दो चार दिन में फिर सब शांत हो जायेगा और हर घटना तुम्हारे जीवन को नई रोशनी, नया अर्थ, नई संजीवनी दे जायेगी।
मेरे पास रहोगे तो वह जो विस्फोट घटा है, वह इतनी शीघ्रता से घटेगा, इतनी बार घटेगा कि विक्षिप्त हो जाने का डर है। उसके लिए समय चाहिये। अंतराल से घटना चाहिये।
भटक नहीं रहे हो, किसी गलत दिशा में नहीं जा रहे हो। मैं भेज रहा हूं इसलिये जा रहे हो और जब मैं पाऊंगा कि अब आवश्यकता नहीं है भेजने की, तब यहां रोक लूंगा। अभी वैसी घड़ी नहीं आई है और तुम सौभाग्यशाली हो, क्योंकि ऐसे बहुत कम लोग है जिनको इतनी तीव्रता से घटना घट सकती है कि मुझे खयाल रहे कि कहीं वे पागल न हो जाये! तुम जितना समा सकते हो, जितना पचा सकते हो, उतना ही घटना उचित है। तुम अगर जरूरत से ज्यादा खुल जाओ, तो टूट जाओगे बिखर जाओगे। पागलपन भी हो सकता है, मृत्यु भी हो सकती है।
और कभी-कभी आध्यात्मिक अनुभव का लोभ ऐसा पकड़ता है कि जरूरत से ज्यादा ले लेने का मन हो जाता है। मुझे खयाल रखना पड़ेगा कि तुम्हें जरूरत से ज्यादा न मिल जाये। नहीं तो अपच होगा।
और इसका भय मत करो, लगाव कम हो रहा है, यह अच्छा है। लगाव कम हो, आसक्ति कम हो, तो ही प्रेम शुद्ध होता है। प्रेम के मार्ग में लगाव ही बाधा है, आसक्ति ही बाधा है। आसक्ति और प्रेम विपरीत है। इसलिए आसक्ति के कम होने को तुम प्रेम का कम होना मत समझना।
आमतौर से ऐसा ही हम समझते है कि आसक्ति प्रेम है। तो आसक्ति कम हो रही है तो कहीं प्रेम तो कम नहीं हो रहा है? चिंता समझ में आने जैसी है। पर भय करना। प्रेम बात ही है। आसक्ति के परिपूर्ण चले जाने पर उदय होता है प्रेम का । आसक्ति अशुद्धि है प्रेम में। जब आसक्ति बिलकुल नहीं रह जाती, तब प्रेम परिपूर्ण शुद्ध होता है, तब प्रेम प्रार्थना हो जाता है।
अच्छा है, आसक्ति कम होती चली जाये। आसक्ति कम होनी ही चाहिये।
तुम्हारा मन परमात्मा में अटक रहा है, उलझ रहा है, यह अच्छी बात है। पीड़ा भी बहुत होगी। संताप भी बहुत होगा। क्योंकि जिनको परमात्मा का कुछ पता नहीं है, उन्हें गहरी पीड़ा का भी पता नहीं है। उनके सुख भी उथले है, उनके दुःख भी उथले है। अब जिसको धन मिलने से सुख मिलता हो, उसका सुख भी उथला है, उसको धन ने मिलने से दुःख मिलेगा, उसका दुःख भी उथला है। इस संसार के सुख- दुःख, दोनो ही उथले है। परमात्मा के साथ सुख भी गहरा होता है, दुःख भी गहरा होता है। विरह भी गहरा होता है, तभी तो मिलन गहरा हो पाता है। अच्छा हुआ। तुम अब अटके हो, इससे पीड़ा होगी।
जैसे झुरमुट में चांद अटक जाता है, ऐसे ही मन आकाश में अटकने लगता है। तब अड़चन होती है, तब बेचैन होती है। क्योंकि कैसे पहुंचे उस दूर परमात्मा तक जिसमें मन उलझ गया है? कैसे पहुंचे उस चांद तक जो झुरमुट में अटका मालूम होता है? मालूम तो होता है पास है, पर बहुत दूर है। और दूरी खलती है। तब स्वाभाविक आकांक्षा उठनी शुरू होती है-जल्दी हो जाये!अभी हो जाये! अब देर न करो! अब देर न लगाओ!
मगर जब जो होना है और जब जो होना चाहिये तभी होना चाहिये। कच्चा फल गिर जाये तो सड़ जायेगा। पकना चाहिये। कच्ची कली तोड़ लो, फूल न बन पायेगी। फूल बनना चाहिये। हर चीज की प्रौढ़ता है। हर चीज के पकने का एक क्षण है। और हर चीज का एक मौसम है। इस प्रतीक्षा को आनंदपूर्ण बनाओ। आकांक्षा छोड़ो, प्रतीक्षा करो।
प्रार्थना का रोग लग गया, अच्छा हुआ। अब एक रोग और लगाओ, प्रतीक्षा का। क्योंकि प्रार्थना अगर अकेली हो और प्रतीक्षा न हो, धैर्य न हो, तो फिर बड़ी बेचैनी हो जाती है। उस बेचैनी को संभालना असंभव हो जाता है। प्रार्थना के साथ-साथ प्रतीक्षा की कला भी सीखो।
प्रतीक्षा को मधुर बनाओ। प्रतीक्षा का माधुर्य समझो। इंतजार का मजा है। परमात्मा की याद है। परमात्मा की प्रतीक्षा है। पुकारो, रोओ, राह देखो। राह भी मधुर है। विरह भी प्यास है। इस भाव को संजोओ। इस भाव को जगाओ। इस भाव में रचो-पचो। और जितनी गहरी प्रतीक्षा होगी, उतनी जल्दी घटना घट जाती है और जितना अधैर्य होगा, उतनी देर लग जाती है।
इस सूत्र को स्मरण रखना। जितना अधैर्य, उतनी देर। जितना धैर्य, उतनी जल्दी। अगर अनंत प्रतीक्षा हो कि अनंतकाल में भी आओगे तो मैं राह देखूंगा, तो इसी क्षण भी आना हो सकता है। मगर अनंत धैर्य हृदय में जब खिलता है तो फिर परमात्मा को और देर करने का कोई कारण नहीं रह जाता। अनंत धैर्य खबर है कि पक गये तुम।
कहते हो, ‘आपको सुन-सुन कर भक्ति का यह रोग लग गया, अब धैर्य नहीं रखा जाता। आकांक्षा होती है बस सब अभी हो जाये।’
मैं समझता हूँ, ऐसा ही होता है। लेकिन समझ को और निखारो। ऐसा होना स्वाभाविक तो है, लेकिन यही स्वाभाविक बाधा बन जायेगा।
फिर क्या होता है आदमी जब बहुत अधीर हो जाता है?
तो दो ही बातें है। या तो एक सीमा आ जाती है, अधैर्य को सहना मुश्किल हो जाता है, वह सोचता है, छोड़ो, यह सब होता-जाता नहीं, न कोई परमात्मा है, न कोई प्रार्थना है, मैं भी कहां की झंझट में पड़ गया! या तो यह होता है। और या फिर अधैर्य इतना हो जाता है कि आदमी टूट जाता है, बिखर जाता है, विक्षिप्त हो जाता है। दोनों हालत में बात चूक जाती है।
शक्ति को प्रार्थना में लगाओं, और कब आना, यह उस पर छोड़ दो। इसको ही मैने कल उत्क्रांति कहा। तुम प्रार्थना करो-उतना प्रयत्न-और फिर परमात्मा पर छोड़ दो, जब जो होना हो! फलाकांक्षा न करो। उतना प्रसाद। प्रार्थना, प्रयास, और फिर प्रतीक्षा, फिर उसका प्रसाद। जब देगा। योग्य समझेगा तब देगा। शिकायत मत करो।
ऐसा कभी नहीं हुआ है कि जब भी कोई व्यक्ति योग्य हुआ हो और क्षण भर की भी देरी हुई हो।
तुमने कहावत सुनी है, उसके घर देर है, अंधेर नहीं। मैं तुमसे कहता हूं, न अंधेर है, न देर है। जिसने यह कहावत रची होगी, वह अधैर्य में पड़ गया होगा। तो उसने कहा होगा- बड़ी देर हो रही है। अभी आस्था नहीं खोई है, तो कहता है-अंधेर नहीं है, अभी आशा है, कहता है- कभी न कभी मिलेगा, लेकिन बड़ी देर हो रही है! मगर देर में सिर्फ तुम्हारा अधैर्य प्रकट हो रहा है। कभी देर नहीं होती। सब समय पर घट जाता है। इस भाव को गहरा होने दो।
एक रोग लग गया, अब दूसरा और लगा लो। वे दोनों रोग एक-दूसरे को संतुलित कर देंगे। और तुम्हारी शांति खंडित न होगी और तुम्हारी प्रार्थना निरंतर बढ़ती रहेगी और तुम्हारी प्रार्थना विक्षिप्त न होगी। तुम्हारी प्रार्थना एक दिन विमुक्ति बन जाये, उसके लिये यह जरूरी है कि तुम धैर्य का पाठ भी सीखो।
परम् पूज्य सद्गुरू
कैलाश श्रीमाली जी
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